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म. १५
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६२५),
प्रायोत्लेशान्निवर्तेत बले लब्धे मात्पयः । पित्तज उदररोग की चिकित्सा ।
अर्थ-संसर्जन अर्थात् पेया पानादि क्र- बलिनं स्वादुसिद्धेन पैत्ते सनेह्य सर्पिषा ।। म के पीछे बल बढाने के निमित्त दध पान | श्यामात्रिभडीत्रिफलाविपक्केन विरेचयेत्। कराना चाहिये । बल प्राप्ति के पीछे कफका
सितामधुघृतान्येन निरूहोऽस्य ततोहितः॥ संचय होने से पहिले दूध पीना छोड
न्यग्रोधादिकषायेण वस्तिश्च तच्छृतः। देना चाहिये।
___ अर्थ-पित्तज उदररोग में रोगी यदि उदरेरागमें वस्तिप्रयोग ।
ऐसा बलवान् हो कि औषधके' वेगको सह यूषे रसैर्वा मंदाम्ललवणैरोधितानलम। | | सकता हो तो मधुर वोक्त औषधों से सिद्ध सौदावर्त पुनः स्निग्धं स्विन्नमास्थापयेत्ततः किये हुए घृत द्वारा स्निग्ध करके विरेचन तीक्ष्णाऽधोभागयुक्तेन दाशमूलिकवस्तिना
के लिये श्यामानिसोथ, निसोथ, और त्रिअर्थ-जो उदररोगमें उदावर्त भी हो तो
फला के काढे में पकाया हुआ घी देवै । प्रथम ही थोडीसी खटाई और नमक मिला
तदनंतर न्यग्रोधादि गणोक्त द्रव्यों के काढेमें कर यूष वा मांसरस पान कराके अग्नि को
मिश्री, शहत और घी प्रमाण से अधिक प्रवल करें। फिर स्नेहस्वेद द्वारा रोगीको
मिलाकर इसके द्वारा निरूहण देवै । तथा स्निग्ध और स्वेदित करके कल्पस्थानमें कही
इसी न्यग्रोधादि काढे से पकाई हुई स्नेहहुई अधोभाग से संयुक्त और दशमूल के
वस्ति अनुवासन में हित है। काढेकी तीक्ष्ण निरूण वस्ति देवै । उदररोगमें अनुवासन।
दुर्बलको अनुवासनवस्ति । तिलोरुबूकतैलेन वातघ्नाम्लतेन च ॥
| दुर्वलं त्वनुवास्यादौ शोधयेत्क्षीरवस्तिभिः
जाते त्वाग्निबले निग्धं भूयो भूयो विरेचयेत् स्फुरणाक्षेपसंध्यस्थिपार्श्वपृष्ठत्रिकार्तिषु ।
क्षीरेण संत्रिवृत्कल्केनोरुबूकशृतेन तम् ॥ रूक्षं बद्धशद्वातं दीप्ताग्निमनुबासयेत् ॥
सातलात्रायमाणाभ्यां शृतेनाऽऽरग्वधेन वा अविरेच्यस्य शमना वस्तिक्षीरघूतादयः।
सकफेवा समूत्रेण सतिक्ताज्येन सानिले ॥ ___ अर्थ-तिल और अरंडके तेलमें बातना- | पयसान्यतमेनैषां बिदार्यादिशृतेन वा। शक और अम्ल द्रव्य मिलाकर अनुबासन | भुंजीत उठरं चाऽस्य पायसेनोपनाहयेत् ॥ वस्तिका प्रयोग उस दशामें किया जा- | अथे- दुबेल रोगी को प्रथम अनुवासन ता है, जब रोगी स्फुरण, आक्षेप. तथा संधि | वस्ति देकर क्षीरवस्ति द्वारा विरेचन देवै. अस्थि, पसली, पीठ, और त्रिक इनकी वेद- फिर जठराग्नि के बलवान होजाने पर स्निग्ध ना से युक्त हो तथा रूक्षता, मल और वा- | रोगी को वार वार विरेचन देव । विरेचन यु की विबद्धता और दीप्ताग्नि हो । यदि
| के लिये निसोथ के चूर्ण के साथ, अथवा रोगी विरेचनके योग्य न हो तो शमन क- अरंडी के तेल के साथ, वा सातला और रने के लिये वस्ति, दूध और घृतादि का प्र-त्रायमाणा के साथ, वा अमलतास के साथ योग करना चाहिये ।
| भौटाया हुआ दूध देवै कफान्वित पित्तज
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