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अष्टांगहृदय ।
करताहै, जैसे आजही प्रथम सेवन करताहै । है । ऐसी पूर्वोक्त गुणोंसे युक्त सुराको बिधि जिस सुराके दर्शनमात्रसे ही शोक उद्वेग | पूर्वक वही लोग पी जिनको धर्मशास्त्रके अरति और भय पराभव नहीं करसकते हैं, अनुसार पानेका अधिकारहै । जिस सुराके बिना गोष्ठी, महोत्सव और | विधियुक्त मद्यके गुण । उद्यान शोभा को प्राप्त नहीं होतेहैं, जिस | संभवंति च ते रोगा मेदोऽनिलकफोद्भवाः । सुराके न मिलने से बार बार याद करके |विधियुक्तादृते गद्यात्ते न सिध्यंति दारुणाः ॥ उसका अभ्यासी मनुष्य शोकसागर में नि- अर्थ-मेद, वायु, और कफके विकारों मग्न होजाताहै । जो सुरा अप्रसन्ना अर्थात्
से जो दारुण रोग उत्पन्न होजाते हैं वे कलुषा होनेपर भी प्रसन्ना अर्थात् स्वच्छ
विधिपूर्वक अप्रयोजित मद्यके बिना अच्छे होने के कारण स्वर्ग ही प्रतीत होती है। नहीं होते हैं, अर्थात् उक्तरोगों के शमन जिस सुराके हृदयके भीतर स्थित होनेपर
के लिये मद्यका विधिपूर्वक पान आवश्यकीयहै। इन्द्र भी दुखित प्रतीत होताहै । जिस सुरा निगदमद्यपान की विधि । के आस्वाद का सुख वर्णनातीतहै, जिसके
| अस्ति देहस्य सावस्थां यस्यां पान निवार्यते ।
अन्यत्र मद्यान्निगदाद्विविधौषधसंभृतात् ॥ सुखका अनुभव केवल अपने आत्माही से
अर्थ-देहकी एक वह भी अवस्था है जाना जाताहै । जो सुरा पूर्वोक्त विविध जिसमें देहकी प्रक्लिन्नता और मेहादि रोगों प्रकार से सेवन किये जानेपर प्राणवल्लभा । की प्रबलता के कारण मद्यपान वर्जित है, का अनुकरण करती है x। जिसके कारण परन्तु ऐसी अवस्था में भी अनेक प्रकार सुराप्रेमी की प्रिया प्रत्यन्त प्रियता को प्रा- | की औषधों से संस्कृत निगद नामक मद्य प्र होती है, जो सुरा प्रीतिहे, जो रतिहै जो । का प्रयोग किया जासकता है। बाणी है, जो पुष्टिहै और जिसकी देव,दानव भक्तमांस में मद्यपान । गंधर्व, यज्ञ, राक्षस और मनुष्य स्तुति करते आनूयं जांगलं मांसं विधिनाऽत्युपकाल्पितम्
+ प्रियापक्ष में प्रणयकलह, अप्रसन्ना अर्थात् कुपिता, प्रसन्ना अर्थात् त्यक्त कोपा। अनिर्देश्यःसुखास्वादः अर्थात् वर्णनातीत सुखोपलंभ, इसीतरह तृणवत्पुरुषा, शीलयित्वा इत्यादि अर्थ भी प्रियापक्षमें योजनीयहै, जैसे जिस प्रियाके कारण मनुष्य तिनके को तरह अपने प्राणों को त्याग देताहै, बहुत काल तक सेवन करने पर नित्य नवीन समागम की तरह आनंदित होताहै, जिसे देखकर शोक, उद्वेग अरति और भय दूर भाग जातेहैं, जिसके बिना हंसना, बोलना, विवाहादि महोत्सव और बाग बगीचेका प्ररिम्रमण फीका जचताहै, जिसके विरह में याद आ आ कर मन शोक सागरमें गोते मारने लगता है अप्रसन्न होनेपर प्रीति भरी उमगों से प्रसन्न होती दुई स्वर्ग का अनुभव कराती है। हृदयस्थितथा अर्थात् जिसके हृदयगामिनी होनेपर इन्द्रका इंद्रत्व भी तुच्छ मालूम होता है, जिसका सुखास्वाद अर्थात् जिसके सामीप्यका सुख और आस्वाद अर्थात् जायका वर्णनसे बाहर है । इसतरह सुरा सब भांति प्राणवल्लभा का अनुकरण करती है।
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