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__ अष्टांगहृदये।
बहुमूत्रपुरीषोष्मा त्रिदोषस्त्वेव पाटलः ॥ अर्थ-जौ रूक्ष, शीतवीर्य, भारी, मधुर,
अर्थ-ऊपर कहेहुए व्रीहि धान्योंमें एक | रेचक, मल और वायु उत्पन्न करने वाला, पाटलके फूलके रंगका धान्य और होता है । पौष्टिक, स्थिरताकारक, और मूत्र, मेद, इसे पाटल कहते हैं, यह मधुररस युक्त,अ- पित्त तथा कफका जीतने वाला होता है । म्लविपाकी, पित्तकारक, भारी, वहुमूत्र | तथा पीनस, श्वास, खांसी, ऊरुस्तंभ, कंठ कारक, मलनिःसारक, गर्मी बढानेवाला और । और त्वचा की व्याधियों को दूर करने त्रिदोषकारक होताहै ।
वाला है । तृणधान्योंके गुण ।
जी की अन्य जाति । "कंगुकोद्वनीवारश्यामाकादि हिम लघु। न्यूनोयवादन्ययवः तृणधान्यं पवनकल्लेननं कफपित्तहत् १०॥
कक्षोणावंशजोयवः ॥ १३ ॥ अर्थ--कंगु ( कांगनी ) कोद्रव ( कोदों) । अर्थ एक और प्रकार का क्षुद्रयव हो. नविार, शयामाक ( साखिया) प्रभति शीत | ता है यह जौकी अपेक्षा गुणहीन होता है धौर्य और लघ होते हैं । ये तृण धान्य वायु | एक प्रकार का जौ बांस में होता है उसे घक, लेखन और कफ पित्तकारक होतेहैं। वंशज कहते हैं । कहते हैं यह रूक्ष और
फंगु और कोद्रव के गुण । गरम होता है । भग्नसंधानकृत्तत्र प्रियंगुर्वृहणी गुरुः ।
गेहूं के लाभ । कोरदूषः परं ग्राही स्पर्शशीतो विषापहः ॥ वृष्यःशीतोगुरुलिंग्धोजीवनोवातपित्तहा ।
अर्थ--उक्त तृणधान्यों में कांगनी टूटी संधानकारीमधुरोगोधूमःस्थैर्यकृत्सरः॥१४॥ हही को जोड़ देती है । यह पौष्टिक और अर्थ--गेहूं वीर्योत्पादक, शीतल, भारी, भारी होती है । सुश्रुतमें कांगनी चार प्र- स्निग्ध, जीवन ( ओज नामक धातुका बढाने कार की लिखी है । रक्तः पीताः कृष्णाश्च | वाला ) वात पित्तनाशक, टूटे अंगको जोश्वेताश्चैव प्रियंगवः । यथोत्तर प्रधानाः । डने वाला, मधुर, स्थिरता कारक और रेचक स्यूरूक्षाः कफहराः स्मृताः । लाल, पीली, होता है । रंचक से दस्तावर न समझना काली, और सफेद ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होती चाहिये केवल मलको नरम करदेता है। है तथा रूक्ष और कफनाशक होती है ।
गहूंके भेद । ___ कोदो अत्यन्त संग्राही, स्पर्श करने से पथ्या नंदीमुखी शीता कषायमधुरा लघुः । शीतल, आर विषनाशक होती है ।
__ अर्थ-एक प्रकारका गेंहूं लंवा और पतला __जौ के गुण।
होताहै उसे नंदामुख कहते हैं, यह ठंडा, कक्षः शतिोगुरुःस्वादुःसरोवटवातकृद्यः। कसेला, मधुर और लघु होताहै । वृष्यःस्थैर्यकरोमूत्रमेदापित्तकफान्जयेत्१२ शिबी धान्योंके सामान्य गुण । पीनसश्वासकासोरुसंभकंठत्वगामयान्। मुगाढकीमसूरादिशिंवाधान्यविबंधकृत् १५
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