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(१०२)
अष्टांगहृदये।
अ० ११
में शिथिलबा, श्वास, खांसी और अधिक | वृद्ध अस्थिका कर्म । निद्रा इन विकारों को उत्पन्न करताहै। | अस्थ्यध्यस्थ्यधिदतांश्च
बढेहुए रसरक्त का कार्य । अर्थ-अस्थि के बढ़ने पर अध्यस्थि रसोऽपि श्लेष्मवद्रक्तं विसर्पग्रीहविद्रधीन ॥ (हड्डी पर हड्डी) और अधिदंत ( दांत पर कुष्ठवातास्त्रपित्तास्रगुल्मोपकुशकामलाः । दति) इन रोगोंको करती है । व्यंगाग्निनाशासंमोहरक्तत्वङ्गेत्रमूत्रता॥९॥ बीहुई मज्जा का कर्म । अर्थ-वढेहुए रस का कार्य कफके समान
मजा नेत्रांगगौरवम्॥११॥ होता है अर्थात् अग्निमांद्यादिक करता है। पर्वसु स्थूलमूलानि कुर्यास्कृच्छ्राण्यरूंषि च । तथा बढाहुआ रक्त विसर्प, प्लीहा, विद्रधि,
अर्थ-बढी हुई मज्जा नेत्र और अङ्ग को कोद, बातरक्त, रक्तपित्त, गुल्म, उपकुश,
भारी कर देती है अंगुली के पोरुओंमें मोटी ( दन्तरोग ) कामला, व्यंग, अग्निनाश,
जड़वाली ऐसी फुसियां करदेतीहै कि जिनमूर्छा तथा त्वचा नेत्र और मूत्र में ललाई
के आराम होने की कोई आसा नहीं होती।
बढ़ेहुए धीर्य का कर्म । उत्पन्न करता है।
अतिस्त्रीकामतां वृद्धं शुक्रं शुक्राश्मरीमपि॥ वृद्धमांस का कर्म ।
अर्थ-बढा हुआ वीर्य बहुतसी स्त्रियों के मांसं गंडाबंदग्रंथिगंडोरूवरवृद्धताः।।
साथ भोगकी इच्छा उत्पन्न करता है तथा कंठादिष्वधिमांसं च
शुकाश्मरी अर्थात् पथरी रोग को उत्पन्न अर्थ-बढ़ा हुआ मांस गंडमाला, अर्बुद.
करता है। और ग्रंथि ( गांठ ) रोगों को उत्पन्न करता है । गंडस्थल, उदर और ऊरू इन |
बढ़े हुए पुरीष का कर्म ।
कुक्षावाध्मानमाटोपं गौरवं वेदनां शरुत् । को बहुत बढाता है । तथा कंठ, ताळू और
अर्थ-बढ़ाहुआ पुरीष दोनों कूखोंमें गड़जीभ आदि में मांस को बढाता है ।
| गडाहट अर्थात् अत्रकूजन करता है । तथा वृद्ध मेदका कर्म ।
पेट में अफरा, शरीरमें भारापन और वेदना तद्वन्मेदस्तथा श्रमम् ॥१०॥ अल्पेऽपिचेष्टितेश्वासं स्फिक्तनोदरलंबनम् ।
करता है। अर्थ-मेद बढने पर मांस की वृद्धि के ।
बढ़े हुए मूत्र का कर्म । समान ऊपर लिखे हुए गंडमालादिक रोगों
| मूत्रं तु बस्तिनिस्तोदं कृतेऽप्यकृतसंज्ञताम् ।
अर्थ-बढ़ाहुआ मूत्र बस्तिं (पेडू) में को करता है । इसके अतिरिक्त थोडीसी
पीड़ा उत्पन्न करता है । मूत्र होने पर भी महनत करने से भी थकाबट और हांफनी ऐसा भास होताहै कि मूत्र नहीं किया है। आजाती है और कूल्हा, स्तन और उदर बढे हुए पसीने । स्थूल होकर लटक पडते हैं।
| स्वेदोऽतिस्वेददौर्गध्यकंडूः
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