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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत !
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कृत्वाऽग्निवर्णान् बहुशः क्षारोत्थे कुडवोन्मिते निर्वाय पिट्वा तेनैव प्रतीवापं विनिक्षिपेत् । लक्ष्णं शकृद्दक्षशिखिगृध्रकंककपोतजम् ॥ चतुष्पात्यक्षिपित्ताल मनोहालवणानि च । परितः सुतरां चाऽतो दर्या तमवट्टयेत् ॥ सबाष्पैश्च यदोतिष्ठेदुदैर्लेहवद्धनः । अवतार्य ततःशीतो यवराशावयोमये ॥१२॥ स्थाप्योऽयं मध्यमः क्षारो
अर्थ - क्षार तीन प्रकार का होता है। मृदु, मध्यम और तीक्ष्ण इनमें से मध्यम क्षार बनाने की यह रीति है कि काल मुष्कक ( मोखावृक्ष ) अमलतास, केला, पारिभद्र अश्वकर्ण ( कुशिक ) महावृक्ष ( थूहर ), ढाक, आस्फोत (गिरिकर्णिका) नंदीवृक्ष, कुडा, आक, पूतीक (पूतिकंजा ) कंजा, कनेर, काकजंघा, ओंगा, अरनी, चीता, सफेद लोध इन सत्र हरे वृक्षों की जड पत्ते और शाखा लाकर छोटे छोटे टुकडे कर डाले, चार कोशातकी और जौ का शूकनाल इन सबको वायुरहित स्थान मैं इकट्ठा कर ले और पत्थर की शिला पर मोखा आदि के ढेर में सुधा शर्करा ( चूना ) डालकर तिलकी लकडियों में धरकर अग्नि लगादे, आग बुझ जाने पर सुधा शर्करा की भस्म एक द्रोण पृथक् करले तथा शम्याकादि की भस्म एक द्रोण अलग ले इनमें मोखे की भस्म अधिक लीजाती है फिर बीस तुला जल और बीस पल गोमूत्र मिलाकर काष्ठभस्म को उस में मिलाकर एक बडे वस्त्रमें इक्कीस वार छाने । इस छने हुए क्षार जलको लोहे की कढाई में
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भरकर कलछी से चलाता रहै और जब यह पकता हुआ क्षारजल पिच्छिल, रक्तवर्ण निर्मल और तीक्ष्ण होजाय तब इसमें से ८ पल निकालकर दूसरे लोहे के पात्र में रख ले और इसमें सुधाभस्म, शर्करा, सीपी, क्षारपंक, शंख नाभि अग्नि के तुल्य लाल कर कर के बहुत बार बुझावै, तथा उसी क्षारजल से पूर्वोक्त भस्म को पीसकर पकते हुए क्षार जल में प्रतीवाप करे ( पतले पदार्थ में वारीक पिसे हुए अन्य द्रव्य को डालने का नाम प्रताप है ) । इस प्रतीवाप के सिवाय मुर्गा, मोर, गृध्र, कंक और कपोत पक्षियों की बीट तथा गौ आदि, चौपाये जानवरों के गोवर और पित्त, तथा हरताल, मनसिल और सैन्धवादि नमक महीन पीस कर प्रतीवाप करै । तदनंतर कलछी से लगातार चलाता रहे। जब इस क्षारजल में भाफ उठने लगे और बुलबुले उठने लगें और गाढा अवलेह के समान हो जाय तब इसे उतार कर लोहे के कलश में ठंडा होने पर भरदे और जौके ढेर में इस कलश को गाढदे । यही मध्यम क्षार बनता है ।
मृदु तीक्ष्ण क्षार ।
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न तु पिष्ट्वा क्षिपेन्मृदौ ।
निर्वाप्यापनयेत्
तीक्ष्णे पूर्ववत् प्रतिवापनम् ॥२०॥ तथा लांगलिकादं तिचित्र कातिविषावचाः । स्वर्जिकाकनकक्षीरिहिंगुपूतीकपल्लवाः । तालपत्री बिडं चेति सप्तरात्रात्परं तु सः । योज्यः
अर्थ - जो मृदु क्षार बनाना हो तो