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अ० १९
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
aft प्रयोग की विधि | अथाऽस्य नेत्रं प्रणयेनिग्धे स्निग्धमुखं गुदे ॥ उच्छवास्य बस्तेर्वदने बद्धे हस्तमकंपयन् । पृष्ठवंशं प्रति ततो नाऽतिदुतविलंवितम् ॥ नातिवेगं न वा मंदं सकृदेव प्रपीडयेत् । सावशेषं च कुर्वीत वायुः शेषे हि तिष्ठति ॥ अर्थ- - ऊपर कही हुई रीति से रोगी को लिटा कर उसकी गुदा में तेल आदि चिकनाई लगादे और बस्ति के मुख में फूंक मारकर उच्छास वायुको निकाल बांधदे और उसके नेत्रपर भी चिकनाई लगावै गुदाके द्वारपर लगादे | फिर न बहुत जल्दी, न बहुत विलंवसे, न बहुत बेगसे, और न बहुत मदतासे और हाथ भी न कांपने पावै ऐसी रीति से पीठ के बांसे की ओर बस्ति को एकदम पीडन करै । और वस्ति में थोडासा स्नेह रहने दे I क्योंकि बचे हुए स्नेहमें बायु रहता है | afta पीछे की क्रिया । - दत्ते तूत्तानदेहस्य पाणिना ताडयेत्स्फिजौ । तत्पाणिभ्यां तथा शय्यां पादतश्च त्रिरुत्क्षिपेत्
अर्थ-स्नेह के अति देने पर रोगी को ऊंचा शरीर करके सुलादेवे और उसके दोनों कूल्हों पर दोनों हाथ और पिंडलियों 'से थपथपावै, और उसकी खाट को पैरों की और तीन बार ऊंची करै । स्नेहनिवृत्ति |
ततः प्रसारितांगस्य सोपधानस्य पार्णिके । आहन्यान्मुष्टिनांगं च स्नेहेनाभ्यज्य सर्दयेत् ॥ वेदनार्तमिति स्नेहो नहि शीघ्रं निवर्तते । योज्यः शीघ्रं निवृत्ते ऽन्यः स्नेहोऽतिष्ठन्नकार्यकृत्
अर्थ - तदनंतर तकिये के ऊपर सिरधर के रोगी को लंबा सुलादे और उसके पाणि
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देश में धीरे धीरे मुट्ठियों से कूटे और उसके देह पर तेल लगा कर मर्दन करै । ऐसा करने का यही कारण है कि अंगके बेबना युक्त होने पर स्नेह शीघ्र बाहर नहीं निक ल आवे तो फिर स्नेह प्रविष्ट करना चाहि
क्योंकि शरीर के भीतर स्नेह न रहै तो स्नेहन कर्म करने में समर्थ नहीं हो सकता है ।
वृत्ति के पीछेका कर्म । दीप्तानि त्वागतस्नेहं सायाह्ने भोजयेल्लघु ।
अर्थ - स्नेहन से निवृत्त होने पर क्षुधा . के चैतन्य होने पर रोगी को सायंकाल के समय यथारुचि हलका भोजन करावे ।
स्नेहनिवृत्ति का काल ! निवृत्तिकालः परमस्त्रयो यामास्ततः परम् । अहोरात्रमुपेक्षेत परतः फलवर्तिभिः । : तीक्ष्णैर्वा वस्तिभिः कुर्याद्यत्तं स्नेहनिवृत्तये ॥
अर्थ - शरीर से स्नेह के निकल जानेकी परमावधि तीन पहर है, किन्तु तीन पहर में स्नेह न निकले तो स्नेह के निकालने के लिये कोई यत्न न करके एक रात प्र तक्षा करै । इससे पीछे स्नेह के निकाल ने के लिये अर्शचिकित्सित प्रकरण में कही हुई फलवर्ति और वस्तिकल्प में कही हुई तक्ष्णवास्तयों का प्रयोग करै ।
स्नेहके न निकलने पर कर्तव्य । अतिरौक्ष्यादनागच्छन्न चेजाड्यादिदोषकृत् । उपेक्षेतैव हि ततोऽध्युषितश्च निशां पिबेत् प्रातर्नागरधान्यांभः कोष्णं केवलमेव वा ।
अर्थ - अति रूक्षता के कारण जो स्नेह शरीर के बाहर न निकले और भीतर रह
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