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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
ही भूताग्नि और धात्वादि अग्नियों की मूल है । इसी पाचकाग्नि की वृद्धि और क्षय से ही उनकी भी वृद्धि वा क्षय होता है इस लिये उचित है के हितकारी अन्नपान के विविधि प्रयोगों द्वारा यत्नपूर्वक सेवन करने से पाचकाग्नि की रक्षा करै । जैसे ईंधन के लगाने से अग्नि की वृद्धि होती है, कारण यही है कि पाचकाग्नि की स्थिति परही आयु और बलकी स्थिति निर्भर है । जठराग्नि के चार भेद । समः समाने स्थानस्थे विषमोऽग्निर्विमार्गगे । पित्ताभिमूर्छिते तीक्ष्णो मंदोऽस्मिन्कफपीडिते ॥ ७३ ॥ समोऽग्निर्विषमस्तीक्ष्णो मंदश्चैवं चतुर्विधः
अर्थ- - जब समान वायु अपने स्थान में रहता है तब जठराग्नि सम होती है और जब समान वायु अपने स्थान को छोडकर अन्य मार्ग में जाती है तब जठराग्नि विषम होजाती है, जब समान वायु पित्त से मूछित होती है तव जठराग्नि तीक्ष्ण होती है, इसी तरह कफ से पीडित होने पर अग्नि मंद होती है |
इस रीति से अग्निं चार प्रकार की होती है, जैसे समाग्नि, विषमाग्नि तीक्ष्णाग्नि और मंदाग्नि ।
चतुर्विध अग्नि के लक्षण | यः पचेत्सम्यगेवान्नं भुक्तं सम्यक् समस्त्वसौ विषमोsसम्यगण्याशु सम्यकूक्वापि
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अर्थ - जो अग्नि विधिपूर्वक किये हुए भोजन को सम्यक् रीति से पचाती है वह समाग्नि है | जो अग्नि देश, काल, मात्रा विधि आदि का विचार किये विना असम्यक् रीति से किये हुए भोजन को शीघ्र पचादेती है और जो कभी सम्यक् भुक्त अन्न को देर में पचाती है उसे विषमानि कहते जो अग्नि अतिमात्र वा असम्य
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कू भुक्त अन्न को भी शीघ्र पचादेती है ! वह तीक्ष्णानि है और जो अग्नि सम्यक् रीति से किये अल्प भोजन को भी मुख में शोपादिक उत्पन्न करके देर में पचाती है वह मंदाग्नि है | मंदाग्निवाले के पाचन काल में मुखशोष, पेट में गुडगुडाहट, अंत्रकूंजन, अफरा, और भारापन होता है । *
बलके भेद और लक्षण | सहजं कालजं युक्तिकृतं देहवलं त्रिधा । वयस्कृतमृतूत्थं च कालजं युक्तिजं पुनः । तत्र सत्वशरीरोत्थं प्राकृतं सहजं बलम् ७७॥ विहाराहारजनितं तथोर्जस्करयोगजं ७८
अर्थ - देहका वल तीन प्रकार का होता है । यथा, सहज, कालज और युक्तिकृत | इनमेंसे सत्व, रज, तम, इन तीनों गुण से
+ किसी पुस्तक में यह पाठ अधिक है शांतेग्नौ म्रियते युक्ते चिरंजीवत्यनामयः । रोगीस्याद्विकृते मूलमग्निस्तस्मान्नियच्यते । अर्थात् अग्नि के नष्ट होने पर मृत्यु चिरात्पचेत् । होती है, समभाव में स्थित होने पर निरोतीक्ष्णो वह्निः पचेच्छीव्रमसम्यगपि भाजनम् गता और दीर्घ जीवन होता है, विकृत होने मंदस्तु सम्यगप्यन्नमुपयुक्तं चिरात्पवेत् । पर अनेक प्रकार के रोग होते हैं अतएव कृत्वाऽस्यशोपाटोपांत्रकूजनाऽध्मान गौरवम् | अग्नि ही शरीर का मूल आधार है ।
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