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श्रीमम्मोहन यशः-स्मारक ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क: १९ चैत्यवासिविजयावाप्तखरतरबिरुदाष्टकवृत्त्यानल्पग्रन्थप्रयनार्जितविशदकीर्तिश्रीमजिनेश्वरमूरिवरविनेयरत्ननवानवृत्तिविधायकश्रीमदभयदेवसूर्योपसम्पदिकशिष्यचैत्यवासिमथिताकल्याणकवादोन्मूलककविचक्रवर्तिश्रीमजिनवल्लभमूरि पुरन्दरनिर्मितं चन्द्रकुलीनाचार्यश्रीमद्यशोदेवरिषरसङ्कलितया उघुवृत्त्या श्रीउदयसिंहमूरि
सन्हब्धया दीपिकया च समलतं
पिण्डविशुद्धि-प्रकरणम्।
संशोधक: सम्पादकश्मश्रीखरतरगच्छविभूषणश्रीमन्मोहनलालजीमुनीश्वरप्रशिष्यरत्न-स्वर्गीयानुयोगाचार्यश्रीकेशरमुनिजीगणिवरविनेयो
बुद्धिसागरो गणि:
प्रथमावृत्तिः ५०० प्रतयः नाराष्ट्राः २४८१ पण्यं द्रम्मषटकम्
विक्रमान्दाः २०१७
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पेण्ट विशुद्धि कादयो-
मुद्रक :शाह गुलाबचंद लल्लुभाई श्रीमहोदय प्रोन्टींग प्रेस
दायापीठ, भावनगर ( सौराष्ट्र)
भिमपत्रनिर्दिष्टाभिधानानामुदाराशय. . सज्जनानामाथिकसाहाय्येन मुम्यापुरी. महावीरजिनालयस्थश्रीजिनदत्तसूरि
शानभाण्डागारकार्यवाहको झोटी देरमाई सीमा
पेतम्
पुस्तकप्राप्तिस्थाने--
श्रीमहावीरस्वामी जैनमन्दिर पायधुनी, संबह नं. ३
श्रीजिनदत्तसूरि ज्ञानभण्डार
शीतलवाडी उपाश्रय गोपीपुरा, सुस्त ( . गुजरात)
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मार्गदर्शक
अस्य अन्धस्य मुद्रणे द्रव्यसहायकानां शुभनामानि५५ शा० भीखमचंदजी नवाजी चंडा ( मारवाद)| रु. १०१ शा० अचरतलाल शिवलाल, स्वज्येष्ठ पुत्र रशी चुनीलाल चंदणमल मथाजी , ,
सद्गत अश्विनकुमार की स्मृति निमित्त शामकलाल मलूकचन्द कच्छ-मांडवी
राधनपुर (उ गुजरात) ५ शो माणकचन्द थावरमाई " " | , १०१ सद्गत शा० कालभाई न्यालचंद के शा० सांसदजी दानाजी चूंडा ( मारवाड)
वील में से, ६. शा. अचरतलाल शिवलाल १५१ श्रीखरतरगच्छ संघ
तथा शा. पलपतभाई मोहनलाल पारेख (भेउ बोयसा हरवानी पेढी)राधनपुर (उ. गुजरात)
राधनपुर ( उ. गुजरात) TK, १५० सानपूर्वाक, दस्ते शा० पूनसीमाई मोनजीकच्छ-लायजा १०० शा० रूपचंदजी छोगमलजी चूंडा ( मारवाड)
१०१ शा. प्रेमचंद कचरामाई छाजेड की धर्मपली अखंड | १०. शा० गणेशमलजी कपूरजी . , ,
सोमाग्यवंती माविका मगाबाई कच्छ-मांडवी | , १०० जौहरी इंद्रचंदजी जरगड की धर्मपत्नी शा० शांतिलाल गोरुकमाई
... भाविका शिखरवाइ जयपुर सीटी (राजस्थान)
