________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४७०)
अष्टांगहृदय। ...
वस्त्र ओढना, निर्धूम प्रज्वलित अंगारों द्वारा | में सुश्रुत तथा अन्य आचार्यों का मत भिन्न प्रदीत अंगीठी, मद्य, त्रिकुटा मिला हुआ | है, वह ग्रंथके बढ़ने के भयसे नहीं लिखा तक्र, कुलथी, ब्रीहि, कोदों, तथा अन्य | गयाहै । स्थानानुपूर्वी चिकित्सा का यह मतपित्तकारक द्रव्यों का सेवन वह मनुष्य । लबहै कि ज्वरकारी दोष प्रथम आमाशय में करेजिसको जाडे की कपकपी लगरही हो, । स्थित होतेहैं, इसलिये पहिले आमाशयस्थ तथा विभ्रमभूषणा, पीनस्तनी, यौवनमद से दोष को जीतना चाहिये, तदनंतर पक्काशमतवाली प्रिय कामिनीगणों का दृढालिंगन । यस्थ दोषका प्रकार करना चाहिये । करे । इस तरह शीत के दूर होने पर | सन्निपात के अन्तमें कर्णमूल । संभोग की अभिलाषा को रोकने के लिये सन्निपातज्ज्वरस्यांते कर्णमूले सुदारुणः ॥ उन स्त्रियों को उसके पास से हटादेवं । शोफः संजायते तेन कश्चिदेव प्रमुच्यते । ' सभिपात की चिकित्सा । अर्थ-सन्निपात ज्वरके अंतमें कानोंकी वर्धनेनैकदोषस्य क्षपणेनोच्छ्रितस्य च ॥ | जड़में जो भयंकर सूजन होजाती है उस कफस्थानानुपूा वा तुल्यकक्षान्जेयन्मलान् | सूजनसे स्यात् कोई कभी मुक्ति पाताहै, यह - अर्थ-विषमदोषज सन्निपात में अर्थात् मोती जिस सन्निपात में दोषोंका न्यूनाधिक्य हो
कर्णमूल की चिकित्सा ।। उसमें एक क्षीण दोष अथवा दो क्षीण दोषों | रक्तावसेचनैः शीघ्रं सर्पिः पानश्च तं जयेत्॥ को बढाकर तथा एक उच्छ्रित दोष वा दो । प्रदेहैः कफपित्तघ्नैर्नावनैः कवलग्रहैः । उच्छ्रित दोषों को घटाकर तथा तुल्य प्रकु
अर्थ-कर्णमूल नामक सूजन के उत्पन्न पित तीनों दोषोंकी कमानुपूर्वी वा स्थानानु- होतेही जोक आदि लगाकर रुधिर निकाल पूर्वी चिकित्सा करके सन्निपात का जय करै । डाले तथा कफपित्तनाशक घृतपान, प्रदेह, कफानुपूर्वी चिकित्सा का यह मतलबहै कि | नस्य और कवलधारण से शीघ्रही चिकित्सा पहिले कफको, फिर पित्तको और फिर बात
कर्णमूल में सिरामोक्षण । का शमन करे । कहा भी हैं ,, स्थानतः
शीतोष्णास्निग्धलक्षाद्यैर्वरोयस्यनशाम्यति। कोचिदिच्छन्ति प्राक् तावच्च्लेष्मणो बधम् ।
शाखानुसारी तस्याशु मुचद्वाहूवोः क्रमाशिरस्युरासि कंठे च प्रलिप्तेऽन्नेरुचिः कुतः ।
छिराम् । तंदभावे कथं भोज्यपानद्रव्यविचारणा । अस- ___ अर्थ-शीतवीर्य, उष्णवीर्य, स्निग्ध और त्यभ्यवहारे च कुतो दोषविनिग्रहः । तस्मा- रूक्षादि सब प्रकार की औषधोंके जो पृथकर दादौ कफो घात्यः कायद्वारार्गलोहिसः । मध्य वात, पित्त, कफ तथा संसर्गज और सनिस्थायि यतः पित्तमाशुकारि च चिंत्यते । अ- पातज ज्वरको शमन करनेवाली है, इनका तो वातसखस्यास्य कुर्यात्तदनुनिग्रहम् । अ- | सभ्यक् प्रयोग किये जानेपर भी ज्वर की धस्थायीचतदनु निग्राह्यः स्यात्समीरणः । इस [ शांति नहो उसको प्रथम एक वामें फिर
| करै ।
For Private And Personal Use Only