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(६१८)
अष्टांगहृदय ।
प्र. १४
रक्तजगुरुम में तिलका काढा। । लशुनमदिरांतीक्ष्णांमत्स्यांश्चास्यप्रयोजयेत तिलक्वाथो घृतगुडव्योषभार्गीरजोन्वितः।।
| वस्तिं सक्षीरगोमूत्रं सक्षारं दाशमूलिकम् ॥ पानं रक्तभवे गुल्मे नष्टे पुष्पे च योषितः॥ अर्थ-क्षार अथवा सेहड के दूध में __ अर्थ-स्त्रियों के लिये रक्तज गुल्म में | संयुक्त किये हुए तिलों का कल्क योनि में घी, गुड, त्रिकुटा, भाडंगी, डालकर तिल | रक्खै । अथवा क्षार वा सेंहुह के दूध से का काढा पान करावै । जिन स्त्रियों का भावना दिये हुए कटु मत्स्य को योनि में रज नष्ट होजाता है उनको भी यही देना धरै । अथवा शूकर वा मछली के पित्तेकी चाहिये।
भावना दिये हुए कंजे योनि में धेरै अथवा अन्य प्रयोग।
योनिकी शुद्धि के लिये सुरावीज, गुड और भार्गी कृष्णा करंजत्वग्ग्रांथिकामरदारुजम् । खार मिलाकर रक्खै । अथवा रक्तपित्तनाचूर्ण तिलानां काथन पीतं गुल्मरुजापहम् ॥ | शक क्षारको घी और शहत के साथ चाटै अर्थ-भाडंगी, पीपल, कंजा की छाल,
अथवा लहसन, तीक्ष्ण मद्य, और मत्स्य पीपलामूल और देवदारु इनका चूर्ण तिलके
खाने को दे अथवा कल्पस्थान में कहीहुई काढे के साथ पीने से गुल्मरोग प्रशमित
दूध, गोमूत्र और जवाखार से संयुक्त दशहोजाता है। अन्य प्रयोग।
मूल के काढ़े की वस्ति का प्रयोग करे । पलाशक्षारपात्रे द्वे द्वे पात्रे तैलसर्विषोः ।
अवर्तमान रुधिर में कर्तव्य । गुल्मशथिल्यजननी पक्त्वा मात्रांप्रयोजयेत्
अवर्तमाने रुधिरे हित गुल्मप्रभेदनम् । ___ अर्थ-ढाक का खार दो पात्र, तेल और
____ अर्थ-जो रक्त का लाब न हो तो वे घी दो पात्र इनको चौगुने जल में पकाकर
औषध देनी चाहिये, जिनसे गुल्म विदीर्ण मात्रानुसार सेवन करने से रक्तगलम शि- होजाय ।। थिल होजाता है।
प्रवृत्तरक्त में कर्तब्य । योनिविरेचन ।
| यमकाभ्यक्तदेहायाः प्रवृत्ते समुपेक्षणम् ॥
| रसौदनस्तथाऽहारः पानं च तरुणीं सुरा। नप्रभिधेत यद्येवं दद्याद्योनिविरेचनम्। ___ अर्थ-इन उपायों से भी यदि रक्तगुल्म
___ अर्थ-रक्त के प्रवृत्त होने पर औषधकी न फूटै तो योनिविरेचन देना चाहिये ।
उपेक्षा करना चाहिये । रोगी को केवल धी
और तेल से अम्यक्त करके मांसरस के साथ योनिविरेचन विधि। क्षारेण युक्तं पललं सुधाक्षीरेण वा ततः ॥
भोजन कराना हित है और नवीन मद्यपान ताभ्यांवाभावितान्दद्याद्योनी
भी हित है। कटुकमत्स्यकान्।
___ अतिप्रवृत्त रुधिर में कर्तव्य । बराहमत्स्यपित्ताभ्यां नक्तकान्वासुभाषितान् रुधिरेऽतिप्रवृत्ते तु रक्तपित्तहराः क्रियाः । किण्वं वा सगुडक्षारं दद्याद्योनौ विशुद्धये । कार्या वातरुगातीयाः सर्वा वातहराःपुनः । रक्तपित्तहर क्षारं लेहयेन्मधुसर्पिषा ॥ आनाहादाबुदावर्तवलासन्यौ यथयथाम् ॥
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