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Singer
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लवणतिक्तकषाय, अम्लतिक्तकटुकषाय । लवणरस के संयोग में एक होता जैसे लवणतिक्तकटुकषाय !
पांच पांच रस के मिलने से छः भेद होते हैं इसमें मधुर के संयोग से पांच होते हैं, यथा मधुर अम्ललवणतिक्त कटु, मधुर अम्ललवण तिक्तकषाय, मधुर अम्ललवण तिक्त कटु,
कषाय ।
मधुर - को छोडकर अम्लके संयोग से एक. जैसे अम्ललवण तिक्त कटुकषाय ।
छः रसके संयोग से एक मधुर अम्ललवतिक्तकटुकषाय होता है । इस तरह कुल मिलाकर सत्तावन और जुदे जुदे छः रस इन सबका योग तिरेसठ होता है ।
तिरेसठ रस भेदों का विवरण । षट्पंचकाः षट् च पृथग्रसाः स्यु-श्चतुर्द्विको पंचदशप्रकारौ भेदात्रिका विंशतिरेकमेवद्रव्यं षडास्वादमिति त्रिषष्टिः ॥ ४३ ॥ अर्थ - ऊपर के भेदों का विवरण इस तरह है पांच पांच रसों के संयोग से छः दोदो रस के संयोग से पन्द्रह भेद हैं । चार चार रस के संयोग से पन्द्रह भेद । तीनतीन रसके संयोग से बीस छः रसों के संयोग से एक भेद होता है । इस तरह सब मिलकर तिरे सठ भेद होते हैं
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रसकी सूक्ष्मकल्पना | ते रसानुरसतो रसभेदास्तारतम्यपरिकल्पनया च । संभवति गणनां समतीता दोषभेषजवशादुपयोज्याः ॥ ४४ ॥ अर्थ - ऊपर कहे हुए रस के त्रेसठ भेदों
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की कल्पना केवल स्थूल भाबमें वर्णन की गई है यदि इनकी कल्पना अनुरसों के तारतम्य से की जाय तो इन के इतने भेद होसकते हैं जो गिनती में भी नहीं आसते । वातादि दोष और हरीतक्यादि औषध की विवेचना करके उक्त रस भेदों का प्रयोग करना उचित है ।
इति अष्टाङ्गहृदये भाषाटीकायां दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
अ० १०
एकादशोऽध्यायः ।
अथातो दोषादिविज्ञानीयमध्यायं व्या
ख्यास्यामः
अर्थ- अब हम यहांसे दोषादिविज्ञानीय अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
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बातादि दोषों के कर्म । 'दोषधातुमलो मूलं सदा देहस्य तं चलः । उत्साहोच्छ्वासानश्वासचेष्टावेगप्रवर्तनैः १ ॥ सम्यग्गत्या च धातूनामक्षाणां पाटवेन च । अनुगृह्णात्यविकृतः पित्तं पक्त्युष्मदर्शनैः ॥ २ ॥ क्षुतृइा चेप्रभामेधाधीशौर्यतनुमार्दवैः श्लेष्मास्थिरत्व स्त्रिग्धत्वसंधिंवधक्षमादिभिः अर्थ - बातादि दोष, रसादि धातु, और मूत्रपुरीषादि मल, ये सब शरीर के मूल हैं अर्थात् जन्मसे मरण पर्य्यन्त अविकृत दोबादि देहको बनाये रखने के प्रधान हेतु हैं । अविकृत वायु, उत्साह, उच्छ्वास (श्वासको बाहर निकालना ), निःश्वास ( श्वास को भीतर खींचना ), चेष्टा ( मन, बाणी और
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