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विदि टोकाइयो ' व
-शा. जुहारमलजी वनाजी आहोर ( मारवाड) | ० ५० शा० जवानमलजी सुजाजी . चूंडा ( मारवाड) ,.७ शा० सांकलचंद भगाजी की दीक्षा
|, ४५ ज्ञानपूजा के, श्री संघ
कच्छ लायजा समय की खोल भराइ के श्रीसंघ चंडा ( मारवाड) , १० साध्वीजी मुक्तिश्रीजी-ललितंश्रीजी की , ५१ मूता साहिबचंदजी गेनाजी आहोर (मारवाड) प्रेरणा से श्राविका संघ तरफ से ज्ञान, ५१ शा० रिखबचंदजी भूताजी अगरी (मारवाड) पूजा के अमरेली तथा रु. १० देवगाम ( सौराष्ट्र ) , ५० शा. छगनमलजी वागाजी छाजेड
, २५ शाहीराजी सिरेमलजी गुलेछा मोकलसर (मारवाड) गढसिवाणा ( मारवाड) |, २५० जखुभाई पेथड मोटा आसंबीया ( कच्छ )
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२
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उपोद्घात
कस्वा समीपेऽमय देवसरे येनोपसम्पद्ग्रहणं प्रमोदात् । पप रहस्यामृतमागमानां सूरिस्ततः श्रीजिनवल्लभोऽभूद् ॥'
पिण्डविशुद्धि का यह उपोदूधात लिखते हुए मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है । इस ग्रन्थ के यशस्वी लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व की ओर मैं बहुत दिनों से आकृष्ट रहा हूँ । यही कारण है कि मैंने और मेरे विद्यागुरु श्रद्धेय डॉ. श्री फतहसिंहजी पम. ए, डी. लिट् ने वल्लभभारती के नाम से आचार्य श्रीजिनवल्लभरि की समस्त रचनाओं का एक आलोचनात्मक संग्रह प्रकाशित करने की योजना कई वर्ष बनाई थी और यह हर्ष की बात है कि वह अब शीघ्र ही पूरी भी होने जा रही है । अतः श्रीबुद्धिनिजी गणिने जब मुझ से यह अनुरोध किया कि उनके द्वारा सम्पादित इस पुस्तक की भूमिका में लिखूं तो मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया । सच पूछिये तो मैं गणिजी का अत्यन्त आभारी हूँ कि उन्होंने सुविहित संघ के पुनरुद्धारक नवाङ्गवृत्तिकार श्री अभयदेवाचार्य के पट्टधर कविचक्रवर्ति श्रीजिनवल्लभरि के प्रति अपनी श्रद्धाली भेट करने का अवसर प्रदान किया ।
कवि का जीवन-वृत्त
जिनवाभरि के जीवन-चरित्र के विषय में अधिक खोज करने की आवश्यकता नहीं, उनके योग्य शिष्य युगप्रधान दादोनामधारक भीजिनदत्तसूरिने श्रीगणधर सार्द्धशतक में ६९ पथों में अपने गुरु की जो स्तुति की है उसकी टीका करते हुए
क्षार्थी ।
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उपोद्घात चाल्यकार
सहयोवि.
