Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
सोमिल ने पुनः पूछा—'कुलत्था' भक्ष्य है या अभक्ष्य है ? भगवान् ने फरमाया—कुलत्था शब्द के भी दो अर्थ हैं—एक कुलीन स्त्री (कुलस्था) और दूसरा अर्थ है धान्यविशेष (कुलस्थ)। जो धान्यविशेष कुलत्था है वह शस्त्रपरिणत एवं याचित है तो भक्ष्य है। कुलीन स्त्री अभक्ष्य है।
सोमिल ने देखा कि महावीर शब्द-जाल में फँस नहीं रहे हैं, अतः उसने एकता और अनेकता का प्रश्न उपस्थित किया कि आप एक हैं या दो हैं ? अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं, अतीत, वर्तमान और भविष्य में परिणमन के योग्य हैं ? भगवान् महावीर ने एकता और अनेकता का समन्वय करते हुए अनेकान्त दृष्टि से कहा—सोमिल ! मैं द्रव्यदृष्टि से एक हूँ। ज्ञान और दर्शन रूप दो पर्यायों के प्राधान्य से दो भी हूँ। सोमिल ! उपयोग स्वभाव की दृष्टि से मैं अनेक हूँ। इस प्रकार अपेक्षा भेद में एकत्व और अनेकत्व का समन्वय कर सोमिल को विस्मित कर दिया। वह चरणों में झुक पड़ा तथा श्रावक के १२ व्रतों को ग्रहण कर भगवान् महावीर का अनुयायी बना।
इस कथाप्रसंग से भगवान् महावीर की सर्वज्ञता का स्पष्ट निदर्शन होता है। आगमयुग की अनेकान्त दृष्टि भी इसमें स्पष्ट रूप से व्यक्त हुई है। तीसरी बात इसमें 'मास' शब्द का प्रयोग हुआ है जो महीने के अर्थ में है। वह श्रावण महीने के प्रारम्भ होकर आषाढ पूर्णिमा में समाप्त होता है। इससे यह ज्ञात होता है कि श्रावण प्रथम मास था और आषाढ़ वर्ष का अन्तिम मास था। प्रस्तुत प्रसंग में 'जवनिज-यापनीय' शब्द का प्रयोग हुआ है। दिगम्बरपरम्परा में यापनीय नामक एक संघ है जिसके प्रमुख आचार्य शाकटायन थे। मूर्धन्य मनीषियों को इस सम्बन्ध में अन्वेषणा करनी चाहिये कि क्या यापनीय संघ का सम्बन्ध 'जवनिज' से था ? पण्डित बेचरदास दोशी ने लिखा है कि "जवनिज" का यमनीय रूप अधिक अर्थयुक्त एवं संगत है, जिसका सम्बन्ध पांच यमों के साथ स्थापित होता है। यापनीय शब्द से इस प्रकार का अर्थ नहीं निकलता, यद्यपि जवनिज' शब्द वर्तमान युग में नया और अपरिचित-सा लग रहा है पर खारवेल के शिलालेख में "जवनिज" शब्द का प्रयोग हुआ है जो इस शब्द की प्राचीनता और प्रचलितता को अभिव्यक्त करता है। मुनि अतिमुक्तकुमार
भगवतीसूत्र शतक ५, उद्देशक ४ में अतिमुक्तकुमार श्रमण का उल्लेख है। जैन साहित्य में अतिमुक्तकुमार नामक दो श्रमण हुए हैं—एक भगवान् अरिष्टनेमि के युग में, जो कंस के लघुभ्राता थे; दूसरे अतिमुक्तकुमार भगवान् महावीर के युग में हुए हैं, जिनका उल्लेख अन्तकृदशांग में है। आचार्य अभयदेव के अनुसार अतिमुक्तकुमार ने भगवान् महावीर के पास छह वर्ष की उम्र में प्रव्रज्या ग्रहण की थी। सामान्य नियम है कि आठ वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति को प्रव्रज्या न दी जावे।
१. जैन साहित्य का वृहत् इतिहास, भाग पहला, पृष्ठ २११ २. (क) छव्वरिसो पव्वइयो-भगवती टीका ५-३
(ख) अन्तकृद्दशांग, ६-१४ । ३. "कुमारसमणे" त्ति षड्वर्पजातस्य तस्य प्रव्रजित्वात्, आह च—"छव्वरिसो पव्वइओ निग्गंथं रोइऊण पावयणं"त्ति, एतदेव आश्चर्यमिह अन्यथा वर्षाष्टकादारान्न प्रव्रज्या स्यादिति।
-भगवती सटीक प्र. भाग, श.५, उद्देशक ४, सूत्र १८८, पत्र २१९-२
[७५ ]