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अष्टांगहृदय |
(५०० )
को उसी काढे में पीस डालै । फिर इसमें छः पल पुराना गुड, पीपल दो पल, मनसिल १ कर्ष और रसौत आधा अक्ष, इनको मिलाकर फिर पकावै, इस अवलेह से श्वास और खांसी जाते रहते हैं । अन्य प्रयोग |
श्वाविधां सूचयो दग्धाः सघृतक्षौद्रशर्कराः । श्वासकासहरा बर्हिपादौ वा मधुसर्पिषा ॥ एरंडपत्रक्षारं वा व्यापतैलगुडान्वितम् । लेहयेत् क्षारमेवं वा सुरसैरंडपत्रजम् ॥ लिह्यात् त्र्यूषणचूर्ण वा पुराणगुडसर्पिषा ॥ पद्मकं त्रिफला व्योषं विडंगं देवदारु च ॥ बला रास्ना च तच्चूर्ण समस्तं समशर्करम् । खादेन्मधुघृताभ्यां च लिह्यात्का सहरं परम् तन्मरिचचूर्ण वा सघृतक्षैौद्र शर्करम् ।
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अर्थ- सेह के कांटों को जलाकर घी, शहत और शर्करा मिलाकर खाने से श्वास और खांसी जाते रहते हैं । अथवा मोर के पंजों की राख घी और शहत के साथ, अवथा अरंड के पत्तों का खार, त्रिकुटा, तेल और गुड मिलाकर अथवा तुलसी और अरंड के पत्तों का | खार त्रिकुटा, तेल और गुड मिलाकर अथवा केवल त्रिकुटा का चूर्ण, पुराना गुड और 'घी अथवा पदमाख, त्रिफला, त्रिकुटा, वायबिडंग, देवदारु, बला, रास्ना, इन सबको समान भाग लेकर पीस ले और इन सब की बराबर शर्करा मिलाकर शहत और घीके साथ, अथवा पिसी हुई कालीमिरच घी, शहत और खांड में मिलाकर चाटै ।
अन्य प्रयोग | पथ्याशुठीघनगुडेगुटिकां धारयेन्मुखे ॥ सर्वेषु श्वासकासेषु केवलं वा विभीतकम् ।
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अ० ३
अर्थ - हरड, सोंठ, नागरमोथा और गुड इनकी गोलियां बनाकर मुख में रखकर रस चूसता रहै, अथवा केवल बहेडे के छिलके मुख में रखने से सब प्रकार के घाव और खांसी जाते रहते हैं । अन्य प्रयोग ।
पत्रकल्कं घृतभृष्टं तिल्वकस्य सशर्करम् ॥ पेयावात्कारिकाछर्दितृका सामातिसारनुत्
अर्थ - लोधके पत्तों के कल्क को खांड मिलाकर लेहन करै । अथवा इसी कल्क से पेया वा उत्कारिका तयार करके पान करे तो वमन, तृषा, खांसी और आमातिसार जाते रहते हैं ।
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सब खाँसियोंपर मूंगका यूष । कंटकारीर से सिद्धो मुद्गयूषः सुसंस्कृतः ॥ सगौरामलकः साम्लः सर्वकासभिषग्जितम्
अर्थ- सब प्रकार के कासरोगों में कटेरी के रससे सिद्ध कियाहुआ मंगका यूषं हितकारी होता है, इसमें हींग, सेंधानमक, सोंठ और घृतादि मसाले डाल के और खट्टा कर ने के लिये गौर आमला वा अनारदाने की खटाई डालदे |
अन्य यूष । " वातघ्नौषधनिःक्काथे क्षीरं यूषान् रसानपि बैष्किरान् प्रातुदान् बैलान् दापयेत्क्षयकासिने अर्थ- वातनाशक औषधियों के काथमें सिद्ध कियाहुआ दूध, यूष और विष्किर प्रतुद तथा विलेशय जीवोंका मांसरस पकाकर क्षयकासवाले रोगीको देना चाहिये ।
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क्षयकासमें सानुपान धूमादि । क्षतकासे च ये धूमाः सानुपाना निदर्शिताः ॥ क्षयकासेऽपि ते योज्या वक्ष्यते यच्च यक्ष्मणी