________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
अ० १७
www. kobatirth.org
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
होती है, तथा जो श्लक्ष्ण ( सूक्ष्म कोमल ) रूक्ष, सूक्ष्म, सर और होती है वह स्तंभन होती है । स्तंभन औषधका रस । प्रायस्तिक्तं कषायं च मधुरं च समासतः ॥ अर्थ - प्रायः जो औषध तिक्त, कषाय और मधुर रसवाली होती है वह संक्षेप से स्तंभन औषध होती है ।
और
द्रव्य
स्तंभित के लक्षण | स्तंभितः स्याद्वले लब्धे यथोक्तामयसंक्षयात् अर्थ - जिस औषध से मनुष्यको बल प्राप्त हो और अति स्वेदन से उत्पन्न हुए रोग नष्ट होजांय तो जानलेना चाहिये कि स्तंभन औषधे ने अपना गुण दिखादिया है।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( ११५ )
मिर रोगी, उदरविकारी, विसर्परोगी, कोढी, शोषरोगी, वातरक्तरोगी, तथा जिसने दूध, दही, स्नेह और मधुपान किया हो, जिसने जुलाब लिया हो, जिसकी गुदा फटगई हो, वा क्षारादि अग्नि कर्म से जलगई हो, जिस को ग्लानि होगई हो, जो क्रोध, शोक और भयसे पीडित हो, जो क्षुधा, तृषा, कामला, पांडुरोग, प्रमेह और पित्त विकार से पीडित पसीना नहीं देना चाहिये । जो उक्त रोगिहो, गर्भिणी, रजस्वला, और प्रसूती इनको यों में से किसीको विसूचिकादिः विपज्जनक रोग होजाय तो मृदु स्वेदन देना उचित है ।
रोगी |
श्वासकासप्रतिश्यायहिध्माध्मानविवंधिषु । स्वरभेदाऽनिलव्याधिश्लेष्मामस्तंभगौरवे । अंगमर्दकटीपार्श्वकुक्षिहनुग्रहे । महत्वे मुकयोः खल्यामायामे वातकंटके २६ मूत्रकृच्छ्राग्रंथिशुक्राघाताढ्यमास्ते । स्वेदं यथायथं कुर्यात्तदौषधविभागतः ||२७|
अतिस्तंभित के लक्षण | स्तंभत्वक्स्नायुसंकोचकंपहृद्वाग्धनुग्रहैः ॥ २० पादोष्ठत्वकरैः श्यावैरतिस्तंभितमादिशेत् । अर्थ - शरीर में जड़ता, त्वचा और स्नायुओं में संकोच, शरीरमें कंपन हृदय में वेदना वाणीने शिथिलता, हनुग्रह तथा हाथ पांव और त्वचा इनका काला हो जाना, ये सब लक्षण होते हैं ।
अर्थ- श्वास, कास प्रतिश्याय, हिचकी, आध्मान ( अफरा ) मलका त्रिबंध, स्वर - भेद, वातव्याधि, श्लेष्मा, आमरोग, स्तंभ,
अस्वेद्य रोगी |
|
न स्वेदयेदतिस्थूलरूक्षदुर्बलमूर्चितान् | २१ | गौरव, अंगमर्द, तथा कमर, पसली, पीठ, स्तंभनीयक्षतक्षीणक्षाममद्यविकारिणः । कूख इनमें वेदना, तथा हनुग्रह, अंडवृद्धि, खल्लीनामक तीव्र वेदनावाला वातरोग, आयाम नामक वातरोग, वातकंटक, मूत्र कृच्छ्र, अर्बुद, ग्रंथि, शुक्राघात, और ऊरुस्तंभ इन सब रोगों में उस उस रोगके उपयुक्त औषत्र विभागानुसार यथायोग्य स्वेदन देवे अर्थात् जैसा रोग हो उसी के
तिमिरोदर वीसर्प कुष्ठशोषाढघरोगिणः ||२२| पीतदुग्धदधिस्नेहमधून्कृतविरेचनान् । भ्रष्टदग्धगुदग्लानिको धशोकभयान्वितान् २३ क्षुत्तृष्णा कामलापांडुमेहिनः पित्तपीडितान् । गर्भिणीं पुष्पितां सूतां मृदु चाऽत्यायिके गये
|
अर्थ - अतिस्थूल, रूक्ष, दुर्बल, मूच्छित, स्तंभनीय, क्षतक्षीण, कुश, मद्यरोगी, ति
For Private And Personal Use Only