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(१७८)
अष्टांगहृदये।
म०१९
कि हिलने न पावै फिर उसमें पतली सलाई | पड़ने पर ऋतुकाल को छोड़कर अन्य समय प्रवेश करदे । इससे पीछे लिंगकी सीमन | भी उत्तर वस्तिका प्रयोग किया जाया है। पर ध्यान देता हुआ गुदाके तुल्य लिंगके / ( रजोदर्शन के दिन से बारह दिन पर्य्यन्त अन्त तक अर्थात् प्रायःछः अंगुल तक ऐ. ऋतुकाल होता है)। सी रीति से नेत्र का प्रयोग करै कि हिलने नेत्रका प्रमाण । न पावै । नेत्र के स्थापन के पीछे वास्तपुट नेत्रं दशांगुलं मुद्रप्रवेशं चतुरंगुलम् । को दावकर स्नेह को भीतर प्रवेश करदें
अपत्यमार्गेयोज्यं स्याद् द्वंधगुलं मूत्रवर्त्मनि॥ फिर जो जो बातें स्नेहवस्ति में कही गई
मूत्रकुच्छ्रविकारेषु बालानां त्वेकमंगुलम् ।
अर्थ--स्त्रियों के लिये जो उत्तर वस्ति दी हैं उन सबका यथावत् पालन करै अर्थात्
जाती है उसके नेत्रका प्रमाण रोगीके दस हाथ और पाणि द्वारा कूल्हों को धीरे धीरे
अंगुलके तुल्य होता है । नेत्रके अग्रभाग का थपथपावै ।
छिद्र मूंगके समान होता है । स्त्रीके अपत्य उत्तरवस्ति की संख्या ।। बस्तीननेन विधिना दद्यात्वीश्चतुरोऽपिवा
मार्ग में अर्थात् जिस मार्गसे स्त्री गर्भ ग्रहण अनुवासनवच्छेषं सर्वमेवाऽस्यचितयेत् ।
करती है वा बालक जनती है उस मार्ग में . अर्थ-इसी नियम से तीन बार वा चार | नेत्रका प्रवेश चार अंगुल करै । मूत्रकृच्छ्रादि बार उत्तर वस्ति का प्रयोग करै । उत्तर | रोगों में मूत्रमार्ग में दो अंगुल नेत्रका प्रवेश वस्ति के विधि, नियम, सम्यक् प्रयोग और | करै । परन्तु छोटी अबस्थाबाली लडकियों उपद्रव आदि सब ही अनुवासन के समान के एकही अंगुल प्रवेश करै । होते हैं ।
उत्तरवस्ति की मात्रा । त्रिओं को उत्तरवस्ति । प्रकुंचो मध्यमामात्रा बालानां शुक्तिरेवतु ॥ स्त्रीणामार्तवकाले तु योनिZहात्यपावृतेः ॥ ___ अर्थ-स्त्रियों के लिये उत्तर वस्ति में विधीत तदा तस्मादमृतावपि चात्यये। स्नेहकी मध्यममात्रा आठ तोला होतीहै (उ. योनिविभ्रंशशूलेषु योनिव्यापदसृग्दरे ७८॥
त्तम वा कनिष्ठ मात्रा का प्रयोग नहीं होता अर्थ-अब हम स्त्रियों की उत्तर वास्त । का वर्णन करते हैं । ऋतुकाल में योनिका
है ) किन्तु छोटी लडकियों के लिये चार
तोलेकी मध्यम मात्रा होती है। मुख खुल जाता है इस लिये उस समय में योनि उत्तर वस्ति के स्नेह को सहज ही ब्रिोको उत्तरवस्तिकी बिधि । में ग्रहण करलेती है, इस लिये उसी काल | उत्तानायाः शयानाथाः सम्यक् संकोच्य
सक्थिनी। में उत्तर वस्तिका प्रयोग करना चाहिये ।
ऊर्ध्वजावास्त्रिचतुरानहोरात्रेण योजयेत् ॥ किन्तु योनिदंश, योनिशूल, योनिव्यापत वस्तीत्रिरात्रमेवंच स्नेहमात्रांविबर्द्धयेत । और प्रदरादि भयंकर रोगों में आवश्यकता अर्थ-जिस स्त्रीको उत्तरवस्ति देनी हे
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