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निदामस्थान भाषाटीकासमेत ।
(३४९)
ना, हृदयमें वेदना, मलमूत्र की अप्रवृत्ति, | है। पित्त यदि त्वचा में स्थित होता है तो अति प्रवृत्ति वा अल्पप्रवृत्ति, मुखमें चिकना- | वाहर अधिक दाह और भीतर अल्प दाह पन, बलका नाश, स्वरमें शिथिलता अर्थात् | होता है, तथा यदि कोष्ठ में स्थित होता बोलीका मंद होजाना, प्रलाप, बहुत कालमें | है तो भीतर अधिक दाह और बाहर अल्प दोषका परिपाक, तन्द्रा और निरंतर कंठ- | दाह होता है । पुर और अनु ये दोनों शब्द कूजन, ये सब भयंकर लक्षण सन्निपात में | स्थानविशेष और कालविशेष दोनों की होते हैं । इस सन्निपात के दो नाम और विकल्पना के सूचक हैं। भी हैं । एक अभिन्यास, दूसरा हतौज । यह सन्निपात के भेद । संपूर्ण धातुओं के सार ओज नामक धातु तद्द्वातकफो शीतम्
दाहादिर्दुस्तरस्तयो। का परिहरण करता है, इसलिये इसका नाम
___अर्थ-जैसे पित्त पृथक् होकर त्वचा वा हृतौज है।
कोष्ठ में दाह करता है, वैसेही वातकफ साध्यासाध्य लक्षण । दोषे विवद्धे नष्टेऽग्नौ सर्वसंपूर्णलक्षणः ।
पृथक् होकर त्वचा और कोष्ठ में ज्वर की असाध्यः सोऽन्यथा कृच्छ्रो
प्रथमावस्था वा शेषावस्था में शीत उत्पन्न . भवेद्वैकल्यदोऽपि वा ॥ ३४ ॥ करते हैं । इन दोनों प्रकार के सक्षिपातों अर्थ-सन्निपातज ज्वरमें जो तीनों दोषों
| में दाहादि सन्निपात कृच्छ्रसाध्य होता है। का प्रकोप, मलकी विवद्धता और अग्नि का
कोई २ शीतादि सन्निपात, दाहादिः सन्निविशेषरूप से नाश होजाय और इसमें सर्व
पात और सन्निपात ऐसे तीन प्रकारका संपूर्ण लक्षणों का उद्भव हो तो वह असा- मानते हैं। ध्य होता है । इन लक्षणों से विपरीति होने शीतादि और दाहादि ज्वरका अंतर। पर कष्टसाध्य वा विकलताकारक होता है। शीतादौ तत्र पित्तेन कफेस्पंदितशोषिते ३६ इस कहने का सारांश यह है कि सन्निपात
शीतेशांतेऽम्लको मूर्छा मदस्तृष्णां च जायते
दाहादौ पुनरंते स्युस्तंद्राष्ठीववमिक्लमाः ३७ सुखसाध्य होता ही नहीं है। अन्य प्रकारका सन्निपात ज्वर ।
___ अर्थ-शीतादि सन्निपात में पित्तके द्वारा अन्यश्च सन्निपातोत्थो यत्र पित्तं पृथक् ।
| कफ के स्रावित और शोषित होनेपर शीत
स्थितमा शांत होजाता है तथा शीत के शांत होने त्वचि कोठेऽथवादाहं विदधाति पुरोऽनुवा | पर पित्तकी प्रधानता के कारण खट्टी डंकार ___ अर्थ-एक और प्रकारका सन्निपात | मूर्छा, मत्तता और तृषा उत्पन्न होती है, ज्वर होता है, जिसमें पित्त, वात और कफ | जैसे ग्रीष्म ऋतु में सूर्य के प्रखर तापसे से पृथक् होकर ज्वरकी प्रथमावस्था में अ- हिम गलकर और सूचकर जाता रहता है थवा शेषावस्था में कभी त्वचा और कभी | और उष्णता की प्रधानता से ग्रीष्म के कोष्ठ में स्थित होकर दाह उत्पन्न करता । भाव उत्पन्न होजाते हैं।
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