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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५८५).
जाती है, वैसेही स्नेहयुक्त पथ्य आहारादि । भस्मक आग्निका शमनोपाय। के सेवन से कोष्ठाग्नि तीव्र और स्थायी तमत्यग्निं गुरुस्निग्धमंदसांद्राहिमस्थिरैः॥ होजाती है।
अन्नपाननयेच्छांति दीप्तमाग्निमिवांबुभिः। भोजनातिभोजनसे नष्टाग्नि ।
अर्थ-उस भस्मकाख्य अत्यग्निको गुरु ना भोजनेन कायाग्निर्दीप्यते नाऽतिभोजनात् । स्निग्ध, मंद, सान्द्र, हिम और स्थिर अन्नयथा निरिंधनो वह्निरल्पो वाऽतींधनान्वितः पान द्वारा शमन करना चाहिये जैसे प्रज्व
अर्थ-भोजन न करने से वा अतिभो- लित अग्नि जलसे बुझाई जाती है। . जन करने से कोष्ठाग्नि ऐसे नष्ट होजातीहै, । अजीर्णमें भोज्यादि। . जैसे वाह्याग्नि ईधन न मिलने से नष्ट हो मुहुर्मुहुरजीर्णेऽपि भोज्यान्यस्योपहारयेत्॥ जाती है वा अल्प अग्नि बहुत से ईंधन से
निरिंधनोंऽतर लब्ध्वा यथैनं न विपादयेत् । दबने के कारण नष्ट होजाती है ।
अर्थ-अजीर्णसे पीडित रोगीको भी बार अग्निवर्धनप्रकार।
बार भोजन देना चाहिये, कहीं ऐसा न हो मटा श्रीरकोप पता कि अन्नके न मिलने से रोगी ऐसे न मरजाप्रवृद्धं वर्धयत्यग्निं तदाऽसौ सानिलाऽनलः। य, जैसे ईधनके न मिलनेसे अग्नि मरजातीहै पक्वान्नमाशु धातूंश्च सर्वानोजश्च
भोजनके योग्यद्रव्य ।
संक्षिपन् । मारयेत्साशनात्स्वस्थो भुक्ते जीणे तु
कृशरां पायसं स्निग्धं पैष्टिकं गुडवैकृतम । ताम्यति ॥ ८२॥
अश्नीयादोदकानूपापिशितानि भृतानि च । तृट्कासदाहमूर्खाद्या व्याधयोऽत्यग्निसंभवाः
मत्स्यान्विंशेषतःश्लक्ष्णान स्थिरतोयचराश्चये ____ अर्थ-कफके क्षीण होने पर जब पित्त
अर्थ-जो रोगी अत्यग्निसे पीडित हो अपने स्थान अर्थात् आमाशय में प्रवृद्ध हो / उसे खिचडी, खीर, स्निग्ध द्रव्य, पिष्टक, कर तथा वायुसे संयुक्त होकर जठराग्निको / गुडके बने पदार्थ, औदक और आनूप जीवों अत्यन्त बढाता है, तब यह वायुसे संधु
का मांस, बराहादि मेदस्वी जीवों का मांस; क्षित जठराग्नि मुक्त अन्नका परिपाक कर विशेष करके इलक्ष्ण मत्स्य तथा स्थिर जल के पचाने के लिये और कुछ न मिलने के | में रहने वाली मछलियां आहारके काममें लावै । कारण संपूर्ण धातुओं को पकाकर और
मेंदे का मांस । ओजःपदार्थ का नाश करके शीघ्रही मनुष्य
आविकं सुभृतं मांसमद्यादत्यग्निवारणम्। को मारडालता हैं । अत्यन्त अग्निवाला
अर्थ -अत्यन्त मेदुर मेढे का मांस खाना मनुष्य भोजन करने से सुस्थ होजाता है
उचित है, यह अत्यग्नि को रोकता है । और भुक्त अन्न के पचने पर उपतप्त हो
दूधका विधान ।
पयः सहमधूच्छिष्टं घृतं वा तृषितः पिवेत् ॥ जाता हैं । अत्यग्नि से तृषा, खांसी, दाह,
वाह, गोधूमचूर्णपयसा, बहुसर्पिः परिप्लुतम् । और मोहादि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। आनूपरसयुक्तान्वा स्नेहांस्तैलविवर्जितान् ।
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