दीक्षा।
ही प्रशिष्य श्रीसुमति गणिने आचार्य जिनवल्लभत्रि का विस्तार से जीवन-वृत्त दे दिया है। इसीका आधार लेकर आचार्य का जीवन-चरित परवर्ती कई लेखकों ने लिखा और श्रीसुमविगणि के गुरुभ्राता श्रीजिनपालोपाध्याय ने 'खरतरगच्छालकार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली ' में जिनंबड्डमरि का जो जीवन-चरित लिखा है, वह लगभग अभरशः सुमतिगणि द्वारा दिए हुए चरित से मिलता है, अन्तर है तो केवल इतना ही है कि सुमतिगणि की भाषा वालवारिक वर्णनों से परिपूर्ण है तो उपाध्यायजी की भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण है। इसलिये इसी दृत्ति को आधार मानकर हम भी उनका संक्षेप में जीवन-चरित दे रहे हैं:
चाल्गार और दीक्षा . बालक जिनवल्लम ने अपना पठन-पाठन आसिका( हांसी) नामक स्थान में एक चैत्यालय में प्रारंभ किया। कूर्चपुरीय जिनेश्वराचार्य ने इस बालक की प्रतिमा की सब से पहिले परख की । उन्होंने देखा कि बालक जिनवल्लभ अपने सभी सहपाठियों से अधिक मेधासम्पन्न है। इसी बीच में एक चमत्कार हुआ ! बालक जिनवल्लभ ने चैत्यालय के बाहर एक पत्र पाया, जिसमें
सर्पाकर्षिणी' और 'सर्पमोचिनी ' नाम की दो विद्याएँ लिखी हुई थीं। बालकने दोनों को कण्ठस्थ कर लिया, परन्तु ज्योंही उसने सर्पाकर्षिणी विद्या को पढा त्योंही बड़े बड़े भयंकर सर्प उसकी ओर आने लगे; परन्तु वह बालक उस स्थान पर निर्भयता पूर्वक खड़ा रहा और उसने अनुमान किया कि यह इसी विद्या का प्रभाव है। जैसे ही उसने दूसरी विद्या का उच्चारण करना प्रारंभ किया वैसे ही सब सर्प भाग गये। इस घटना को सुनकर जिनेश्वराचार्य बहुत ही प्रभावित हुए। उन्होंने समझ लिया | कि यह बालक कोई सात्विक गुणसंपन्न होनहार व्यक्ति हैं। अतः उन्होंने उसको शिष्य बनाने की मन में ठान ली। उन दिनों
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चैत्यालयों में आचारभ्रष्टता बहुत आगई थी और प्रलोभन आदि देकर भी शिष्यों को फांसना बुरा न समझा जाता था, इसलिये जिनेश्वराचार्यने न केवल उस बालक को द्राक्ष, खजूर आदि देकर वश में किया अपितु उसकी माता को भी द्रव्य देकर और मीठी-मीठी बातें बनाकर जिनवल्लभ को अपने अनुकूल कर लिया और तुरन्त ही उसको दीक्षा दे दी।
विद्याभ्यास जिनेश्वराचार्यने बड़े मनोयोग के साथ जिनवल्लभ को पढाना प्रारंभ किया। उनके शिष्यत्व में शीव ही उन्होंने तर्क, अलङ्कार, व्याकरण, कोष आदि अनेक शानों का अध्ययन कर लिया। जिनवल्लभ की प्रखरबुद्धि जैसी विद्याध्ययन में सफल होती थी वैसी ही RAMANहारिक क्षेत्र में भी एक बार जिनेश्वराचार्य किसी काम से आसिका से बाहर गये। जाते समय उन्होंने उस चैत्यालय तथा
के सेवेवित पाटिका, बिहार, कोष्ठागार इत्यादि की व्यवस्था का सारा भार जिनवल्लभ को सौंप दिया। जब वे वापिस आये तो RISHNAजनिकर पीत प्रसाए कि जिनवामने सारा प्रबन्ध बड़ी कुशलता के साथ किया और उसमें कोई भी कमी नहीं आने दी।
अपने गुरु प्रवास काल में बालक जिनवल्लभ को संयोगवश एक वस्तु और मिली, जिसका महत्त्व संभवतः उस समय । PASTIपनका न मलिना होगा। परन्तु कौन कह सकता है कि उनके जीवन की विशा को बदलने में उम्रने अप्रत्यक्षरूप से बहुत SHESH दा काम नहीं किया पिटेना इस प्रकार है-..- . . . . . . . . .
