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मष्टांगहृदय ।
अ० २३
आश्चोतन से दर्द, ललाई और दृष्टिनाश अंजन के भेद। ये रोग होते हैं । अत्यन्त शीतल आश्चो- छेखनं रोपणं दृष्टिप्रसादनाभति त्रिधा। . तन से नेत्रों में सुई चुभनेकी सी पीडा, ।
अंजनम् लेखनं तत्र कषायाम्लपटूषणैः १० ॥ स्तब्धता और शूल होते हैं । अतिमात्र
रोपणं तिक्तकैटव्यैः स्वादुशीतैः प्रसादनम् ।
अर्थ-अंजन तीन प्रकार का होताहै भाश्चोतन से पलकों में ललाई, पलकों का
जैसे लेखन, * रोपण, और दृष्टिप्रसादन आपस में चिपट जाना, कठिनता से खुलना ये रोग होते हैं । अत्यल्प आश्चोतन से
इन में से कषाय, अम्ल, लवण और कटु
द्रव्य द्वारा लेखन, तिक्त द्रव्य द्वारा रोपण, रोग की वृद्धि होती है और अपरित अक्षिसेचन से नेत्रक्षोभ होता है।
मधुर और शीत वार्यवाले द्रव्य द्वारा दृष्टि · युक्तिपूर्वक प्रयुक्त औषधका फल ।
प्रसादन अंजन तयार किया जाता है । गत्वासधिशिरोघ्राणमुखस्रोतांसि भेषजम् ।
___ अंजनकी शलाका का प्रकार । ऊर्ध्वगान्नयनेन्यस्तमपबर्तयते मलान् ॥ ७॥
दशांगुला तनुमध्ये शलाका मुकुलानना ॥ ___अर्थ-नेत्रों में डाली हुई औषध आंखों
प्रशस्ता लेखने ताम्रीरोपणे काललोहजा।
अंगुली च सुवर्णोत्था रूप्यजाच प्रसादने॥ की संधि, मस्तक, नासिका और मुखस्रोत
___ अर्थ-अंजन लगाने के लिये दस अं. में गमन करके ऊर्ध्वगामी संपूर्ण मल को
गुल लंबी बीचमें पतली और दोनों सिरेपर दूर कर देती है। अंजन प्रयोग।
मुकुल के आकार के सदृश सलाई होनीअथांऽजनं शुद्धतनोर्नेत्रमात्राश्रये मले।
चाहिये । लेखन अंजन में तांबे की सलाई पक्वलिंगेऽल्पशोफातिकंडूपैच्छिल्यलक्षिते॥ और रोपण अंजन में लोहेकी सलाई अथवा मंदघर्षाश्रुरोगेऽक्षिण प्रयोज्यं धनदूषिके। । उंगली और प्रसादन अंजनमें सौनेकी अथवा आतेपित्तकफासुम्भिारुतेन विशेषतः ९॥
रूपेकी सलाई उत्तम होती है। - अर्थ-आश्चोतन के पीछे अंजनका प्र- |
अंजनकी त्रिविध कल्पना । योग करना चाहिये । विरेचनादि से शुद्ध
पिंडोरलक्रिया चूर्णस्त्रिधैवांजनकल्पना । हुए रोगी के नेत्र में रोग उत्पन्न करने वाला | गुरोमध्ये लधौ दोषे ताःक्रमेण प्रयोजयेत् ॥ दोष नेत्र मात्र में आश्रित हो जाताहै तथा
___ + जैले शस्त्र द्वारा किसी वस्तु को थोडी सूजन, अधिक खुजली, पिच्छिलता, काटकर अलग कर देते हैं वैसे ही अंजन अल्पघर्ष ( कुछ पलकों का चिपटना ] कुछ द्वारा शुक्रार्मादि नेत्र रोग छीलकर अलग आंसू टपकना, नेत्र के मल में गाढापन आदि किये जाते हैं इस से इसे लेखनांजन कहते जब पक्क होने के लक्षण दिखलाई देने लगें
हैं । जिस अंजन से अभिष्यन्दादि नेत्ररोग
का सरोहण होता है उसे रोपणांजन कतब अंजन लगाना उचित है । पित्त, कफ,
हते हैं और जिससे दृष्टि निर्मल होकर प्ररक्त और वातपीडित रोगी के लिये अंजन
फुल्लित होजाती है उसे दृष्टिप्रसादन अंलगाना विशेष हितकारी है।
अन कहते हैं।
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