Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तत्त्व गतिसहायक तत्त्व ही है। गणधर गौतम ने पुन: जिज्ञासा प्रस्तुत की— भगवन् ! स्थिति का सहायक तत्त्व (अधर्मास्तिकाय) से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान् ने समाधान करते हुए कहा —— गौतम ! स्थिति का सहायक नहीं होता तो कौन खड़ा होता, कौन बैठता ? किस प्रकार से सो सकता ? कौन मन को एकाग्र करता ? कौन मौन करता ? कौन निष्पंद बनता ? निमेष कैसे होता ? यह विश्व चल ही होता । जो स्थिर है उस सबका आलम्बन स्थितिसहायक तत्त्व ही है ।
अन्य भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनों में गति को तो यथार्थ माना गया है किन्तु गति के माध्यम के रूप में 'धर्म' जैसे किसी विशेष तत्त्व की आवश्यकता अनुभव नहीं की गई। आधुनिक भौतिक विज्ञान ने 'ईथर' के रूप में गति - सहायक एक ऐसा तत्त्व माना है जिसका कार्य धर्म द्रव्य से मिलता-जुलता है। ईथर आधुनिक भौतिक विज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण शोध है । ईथर के सम्बन्ध में भौतिकविज्ञानवेत्ता डॉ. ए. एस. एडिंग्टन लिखते हैंआज यह स्वीकार कर लिया गया है कि ईथर भौतिक द्रव्य नहीं है, भौतिक की अपेक्षा उसकी प्रकृति भिन्न है, भूत में प्राप्त पिण्डत्व और घनत्व गुणों का ईथर में अभाव होगा परन्तु उसके अपने नये और निश्चयात्मक गुण होंगे ईथर का अभौतिक सागर ।
अलबर्ट आइन्सटीन के अपेक्षावाद के सिद्धान्तनुसार 'ईथर' अभौतिक, अपरिमाणविक, अविभाज्य, अखण्ड, आकाश के समान व्यापक, अरूप, गति का अनिवार्य माध्यम और अपने आप में स्थिर है ।
धर्मद्रव्य और ईथर पर तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करते हुए प्रोफेसर जी. आर. जैन लिखते हैं कि यह प्रमाणित हो गया है कि जैन दर्शनकार व आधुनिक वैज्ञानिक यहाँ तक एक हैं कि धर्मद्रव्य या ईथर अभौतिक, अपरिमाणविक, विभाज्य, अखण्ड, आकाश के समान व्यापक, गति का माध्यम और अपने आप में स्थिर
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धर्म और अधर्म के बिना लोक की व्यवस्था नहीं होती । गति स्थिति निमित्तिक द्रव्य से लोक- अलोक का विभाजन होता है। प्रत्येक कार्य के लिए उपादान और निमित्त दोनों कारणों की आवश्यकता है। जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य गतिशील हैं। गति के उपादानकारण जीव और पुद्गल स्वयं हैं । धर्म, अधर्म ये दोनों गति और स्थिति में सहायक हैं। इसलिए निमित्तकारण हैं। हवा स्वयं गतिशील है । पृथ्वी, पानी आदि सम्पूर्ण लोक में व्याप्त नहीं है पर गति और स्थिति सम्पूर्ण लोक में होती है । अत: धर्म-अधर्म की सहज आवश्यकता है। यह सत्य है कि लोक है, क्योंकि वह ज्ञान गोचर हैं। पर अलोक इन्द्रियातीत है। यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि अलोक है या नहीं ? पर जब हम लोक का अस्तित्व स्वीकार करते हैं तो सहज ही अलोक का अस्तित्व भी स्वीकार हो जाता है। जिसमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव, पुद्गल, आदि सभी द्रव्य होते हैं वह लोक है। इसके विपरीत अलोक में केवल आकाश द्रव्य ही है । धर्म और अधर्म द्रव्य के अभाव में अलोक में जीव और पुद्गल भी नहीं हैं। काल की तो वहाँ अवस्थिति है ही नहीं ।
प्रस्तुत प्रसंग से यह सहज परिज्ञात होता है कि महावीर युग में भगवान् महावीर के श्रमणोपासक तत्त्वविद् थे। वे अन्य तीर्थिकों को जैनदर्शन के गुरु-गम्भीर रहस्यों को समझाने में समर्थ थे। आज भी आवश्यकता है कि श्रमणोपासक श्रावक तत्त्वविद् बनें। जैनदर्शन के गम्भीर रहस्यों का अध्ययन कर स्वयं के जीवन को महान् बनाएँ तथा अन्य दार्शनिकों को भी जैनदर्शन का सही एवं विशुद्ध रूप बतायें ।
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