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अ० १२
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
( ११९ )
भेद से दो प्रकार के होते हैं वैसे ही वाता- जिस जिस हेतु से दोष कुपित होते हैं वे दिक सब मल [ दोष ; भी स्वतंत्र और पर वैसा ही विकार करते हैं । तथा कपित दोष तंत्र दो प्रकार के होते हैं इस लिये साबधान अपने अपने स्थानों को छोडकर अन्य स्थान होकर प्रत्येक रोग में विकृत भाव को प्राप्त में जाते हैं इस से भी अनेक विकार उत्पन्न हुए सब दोपों पर लक्ष रखना चाहिये। होते हैं, जैसे दोष शरीर की संधियों में प्रविष्ट
परतंत्र व्याधियों का शमनोपाय।। होकर जंभाई और ज्वर पैदा करता है । तेषां प्रधानप्रशमे प्रशमोऽशाम्यतस्तथा ।
आमाशय में जाकर छाती के रोग और अरुचि पश्चाश्चिकित्सेत्तूर्ण वा वलवंतमुपद्रवम् ।
उत्पन्न करते हैं । कंठ में प्रवेश करके कंठव्याधिक्लिष्टशरीरस्य पीडाकरतरोहिसः॥ ___ अर्थ-स्वतंत्र व्याधि के मिटने के साथ
भ्रंश और स्वरसाद होता है । प्राणवाही नसों ही प्रायः परतंत्र व्याधियां मिटजाती हैं यदि |
में प्रवेश करके श्वास और श्लेष्मा करतहैं । स्वतंत्र व्याधि के दूर होने पर भी परतंत्र विकारानुसार चिकित्सा । न मिटे तौ प्रधान चिकित्सानुसार उस के | तस्माद्विकारप्रकृतीरधिष्टानांतराणि च । दूर करने का उपाय करै । यदि प्रधान रोग
बुद्धा हेतुविशेषांश्च शीघ्रं कुर्यादुपक्रमम् ॥
अर्थ- ज्वरादिक विकारका उपादान का. से उपद्रव बलवान् हो तो झटपट उस का उपाय करै क्योंकि रोग से जीर्ण हुए शरीर
रण वायु आदिक दोपोंकी प्रकृति, रोगों के में उपद्रव अधिकतर कष्ट देता है।
विशेष हेतु, रोगके विशेष स्थान, और हेतु नाम रहित रोग।
विशेष को जानकर वैद्यको शीघ्र चिकित्सा विकारनामाकुशलो न जिहीयात्कदाचन ।
करना उचित है । जैसे ज्वरादिक विकार नहिसर्वविकाराणांनामतोऽस्तिध्रुवास्थितिः॥ किसदोपके कुपित होनेसे हुए हैं । वह दोष
अर्थ-जो वैद्यको किसी रोग का नाम क्यों कुपित हुआहै इत्यादि बातें जाननीचाहिये मालूम न हो तो लज्जित होने की कोई
रोगकी दशबिध परीक्षा । वात नहीं है क्योंकि वहुत से रोग ऐसे हैं
दृष्यं देशं वलं कालमनलं प्रकृति वयः । जिनका नाम वैद्यक शास्त्र में नहीं लिखा हैं सत्वंसात्म्यंतथाऽहारमवस्थाश्च पृथग्विधाः इसलिये उचित है कि विकारका स्वरूप स- सूक्ष्मसूक्ष्माः समीक्ष्यैषां दोषौषधनिरूपणे । मझकर चिकित्सा करना चाहिये ।
| योयर्ततेचिकित्सायांनस स्खलतिजातुचित्
__ अर्थ-वातादिक दोष और हरड आदि रोगों के नाम न होने का कारण । स एव कुपितो दोषः समुत्थानविशेषतः ।
औषधों के निरूपण करने में मलधात्वादिक स्थानांतराणि च प्रायविकारान् कुरुतेवान दूष्य, देश, दोषकाबल, काळ, जठराग्नि, ____ अर्थ-सब रोगों का नाम न होने का रोगीकी प्रकृति, रोगीकीआयु, सत्व [ साहस, कारण यह है कि वातादिक दोषों में से किसी उत्साह, धैर्य, अध्यवसाय और आयुआदि ), एक दोष के कुपित होने के अनेक हेतु हैं। सात्म्य ( रोगीके अनुकूल पदार्थ ), तथा
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