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अष्टांगहृदये।
अर्थ - अच्छी तरह क्षारसे दग्ध हुआ स्था न पके हुए जामन के समान काले रंगका और म्लान होजाता है । दुर्दग्ध स्थान के लक्षण इससे विपरीत होते हैं इसका रंग तां बे के सदृश होता है इसमें तोद, कंडू, शो. फ, विस्फोट, आदि उपद्रव होते हैं । दुर्दग्ध को क्षार डालकर फिर जलाना चाहिये । अतिदग्ध स्थानमें से रक्त झरने लगता है। तथा मूर्छा, दाह, ज्वर, विसर्प, शोफ, बिस्कोट आदि उपद्रव होते हैं ।
अतिदग्धगुदा के उपद्रव । गुदे विशेषाद्विण्मूत्रसंरोधोऽतिप्रवर्तनम् । पुंस्त्वोपघातो मृत्युर्वा गुदस्य शातनाद्ध्रुवम्
अर्थ-गुदाके अतिदग्ध होनेपर पूर्वोक्त रक्तस्रावादि लक्षणों के सिवाय विष्टा और मूत्रका संरोध होता है और कभी कभी विष्टा मूत्र अधिकता से निकलने लगते हैं । तथा वीर्यके क्षीण होजाने से स्त्री गमनकी शक्ति नहीं रहती है और गुदा के विदीर्ण होने से मृत्यु भी होजाती है ।
क्षारातिदग्ध नाक कान | नासायां नासिकावंशदरणाकुंचनोद्भवः । भवेच्च विषयाज्ञानम् ।
तद्वच्छ्ोत्रादिकेष्वपि ॥ ३७॥ अर्थ - नासिका के क्षार से अतिदग्ध होने पर नासिका का बांस विदीर्ण हो जाता है । नीचे को बैठ जाता है तथा गंधग्रहणकी श
जाती रहती है ।
इसी तरह कान आंख और जिह्वादि के अतिदग्व होनेसे उन उन इंद्रियों के वि घयका ज्ञान जाता रहता है अर्थात् कानों से
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अ० ३०
सुनना, आंख देखना और जीभ से चखने का ज्ञान नष्ट हो जाता है । तथा अन्य उपद्रव भी उत्पन्न हो जाते हैं || क्षारदग्ध में कांजी आदि की उपयोगिता। विशेषादत्र से कोऽम्लैर्लेपो मधुघृतं तिलाः । वातपित्तहरा चेष्टा सर्वैव शिशिरा क्रिया । अभ्लो हि शीतः स्पर्शेन क्षारस्तेनोपसंहितः यात्याशु स्वादुतां तस्मादले र्निर्वापयेत्तराम्
अर्थ - अति क्षारदाधर्मे कांजी आदि खट्टे पदार्थ का उसपर डालना, वृत मधु और तिलका तेल, तथा वातपित्तका नाश करने बाली सब प्रकार की शीतल क्रिया विशेष रूप से हितकारी हैं । खटाई स्पर्श में शतिल होती है और क्षार स्पर्शमें उष्ण है इसलिये क्षारा तिदग्ध पर शीघ्रही कांजी आदि अम्लद्रव्य डालना चाहिये । इति क्षारकर्म |
क्षारसे अग्निकर्मको श्रेष्ठता । अभिः क्षारादपि श्रेष्टस्तद्दग्धानामसंभवात् । भेषजक्षारशस्त्रैश्च न सिद्धानां प्रसाधनात् ।
क्षार
अर्थ - क्षारकर्मसे अग्निकर्म श्रेष्ठ है, क्यों कि अग्निदग्ध किये हुए अर्शादिरोगों की फिर उत्पत्ति नहीं होती है । औषध, और शस्त्रद्वारा जो रोग शान्त नहीं होते हैं। वे सब रोग जडसे दूर होकर अग्निकर्मद्वारा अच्छे होजाते हैं |
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त्वचा में अग्निदाह |
त्वचि मांसे सिरास्नायुसंध्यस्थिषु स युज्यते मषांगस्लानिमूर्धातिमंथकी लतिलादिषु ॥ ४१ ॥ त्वदाहो वर्तिगोदसूर्यकांतशरादिभिः । अर्थ - अग्निदाह त्वचा, गांस, सिरा, स्नायु, संधि और अस्थि में कियाजाता है | इनमें से मस्सा' अंगग्लानि, मस्तक का दर्द, मंथ