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२०१४
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
पूरविम्लवेतस क्षारदाडिमम् ॥ व्योषं तकं घृतं तैलं भक्तं पांन तु वारुणी । धान्याम्लं मस्तुतक्रंच यवानीविडचूर्णितम् पंचमूलशुतं वारि जीर्ण माकमेव वा ।
अर्थ - पुराने शाली चांवल, सांठी चांवल, कुलथी, जांगल मांस, कंजा, चीता, अरंनी, अजवायन, वरणा के अंकुर, सहजना, कच्ची बेलगिरी, कच्ची और सूखी मूली, बिजौरा, हींग, अम्लवेत, जवाखार, अनार, त्रिकुटा, तक्र, घृत, तेल ये सब द्रव्य आहार के अर्थ प्रयुक्त करै । तथा वारुणी, धान्याम्ल, मस्तु, तक, तथा अजवायन और विडनमक डालकर पंचमूल का और पुराना मार्दीक मद्य पीने को दे ।
काढा,
अन्य प्रयोग |
पिप्पलीपिप्पलीमूलचित्रका जाजि सैंधवैः ११२ सुरा गुल्मं जयत्याशु जांगलश्च विमिश्रितः
अर्थ- पीपल, पीपलामू, चीता, जीरा, सेंधानमक इनसे संयुक्त सुरा अथवा जांगल मांस गुल्मको दूर करनेवाले हैं । गुल्म में दाह ।
वमनैर्लघनैः स्वेदैः सर्पिःपानैर्विरेचनैः । ११६ । बस्तिक्षार सवारिष्टगुल्मिकापथ्यभोजनैः । लैमको बद्धमूलत्वाद्यदि गुल्मो न शाम्यति । तस्य दाहं हृते रक्ते कुर्यादंते शरादिभिः ।
अर्थ- बमन, लंघन, स्वेदन, वृतपान, विरेचन, वस्तिकर्म, क्षार, आसव, अरिष्ट, और गुल्म में पथ्य भोजन इन सब कामों के करने पर भी जड़ पकड़ा हुआ कफज गुल्म यदि शांत न हो तो गुल्म का रक्त निकालकर शरादि द्वारा दग्ध करना चाहिये ।
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(६१७.)
दाहविधान |
अथ गुल्मं सपर्यंत वाससांतरितं भिषक् ॥ नाभित्रस्त्यंत्र हृदयं रोमराजीं च वर्जयेत् । नातिगाढं परिमृशेच्छरेण ज्वलताऽथवा ॥ लोहेनारणिकोत्थेन दारुणा तेंदुकेन वा ।. ततोऽग्निवेगे शमिते शीतैर्व्रण इव क्रिया ॥
अर्थ - नाभि, वस्ति, अंत्र, हृदय और रोमराजी को बचाकर किनारों तक गुल्मको कपडे से ढककर जलते हुए सरकंडे से गुल्म को हलका दग्ध करदे | अथवा लोहे की शलाका सेवा अरनी की लकड़ी से अथवा तिंकी लकड़ी से दग्ध करें तदनंतर अग्नि के वेग शांत होनेपर शीतल लेपादि द्वारा घाबकी तरह चिकित्सा करै । आमान्वय में कर्तव्य । आमान्वये तु पेयाद्यैः संधुक्ष्याग्निं विलंघिते । स्वं स्वं कुर्यात्क्रम मिश्रं मिश्रदोषे चकालवित् ॥ ११८ ।।
अर्थ - गुल्मरोग में आमका संबंध होने पर अन्य पथ्य न देकर पेयादि द्वारा जठराग्नि के बढाने का यत्न करै। तत्पश्चात् वातादि दोषोंकी यथायोग्य चिकित्सा करै । मिश्र दोषोंमें मिश्रचिकित्सा करनी चाहिये ।
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arat स्नेहविरेचन | प्रसवकालायै नायै गुल्मेऽस्रंसभवे । स्निग्धस्विन्नशरीरायै दद्यात्स्नेहविरेचनम् ॥ अर्थ - प्रसवकाल अर्थात् दसवां महिना बीत जानेपर स्त्रियोंको रक्तगुल्म में स्नेहन स्वेदन करने के पीछे स्नेहविरेचन देवै । बहुत काल पीछे चिकित्सा करने में कुछ हानि नहीं होती है क्योंकि पुराना रक्तगुल्म ही सुखसाध्य होता है ।