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[३७४)
अष्टांगहृदय ।
अ०५
॥ ५३॥
सिरा इनको सुखाकर तृषा उत्पन्न होतीहै।
कफन तृषा। तृषाका सामान्य लक्षण । कफो रुणद्धि कुपित्तस्तोयवाहिषु मारुतम् । तासां सामान्यलक्षणम् ।
स्रोतःमु सकफस्तेन पंकवच्छोण्यते ततः ॥ 'मुखशोषो जलातृप्तिरन्नद्वेषः स्वरक्षयः॥
| शूकैरिवाचितः कण्ठो निद्रा मधुरवक्त्रता । कण्ठोष्ठजिवाकार्कश्यं जिह्यानिष्क्रमणम्
| आध्मानं शिरसो जाउयंस्तमित्यच्छद्य
क्लमः प्रलापश्चित्तविभ्रंशस्तृड्ग्रहोक्तास्त
आतस्यमावपाकश्च. थाऽऽमयाः॥४९॥ अर्थ-जब कफ कुपित होकर जलवाही - अर्थ-तृषाके सामान्य लक्षण ये हैं, । स्रोतोंमें वायुको रोक देता है तब वह कफ यथा-मुखशोष, वार बार जल पीने पर कीचर की तरह सूखने लगता है । कंठमें भी अतृप्ति, अन्न में अरुचि, स्वरभंग, कंठ । कांटे से खडे होजाते हैं । निद्रा, मुखमें मीओष्ठ और जिह्वा में खरदरापन, जिवा | ठापन, अफरा, सिरमें जडता, तिमिता, वका बाहर निकलना, क्लोति, प्रलाप, चित्त । मन, अरुचि, आलस्य और अविपाक, ये लविभ्रम, तथा तृझहोक्त संपूर्ण प्रकार के | क्षण उपस्थित होते है। रोग उत्पन्न होते हैं।
त्रिदोषज तृषा । बातज तृषा के लक्षण ।
सर्वैः स्यात्सर्वलक्षणा । मारुतात्क्षामता दैन्यं शंखतोदः शिरोभ्रमः। अर्थ-जिस तृषारोगमें उक्त तीनों दोषों गन्धाज्ञानास्यवैरस्यथतिनिद्रावलक्षयाः ॥
HIT पाये जाते हैं वर चिटोशीतांबुपानादृद्धिश्च___ अर्थ-वातज तृषा में क्षीणता, दीनता,
ताप से उपल्न होती है । कनपटियोंमें सूचीभेदवत् पीडा, सिरमें चक्कर
बातपित्तज तृषा।
आमोद्भवा च भक्तस्य सरोधाद्वातपित्तजा ।। गंधज्ञानका अभाव, मुखमें विरस ता,श्रवण
अर्थ-आहार के रोकनेसे आमसे उत्पन्न शक्ति, निद्रा और बलका नाश होता है
तृषा होती है । यह वातपित्तजा है । तथा ठंडा जल पीने से तृषा की औरभी
पित्तजा तृषा। बृद्धि होती है।
उष्णलांतस्य सहसा शीतांभो भजतस्तृषम्। पिचन तृषा।
ऊष्मारुद्धोगतः कोष्ठं या कुर्यात्पित्तजैव सा पित्तान्मुर्छास्यतिक्तता। या च पानातिपानोत्था तक्षिणाने स्नेहजारक्तक्षणत्वं प्रततं शोषो दाहोऽतिधूमकः ५१
च या । अर्थ-पित्तज तृषारोगमें मूर्छा, मुखमें अर्थ-जो आदमी गरमी के कारण म्लातिक्तता, आंखोंमें ललाई, हर समय कंठ में न होरहा हो अर्थात् धूपमें चलकर आया हो शुष्कता, दाह और धूमनिर्गर्मवत प्रतीति । गरमी में तडफडा रहा हो और वह झटपट ये लक्षण होते हैं।
| ठंडा जल पीले तो ऊष्मा कोष्ठमें जाकर तृ
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