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अष्टांगहृदय । .
रूक्षादि गुणविशिष्ट जो आहार वह स्रोतों | अर्थात् छिद्र चारों ओर फैले हुए है उन्हीं का दूषित करने वाला है, इसी तरह वाणी | के द्वारा जठराग्नि से पकाए हुए आहार का देह, मन और चेष्टा के समान दोषविशिष्ट | प्रसाद नामक रस बनकर संपूर्ण धातुओं की विहार भी स्रोतों का प्रदूषक है । इसी | वृद्धि करता है। तरह जो आहार वा जो विहार रसादि किसी । स्रोतोव्यध के अवगुण । धातु द्वारा विगुण होजाय अर्थात् असमान व्यधेतु स्रोतसां मोहकंपाध्मानवमिज्वराः । गुण वा विपरीत गुणवाला होजाय तो वह । प्रलापशूलविण्मूत्ररोधो मरणमेव वा॥ भी स्रोतों को दूषित करता है।
स्रोतोविद्धमतो वैधःप्रत्याख्याय प्रसाधयेत् । स्रोतों की दुष्टिका लक्षण ।
उद्धृत्य शल्यं यत्नेन सधाक्षतविधानतः ॥ अतिप्रवृत्तिःसंगोबासिराणां ग्रंथयोऽपिवा।
___ अर्थ-स्रोतों के विद्ध होजाने से मूर्छा विमार्गतोवागमनं स्रोतसां दुष्टिलक्षणम् ॥ कंपन, अफरा, वमन, ज्वर, प्रलाप, शूल,
अर्थ-मत्रादिवाही स्रोतों की अति प्रवृ- पुरीपरोध, मूत्ररोध, तथा मृत्युभी होजाती ति वा संग ( जैसे प्रमेह की तरह बहुत
है । इसलिये वैद्यको उचित है कि उसके मूत्र होना अति प्रवृत्ति है, मूत्रकृच्छ्की तरह
| आत्मीय स्वजनों से यह बात सूचित करदे कम मुत्र होना संग वा अतिप्रवृत्ति है तथा
कि स्रोतोविद्ध रोगी के जीवन में संशय थोडारहोना अथवा उदावर्त रोगकी तरह पुरीष
है, यह कहकर बहुत सावधानी से शल्य का सर्वथा न होना संग अथवा अप्रवृत्तिहै)
को निकालकर सद्योव्रणप्रतिषेध में कही येस्रोतों की दुष्टि के लक्षण है । इसी तरह हुई रीति से चिकित्सा करने में प्रवृत्त हो। रसरक्तादिवाही स्रोतों की प्रवृत्ति वा अप्र- धन्वंतरि और आत्रेयका मत । बृत्ति द्वारा स्रोतों की दुष्टि के लक्षण जाने | अन्नस्य पक्ता पित्तं तु पाचकाख्यं पुरोरितम् । जाते है । अथवा सिरा के स्रोतों में ग्रंथि
दोषधातुमलादीनामूष्मेत्यायशासनम् ॥
___ अर्थ-धन्वन्तरि का मत है कि पहिले वा कुटिल भाव होना स्रोतों की दुष्टि के
दोषभेदीयाध्याय में कहा हुआ पाचक नाम लक्षण हैं अथवा अपने मार्ग को छोडकर
वाला पित्त भुक्त अन्न का पकानेवाला है, अन्यमार्ग में प्रवृत होना ये भी स्रोतों की
किंतु आत्रेय मुनि का यह मत है कि वादुष्टि का लक्षण है।
तादि दोष, रसादि धातु और पुरीषादि मल स्रोतों के द्वार। बिसानामिव सूक्ष्माणि दूरं प्रविसृतानि च।
तथा दूषकादि की ऊष्मा ही पाचक द्वाराणि स्रोतसांदेहे रसो यैरुपचीयते ॥ | अग्नि है। . अर्थ-जैसे संपूर्ण कमलनाल में छोटे | ग्रहणी का वर्णन । छोटे छिद्र दूर तक फैले हुए होते है वैसे | तदधिष्ठानमन्नस्य ग्रहणादग्रहणी मता । ही संपूर्ण देह में स्रांतों के छोटे २ मुख | सैव धन्वंतरिमते कला पित्तधरायया ।
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