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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(३२९ )
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आतुरस्य ग्रहे यस्य भियंतेवा पतंति वा।। युर्वेद का संपूर्ण फल प्रतिष्ठित है इसलिये अतिमात्रममत्राणि दुर्लभं तस्य जीवितम् ॥ वैद्यको उचित है कि आयके परिज्ञान और ' अर्थ-जिस रोगी के वायुरहित घरमें ।
परिपालन के निमित्त रिष्टके ज्ञानसे भी समाभी ईंधन लगाते लगाते अग्नि आदि ज्योति,
दृत होना चाहिये ॥ ठंडी पडजाय वह रोगी मरजाता है, जिस
पुण्यादिक्षय से मरण । रोगी के घरमें वर्तन बहुत गिरें वा फूटें उस
मरणं प्राणिना दृष्टमायुःपुण्योभयक्षयात् । रोगी का जीना दुर्लभ है।
तमोरप्यक्षयात्दृष्टं विषमापरिहारिणाम् ,, आत्रेय का मत ।
| यं नरं सहसा रोगो दुर्वलं परिमुवति।।
अर्थ-मुनिलोग कहते हैं कि आयु और संशयं प्राप्तमात्रेयो जीवितं तस्य मन्यते ॥ पुण्य इन दोनों के क्षीण होनेसे मृत्यका होना ___ अर्थ-जिस दुर्बल मनुष्य को रोग सहसा । देखा गया है । किंतु जो विषम आहार छोडदें तो उस रोगी का जीवन संशययुक्त
| विहार अर्थात् हाथी, थोडा, गौ, भेंस, दु• होता है, यह आत्रेय का मत है ।
गंध, मलमूत्रादि वेग धारण, उच्चस्थान से - मृत्यु सूचक वाक्योंका निषेध । प्रपतन इन बातों को नहीं त्यागते हैं उन कथयेनैव पृष्टोऽपि दुःश्रवं मरणं भिषक। की मृत्यु भी आयु और पुण्य के क्षीण होसे गतासोबधुमित्राणांनचेच्छेसांचकित्सितुम् । से होजाती है । - अर्थ-पूछे जानेपर भी वैद्यको उचित । इति श्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां नहीं है कि रोगीके बंधु बांधवों से रोगीकी
। शारीस्थाने पंचमोऽध्यायः । मृत्युके दुःश्राव्य बचनों को कहे और आसन्न मृत्यु रोगी की चिकित्सा करना भी *उचित नहीं है ॥
षष्ठोऽध्यायः। चिकित्साके निष्फलहोने में कर्तव्य। यमदूतपिशाचायैर्यत्परासुरुपास्यते।
.... अथाऽतो दूतादिविज्ञानीय शारीरंनद्भिरौषधवीर्याणि तस्मात्तं परिवर्जयेत् ॥
__ व्याख्यास्यामः। . अर्थ-क्योंकि यमदूत और पिशाचादि
___ अर्थ-अब हम यहांसे दूतादिविज्ञानीय गण मरने वाले रोगीके पास आते जाते रहते हैं और व्याधिप्रशमन के निमित्त जो औषध
शारीर नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे। दी जाती है । उसको निष्फल कर देते हैं
पाखंडादि दूतों की शुभाशुभ सूचना ।
"पाखण्डाश्रमवर्णानां सबः कर्मसिद्धये। इसलिये उस रोगी को छोडदेना चाहिये । ।
तएव विपरीताः स्युर्दूताः कर्मविपत्तये १॥ रिष्टज्ञानादरमें हेतु ।
___ अर्थ-उनहत्तर प्रकार के पाखंड, चार आयुर्वेदफलं कृत्स्नं यदायुद्धे प्रतिष्ठितम् । रिष्टवानादृतस्तस्मात्सर्वदेव भवद्भिपत१३१ / प्रकार के आश्रम ( ब्रह्मचारी, ग्रहस्थ, भिक्षु ... अर्थ-आयुर्वेद के जाननेवाले वैद्यमें आ- | और वैखानस ) चार प्रकारके वर्ण ( वा.
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