नेश्वराचार्य पसरे ग्राम में चले गये तब बाल-सुलम कौतुइलवज्ञ उन्होंने एक पुस्तकों से भरी हुई पेटी की छान-बीन प्रारम की। इसमें उनको एक सिखान्त-पुस्तक मिली । उस पुस्तक मैं सन्होंने जो पढा- उससे उन्हें पता चला कि चैत्यवासियों
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1विचा
उपोधाता विद्याभ्यास।
ओ बोचार-विचार है वह (दसवैकालिकादि) सिद्धान्त के बिल्कुल विपरीत है। उसमें लिखा था " साधु को ४२ दोषों से लिदिल रहित होकर गृहस्थों के घरों से थोड़ा थोड़ा भोजन उसी प्रकार लाना चाहिए. जिस प्रकार मधुकर विभिन्न फूलो से रस को एकत्र
यो18करता है-इस इति के द्वारा साधु की देहधारणा हो जाती है और किसी को का भी नहीं होता । साधुओं को एक स्थान पर पेवर
निवास नहीं करना चाहिये और न सचित्त फूल-फलादि को स्पर्श करना चाहिये।" यह पढ़ते ही बालक जिनवल्लभ का मन | उद्वेलिच हो-वठा और उन्होंने सोचा "अहो! अन्य एव म कश्चिद् व्रताचारो, ऐन मुक्ती गम्यते, विसदृशस्त्वस्माकमेष | समाचार, स्फुटं दुर्गतिगर्तयां निपतता एतेन न कश्चिदाचारः।" अर्यात् “अहो ! जिससे मुक्ति प्राप्त होती है वह तो
अन और आचार कोई दूसरा ही है, हमारा तो यह पाचार बिस्कुल विपरीत ही है ।हम तो स्पष्टतया ही दुर्गति के गड़े में | पड़े हुए हैं और हम बिल्कुल निराधार हैं।"
अभयदेवसूरि से विद्याध्ययन .महापुरुषों के जीवन का यह एक व्यापक रहस्य है कि उनके मन में चठनेवाले महत्वपूर्ण संकल्पों की सिद्धि का मार्ग स्वतः ही तैयार हो जाता है। जिनवल्लभ के विषय में भी यही हुआ। उनके मन में साधु के सच्चे वताचार के लिये जो |सलेण्डा भी ससके लिये समुचित सापन स्वतः ही उपस्थित हो गये। जिनेश्वराचार्यने स्वयं सोचा कि जिनवल्लभ को सिद्धान्त| अन्यों की शिक्षा विजयाना यावयक है। सस समय सिद्धान्त-अन्यों के ज्ञान में भीषमयदेवसूरि की बड़ी प्रसिद्धि थी। उन्होंने 1 ना जिवछम को सही प्राचार्य के पास पाट मेश दिया। सिद्धान्त च प लिये यह बावश्यक है कि पढनेवाला
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of rest अधिकारों हो; यहाँ अधिकार प्रदान करने के लिये उन्हें वाचनाचार्य बनाकर भेजा । जिवबलमणि के साथ उनके गुरुभ्राता बिनशेखर भी गये ।
न दिनों चत्यवासियों और वसदिवासियों में पर्याप्त संघर्ष रहा करता था, अतः एक चैत्यवासी आचार्य के शिष्य को ● आगम की याचना देना स्वीकार कर लेना एक वसतिवासी आचार्य के लिये संकट से खाली नहीं था। इसलिये श्रीअमयदेव'सूरि के मन में भी संशय उठा कि वह जिनवल्लभ को वाचना दें या नहीं ? परन्तु जब उनको विश्वास हो गया कि जिनमे के मन में सिद्धान्त-वाचना के लिये उत्कट अभिलाषा है और उसके लिये उपयुक्त पात्रता भी; तो उन्होंने सोचा कि-
"
" मरिजा सह विजाए, कालम्मि आगए विऊ। अपतं च न वाइजा, पत्ते च न विमाणए |
