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१९७०]
अष्टांगहृदय
अ०२
त्रायमाण का प्रयोग । नतयष्टयावकल्काज्यक्षौद्रतैलवताऽनु च । पलाशवत्प्रयोज्या बात्रायमाणाविशोधनी॥
नातो भुजीत पयसा जांगलेन रसेन वा ॥ अर्थ-ढाक के फलों के काढे के समान
पित्तातिसारज्वरशोफगुल्म
समीरणास्नग्रहणीविकारान् । ही त्रायमाणा का काढा सेवन करने से भी
जयत्ययं शीघ्रमतिप्रवृत्ति कोष्ठ शुद्ध होजाता है।
विरेचनास्थापनयोश्च बस्तिः ॥ ७५॥ शूलमें अनुवासन ।
अर्थ-सेमर के हरे डंठलों को हरी कुसंसर्या क्रियमाणायां शूलं यद्यनुवर्तते। शाओं से लपेट कर ऊपर से कालीमिट्टी मुतदोषस्य तं शीघ्रं यथावन्ह्यनुबासयेत् ॥ लपेट देवै, फिर उपलों की अग्नि से उसे __अर्थ-उक्त रीति से चिकित्सा द्वारा मल के निकाल देने से कोष्ठ के शुद्ध हो जाने
पकावै, जब मृतिका आग्न के कारण सूख
जाय, तब मिट्टी को दूर करके सेमर के पर भी यदि शूल होताहो तो जठराग्नि के बल के अनुसार उसकी शीध्रही अनुवासन द्वारा
डंठलों को कूट डाले।इसमें से चार तोले लेकर चिकित्सा करनी चाहिये ।
एक प्रस्थ दूध म मर्दन कर और छानकर
स्खले । फिर इसमें तगर और मुलहटी का अनुवासन घृत । शतपुष्पावरीभ्यां च विल्वेन मधुकेन च ।
कल्क तथा घी, शहत और तेल मिलाकर तैलपादं पयोयुक्तं पक्कमन्वासनं घृतम् ॥
रख छोडे इसको निरूहवस्ति के काम में अर्थ-सोंठ, सितावर, वेलगिरी और
लाबै स्नान करके दूध के साथ अथवा मांमुलहटी और दूध इनके साथ तेल से चौ- सरस के साथ भोजन करे । इससे पित्तागुना घी पाक करके अनुवासन के काम में | तिसार, ज्वर, सूजन, गुल्म, बातरक्त,ग्रहणी लावै ।
रोग तथा विरेचन और आस्थापन में जो . पिच्छाबस्ति । दोषों की अत्यन्त प्रवृति होती है उसे भी अशांताबित्यतीसारे पिच्छाबस्तिः परं हितः॥ शीघ्रह । नष्ट कर दता है । . अर्थ-उक्त अनुवासन से भी अतिसार | सर्वातिसार पर प्रयोग । की शांति न होतो पिच्छावस्तिका प्रयोग | फाणितं कुटजोत्थं च सर्वातीसारनाशनम् । करना चाहिये । अल्प मात्रा में जो निरूह
बत्सकादिसमायुक्तं सांबष्टादिसमाक्षिकम् । वस्ति दी जाती है उसको पिच्छावास्त क
| अर्थ-वत्साकादि गण और अंवष्टादि
गणों की औषधों से युक्त कुडा के क्वाथ हते हैं। पित्तातिसार में वस्ति ।
में शहत मिलाकर पीनेसे सब प्रकार के परिबेष्टय कुशैरानैरावृतानि शाल्मले अतिसार जाते रहते हैं। कृष्णमृत्तिकयाऽऽलिप्य स्वेदयद्गोमयाग्निना
अन्य औषध । मृच्छाषे तानि सक्षुद्य तत्पिडं मुष्टिसमितम् निरुङ्गिरामंदीप्ताग्नेरपिसानं चिरोत्थितम् । मर्दयेत्पयसः प्रस्थे पूतेनास्थापयेत्ततः। नानावर्णमतीसारं पुटपाकैरुपाचरेत् । ७७।
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