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ओ३म्
श्रीहरिम्वन्दे श्रीबृन्दावनविहारिणेनमः ॥अथचिकित्सितस्थानम् ॥
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अर्थ-इसक कारण यह है कि आरोग्य प्रथमोऽध्यायः।
| के लिये चिकित्सा है और वह आरोग्यता
बल के आधीन है। अथाऽतो ज्वरचिकित्सितं व्याख्यास्यामः ।
लंघन के गुण । इति ह स्माहुरात्रेयाइयो महर्षयः।
| लंघनैः क्षपिते दोषे दीप्तेऽग्नौ लाघवेसति । अर्थ-अब हम यहांसे ज्यरचिकित्सित
| स्वास्थ्य क्षुतृट् रुचिः पक्तिर्बलमोजश्च जायते नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे यह अर्थ-लंघन करने से वातादि दोष आत्रेयादि महर्षि कहने लगे।
क्षीण होजाते हैं, जठराग्नि प्रदीप्त होजाती ज्वरादि में लंघन । है और देहमें हलकापन हो जाता है । इन " अमाशयस्थो हत्वाऽग्निं सामो मार्गान्- | बातों के होने पर आरोग्यता, क्षुधा, तृषा,
पिधाय यत् ।। विदधाति ज्वरंदोपस्तस्मात्कुर्वीतलंघनम् ॥
अन्न में रुचि, पाक, बल, और ओज प्रापेषु ज्वरादौ वा बलं यत्नेन पालयन्।
उत्पन्न होते हैं। ___ अर्थ-आमाशयस्थ वातादि दोष आम- साम ज्वर में बमन।। रस से मिलकर जठराग्नि को नष्ट करदेते तत्रोत्कृष्टे समुक्लिष्टे कफप्राये चले मले । हैं और स्रोतों को रोककर ज्वरको पैदा | सट्टल्लासपसेकानद्वेषकासविषचिके ॥ करदेते हैं इसलिये ज्वर के आदि में वा ज्वर सद्योभुक्तस्य संजातज्वरेसामे विशेषतः। का पूर्वरूप होते ही लंघन करना उचित है, |
वमनं वमनार्हस्य शस्तं कुर्यात्तदन्यथा ५ ॥ परंतु इस बात पर विशेष ध्यान रखना चाहिये । श्वासातीसारसंमोहद्रोगविषमज्वरान् । कि रोगी का वल क्षीण न होने पावै ।
___ अर्थ-ज्वर वाले मनुष्यके यदि वातादि . . बल की रक्षा का हेतु । दोषों की अधिकता हो, अपने स्थान से बलाधिष्ठानमारोग्यमारोग्यार्थः क्रियाक्रमः २ | चल दिये हों, कफकी अधिकता हो,
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