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शारीरस्थान भाषाकासमेत ।
(३१९)
छाया की द्विरूपता। प्रतिच्छायामयी कन्यका, या प्रतिक्विकुमाआतपादर्शतोयादौ या संखानप्रमाणतः४२ | रिका वा अक्षिपुत्तलिका कहते हैं । छायांऽगात्संभवत्युक्ता प्रतिच्छायेति सा पुनः वर्णप्रभाश्रया या तु सा छायैव शरीरगा४३ | पंचमहाभूतों की छाया। . .. अर्थ-मो छाया शरीर के संस्थान और | खादीनां पंच पंचानां छाया विविधलक्षणाः
| नाभसी निर्मलाऽऽनीलासलेहासप्रमेवा परिमाण रूप से धूप, दर्पण, जल वा घृ
वाताद्रजोऽरुणा श्यावाभस्मरूमाहतप्रभा। तादि में पड़ती है । उसको प्रतिविंव कह- |
विशुद्धरका त्वानेयी दीप्तामा दर्शनप्रिया । ते हैं। प्रतिक्वि वर्ण और प्रभाके आश्रित | शुद्धवैदयविमला सुस्निग्धा तोयजा सुखा। नहीं होता है, परन्तु जो वर्ण और प्रभा स्थिरास्निग्धाघनाशुद्धाश्यामाश्वताचपार्थिवी के आश्रित है और केवल शरीरगत है
वायवी रोगमरणश्लेशायान्याः सुखोदया। अर्थात् जो शरीर के प्रतिविव की तरह
अर्थ-आकाशादि पंचमहाभूतों की वि
विध लक्षणों से युक्त पांच प्रकार की छाया जलादि में नहीं पडती है वही देह की छाया
होती है । इन में से आकाशीयछाया निहोती है। प्रतिच्छाया और छाया में यही
मल कुछ नीलवर्ण, सस्नेह और प्रभायुक्त भेद है। प्रतिच्छाया का वर्णन ।।
होती है । वायुसंबंधी छाया रजोयुक्त, अरुभवेद्यस्यप्रतिच्छाया छिन्ना भिन्नाऽधिकाऽकुला ण, पान,
SIS ण, श्याव, भस्म के सदृश, रूक्ष और हतविशिरा द्विशिरा जिला विकता यदि | प्रभाहोती है । अग्नेयी छाया विशुद रक्त
वाऽन्यथा ४४ | वर्ण, दीप्ताभा और देखने में प्रिय होती है तंसमाप्तायुषं विद्यान्न चेल्लक्ष्यनिमित्तजा।।
जलसंबंधी छाया शुद्ध वैदूर्यमणि के समान प्रतिच्छायामयी यस्य न चाक्षणीक्ष्येत कन्यका अर्थ-जिसकी प्रतिच्छाया छिन्न ( दो
निर्मल, स्निग्ध और सुखोत्पादक होती है ‘भागों में विभक्त ), भिन्न (छिद्रयुक्त ),
पार्थिवी छाया स्थिर, स्निग्ध घन, शुद्ध, प्रमाण से बडी, चंचल, सिर रहित, दो
श्याम वा श्वेत वर्ण होती है ॥ . सिरवाली, कटिल, विरूप वा अन्यथा इन में से वायवी छाया रोग मरण और दिखाई दे तो समझलेना चाहिये । कि इस
क्लेशोत्पादक होती हैं, और अन्य छाया मनुष्य की आय समाप्त हो चकी है और ! सुखकारक होता है ॥ जो किसी प्रत्यक्ष कारण से उक्त भावों को | । प्रभा के सात भेद । प्राप्त हुई हो तो कुछ बिचार नहीं है। प्रभोक्ता तैजसीसर्वासातुसप्तविधास्मृता४९
अथवा जिसकी आंखों में प्रतिच्छायामयी | रक्ता पीता सिता श्यामा हरितापांडुरा सिता 'कन्यका दिखाई न दे तो उसे भी गतायु
तासां याः स्युर्विकासिन्यः बिग्धाश्च ।
विमालाश्च याः ५० समझना चाहिये । आंख की पुतली में दे- | ताःशुभा मलिना रूक्षाःसंक्षिप्ताश्चासुखोदया। खने वाले का जो प्रतिविव पडता है उसे | अर्थ-ग्रंथकारोंने प्रभा को तैजसी
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