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(१९४)
अष्टांगहृदये। ..
भ०१७
अर्थात् स्नेहपान वा स्नेहमर्दनद्वारा स्निग्ध । पीडा कम हो जाय, तथा शरीर के हाथ न होकर पसीने ले । यदि रोगी कफवात पांव आदि अंगों में कोमलता हो जाय तब से पीडित हो तो किसी अंग में रूक्ष और जान लेना चाहिये कि स्वेदन होगया । किसी में स्निग्ध स्वेद देना चाहिये। स्वदित होने के पीछे रोगी के शरीर पर
आमाशयादि व्याधिस्वेदविधि । । कोमल हाथों से धीरे धीरे मर्दन करके गरम आमाशयगते वायौ कफे पक्वाशयाश्रिते१३॥ | जल से स्नान करावै फिर स्नेहविधि में कही लक्षपूर्व तथा स्नेहपूर्व स्थानानुरोधतः।
स्थानानुराधतः हुई रीति से रोगी की पालना करै ।। ____अर्थ-जो वायु आमाशयमें चलागया हो
___ अतिस्वेद से हानि । तो प्रथम रूक्ष स्वेद लेकर पीछे स्निग्ध
पित्ताऽस्म्रकोपतृणमूस्विरांगसदनभ्रमाः । स्वेद लेना चाहिये । तथा कफ के पक्काशय / संधिपीडाज्वरश्यावरक्तमंडलदर्शनम् ॥१६॥ में जाने पर प्रथम स्निग्ध फिर रूक्ष स्वेद लेना | स्वेदाऽतियोगाच्छर्दिश्च तत्रस्तंभनमौषधम् चाहिये । इस नियम का कारण यह है कि । विषक्षाराऽग्न्यतीसारच्छर्दिमोहातुरेषु च ।
___अर्थ-अधिक पसीने देने से रक्तपित्त आमाशय कफका स्थान है और वाय आ.
का प्रकोप, तृषा, मूर्छा, स्वरकी क्षीणता, गन्तु है, इस लिये कफ की शान्ति के नि
देह में शिथिलता, भ्रम, सन्धियों में पीडा, मित्त प्रथम रूक्ष और वायु की शांति के । लिये पीछे स्निग्ध स्वेद दिया जाता है
ज्वर, काले और लाल चकत्ते, और वमन इसी तरह पक्काशय वायुका स्थान है और
ये सब उपद्रव उत्पन्न हो जाते हैं । इसमें
| स्तंभन औषध का प्रयोग करना चाहिये । कफ आगन्तु है इस लिये वायुकी शांति के लिये रूक्ष स्वेद दिया जाता है ।
तथा विष, क्षारकर्म, अग्निकर्म, अतिसार, ___ वंक्षणादिस्थानमें स्वेदविधि ।
वमन और मूछी इन रोगों में भी स्तंभन अल्पं वंक्षणयोः स्वल्पंदृङ्मुष्कहृदयेनवा१४ |
औषधका प्रयोग करना चाहिये । अर्थ-जिस जगह पर वद होती है उस स्वेदनस्तंभन औषध । स्थान को जंघाकी संधिपर्यंत वंक्षण कहते स्वेदन गुरु तीक्ष्णोष्णं प्रायः स्तंभनमन्यथा हैं इस स्थान में अल्प स्वेद देना चाहिये। द्रवस्थिरसरस्निग्धरूक्षसूक्ष्मं च भेषजम् १८ नेत्र, अंडकोश और हृदय इन स्थानों में
स्वेदनं स्तंभन श्लक्ष्णं रूक्षसूक्ष्मसरद्रवम् । पसीने की आवश्यकता हो तो बहुत कम स्वेद
___अर्थ - जो औषध भारी तीक्ष्ण और देवे अथवा दैना ही उचित नहीं है ।
गरम होती है वह स्वेदन होती है । और ... स्वेदित पुरुषोंका कर्तव्य ।
जो इससे विपरीत अर्थात् हलकी, मंद शीतशूलक्षये स्विन्नो कारोऽशान च मार्दवे
और ठंडी होती है वह स्तंभन होती है । स्याच्नमादेतःस्वातस्ततः स्नेहविधि भजेत् | जा आषध द्रव, स्थिर, सर, स्नाय,
जो औषध द्रव, स्थिर, सर, स्निग्ध, रूक्ष अर्थ-जिस समय देह में ठंडापन हा और सूक्ष्म गुणयुक्त होती है वह स्वेदन
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