________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अ. २
निदानस्थान भाषाटीकासमेत |
[३५.७.)
तथा जो वात से होता है वह प्रथम सिर । मन, तथा शब्दस्पर्श रूपरसगंध इनके बल में उत्पन्न होकर फिर देहमें फैलता है। से सततकादि वर उसी उसी निर्दिष्टकाल
विषमज्वर के तीन भेद । में प्राप्त होताहै, इसीसे कभी सततक, अस्थिमज्जोभयगते चतुर्थकविपर्ययः ७३॥ कभी अन्येदुष्क, कभी तृतीयक वा कभी विधा
चतुर्थक होजाताहै और कभी चतुर्थक होकर थंह ज्वरयति दिनमेकम् तु मुंचति । अर्थ- अस्थि और मज्जा इन दोंनो धा
तृतीयक, अन्येदु वा सततक होजाताहै । तुओं का आश्रय लेकर दोष चतुर्थक विप- ज्वर मोक्षकाल का लक्षण ।
र्यय नामक अर्थात् चतुर्थक वर के विप-धातून प्रक्षोभयन् दोषो मोक्षकाले विलीयते रीत लक्षण वाले ज्वरको उत्पन्न करता है,
ततो नरः श्वसन् स्विद्यन् क्जन् वमति चेष्टते
घेपते प्रलपत्युष्णैः शीतेश्वांगैहतप्रभः ७७॥ यह सन्निपात से उत्पन्न होने पर भी कभी
| विसंशेऽज्वरवेगातः सक्रोधाइव वीक्षते । वातकी अधिकता, कभी पित्तकी अधिकता | सदोषशब्दं च शकृद्रव सुजति वेगवत् ॥
और कभी कफकी अधिकता से तीन प्रका- अर्थ-जैसे प्रचंड पवन बंडे जलाशय र का होता है यह ज्वर अस्थि और मज्जा | को हिला देताहै वैसेही ज्वरके मोक्षकाल में इन दो धातुओं में माश्रित होने के कारण वातादि दोष भी रसादि धातुको क्षोभित लगातार दो दिन तक रहकर बीच में एक करके पीछे विलीन होजाताहै । उस समय दिनको छोड़ जाता है, फिर दो दिन तक | रोगी श्वास लेताहै । उसके रोम कूपोंसे लगातार रहता है।
पसीने निकलते गलेमें कूजन का सा अदोषों के बलाबलसे ज्वर ।
| व्यक्त शब्द होताहै । वमन करताहै, कभी बलाबलेन दोषणामनचेष्टादिजन्मना ७४ ॥ | ज्वरः स्यान्मनसस्तद्वत्कर्मणश्च तदा तदा।।
भूमि और कभी शय्या पर लेटताहै, कांपता दोषदृष्यवहोरात्रप्रभृतीनां बलाज्ज्वरः ॥ है, वृथा बकबाद करताहै, इसका कोई अंग मनसो विषयाणां च कालं तम् तम् प्रपद्यते । शीतल और कोई उष्ण होताहै मुखकी कांति
. अर्थ-जिस जिस समय आहार विहारा- | जाती रहतीहै, ज्वरके बेगसे पीडित होकर दि द्वारा वातादिक शारीरक दोषोंका बलाबल
संज्ञाहीन होजाताहै और क्रोधित की तरह होताहै, उसी उसी समय में इसी दोष के
देखताहै तथा आमसहित शब्द करता हुआ बलावल द्वारा सततादि ज्वर उत्पन्न होते हैं
पतला विष्टा करताहै । 'इसीतरह जिस जिस समय मानस दोष और
विगतज्वर के लक्षण ॥ 'मानसकार्य का बलाबल होताहै, उसी उसी समय में यह सततादि ज्वर उत्पन्न होतेहैं ।
देहो लघुर्व्यपगतक्लममोहतापः
पाको मुखे करणसौष्ठवमव्यथत्वम् । इसीतरह वातादि दोष, रसरक्तादि दूष्य,
स्पेदःक्षवःप्रकृतियोगिमनोऽन्नलिप्सा. शिशिरादि अतु, दिन और रात्रि, प्रकृति कंडूपच मूनि विगतज्वरलक्षणानि, ॥
For Private And Personal Use Only