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(३२०)
___ अष्टांगहृदय ।
बताया है और कहते हैं कि सात प्रकार. ) यो ललाटात्त स्वेदः श्लथसंधानबंधनः। की होती है, जैसे रक्ता, पीता, श्वेता,
उत्थाप्यमान समुह्येधो बली दुर्वलोपि वा ॥
उत्तान एव स्वापितियः पादौ विकरोति च। श्यामा, हरिता, पांडुरा और श्यामा । इन
शयनासनकुडयादौ योऽसदेव जिघृक्षात ॥ से जो प्रभा विकासी, विमल और स्निग्ध अहास्यहासी समुह्यन् यो लेढि दशनच्छदो। हैं ये शुभफलदायक हैं । जो मलीन, रूक्ष उत्तरोष्ठ परिलिहन फूत्कारांश्च करोति यः और संक्षिप्त हैं. वे अशभसूचकहैं ॥ यमभि द्रवति च्छाया कृष्णा पीताऽरुणाछाया और प्रभा का अंतर ।
ऽपि वा। वर्णमाकामति छाया प्रभा वर्णप्रकाशिनी ५१ |
भिषग्भेषजपानान्मगुरुमित्रदिषश्च ये ६० ॥
वशगाःसर्व एवैते विझेयाःसमवर्तिनः। , भासने लक्ष्यते छाया विकृष्टे भा प्रकाशते ।
अर्थ-जिस मनुष्य के कंधे शिथिल हो . अर्थ-छाया रक्तादि वर्ण का आक्रमण
गये हों और पांवों को घिसटाकर चलताहो करती है अर्थात् वर्ण का पराभव करके
जो निरंतर हितकारी बहुतसा भोजन करती ठहरती है और प्रभा वर्ण को ही प्रका
हुआभी बलहीन होता चलजाता है । जो शित करती है । छाया पास से दिखाई देती है और प्रभा की झलक दूरसे ही
थोडा खाकर बहुत मलमूत्र त्यागना है का
बहुत खाकर थोडा मलमूत्र त्यागता है जो दिखाई देती है ।
अल्प भोजन करनेवाला वा कफसे पीडित छाया और प्रभाकी व्याप्ति।
होकर लंबे श्वास लता है वा चेष्टा करता नाऽच्छायो नाऽप्रभः कश्चिद्विशेषा
विद्वयति तु ५२ / है, जो पहिले दीर्घ श्वास लेकर फिर छोटे नृणां शुभाशुभोत्पत्ति काले छायासमाश्रयाः | श्वास लेता हुआ दुखित होता है । जो
अर्थ-कोई भी मनुष्य छायारहित वा | छोटे श्वास लेता हो और नाडी उसकी प्रभाहीन नहीं होता है । छाया और प्रभा | विषमभाव में स्पन्दन करती हो जो प्रपाके देहसंबंधी विशेष भाव मनुष्यों के शुभा-णिक अर्थात् हाथ के पश्चात् भाग को शुभकी सूचना करते हैं।
टेढा करके कठिनता से सिरको चलायमान अन्य रिष्ट चिन्ह ।
करता है । जिसके ललाट से पसीने नि. निकषन्निवयः पादौ च्युतांसःपरिसर्पति५३
कलते हों वा संधियों के बंधन शिथिल हो हीयते बलतः शश्चद्योऽन्नमश्नन् हित बहु ।
गये हों । जो बलवान् वा दुर्बल उठने योऽल्पाशी बहुविष्मूत्रो बवासी
चाल्पमूत्रविद् ५४ बैठने में मोह को प्राप्त हो, जो सदा चित्त योल्पाशीवा कफेना” दीर्घश्वसितिचेष्टते |
शयन करै, वा सोते समय पावों को वि. दीर्घमुन्छवस्य यो हुस्वं निःश्वस्य
कृत भाव में स्थापित करै । जो शय्या आ.....
परिताम्यति ५५ हुस्वंच याप्रश्वासितिघ्याविध स्परतेभृशम सन वा भीतमें अविद्यमान वस्तुओं के ग्रहण शिविक्षिपतेकृच्छ्रार्थोऽचयित्वाप्रपाणिको की इच्छा करता है, जो अहास्य विषयों में
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