अर्थात् अवसान समय के आने पर विद्वान् मनुष्य अपनी विद्या के साथ भले मर जाय, परंतु अपात्र को शास्त्रवाचना न कराय और पात्र के आने पर उसका ( बाचना न कराके ) अपमान न करे । इसलिये उन्होंने गणि जिनवल्लभ को वाचना देना 'स्वीकार कर लिया । और जैसे जैसे जिनवल्लभमणि अपने विद्याभ्यास से उन्हें सन्तुष्ट करते गये वैसे ही वे विद्यादान में अधिकाधिक उत्सादी होते गये। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने थोड़े से समय में ही सारे सिद्धान्त-प्रन्थों का अध्ययन पूर्ण कर लिया । जिनवभगणि की प्रखरबुद्धि और ज्ञान-पिपासा को देखकर आचार्यने उन्हें एक बहुत बड़े ज्योतिषज्ञ के पास -भेजा। इस विद्वानने आचार्य से पहिले ही कह रखा था कि आपका कोई योग्य शिष्य हो तो उसे मेरे पास भेजें जिससे में + यहाँ से आपकी ख्याति विपक्रम पनि के नाम से हुई।
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विशुद्धि० काईयो
पेतस्
३ ॥
उसको अपना समग्र व्योतिष ज्ञान सिखला हूँ । योग्य शिष्य को पाकर किस गुरु का मन प्रसन्न न होगा ?. वह ज्योतिषाचार्य मी farer जैसे छात्र को पाकर बहुत सन्तुष्ट हुआ और उसने उन्हें अपनी सारी विद्या सिखा दी। उन्होंने कौन-कौन सें ग्रन्थ पढे- इसका तो पता नहीं चलता, परन्तु इस सम्बन्ध में सुमतिगणि और जिनपालोपाध्याय दोनों ने ही यही लिखा है कि उन्होंने 'सर्व ज्योतिषशास्त्र' पढे थे ।
जिनवल्लभ गण की विद्वत्ता का वर्णन करते हुए उक्त दोनों लेखकोंने जिन लेखकों का और प्रन्थों का उल्लेख किया है उनसे पता चलता है कि उन्होंने जैन सिद्धान्त और ज्योतिष शात्र के अतिरिक्त और भी बहुत से प्रन्थ पढ़े थे। इसके अतिरिक्त पत्तन में उन्होंने जो अध्ययन किया उसमें जैन दर्शन और ज्योतिष शास्त्र के अतिरिक्त किन्हीं अन्य ग्रन्थों के अध्ययन करने का कोई प्रमाण नहीं मिलता । अतः यह मानना पड़ेगा कि इनके अतिरिक्त उन्होंने जो कुछ अध्ययन किया उसके लिये तो अधिकांशतः वे चैत्यवासी जिनेश्वराचार्य के ही ऋणी थे। यही कारण है कि वे अपने प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक काव्य में जहां अपने "सद्गुरु अभयदेवाचार्यै'' का स्मरण करते हैं तो " मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयेः " कह कर उन चैत्यवासी आचार्य को भी नहीं भूलते।
१ पार्क धातुरवाचि कः ? भवतो मीरोर्मनः प्रीतयें !, सालङ्कारविदग्धया वद कया रज्यन्ति ? विद्वज्जनाः ।
पाणौ किं मुरजिद् बिभर्ति है सुविं तं ध्यायन्ति ? के वा सदा, के वा ब्रद्गुरवोऽत्र चारुचरणधीसुता विश्रुताः ॥ १५८ ॥ उत्तरं श्रीमदभयदेवाचार्याः ।" २. ॐ स्यादसि वारिवायचपति के द्वीपिनं इत्ययं १, लोके प्राह इयः प्रयोगनिपुणैः कः शब्दधातुः स्मृतः १ । ते पालयिताऽत्र दुर्बरवरः कः
यतोऽम्पोनि - हि श्रीजिनवक्रमः । स्तुतिपदं कीढविधाः के सताम् ॥ १५९ ॥ उत्तरं "मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः।”
उपोद्घात ।
अभयदेव
भूमि से
विद्या
ध्ययन |
II
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R जिमेघराचार्य भी पड़े प्रकाण्ड पन्धित थे । नमोंने तो पम्प मंभवना विनयालम को गजाये, विमाठी व्याकरण, मेपलूतादि काव्य, खद, भट, पण्डी, वागन और भामह आदि के अलशर पन्थ,
मादि छन्पशास के पन्थ, अनेकाग्वजयपताकादि जैन न्यायपन्य नशा सर्फफमली, किरणावली, न्याय. रित कि मन्मथे। एक और अन्य या प्रन्थकार जिसका तस्लेख पनकी विद्वत्ता के प्रसंग में SUREMEमनन ।' पर ठीक नहीं कहा जा सकता कि शहरनन्दन से अभिप्राय किससे है ? संभवतः यह कोई
