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अ० २६
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत !
निर्विषाः शैवलश्यावा वृत्तानीलोर्ध्वराजयः ] थवा किसी शस्त्र से थोड़ा सा रक्त निकाकषायपृष्ठास्तन्वंग्यः किंचित्पीतोदराश्च याः
ल दे । जब पीती हुई जोक कंधे ऊंचे - अर्थ-निर्विष जोक निर्मल जल में पैदा
| करने लगे तब जान लेना चाहिये कि होती है इनका शैबाल ( सिवार) के सदृश
रुधिर को पी रही है । मक्खी आदि को श्याववर्ण होता है ये गोलाकार, नीलबर्ण
निवारण करने के लिये जोकपर बहुत पतला और ऊर्धरेखाओं से युक्त होती हैं । वटवृक्ष
वस्त्र ढक देना चाहिये। के सदृश रंगवाली पीठ, पतली देह और पेट में कुछ पीलाई होती है ।
.. जोकका स्वभाव । - त्यागनेयोग्य जोक ।
संपृक्ताद्दुष्टशुद्धास्राज्जलौका दुष्टशोणितम्
आदत्ते प्रथमं हंसः क्षीरं क्षीरोदकादिव। ताअप्यसम्यग्वमनात्प्रततं च निपातनात् ।
____ अर्थ-दूषित और शुद्ध मिले हुए रक्त सीदंतीःसलिलं प्राप्य रक्तमत्ता इतित्यजेत् ।
को पान करते समय जोक पहिले बिगड़े - अर्थ-केवल सविष जोकही त्यागनी नहीं । चाहिये, किन्तु रक्तमत्ता निर्विष जोक भी
हुए रुधिर को ही पाती है जैसे हंस जल त्याग देनी चाहिये, रक्तमत्ता में हेतु हैं, |
मिले हुए दूध में से प्रथम दूध को ही एक तो वे दुष्ट रक्तका अच्छी तरह वमन
पीता है। नहीं करती हैं । और लगने पर निरंतर
जोकका बमन बिधान । दुष्ट रक्तका पान किये चली जाती हैं इन |
दंशस्य तोदे कंड्वावा मोक्षयेद्वामयेच्च ताम्
| पटुतैलाक्तवदनां श्लक्ष्णकंडनरूक्षिताम् । . सब रक्तपूर्ण निर्विष जोकों को त्याग देना
रक्षनरक्तमदादूभूयः सप्ताह तान पातयेत्x चाहिये । इनकी पहचान यह है कि जल | पूर्ववत् पटुतादाढथै सम्यग्वांते जलौकसाम् के पात्र में डालने पर ये सुस्त और शि- | क्लमोऽतियोगान्मृत्यु - थिल हो जाती हैं।
दुर्वाते स्तब्धता मदः॥४६॥ जोको लगाने का नियम । अर्थ-जब जोक के दंश की जगह में अथेतरा निशाकल्फयुक्तऽभसि परिप्लताः॥ तोद वा खुजली हो तो जोकको छुडा देना अवंतिसोमे तके वा पुनश्चाऽश्वासिता जले। चाहिये यदि रक्तपान की लोलुपता से न लागयेद्धृतमृत्सांगशस्त्ररक्तनिपातनैः ॥ छोडे तो हलदी और नमक पीसकर उसके पिबंतीरुन्नतस्कंधाश्छादयेन्मृदुवाससा ।।
मुखपर बुरकते ही छोड देती है । छोडने पर ___ अर्थ-पूर्वोक्त रीति से परीक्षा करने के पीछे निर्विष जलौका को हल्दी के कल्क ___+ गुल्माशे विद्रधी कुष्ठ वातरक्त गला से युक्त जल में, अथवा कांजी वा तक में | मयान् । नेत्ररुग् विषबीसर्पान् शमयंति जपरिप्लुत करके निर्मल जल में आश्वासित
लौकसः । अर्थात् जोक गुल्म, अर्श, विद्रधि करके उत्साहित करै । और जिस स्थान
कुष्ठ, वातरक्त, कंठरोग, नेत्रपीडा, विष, वि
सादि रोगोंको नाश करती है । यह श्लोक पर लगानी हो वहां थोड़ा घी चुपड दे अ. | प्रक्षिप्त है।
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