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(१०४)
अष्टांगहृदय ।
अ १४
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Amerintename
द्रोण जलमें पकावै, जब आठवां भाग बच । गुल्मेऽन्यतिकफजे प्लीहिन चायम् विधिः रहे, तब उतार कर छानले । इस काथमें
- स्मृतः।
कनिष्ठिकानामिकयोर्विश्वाच्यांच यतो गदः, तीस पल गुड, अरंडका तेल एक प्रस्थ, घृत
अर्थ-किसी किसी आचार्यका यह मत २ प्रस्थ, दूध दो प्रस्थ तथा पीपल, पीपला
है कि जिस ओर को वृद्धि हो उसी ओर के मूल, सेंधानमक, मुलहटी, द्राक्षा, अजवायन
अंगूठे के ऊपर तंतुके समान जो स्नायु है और सोंठ हर एक दो पल डालकर पकावै ।
| उसे ऊंची करके अर्ध चन्द्राकार सुई से तिइस घृतका नाम सुकुमार घृत है । यह सर्वो
| रछा नश्तर लगाकर अग्निसे जलादे । कोई त्तम रसायन है । वायु, आतप, मार्गगमन,
यह कहते हैं कि जिधरको वृद्धि हो उसके यानादि के परिहार में अयंत्रण है, यह सु
दूसरी ओर के अंगूठेके ऊपर वाली नसको कुमार, ऐश्वर्यवान् और सुखभोगियों के लिये । ऊंची करके पूर्ववत् बेधकर अग्निसे जलादे। उपयोगमें लाया जाता है, यह स्त्रियोंके स- कोई यह कहते हैं कि अनामिका उंगली के मूहों के भर्तारोंकी अलक्ष्मी और कलह का | ऊपर वाली नसको पूर्ववत् दग्ध करै । किसी नाश करने वालाहै यह सब कालों में उपयोग का यह मत है कि वातकफजन्य गुल्ममें करने के योग्य है, यह कांति, लावण्य और और प्लीहा में यह विधि करनी चाहिये । पुष्टिकारक है, तथा वर्भ, विद्रधि, गुल्म, अर्श | | कोई कहतेहैं विश्वाचीरोग जिस ओर हो उयोनि, मेद, वातरोग, सूजन, उदररोग,खुड | सी ओर की कनिष्ठका और अनामिका उंवा त, प्लीहा, पुरीषबिबंध इन सब रोगों में गलियोंके ऊपरवाली नसको पूर्ववत् दग्ध करे। अत्यन्त हितकारी है।
इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा . उक्तरोग में वस्त्यादि। टीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने यायावर्भ नबेच्छांति हरेकानुवासनैः । विद्रधिवृद्धिचिकित्सितं नाम बस्तिकर्म पुरस्कृत्वा वंक्षणस्थ ततो दहेत् ॥
त्रयोदशोऽध्यायः। आग्निना मार्गरोधार्थ मरुतः
अर्थ-स्नेहप्रयोग, विरेचन और अनुवासन द्वारा यदि वर्मरोग शांत न हो तो
चतुर्दशोऽध्यायः । प्रथम वस्तिकर्म करके वायुका मार्ग रोकने के लिये वंक्षणस्थानको अग्निसे दग्ध करदे। अग्निफर्ममें भिन्नमत। ..
अथाऽतो गुल्माचकित्सितं व्याख्यास्यामः। अर्धेदुवक्रया।
अर्थ-अब हम यहांसे गुल्मचिकित्सित नाअगुष्ठस्योपरि सावपीतं तंतुसमं च यत् ॥ |
मक अध्याय की व्याख्या करेंगे । उत्क्षिप्य सूच्या तत्तिर्यग्देहे छित्वा यतो गदः वातज गुल्मकी चिकित्सा ।। ततोऽन्यपार्वेऽन्ये- . | " गुल्मं बद्धशद्वातं वातिकं तीव्रवेदनम् ।
वाहेद्वाऽऽनामिकांगुलेः॥५०॥ तक्षशीतोद्भवं तैलै साधयेद्वातरोगकैः ॥
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