- मार्गक
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LATER:
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स्पवास स्पाग और उपसम्पदा ग्रहण MAध्यम मारने के पत्रात नमारे अपने गुरु जिनेश्वराचार्य के पास पापिस आने लगे तो आचार्य अपरेसा सिद्धान्त के अनुसार जो साधुओं का माचार प्रत है वह तुम सब समझ चुके, अत: उसके जमार निexattण'कर को वैसा ही प्रपत्ल करमा । " पर पता लिममणि के अन्तरात्मा की पुकार थी।
के ममा प्रति महावीरससिवान के प्रति माकट प्रेम पहिले से ही सत्पन्न हो चुका था, अतः जिनामगणिने भी अभयारणों पर गिरकर कहा कि गुहवेष! आपकी को थाहार बसा ही निमित रूप से कहंगा।" इस पचन को पाक्षम होने मार्ग में ही करना प्रारंभ कर दिया। जैसे ही महको( मरोट) में पहुंचे, (जहा कि उन्होंने माते समय देवर की स्थापनाको प्रगति देवपुर में एक लिविवाक्य के रूप में निम्नलिखित लोक लिखा, जिसका
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पालन करके अविधिचैत्य भी विधिमत्य होकर तुक्ति का सामन बन सके:
है उपोद्घात। . अनोरप्रिजनक्रमोन च न च स्नानं रजन्यां सदा, साधना ममताश्रयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि ।
उपसम्पदाजातिज्ञातिकदाग्रहो न च न च श्राद्धपु ताम्बूलमि-त्याजाऽऽत्रेयमनिधिते विधिकृते श्रीजैनचेत्यालये ॥१॥
ग्रहण। जब उन्होंने जिनेश्वराचार्य से पृथक् होने का दृढ़ संकल्प कर लिया था, यह कोई सरल कार्य नहीं था, उस बूढे की जिनवालभजी पर प्रगाढ ममता थी और इनका भी उनके प्रति अनुराग और भक्तिभाव होना स्वाभाविक श्रा, अतः इस सुद्ध लेह-बन्धन को काट कर निकल मागना साधारण कार्य न था । जिनवल्लभगणि के मन में भी परिस्थिति की गम्भीरता आई और उन्होंने सोचा कि संभवतः जिनेश्वराचार्य के चैत्य में पहुँच कर पूर्वस्मृतियाँ अत्यधिक वेग से जागृत हो उठेगी और उस समय अपने संकल्प पर रढ रहना कठिन हो जायगा। इसीलिये उन्होंने वहां न जाकर निकटवर्ती माइयड ग्राम में ही रह कर अपने गुरु को पत्र लिखकर मिलने के लिये बुलाया। पत्र में उन्होंने लिखा था-"मैं गुरु से विद्याध्ययन करके माइयड ग्राम में आगया हूँ, यदि भगवन् ! यही आकर मुझ से मिलेगें तो अति कृपा होगी" यह पत्र पढकर जिनेश्वराचार्य को बहुत आश्चर्य और दुःस हुमा । परन्तु फिर भी वे बड़े समारोह के साथ शिध्य को लेने माझ्यख प्राम गये। यह सुनते ही कि गुरुजी अनुग्रह करके पचारे है जिनवल्लभगणि गद्गद हो गये और तत्काल उनके सामने पहुंचे और विधिवत् प्रणाम किया। स्नेह की सरितों उमड सीमुक्ने क्षेमकुशल पूछी, उसका उन्होंने यथोचित उत्तर दिया। इसी समय सनको अपना ज्योतिष का शान दिखाने का भी अवसर परिवार एक प्राण पहा बाया और उसने ज्योतिष की कई समस्यायों को उपस्थित किया, जिनवशर्मगणि द्वारा
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उनको समुचित समाधान देखकर जिनेश्वराचार्य बहुत ही आश्चर्यचकित हुए और उनके हृदय में अपार हर्ष और उल्लास बत्पन्न हो गया। ऐसी अवस्था में जिनवल्लभगणि के आसिका न जाने से उनके मन में जो शंका उत्पन्न हुई थी बह एक पहेली बनकर उनके मन में फिर उठी और उन्होंने पूछा कि जिनवल्लभ ! यह क्या बात है कि तुम सीधे आसिका के अपने चैत्यवास में न आये
