________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(१९८)
अष्टांगहृदये।
अ० १२
अर्थ राग की परीक्षा केवल शास्त्र पढने । त्रिविधव्याधि की चिकित्सा । सेही नहीं होसकती है। किंतु कर्म में प्रवृति विपक्षी दलात्पूर्वः कर्मजः कर्मसंक्षयात् । करने से चिकित्सा का ज्ञान उपजता है जैसे गच्छ युभयजन्मा तु दोषकर्मक्षयात्क्षयम् ॥ सुवर्ण और रत्नों के खोटे खरेकी पहचान
अर्थ-दोर से उत्पन्न हुई व्याधि दोषों बार बार देखने हीसे माळूम होती है । इमी ।
के उत्पन्न करने वाले पदार्थो से विपरीत तरह निरन्तर अभ्यास करने से, रोगी को देख
: द्वन्ध सेवन करने से शांत हो जाती है । कर्मज
व्याधि कर्मका क्षय होने से और दोष कर्म ने से रोग की दशा का विचार करने से,चि
। दोनों से उत्पन्न हुई व्याधि दोनों का क्षय कित्सा कर्म में सिद्धि का प्रकाश करनेवाला
होने पर शांत होती है। ज्ञान पैदा होता है ।
व्याधि के प्रकारांतर । व्याधिकी उत्पत्तिका प्रकार । द्विवास्थपरतत्रत्वाद्वयाधयःअंत्या पुनधिा दृष्टापचारजः कश्चित्कश्चित्पूर्वापराधजः। पूर्वजाःपूर्वरूपाख्याजातापश्चादुपद्रयाः ॥ तत्संकराद्भवत्यन्यो व्याधिरेवं विधा स्मृतः अथ-याधि दो प्रकार की होती है,
अर्थ-कोई व्याधि दृष्टापचारज हाती है। एक स्वतंत्र, दुसरी परतंत्र । जो अपने ही अर्थात इसी जन्मके लौकिक व्याधि के कारण निदान से कुपित दोष द्वारा व्याधि होती से उत्पन्न होजाती है और कोई व्याधि पूर्व है वे स्वतंत्र अर्थात् प्रधान है और जो स्वतंत्र जन्म कृत कर्मके फल के संस्कार से हेाती है। व्याधि के उपन्न होने से पीछे होती हैं वे और कोई कोई व्याधि ऐसी भी है जो इन परतंत्र वा अप्रधान हैं। इन में से परतंत्र जन्म और पूर्व जन्म दोनों के मिले हुए कर्मो व्याधि के भी दो भेद हैं एक पूर्वज अर्थात् से होता है । इस तरह व्याधि तीन प्रकार पूर्वरूपाख्य । दूसरी पश्चाजात अर्थात् उपद्रव की होती है।
स्वतंत्रादि व्याधि लक्षण ।
यथासजन्मोपरायाः स्वतंत्राःपटलक्षगां: उक्त तीनों के लक्षण ।
विपरीतास्ततोऽन्ये तु विद्यादेवमलानपि ।। यथा निदानं दोषोत्यः कर्मजोहेतुभिविना। तान् ल झवाहितोषिकुमान् प्रतिज्वरम् महारंभाऽल्पके हेतावातंको दोषकर्मजः ५८ अर्थ-जिस व्याधि की उत्पति और
अर्थ-वातादि दोषों के कुपित होने से जो उपशय ( सु वानुवंब ) अर्थात शांति शास्त्रोक्त व्यावि उत्पन्न होती है वह दोषज व्याधि प्रमाण से होती है उसे स्वतंत्र कहते हैं । होती है इसेही दृष्टापचारज कहते हैं । जो स्वतंत्र व्याधि के लक्षण स्पष्ट होते हैं । व्याधि वातादि के निदान लघुरूक्षादि के परन्तु परतंत्र व्याधि इस से विपरीत होती सेवन विनाही उत्पन्न होतीहै उसे कर्मज । है । उस के लक्षण स्पष्ट नहीं होते । उन कहतेहैं । और जो अल्प निदान के सेवनसे का जन्म और उपशय शास्त्रोक्त प्रमाण द्वारा बहुत बढजातीहै उसे कर्मदोषज कहतेहैं। ) नहीं होता । जैसे रोग स्वतंत्र और परतंत्र
For Private And Personal Use Only