________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अ० ११ सूत्रस्थान भाषाटीकासमंत । (१०५)
अर्थ-इन वातादि दोषोंमें से वायु अ- लघुत्व गुणोंके विरुद्ध होते हैं इसलिये वा. स्थि में रहता है, पित्त पसीने और रक्त में | युका क्षय होता है, इस हेतुसे ऊपर कहे हुए रहता है और कफ रस, मांस, मेदा, मज्जा नियम वायु तथा उसके आश्रय अस्थिमें संभ. शुक्र, मूत्र और पुरीषादि में रहता है । इस व नहीं होते । क्योंकि विशेषकरके संतर्पणसे से यह समझना चाहिये कि धातु और मल बुद्धि होती है और कफ उसके अनुगत है। आश्रय है और वातादि दोष आश्रयी है । अपतर्पण अर्थात् लंघनस धातुओंका क्षय हो जैसे वायु का आश्रय अस्थि है और अस्थि । ताहै और वायु उसके अनुगत है । का आश्रयी बायु है। पित्त का आश्रय स्वेद
क्षय वृद्धिका उपचार । और रक्त है तथा स्वेद और रक्त का आश्र. । अस्माश्च वृद्धिक्षयसमुद्भवान् ॥२८॥ बी पित्त है इसी तरह कफको भी जानो। विकारान् साधयेच्छीघ्र क्रमाल्लंघनवृंहणैः। और इस प्रकार से परस्पर का आश्रयाश्रयी
| पायोरम्पत्र सज्जांस्तु तैरेवोत्कमयोजितैः१९ भाव विद्यमानहै । इन आश्रय आश्रयी दोनों अर्थ-ऊपर कहे हुए प्रमाण के अनुसार • में से एक के लिये जो औषध वृद्धिकारक | वृद्धिका हेतु संतर्पण और क्षयका हेतु अप
वा क्षयकारकहै वही औषध दूसरे के लिये तर्पण है, इसलिये दोष, धातु,मलादिकी बृ. भी वृद्धिकारक वा क्षयकारक है अर्थात् जो | द्विसे उत्पन्न हुए विकारोंको अपतर्पण अर्थात् आश्रय की क्षय वा वृद्धि करती है वह आश्रयी लंघन द्वारा और क्षयसे उत्पन्न हुए विकारों की भी क्षय वा बृद्धि करतीहै । को बृंहण अर्थात् संतर्पण द्वारा दूरकरनेका अब यह बात विशेषरूपसे दिखलाते हैं कि यत्न शीघूतापूर्वक करै । आश्रय और आश्रयी भावको प्राप्त हुए वा- परन्तुवायु जनित विकारों में इससे विपयुके पक्षमें ऐंसा नियम संघटित नहीं होता रीत करना चाहिये अर्थात् वायु की वृद्धि से है। जैसे स्निग्ध मधुरादि द्वारा अस्थिकी बृ- | उत्पन्न विकारों को संतर्पण से और वायु के दि होती है किन्तु वायुकी वृद्धि न होकर क्ष- क्षय से उपजे हुए रोगों को अपतर्पण द्वारा य होता है । अतएव जिससे वायुकी वृद्धि
| दूर करै ॥ वा क्षय होता है उससे तदाश्रयी वायुकी बृ- वातादिक दोषोंकी वृद्धि और क्षयसे उत्पन्न द्धि वाक्षय नहीं होता है । किन्तु अपरापर दो-विकारों की चिकित्सा इस जगह नहीं लिखी ष, धातु और मलकी जो वृद्धि होती है वह गई है । इसका विस्तारपूर्वक वर्णन दोषोंप्रायः स्निग्ध मधुरादि संतर्पण द्वारा होती है । पक्रमणीय अध्याय में किया जायगा ॥
और संतर्पण के योगमें कफ सदा अनुगत । इसके पीछे रसकी क्षयवृद्धि से उपजे हुए रहता है तथा कफकी बृद्धि होती है, इससे रोगों की चिकित्सा कहनी चाहियेथी परन्तु उसके स्निग्धत्व गुरुत्वादि गुण वायुके रूक्षत्व । पहिले कह चुके हैं कि रस कफ के समानह
For Private And Personal Use Only