Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सकते। ठुमक-ठुमक कर पवन चल रहा है पर आप उस रूप को नहीं देख सकते। गन्धयुक्त पुद्गल की सौरभ हमें आती है पर हम उस गन्ध को नहीं देखते कहाँ है ? अरणि की लकड़ी में अग्नि होने पर भी हम नहीं देखते। समुद्र के परले किनारे पदार्थ पड़े हुए हैं पर हम उन्हें देख नहीं पाते। यदि उन वस्तुओं को कोई नहीं देखता है तो वस्तु का अभाव नहीं हो जाता, वैसे ही आप जिन वस्तुओं को नहीं देखते, उनका अस्तित्व नहीं है. यह कहना उचित नहीं है । मद्रुक के अकाट्य तर्कों से अन्यतीर्थिक विस्मित हुए। मद्रुक ने भी भगवान् के चरणों में पहुँचकर श्रमणधर्म को स्वीकार किया और अपने जीवन को पावन बनाया।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि का निरूपण भारत के अन्य दार्शनिक साहित्य में नहीं हुआ है। यह जैनदर्शन की मौलिक देन है । जहाँ अन्य दर्शनों में धर्म और अधर्म शब्द का प्रयोग शुभ और अशुभ प्रवृत्तियों के अर्थ में किया गया है, वहाँ जैनदर्शन में वह गतिसहायक तत्त्व और स्थिति सहायक तत्त्व के अर्थ में भी व्यवहृत है। धर्म एक द्रव्य है। वह समग्र लोक में व्याप्त है, शाश्वत है। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से रहित है। वह जीव
और पुद्गल की गति में सहायक है। यहाँ तक कि जीवों का आगमन, गमन, वार्तालाप, उन्मेष, मानसिक, वाचिक और कायिक आदि जितनी भी स्पन्दनात्मक प्रवृत्तियाँ हैं, वे धर्मास्तिकाय से ही होती हैं। उसके असंख्य प्रदेश हैं। वह नित्य व अनित्य है, अवस्थित है और अरूपी है। नित्य का अर्थ तद्भावाव्यय है, गति क्रिया में सहायता देने रूप भाव से कदापि च्युत न होना धर्म का तद्भावाव्यय कहलाता है। अवस्थिति का अर्थ हैजितने असंख्य प्रदेश हैं, उन प्रदेशों का कम और ज्यादा न होना किन्तु हमेशा असंख्यात ही बने रहना। वर्ण, गंध, रस आदि का अभाव होने से धर्मास्तिकाय अरूपी है। धर्मास्तिकाय पूरा एक द्रव्य है। वह जीव आदि के समान पृथक् रूप से नहीं रहता, अपितु अखण्ड द्रव्य के रूप में रहता है एवं सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं जहाँ पर धर्म द्रव्य का अभाव हो। सम्पूर्ण लोकव्यापी होने से उसे अन्य स्थान पर जाने की आवश्यकता नहीं होती। ___ गति का तात्पर्य है—एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की क्रिया। धर्मास्तिकाय गति क्रिया में सहायक है। जिस प्रकार मछली स्वयं तैरती है, पर उसकी गति में पानी सहायक होता है । तैरने की शक्ति होने पर भी पानी के अभाव में मछली तैर नहीं सकती। जब मछली तैरना चाहती है तभी उसे पानी की सहायता लेनी पड़ती है। वैसे ही जीव और पुद्गल जब गति करता है, तभी धर्मास्तिकाय या धर्म द्रव्य की सहायता ली जाती है। जीव और पुद्गल में गति और स्थिति ये दोनों क्रियाएं सहज रूप में होती हैं। इनका स्वभाव न केवल गति करना और न केवल स्थिति करना ही है। किसी समय किसी में गति होती है तो किसी समय किसी में स्थिति होती है। धर्म और अधर्म को मानना इसलिये आवश्यक है कि वह गति और स्थिति में निमित्त द्रव्य है। उसी से लोक और अलोक का विभाजन होता है। गति और स्थिति का उपादानकारण जीव और पुद्गल स्वयं है और निमित्तकारण धर्म और अधर्म द्रव्य है।
भगवतीसूत्र शतक १३ उद्देशक ४ में गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की—भगवन् ! गतिसहायक तत्त्व से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान् ने समाधान दिया कि—गौतम ! गति का सहायक नहीं होता तो कौन आता और कौन जाता? शब्द की तरंगें किस प्रकार फैलती हैं ? आँख किस प्रकार खुलती है ? कौन मनन करता है ? कौन बोलता है ? कौन हिलता, डोलता है ? यह विश्व अचल ही होता। जो चल है उन सब का आलम्बन
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