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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत।
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. ज्वरादिकों को मृत्युका हेतुत्व । । अर्थ-कुष्टरोग में यदि देह में विशीर्णता ज्वरातिसारो शोफांते श्वयथुर्वातयोः क्षये। नेत्र में ललाई, स्वर में क्षीणता, मंदामि, दुर्बलस्य विशेषेण जायंतेऽताय देहिनः ॥ कांडों का पडना, तृषा और अतिसार इन ___ अर्थ-सूजन के अंत में ज्वर और उपद्रवों के होने पर रोगी मर जाता है। अतीसार हो अथवा ज्वरातीसार के अंत में वायु के चिन्ह । सूजन हो तो रोगी, विशेष करके दुर्बलरोगी | वायु सुप्तत्वचं भग्नं कफशोफरुजातुरम् ॥ शीध्रही मरजाता है।
वातानंमोहमूर्जायमदस्वप्नज्वरान्वितम् ॥
शिरोग्रहासचिश्वाससंकोचस्फोटकोथवत् । पादस्थ शोथ के चिन्ह ।। श्वयथुर्यस्य पादस्थः परिसस्ते च पिंडिके।।
अर्थ-वातव्याधिमें यदि त्वचा में शून्यसीदतःसक्थिनीचैवतं भिषक्परिवर्जयेत्॥ ता, भग्नता, कफरोग, सूजन और वेदना हो ___अर्थ-जिसके पांव में सूजन हो, पिंड- तो रोगी को मारडालती है । जो वातरक्त
ली अपने स्थान से हट गई हो, और टांगें रोग में यदि मोह, मूछी, मद, निद्रा, ज्वर, शिथिल हो गई हों ऐसे रोगी को त्याग देना शिराग्रह, अरुचि, श्वास, अंगसंकोच, स्फोचाहिये ।
टक और मांस में सडाहट हो तो रोगी मर एखादिमें शेषचिन्ह । जाता है। आनन हस्तपादं च विशेषाद्यस्य शुष्यतः ।। . सर्बरोग चिन्ह । शूयेते वा विना देहात्स मासाद्याति पंचताम् | शिरोरोगारुचिश्वासमोहविभेदतृभ्रमैः । - अर्थ-जिस रोगी के मुख और हाथ ध्नति समियाः क्षीणस्वरधातुघलानलम् । पाव विशेष सूजन से सूख गये हों, अथवा ___अर्थ --शिरोरोग, अरुचि, श्वास, मोह, देहको छोडकर हाथ पांव और मखमें विशेष । पुरीषभेद, तृषा, और भ्रम, इन उपद्रवों रूप से सूजन हो वह एक महिने के भीतर को उत्पन्न करके संपूर्ण रोग ऐसे रोगियों को मर जाता है।
मार डालते हैं जिनके स्वर, धातु बल विसर्प चिन्ह ।
और अग्नि क्षीण होगये हैं। विसर्पः कासवैवर्ण्यज्वरम गभगवान् ।
बातादि रोगी। भ्रमास्यशोषल्लासदेहसादातिसारवान् । बातव्याधिरपस्मारी कुष्ठीरत्तययुदरीक्षयी
अर्थ-विसर्प रोग में खांसी, विवर्णता, गुल्मी मेही चतान्क्षीणान् विकारेऽल्पेऽपिज्वर, मूर्छा, अंगमर्द, भ्रम, मुखशोष,
वर्जयेत्। हल्लास, अंगग्लानि और अतिसार उपद्रवों
अर्थ-वातरोगी,अपस्माररोगी, कुष्ठरोगी, के उपस्थित होने पर रोगी मर जाता है ।
| रक्तपित्तरोगी, उदररोगी,क्षयरोगी, गुल्मरोगी - कुष्ठों चिन्ह । .
और प्रमेहरोंगी, इनरोगियों को क्षीणता कुछ विशीर्यमाणांग रक्तनेत्रं हतस्वरम् ।।
होने पर अल्प विकार हो तो भी त्याग देना मंदानिं अंतभिर्जष्ट इति तृष्णातिसारणम् | चाहिये ।
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