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.अ. १२
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१०९,
है और वायु के क्षीण होने पर वे गुण पित्त का स्थान । । दिखाई भी नहीं देते और जव दोष समाना-नाभिरामाशय स्वेदो लसीका रुधिरं रसा। वस्था में होते हैं तव अपने २ कर्मों को
दृक् स्पर्शनंच पित्तस्य नाभिरत्र विशिषतः॥ नियमित रीति से पूरा करते हैं।
अर्थ-नाभि, आमाशय, पसीना, थूक, दोषों को समान रखना।
रुधिर, रस, नेत्र और त्वचा इन आठ स्थानों य एव देहस्य समा विवृद्धये में पित्त रहता है, इन में से नाभि पित्त के त एव दोषा विषमा वधाय । रहने का प्रधान स्थान है पहिले कह चुके हैं यस्मादतस्ते हितचर्ययैव
कि वायु त्वचा में रहता है इससे कोई कहे क्षयाद्विवृद्धरिब रक्षायाः ॥ ४५ ॥
कि वायु और पित्त दोनों त्वचा में कैसे रहप्रथे-जब दोष समानावस्था में होते
सकते हैं। इसका समाधान यह है कि पित्त हैं तब देह की वृद्धि के हेतु होते हैं । वे ही
अग्निस्वरूप है और वायु अग्नि का प्रज्व. दोष विषमावस्था में होकर वृद्धि पाकर वा
लित करनेवाला है, इसलिये मित्रहै , विरोधी क्षीण होकर मृत्यु के कारण हो जाते हैं।
नहीं है । इस तरह बात पित्त की मैत्री होने इस से हितजनक आहार विहारादि द्वारा
के कारण एक स्थान में बास होसकता है । दोष का क्षय वा बृद्धि न होने दे।
कफ का स्थान । इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाठीकायां
उरकंठशिरक्लोमपर्वाण्यामाशयो रसः एकादशोऽध्यायः॥११॥
मेदोघ्राणं च जिव्हा च कफस्य सुतरामुरा३॥
अर्थ-छाती, कण्ठ, सिर, मूत्राशय, जोड़,
आमाशय,रस, भेद, घाण ( नासिका ) और द्वादशोऽध्यायः।
जीभ ये कफ के दस स्थानहै । इनमें से कफ
का प्रधान स्थान छाती है। अथाऽतो दोषभेदीयाध्यायं व्याख्यास्यामः॥
प्राण बायु । " अर्थ-अव हम यहांसे दोष भेदीय अध्याय
प्राणादिभेदात्पंचात्मा वायुः की व्याख्या करेंगे।
प्राणोऽत्र मूर्धगः। . वायु का स्थान ।
उरकंठचरो बुद्धिहृदयेद्रियचित्तधृक् ॥४॥ 'पकाशयकटीसक्थिश्रोत्राऽस्थिस्पर्शनेंद्रियम्।
ष्ठीवनक्षवधूद्गारनिःश्वासानप्रवेशकृत्। स्थानं वातस्य तथाऽपि पक्काधानं विशेषतः॥ अर्थ-वायु का एक ही चलन स्वभाव है,
अर्थ- पक्वाशय,कटी, ऊरू, कर्ण, अस्थि वायु के पांच भेद हैं, यथा--प्राण, उदान, और त्वचा ये वायुके छः स्थान है किंतु इन | व्यान, समान, और अपान । अर्थात् एकही में से पक्वाशय ही वायु के रहने का प्रधान | बायु भिन्न २ काम करने से पांच नार्मों से स्थान है।
बोली जाती है।
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