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च २
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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
वा ऋतु की सहायता मिलजाती है तथा दोष विपक्ष और क्षय वा वृद्धि से युक्त रहता है ।
ज्वरकी रसादि में लीनता । क्षीणे दोषे ज्वरः सूक्ष्मो रसादिष्वेव लीयते ॥
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[ ३५९ ]
लीनत्वात्कार्य व वैर्ण्यजाडया दीनादधातिसः अर्थ - विषमज्वरकारी दोष के क्षीण होने पर सतत कादि ज्वर सूक्ष्म होकर रसादि में लीन हो जाता है परंतु सर्वथा नष्ट नहीं होता है । लीन होकर वह दोष कृशता विवर्णता, जडता आदि को धारण करताहै ॥
दोषकी प्रवृत्ति निवृत्ति ।
दोषः प्रवर्तते तेषां स्त्रे काले ज्वरयन् बली ॥ निवर्तते पुनश्चैष प्रत्यनीकबलाबलः ।
अर्थ - ऊपर कहे हुए कृश और मिथ्याहारविहारसेवी मनुष्य के देह में वातादि दोषों में से कोई मा बलवान् दोष (वयअहोरात्र और भुक्त लक्षण वाले ) अपने प्रकोषकाल में संताप उत्पन्न करके अपने व्यापार में प्रवृत्त होता है अर्थात् संततादिउर उत्पन्न करता है परंतु इस कामको वह - दोष उसी समय कर सकता है जब उसे अप ने पक्षवालों में से किसी रसादि दृष्य पदार्थ से सहायता मिलती है और जब बलवान् विपक्षी दुष्य के द्वारा हीनबल होजाता है तब वह दोष अपने व्यापार से निवृत हो जाता है । जैसे बट का बीज जलादि सामप्री से बल को पाकर विशिष्टकाल में अंकुरित होजाता है और जलादि सामग्री के न मिलेने पर भूमिपर स्थित रहता है, ऐसे ही विषम ज्वरका उत्पन्न करनेवाला दोष अपने पक्षवाले दूष्य से लधवल होकर अपने काम को करता है और विपक्ष दोष के बल से इसकी शक्ति जाती रहती है तब अपने व्यापार को नहीं करता हैं देह ही में लीन हो जाता है ।
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विपरीतो विपर्ययात् ॥ ६८ ॥ अर्थ - रसवाही स्रोतों के मुख खुले हुए और निकटवर्ती होने के कारण ज्वर के उत्पन्न करनेवाले दोष उन स्रोतों में शीघ्र प्रविष्ट होकर संपूर्ण शरीर में व्याप्त होजाते हैं, इसी कारण से रसधातु में स्थित संततज्वर निरंतर रहा आता है, उसका विराम नहीं होता है । और उक्त हेतु से विपरीत होने 1 पर अर्थात् रसवाही स्रोतों से रक्तवाही और मेदोवांही संपूर्ण स्रोत दूरवर्ती, सूक्ष्म मुखवाले होते हैं, इसलिये घर के उत्पन्न करने वाले दोष विलंब में प्रविष्ट होते हैं और संपूर्ण देह में भी फैलने नहीं पाते और इसी हेतु से विच्छिन्न काल में सततादि ज्वर को उत्पन्न करते हैं । इसलिये सततादिज्वर संतत ज्वर से विपरीत होता है अर्थात् संतत ज्वर निरंतर होता है सततादि ज्वर विच्छिन्नकाल में होता है ।
उक्त विषय में युक्ति । आसन्नविवृतास्यत्वात्स्रोतसां रसवाहिनाम् आशु सर्वस्य वपुषो व्याप्तिर्दोषेण जायते । संततः सततस्तेन
विषमज्वर का स्वरूप | विषमो विषमारम्भ क्रियाकालोऽनुषंगवाम् । -
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