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अ३
शारीरस्थान माषाटीकासमेत ।
आयुरारोग्यवस्जिोभूतधात्वाग्निपुष्टये। त ग्रहणीसे अग्नि और अग्निसे ग्रहणीको स्थितापक्वाशयद्वारि भुक्तमार्गाऽर्गलेवसा अर्थ-उस जठराग्नि का आधार ग्रहणी
बल मिलता है इसलिये अग्नि के दूषित हो. नाडी है, यही भुक्तान को ग्रहण करती है
ते ही ग्रहणी दूषित होकर रोगोपदिक होइसलिये इस नाडी का नाम ग्रहणी है ।
ती है । इसीतरह ग्रहणीके दूषित होनेसे अ. धन्वन्तरि के मत से इसीका नाम पितधरा ।
ग्नि दूषित होकर रोगोत्पादक होती है ।। कला है । क्योंकि ग्रहणी नाडी पाचकाग्नि
अग्निद्वारा अन्नपाक।
यदन्नं देहधात्वोजोबलवर्णादिपोषणम्। . की आधारभूत है; और भुक्तान्नको ग्रहण | तत्राऽग्निर्हेतुराहारान हपक्वाद्रसादय:५०॥ करती है इससे इसे ग्रहणी कहते हैं अतः अर्थ-र्जा अन्न देह, धातु, ओज और अवश्यही. इसके द्वारा आयु, आरोग्यता, | बल वर्णादि का पोषण करता है । वह सब वीर्य, ओज, पार्थिवादि पंचभताग्नि तथा | आनिके ही द्वारा होता है । इसका कारण सातों धात्वग्नियों की पुष्टि संपादन होती यह है कि विना पके आहारसे रसरक्तादि धा है । यह ग्रहणी पक्वाशय के द्वारपर स्थित तुओं की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और रहती है और मुक्त अन्नको पक्वाशय में | इसलिये देहादि की पुष्टि भी नहीं हो सकजाने से रोकने के लिये अगेला ती है। इसका यह सारांश है कि अमिही का काम देती है और भुक्तान्न को जठराग्नि अन्नपाक का कारण है और अन्न ही अग्नि से पकाती हुई धीरे धीरे पक्वाशय में के प्रभाव से देहादि की पुष्टिका साधन है। पहुंचाती है।
शरीर में पाकका प्रहार । पक्कअन्न के गुण ।
अन्नं कालेऽभ्यबहृतं कोष्ठं प्राणानिलाहतम् । भुक्तामामाशये रुध्वा साविपाच्य नयत्यधः। द्रवैविभिन्नसंघातं नीतं मेहेन मार्दवम् ५५॥ बलबत्यवला त्वन्नमाममेव बिमुंचति ॥५२॥ संक्षितः समानेन पचत्यामाशयस्थितम् । ___ अर्थ-यह ग्रहणी नाडी यदि बलवती औदयोऽग्निर्यथा बाह्यः स्थालीस्थंहो तो भुक्त अन्नको आमाशय में रोककर
तोयतंडुलम् ॥५६॥ अनेक तरहसे पकाकर नीचे पक्वाशयमें ले.
अर्थ-आहार के उचित काल में अर्थात् जाती है और जो निर्बल होती है, तो भुक्ता
मलमूत्र के त्याग के पीछे भोजन किये न को बिना पकाये ही नीचेको निकाल
हुए अन्न को प्राणनामक वायु कोष्ठ में
लेजाता है, वहां जल, व्यजन, मद्य, दूध अहणी और अग्निका अन्योन्यसंबंध । ।
आदि पतले पदार्थ अन्न के कठोरपन को ग्रहण्या बल मग्निहि सचापिग्रहणीबलः।। १-क्षेपकः । वामपार्थाश्रितं ना किंचि. दूषितेऽग्नावतो दुष्टा ग्रहणी रोगकारिणी ॥
त्सूर्यस्य मण्डलम् । तन्मध्येमण्डलम् सौभ्यं अर्थ-क्योंकि ग्रहणीके बलका हेतु अग्नि
| तन्मध्येऽग्निर्व्यवस्थितः। जरायुमात्र प्रच्छंहै और अग्निके बलका हेतु प्रहणी है अर्था- नः काचकोशस्थदीपवत् ॥१॥
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