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(८३४)
अष्टांगहृदय ।
देहस्य बहिरायामात्पृष्ठतो नीयते शिरः । । स्यात्कृच्छ्राच्चर्वणभाषणम् ॥ ३० ।। उरश्चामिप्यते तत्र कंधरा चावमृद्यते २५ अर्थ-जिह्वा के अत्यंत लेखन से अर्थात् दन्तेष्वास्येच वैवये प्र स्वेदःसस्तगात्रता। जिहवा को अत्यन्त छीलने से, सूखा पदार्थ बाह्यायाम धनुष्कभं ब्रुवते वेगिनं च तम् २६ / अर्थ-इस रोगमें शरीर बाहर की भोर
चबानेसे खोट लगने से हनुमूलस्थ वायु धनुष के सदृश झुकजाता है इसीलिये इसे
कुपित होकर हनुको शिथिल करदेता है । बहिरायाम कहते हैं । सिर पीठकी ओर झु.
इससे रोगीका मुख खुलाहो तो खुलाही रहा कजाता है, छाती ऊंची होजाती है, ग्रीवा
आता है और वन्दहो तो वंदही रहापाता है मुडजाती है, दांतोंका रंग बदल जाता है,
इसे रोगमें खाना और वोलना कठिन होनापसीने अधिकता से आने लगते हैं और / ता है । इस रोग को हनुस्रेस कहते हैं । संपूर्ण देह शिथिल होजाता है । इस बातव्या
जिह्वास्तंभ के लक्षण ॥ घि को बहिरायाम और धनुष्कंभ वा धनुस्तंभ
वाग्वाहिनीशिरासंस्थो जिह्वांकहते हैं । कोई कोई इसे वेगी भी कहते हैं।
स्तम्भयतेऽनिलाः ।
जिह्वास्तम्भः स ब्रणायाम के लक्षण ।
तेनानपानवाक्येष्वनाशता ॥ ३१ ॥ व्रणम् मर्माश्रितम्प्राप्य समीरणसमीरणात्।। अर्थ-मुषित वायु वाग्वााहनी सिरा में व्यायच्छति तनुं दोषासर्वामापादमस्तकम् |
म स्थित होकर जिह्वा को स्तंभित कर देता तृष्यतःपांडुगात्रस्य व्रणायामः सबर्जितः।। अर्थ-वायुसे प्रेरित होकर दोष मर्म के
है । इससे खाने पीने बोलने चालने में अ. आश्रित ब्रण में पहुंचकर सिरसे पांवतक सब
समर्थता होजाती है, इसरोग को जिड्वास्तंदेहमें विशेषरूप से व्याप्त होकर पहिले की
भ कहते हैं।
अर्दित के लक्षण ॥ तरह आयाम उत्पन्न करते हैं, इस रोगको
शिरसा भारहरणादतिहास्वप्रभाषणात् । ब्रणायाम कहते हैं। जिस ब्रणायाम रोगमें
उत्रासवक्त्रक्षवथुखरकामुककर्षणात् ३२ रोगीको अत्यंत तृषाहो और उसका शरीर विषमादुपधानाच्च कठिनानां च चर्वणात् पीला पड़गया हो वह असाध्य होनेसे बर्जित है। | वायुर्विवृद्धस्तैस्तैश्च वातलैरूमास्थितः ॥ गतवेग में स्वस्थता ।
वक्रीकरोति वक्त्रार्धमुक्तं हसितमीक्षितम् । गते वेगे भवेत्स्वास्थ्यं सर्वेष्वाक्षेपकेषु च ॥
ततोऽस्य कंपते मूर्धा वाक्संगः स्तब्धनेत्रता अर्थ-सब प्रकारके आक्षेपक रोगोंमें वायु
दतचालः स्वरभ्रंशः श्रुतिहानिः क्षवग्रहः ।
गंधाशानं स्मृतेर्मोहास्त्रासःसुप्तस्य जायते ॥ का बेग शांत होनेपर रोगी स्वस्थ होजाताहै।
निष्ठीवः पाश्वतोथायादेकस्याक्ष्णो निमीलनम् . हनुवंसके लक्षण ॥ जत्रोरूर्व रुजातीब्रा शरीरार्धेऽधरेऽपिवा। जिह्वातिलेखनात् शुष्कभक्षणाादभिघाततः | तमाहुरादत केचिदेकायाममथापरे। फुपितो हनुमूलस्थानसयित्वाऽनिलो हनू॥
___अर्थ-सिर पर धरकर बोझ ढोने से, करोति विवृतास्यत्वमथवा संवृतास्यताम् । हनुनसा सतेन
| अत्यंत हंसने से, अत्यंस वोकने से, उठतास
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