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[४४८)
अष्टांगहृदय ।
अ० १६
मावरणों का दिग्दर्शन । स्यात्तयोः पीडनाद्धानिरायुषश्च बलस्य च दिशाऽनया च विभजेत्सर्वमावरण भिषक् ॥ अर्थ-प्राणवायु जीवन का आधार है स्थानान्यवेक्ष्य वातानां वृद्धि हानि च कर्म- और उदानवायु बलका आधार है इसलिये
णाम् ।
इन दोनों के पीडित होनेसे वायु और बल अर्थ-वैद्यको उचित है कि ऊपर लिख
| दोनों की हानि होती है इस हेतु से आहाहुए दिग्दर्शन मात्र से संपूर्ण आवरणों के
रादि द्वारा इन दोनों की रक्षा में विशेष भेदों को जानलैवे । वायुओं के स्थान
| यत्न करना चाहिये, कहाभी हैं "प्राणोतथा उनके कर्मों की हानि वा वृद्धि (कमी
रक्ष्यश्चतुर्योऽपि तत्स्थितौ देहसस्थितिः" वेशी ) देखकर भी आवरणों का विभाग
___ आवरणों का कष्टसाध्यत्व । करलेना चाहिये ।
आवृता वायबोऽज्ञाता ज्ञाता वा पत्सरं ____ आवरणों को असंख्ययत्व।
स्थिताः । ५७॥ प्राणादीनां च पंचानां मिश्रमावरणं मिथः॥ | प्रयत्तेनापि दुःसाध्या भवेयुर्वानुपक्षमाः । पित्तादि भिदिशभिर्मिश्राणां मिश्रितैश्च तैः अर्थ-वायु किस पदार्थ से आवृत हैं मिश्रः पित्तादिभिस्तद्वन्मिश्रणाभिरनेकधा ॥ | इस वातका निश्यय न होना अथवा निश्चय तारतम्यविकल्पाश्च यात्या त्तिरसंख्यताम् । होने पर भी वरसदिब तक उसकी चिकित्सा तां लक्षयेदवहितोयथास्वं लक्षणोदयात् ॥ शनैः शनैश्चपिशयाढामपि मुहुर्मुहुः ।।
" में उपेक्षा करना । इन वातों से ये कष्टसा. अर्थ-प्राणादि पंचवाय के आपस में | ध्य हो जाते हैं अर्थात् महान् प्रयत्न करनेपर मिले हुए आवरण और पित्तादि बारह | भी दुश्चिकित्स्य होजाते हैं । पदार्थों से आवृत प्राणादि पांच वायुका
आवरणोंसे विद्धादिकी उत्पत्ति । आवरण और वादाविनादि विद्रधिल्लीहहृद्रोगगुल्मानिसदनादयः ।
भवंत्युपद्रवास्तेषामावृतानामुपेक्षणात् “ ॥ बारह का मिश्र आवरण होता है, इस तरह
__ अर्थ-आवृत वायुकी चिकित्सा उपेक्षा इनके आपस में अनेक प्रकार से मिलने
करने से विद्रधि, प्लीहा, हृदयरोग, गुल्मरोग, के कारण और तारतम्य की विकल्पना से
अग्निसाद आदि उपद्रव उपस्थित होते हैं, आवरणों की संख्या नहीं हो सकती है।
इसलिये इसकी चिकित्सा यत्नपूर्वक करनी इनको उनके लक्षणों को साबधानी से
चाहिये । देख देखकर और उनके उपशयों पर दृष्टि
इतिश्री मथुरानिवासि श्रीकृष्णलाल देदेकर धीरे धीरे और बार बार उन गूढ
विरचितायां भाषा कान्वितायां विषयों को देखना चाहिये ।
अष्टांगहृदयसंहितायां तृतीयं प्राणादिवायु को जीवितत्व ।
निदानस्थानं षोडशाध्यायश्च विशेषाजीवितं प्राण उदानो बलमुच्यते ॥ |
समाप्तः।
समाप्तमिदं निदानस्थानम्
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