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यदि क्षयज कास में दोषों की अधिकता हो तो मृदु विरेचन देना चाहिये । विरेचन विधि |
शम्याकेन त्रिवृतया मृद्वीकारसयुक्तया । तिल्वकस्य कषायेण विदारीस्वरसेन च ॥ [ सर्पिः सिद्धं पिबेद्युक्त्तया क्षीणदेहो - विशोधनम् ॥ १५२ ॥
अर्थ - कासरोगी का देह यदि क्षीण हो तो युक्तिपूर्वक अमलतास से अथवा द्राक्षारसयुक्त निसोथ से, सावरलोध के क्वाथ से और विदारीकंद के रस से सिद्ध किया हुआ घृत विरेचन के लिये देना चाहिये |
अष्टांगहृदय |
धातुक्षय में घृत | पित्त कफे धातुषु च क्षीणेषु क्षयकासवान् ॥ घृतं कर्कटकी क्षीरद्विबलासाधितम् पिबेत् । अर्थ-क्षयज खांसी में पित्त, कफ और धातुओं के क्षीण होने पर काकडासींगी, दूध, बला और अतिबला इनसे सिद्ध किया हुआ घी देना चाहिये ।
मूत्रपद्रव में चिकित्सा । विदारीभिः कदंबैर्वा तालसस्यैश्च साधितम् घृतम् पयश्च मूत्रस्य वैवर्ण्यं कृच्छ्रनिर्गमे ।
अर्थ - खांसी के रोग में यदि मूत्र के रंग में विवर्णता हो और निकलने में कष्ट होता हो तो विदार्यादि कंद, कदवादि अथवा तालफलादि से सिद्ध किया हुआ घी वा दध पीना चाहिये ।
कासरोग में अनुवासन । शूने सवदने मेढे पायौ सश्रोणिवंक्षणे ॥ घृतमण्डेन लघुनाऽनुवास्यो मिश्रकेण वा । अर्थ - कासरोग में यदि मेहू, गुदा, श्रोणी
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और वंक्षण में सूजन और वेदना हो तो लघु घृतमंड से अथवा घी और तेल मिलाकर अनुवासन देना चाहिये ।
कासरोग में मांसादि सेवन | जांगलैः प्रतिभुक्तस्य वर्तकाद्या बिलेशयाः ॥ क्रमशः प्रसहातद्वत्प्रयोज्याः पिशिताशिनः । औष्ण्यात्प्रमाथिभावाच्च
स्त्रोतोभ्यश्च्यावयंति ते ॥ १५६ ॥ कफम् शुद्धैश्च तैः पुष्टिं कुर्यात्सम्यग् वहन्रसः । 39 अर्थ - अनुवासन के पीछे कासरोगी को हरिण वा वकरा अथवा अन्य ऐसेही जांगल जीवोंका मांस पथ्यमें देवै, तदनंतर वर्तकादि प्रसहपक्षी और फिर द्वीपिव्याघ्रादि मांसाहारी पशुओं का मांस, क्रमसे सेवन करे । प्रसह जीवों का मांस उष्णवीर्य और प्रमाथी x है, इसलिये वह कफसे रिहसे हुए संपूर्ण स्रोतों के कफको निकालकरं स्रोतों को शुद्ध करदे ता है । और स्रोतोंके शुद्ध हो जाने पर रस धातु उनमें सम्यक् रीतिसे बहता हुआ देह की पुष्टि संपादन करता है ।
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अन्य कासनाशक घृत । चविकात्रिफलाभार्गीदशमूलैः सचित्रकैः ॥ कुलत्थपिप्पलीमूलपाठाकोल यबैर्जले 1
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x खरनादने प्रमाथी के लक्षण यह लि खे हैं कि स्रोतांसि दोषलिप्तानि प्रमथ्य विवृणोति यत् । प्रावेश्य सौक्ष्म्यात्क्ष्ण्याच तत्प्रमाथीति संज्ञितम् ॥ अर्थात् जो संपूर्ण द्रव्य तीक्ष्ण स्वभाव और सूक्ष्म स्रोतोंमें गमनशील होनेके कारण कफादि दोषों से लि
सूक्ष्म स्रोतों में प्रविष्ट होकर उस दोषलिप्त स्रोत के दोषको निकालते हैं उन द्रव्यों को प्रमाथी कहते हैं ।
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