________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
अष्टांगहृदय |
(300)
तन्वल्पपक्ष्माणि हिमप्रियाणि । क्रोधेन मद्येन वेश्च भासारागं व्रजंत्यासु विलोचनानि ॥ ९४ ॥ मध्यायुषो मध्यबलाःपण्डिताः क्लेशभीरवः । व्याघ्राक्ष की मजारयज्ञानूकाश्च पैत्तिकाः ॥ ९५ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अ ३
और
घ्र ही लाल होजाते हैं । इनकी आयु बल मध्यम होते हैं । ये पंडित और क्लेशसे डरनेवाले होते हैं। इनका स्वभाव व्याघ्र, रीछ, बंदर, बिल्ली और यक्ष के सदृश होता है ये सब लक्षण पित्त प्रकृतिवालों के हैं ॥ कफ प्रकृति के लक्षण ।
अर्थ - धन्वन्तरि के मत से पित्त स्वयं अग्नि है अथवा अग्निसे उत्पन्न पित्त है । इस लिये पित्तप्रकृतिवाला मनुष्य तीव्र तृषा और तीव्रक्षुधावाला होता है । इसका रंग गोरा और अंग गरम होता है इसके हाथ, पां और मुख ताम्रवर्ण होते हैं । यह शूर और मानी होता है | वालों का रंग पीला और रोम थोडे होते हैं । इसको माला चंदनादि लेपन और आभूषण प्रिय होते हैं । यह सुरि पवित्र, शरणागतवत्सल, ऐश्वर्यवान्, साहसी बुद्धि, और बलसे युक्त, भयमें शत्रुओं की भी रक्षा करनेवाला, मेधावी, शिथिल संधिबंधन और मांसयुक्त होता है । स्त्रियों से प्रेम राहत, I अल्पवीर्ययुक्त और अल्पकामी, यह पठित, व्यंग और नीलिका रोगका आबास होता है । मधुरकषाय, तिक्त और शीतल भोजनका प्रेमी होता है । उष्णद्वेषी, पसीनोंसयुक्त, दुर्गंधियुक्त अत्यन्त विष्टका त्यागनवाला, अतिक्रोधी, अति खाने पीने वाला और अत्यन्त ईर्षक होता है । इसको स्वप्न में कनेर, ढाक, दिग्दाह, उल्कापात, विद्युत्पात, सूर्य और अग्नि दिखाई देते हैं । इसके नेत्र छोटे, पिंगलवर्ण, चंचलकम और छोटे पक्ष्मोंसे युक्त । शीत
प्रिय, क्रोध, मद्य, और सूर्य की चमक से शी | ब्रह्मरुद्रद्रवरुणतार्क्ष्यहंसगजाधिपैः।
For Private And Personal Use Only
श्लेष्मा सोमः श्लेष्मलस्तेन सौम्योगूढस्निग्धश्लिष्टसंध्यस्थिमांसः । क्षुतृडदुःखक्लेशधर्मैरतप्तोबुद्धया युक्तः सात्विकः सत्यसंधः ९६॥ प्रियंगुदूर्वाशरकांड शस्त्रगोरोचनापद्मसुवर्णवर्णः । प्रलंवबाहुः पृथुपीनवक्षामहाललाटो घननलिकेशः ॥ ९७ ॥ मृद्वंगः समसुविभक्तचारुवर्माबहवोजोरतिरसशुक्रपुत्रभृत्यः । धमला वदति न निष्ठुरंच जातुप्रच्छन्नं वहति दृढं चिरं च वैरम् ९८ ॥ समदरिद्रतुल्ययातोजलदांभोधिमृदंगसिंहघोषः । स्मृतिमानभियोगवान् विनीतो न च बाल्ये ऽप्यतिरोदनो न लोलः ॥ तिक्तं कषायं कटुकोष्णरूक्षमल्पं स भुंक्ते बलवांस्तथाऽपि । रक्तांतसुस्निग्धविशालदीर्घसुव्यक्तशुक्लासितपक्ष्मलाक्षः ॥ अल्पव्याहारकोधपानाशनेह प्राज्यायुर्वित्तो दीर्घदर्शी वदान्यः । श्राद्धो गंभीरः स्थूललक्षः क्षमावानार्यो निद्रालुदर्घसूत्रः कृतज्ञः ॥ ऋजुर्विपश्चित्सुभगः सलजो भक्तो गुरूणां स्थिरसौहृदश्च । स्वप्ने सपद्मान्सविहंगमालांस्तोयाशयान् पश्यति तोयदांश्च ॥