Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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९६विभाग करके उत्तर देना है। दो विरोधी बातों का स्वीकार एक सामान्य में करके उसी एक को विभक्त करके दोनों विभागों में दो विरोधी धर्मों को संगत बताना यह विभज्यवाद का फलितार्थ है। यहाँ यह भी स्मरण रखना है कि दो विरोधी धर्म एक काल में किसी एक व्यक्ति के नहीं बल्कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के हैं। भगवान् महावीर ने विभज्यवाद का क्षेत्र बहुत ही व्यापक बनाया। उन्होंने अनेक विरोधी धर्मों को एक ही काल में और एक ही व्यक्ति में अपेक्षाभेद से घटाया, जिससे विभज्यवाद आगे चलकर अनेकान्तवाद के रूप में विश्रुत हुआ। अनेकान्तवाद विभज्यवाद का विकसित रूप है। विभज्यवाद का मूलाधार है, जो विशेष व्यक्ति हों उन्हीं में, तिर्यक् सामान्य की अपेक्षा से विरोधी धर्म को स्वीकार करना। अनेकान्तवाद का मूलाधार है, तिर्यक् और ऊर्ध्वता दोनों प्रकार के सामान्य पर्यायों में विरोधी धर्मों को अपेक्षाभेद से स्वीकार करना। उदायन राजा
भगवतीसूत्र शतक १३ उद्देशक ६ में राजा उदायन का वर्णन है। उदायन ने भगवान् महावीर के पास आहती दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व उसने अपने पुत्र अभीचि कुमार को राज्य इसलिये नहीं दिया कि यह राज्य के मोह में मुग्ध होकर नरक आदि गतियों में दारुण वेदना का अनुभव करेगा। उसने अपने भाणेज केशी कुमार को राज्य दिया। अभीचि कुमार के अन्तर्मानस में पिता के इस कृत्य पर ग्लानि हुई। उसने अपना अपमान समझा। यह राज्य छोड़कर चल दिया। राजा उदायन तप की आराधना कर मोक्ष गये। पर अभीचि कुमार श्रावक बनने पर भी शल्य से मुक्त नहीं हो सका, जिससे वह असुरकुमार देव बना। राजा उदायन का जीवन प्रसंग आवश्यकचूर्णि आदि में विशेष रूप से आया है। उन्होंने दीक्षा ग्रहण की और उत्कृष्ट तप की आराधना करने से, रूक्ष और नीरस आहार ग्रहण करने से शरीर में व्याधि उत्पन्न हुई। वैद्य के परामर्श से उपचार हेतु वीतभय नगर के ब्रज में रहे, जहाँ दही सहज में उपलब्ध था। दुष्ट मंत्री ने राजा केशी को बताया कि भिक्षुजीवन से पीड़ित होकर ये राज्य के लोभ से यहाँ आये हैं और आपका राज्य छीन लेंगे। राज्यलोभी केशी राजा ने एक ग्वाले को दही में विष मिलाकर देने हेतु कहा। उसने वैसा ही किया। नगररक्षक देवों ने कुपित होकर धूल की भयंकर वर्षा की जिससे सारा नगर धूल के नीचे दब गया। राजा उदायन के सम्बन्ध में धर्मकथानुयोग की प्रस्तावना में विस्तार से लिखा है, अत: जिज्ञासु पाठकगण उसका अवलोकन करें। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय : चिन्तन
भगवती शतक १८ उद्देशक ७ में मद्रुक श्रमणोपासक का वर्णन है। वह राजगृह नगर का निवासी था। राजगृह के बाहर गुणशील नामक एक चैत्य था। उसके सन्निकट ही, कालोदायी, शैलोदायी, सेवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती, अन्यतीर्थिक सद्गृहस्थ रहते थे। वे परस्पर यह चर्चा करने लगे कि भगवान् महावीर धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय इन पंचास्तिकायों में एक जीव और शेष को अजीव मानते हैं। पुद्गलास्तिकाय को रूपी और शेष को अरूपी मानते हैं। क्या इस प्रकार का कथन उचित है ? यह बात उन्होंने मद्रुक से कही। मद्रुक ने कहा-जो कोई वस्तु कार्य करती है, आप उसे कार्य के द्वारा जानते हैं। यदि वह वस्तु कार्य न करे तो आप उसे नहीं जान
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आवश्यकचूर्णि, पृष्ठ ५३७ से ५३८
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