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अ०१५
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
विष्णु, संहर्ता, मृत्यु और अतक हैं । इस
- वायु का कोप । लिये मनुष्य को उचित है कि वायको शुद्ध धातुक्षयकरैर्यायुः कुप्यत्यतिनिषेवितैः ॥५॥ रखने के लिये सदा यत्न करतारहै । घरन् स्रोतःसुरिक्तेषु भृशं तान्येव पूरयन् ।
तेभ्योऽन्यदोषपूर्णेभ्यः प्राज्यवावरणं बली। वात के कर्म ।
अर्थ-धातुओं का क्षय करनेवाले आहार तस्योक्तं दोषविज्ञाने कर्म प्राकृतवैकृतम् ॥
विहारादि के अति सेवन और चिरकाल समासाद्य सतो दोषभेदीये नाम धाम च प्रत्येक पंचधा चारो व्यापारश्च
तक सेवन से रिक्त स्रोतों में विचरता हुआ इह वैकृतम्॥४॥ उन्हीं को भरकर वायुकुपित होता है । अथवा तस्योच्यते विभागेन सनिदानं सलक्षणम्।। अन्य दोष द्वारा भरे हुए संपूर्ण स्रोतों से
अर्थ-दोष विज्ञानीयाध्य में वायुके प्राकृ- आवृत होकर बलवान् वायु कुपित हो त और वैकृतकर्मों का संक्षेपरीत से वर्णन | जाता है। करदिया गया है और दोष भेदीयाध्याय में | वातव्याधि को कष्टसाध्यता। उनके नाम, धाम, गति और व्यापार सं- | तत्र पकाशये क्रुद्धः शूलानाहांत्रकूजनम् । बंधी प्रत्येक के पांच पांच भेद विस्तार•
मलरोधाश्मवाशास्त्रकपृष्ठकटीग्रहम् ७ ॥ पूर्वक वर्णन करदिये गये हैं।
करोत्यधरकायेषु तांस्तान्कृच्छ्रानुपद्रवान् ।
अर्थ-ऊपर लिखे हुए दो कारणों से ___ इस अध्याय में उसी वायुके निदान
वायु पक्वाशय में कुपित होकर शूल, आऔर लक्षणों सहित वैकृतकर्म का पृथक
नाह, अंत्रकूजन, मलरोध, भश्मरी, वर्भ, पृथक वर्णन किया जाता है।
अर्श, त्रिक, पृष्ठ, और कमर में जकडन __ + विश्वकर्मा ( विश्वअर्थात् शरीर का | तथा शरीर के नीचे के भागमें अनेक जनन, वर्धन, धारण, भजन, शोषण आदि प्रकार के दारुण उपद्रव पैदा करदेता है। अर्थानर्थकर्मों को करता है )। विश्वात्मा (.शुभका आत्मा अर्थात् हेतु)। विश्वरूप
आमाशय के उपद्रव । ( वाह्य और आध्यात्मिक स्वभावरूप)। आमाशयेतृड्वमथुश्वासकासविसूचिकाः॥ प्रजापति (प्रजापलक ) । स्रष्टा (संसारका कण्ठोपरोधमुद्गाराव्याधीनूर्वचनाभितः। सृजने वाला ) । धाता (विश्वका धारण ___ अर्थ-आमाशय में कुपित वायु तृषा, करनेवाला अर्थात् वाह्यलोक वायुमंडल के वमन, श्वास, खांसी, विसूचिका, कंठरोध, आधार पर तथा सत्यलोक प्राणापानादि | डकार, और नाभि के ऊपर के भाग में वायुके ऊपर धारण किये हुए हैं ) विभु (शुभाशुभ करने में सामर्थ्यवान् विष्णु
अनेक प्रकार की वातव्याधियां उपस्थित - ( जगद्व्यापी) सहर्ता ( संहार करनेवाला)
होती हैं। मृत्यु( यमका मारणरूप कार्य करने से श्रोत्रादि और त्वचा के उपद्रव । यमरूप ) अंतक ( मारनेवाला साक्षात् / श्रोत्रादिग्विद्रियवधं यमरूप।
- त्वचि स्फुटनरूक्षणे ॥२॥
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