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अष्टांगहृदये ।
((१६०)
ब्रह्मा बृहस्पति विष्णुः सोमः सूर्यस्तथाश्विनौ भगोऽथ मित्रावरुणौ वीरं ददतु मे सुतम्अर्थ - इस मंत्र का पाठ करे । शेष भी तू ही है। आयुभी तू ही है धाता विधाता तुझे ब्रह्मतेजसे धारण करें । ब्रह्मा, विष्णु, बृहस्पति, चन्द्रमा, सूर्य, अश्विनीकुमार, भग मित्र, वरुण ये सब मुझको वीर पुत्रदें । मंत्रपठानंतर कर्म |
सांत्वयित्वा ततोऽन्यं संविशेतां मुदान्वितौ उत्ताना तन्मना योषित्तिष्ठेद्गैः सुसंस्थितैः॥ तथा हि बीजं गृह्णाति दोषैःस्व स्थानमास्थितैः
अर्थ - मंत्र पाठके पीछे दोनों स्त्री पुरुष आपस में एक दूसरेको प्यारी और मीठी बा तों से तृप्त करके बड़े प्रेमसे मिथुनीभाव में प्रवृत हो । समागमके समय स्त्रीको उचित है कि उसीमें मन लगाकर अपने सब अंग प्रत्यंगों की स्थिति को यथावत् करके सीधी शयन करै । ऐसा करनेसे वातादि संपूर्ण दो ष अपने अपने स्थानों में रहे आते हैं जिस से बीज के ग्रहण में सुभीता पडता है संग्रह में लिखा है ॥
नीची ऊंची वा करवट लिये हुए स्त्रीसे समागम न करे । कुबडेपन से बात वलवान् होनें से योनिमें पीडा होती है । दक्षिणपा में कफ योनि के मुखको ढक लेता है । वामपाइ में पित्त रक्त और शुक्र में दाह पैदा करता है। इससे उत्तरभावमें स्थित स्त्री बीज को ग्रहण करने में समर्थ होती है ॥ सद्यो गर्भा के लक्षण |
लिंगं तु सद्योगर्भाया योन्यां बीजस्य संग्रहः तृप्तिर्गुरुत्वं स्फुरणं शुक्रास्नाननुबंधनम् । हृ दयस्पंदन तंद्रातृड् ग्लानिर्लो मह र्षणम् ॥
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अ १
अर्थ - तत्काल गर्भको धारण करनेवाली ath ये लक्षण होते हैं । यथा - योनिमें बी. ज का सम्यक् रीतिसे ग्रहण, तृप्ति (आहा र की अनिच्छा ), कुखमें भारापन और फड कन, योनि के मुखसे शुक्र और शोणित का बहाव बन्द होजाना | हृदयस्पंदन, तंद्रा, तृषा ग्लानि, और रोमांच खडे होना । गर्भकी अवस्था ।
अव्यक्तः प्रथमे मासि सप्ताहात्कलली भवेत् गर्भः पुंसतवान्यत्र पूर्वे व्यक्तेः प्रयोजयेत् ॥ बली पुरुषकारो हि दैवमप्यतिवर्तते ।
गर्भाधान के सात दिन पीछे वह गर्भ कललीभूत ( कफकी सी ग्रंथि ) होकर प्रथम मांसमें अव्यक्त रहता है अर्थात् तब तक स्त्री वा पुरुषके उत्पन्न होने के लक्षण प्रकट नहीं होते हैं । इसलिये आकृति के प्रकट हो नेसे पहिले ही पुंसवनादि करे। यह गर्मिणी का संस्कार विशेष है |
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शंका--जब पूर्वजन्म के संस्कार से वह गर्भ स्त्री रूपमें प्रकट होने को है तव पुंसवनादि संस्कार से वहगर्भ पुरुषरूप में कैसे हो सकता है
समाधान--पुरुषकार( पुरुषार्थ ) यदि बलवान् हो और दैव यदि दुर्बल होतो बलवान पुरुषकार दुर्बल दैव अर्थात् प्रारब्धको उल्लंघित कर देता है किन्तु बलवान् दैवका दुर्बल पुरुषार्थ किसी तरह पराभव नहीं कर सकता है । यहां पुंसवनादि कर्मद्वारा सिद्धि वा असिद्धि का अनुमान करके पूर्वजन्म के किये हुए कर्म का हीनबलत्व और प्रवलाव जाना जाता है ।