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अष्टांगहृदये ।
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अर्थ-निद्रा का नाश होनेसे अंगमर्द । निद्रा के सुखको देनेवाले हैं । तथा जो व्य( अंगड़ाई ), सिरमें भारापन, जंभाई,क्ति ब्रह्मचर्यका अभिलाषी है, जिसका मैथुन जड़ता, ग्लानि, भ्रम, अन्नका न पचना, से चित्त हटगया है और जो संतोष से तृप्त तन्द्रा तथा अन्य वातजनक रोग पैदा हो- है, उसके लिये निदा अपने काल का उलं. जातहैं।
घन नहीं करती है ठीक समय नींद अपने
आप आजाती है। अर्द्धनिद्राका विधान ।
ब्रह्मचर्यका बर्णन । यथाकालमतो निद्रां रात्रौ सेवेत सात्म्यतः॥ ग्राम्यधर्मे त्यजेन्नारीमनुत्तानां रजस्वलाम् । अलात्म्याजागरार्ध प्रातः स्वच्यादभुक्तवान अप्रियामप्रियाचारां दुष्टसंकीर्णमेहनाम् ।
अर्थ-इसलिये निद्राकालके समय का अतिस्थूलकशां सूतां गर्भिणीमन्ययोषितम् ।। उल्लंघन न करना चाहिये । रात्रिमें एक वर्णिनीमन्ययोनि च गुरुदेवनृपालयम् । दो वा तीन पहर तक शरीर की अनुकूलता
चैत्यश्मशानाऽयतनचत्वरांबुचतुष्पथम् ॥
पाण्यनंग दिवसं शिरोहृदयताडनम् । के अनुसार सौना चाहिये । प्रकृतिके विरुद्ध
अत्याशितोऽधृतिःक्षुद्वान्दुःस्थितांगापिपासित जितने समय तक रातमें जागना पडाहो |
| बालो वृद्धोऽन्यवेगातस्त्यजेद्रोगीच मैथुनम्। उससे आधा काल सवेरे के समय बिना
___ अर्थ-ग्राम्यधर्म अर्थात् मैथुनकालमें करकुछ खाये सो लैना चाहिये । जिनको स्वा
वटसे लेटीहुई, रजस्वला, अप्रिया, अप्रियभाविकही थोडी नींद आतीहै उनके लिये चारिणी. दृष्टा, संकीर्ण योनि विशिष्ट, अतिइन बातोंका कुछ बिचार नहीं है ।
स्थूला, अतिकषांगी, सद्यः प्रसूता ( जिस __मंदनिद्रावालों को कर्तव्य । | के हालही में बालक हुआ हो ), गर्भवती, शीलयेन्नं इनिद्रस्तु क्षीरमद्यरसान् दधि । | परस्त्री, ब्रह्मचारिणी, अन्ययोनि ( अजा मअभ्यंगोद्वर्तनस्नानमूर्ध्वकर्णाक्षितर्पणम्। हिष्यादि ) इनको त्यागदे । गुरुका घर, देव कांताबाहुलताश्लेषोनिवृतिः कृतकृस्यता ॥ मनोनुकूला विषयाः काम निद्रासुखप्रदाः।
मंदिर, राजाका स्थान, चैत्य, श्मशान, दुष्टों ब्रह्मचर्यरतेोम्यलुखानिस्पृहचेतसः ॥६७ ॥ के विग्रहका स्थान, चत्वर, जलाशय और निद्रा संतोषतृप्तस्य स्वं कालं नातिवर्तते । चौगये इन सब स्थानों में स्त्री संगम न करै
अर्थ-अल्पनिद्रावालों के लिये दूध,मद्य, इसीतरह संक्रान्ति अमावास्या व्यतीपातादि मांसासादि, दही,अभ्यंग,उद्वर्तन (उबटना) पर्वके दिन, योनिको छोडफार अन्य अंगोंमें स्नान, तथा मस्तक, नाक और कान का ।
तथा दिनमें मैथुनका त्याग करदे । मैथुन तर्पण ये सब हितकारी हैं । कांता की वा
कालमें सिर और हृदयमें टक्का न पहुंचावै हुलताओं का आश्लेषमात्र ( संगमकानिषधहै) बहुत भोजन करके, अधैर्यतामें भूखमें, हाथ मनका विश्राम, कर्तव्यकर्म की समाप्ति,करके पांवको बिना उपयुक्त रीतिके स्थापन अनुकूल विषयोंकी उपलब्धि, ये सब यथेच्छ । किये, अत्यन्त तृषामें, बालक, वृद्ध, अन्य
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