और मुझे यहां बुलाया ? यह जिनवल्लभगणि के संकल्प-संयम और धैर्य की परीक्षा का समय था । कोई साधारण जन होता तो |* ममता और मोह के ऐसे पारावार में दूध गया होता, परन्तु जिनवालमगणिने अत्यन्त दृढता के साथ विनीत स्वर में कहा-"भगवन् ! सद्गुरु के श्रीमुख से जिनवचनामृत का पान करके भी अब इस चैत्यवास का सेवन कैसे करूं? जो कि मेरे लिये विष-वृक्ष के समान है।" वह सुनते ही आचार्य जिनेश्वर की आशाओं पर तुषारापात हो गया । उस समय उनकी दशा बड़ी दयनीय थी। वे बोले-जिनपहम ! मैंने यह सोचा था कि मैं अपना सारा उत्तराधिकार देकर और चैत्यालय, गच्छ तथा श्रावक संघ का सारा भार तुन्हें सौंप कर स्वयं सद्गुरु के पास जाकर वसतिवास को स्वीकार करूंगा। उनके यह वचन सुनकर लिनवल्लभमणि का fमुख हर्षोल्लास से अममगा उठा और वे बोले भगवन् ! यह तो बहुत ही सुन्दर बात है, हेय वस्तु का परित्याग करके उपादेय ४|| वस्तु का ग्रहण करना ही विवेक का काम है, अतः अपने दोनों एक साथ ही सद्गुरु के समीप चलकर सन्मार्ग को स्वीकार
करें।" यह सुनकर जिनेश्वराचार्य, एक दीर्ष निवास ली और करुण स्वर में कहा कि "बेटा ! मुझ में इतनी निःस्पृहता कहा कि गच्छ, चैत्य मादि को ऐसे ही छोड़ ही अब तुम तुल गये हो तो अवश्य ही वसतिवास को स्वीकार करो।"
इस प्रकार गुरु से अनुमति प्राध करके वे पुनः पत्तन में गये और अमयदेवसूरि को अत्यन्त श्रादरपूर्वक प्रणाम किया।
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चित्रकूट ममन।
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IC आचार्य श्रमयदेवसूरि मी हृदय में अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने सोचा कि मैंने इसको जैसा योग्य समझा था वैसा ही मित्र
के मन में यह रद्ध विश्वास था कि जिनवल्लभ ही हमारा उत्तराधिकारी( पट्टधर ) होने के सर्वथा योग्य है । " परन्तु किाद्वयो
क्या पसको समाज स्वीकार करेगा ? वह एक चैत्यवासी आचार्य का शिष्य या, पर इससे क्या ? क्या पक से पङ्कज उत्पन्न नहीं होता ?" इस प्रकार सोचते हुए भी अभयदेवसूरि जैसे प्रभावशाली आचार्य-शिरोमणि भी जिस बात को न्याय, धर्म
और समाजहित की दृष्टि से सर्वथा उचित समझते थे, उसको अन्धविश्वासी समाज का विरोध सहन करके भी करते । संभवतः ५॥
वे भी यही सोचकर संतुष्ट हो गए कि " यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं, न करणीयं नाचरणीयम् " । अतः आचार्यश्री के मन की बात मन में ही रह गई और उन्होंने समाज के सामने मत्था टेककर अपनी अन्तरात्मा की पुकार के विरुद्ध अपने दूसरे शिष्य वर्धमान को आचार्य-पद देकर जिनवल्लभगणि को उपसम्पदा प्रदान की और सर्वत्र विचरण करनेकी अनुमति प्रदान की । तत्पश्चात्
आचार्य अभयदेवसूरि के कथनानुसार प्रसनचन्द्राचार्य की भाज्ञासे उनके पश्चात् देवभद्राचार्यने इनको पट्टधर बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु जब जिनबल्लभगणि को यह पद प्राप्त हुआ, तो उनके जीवन का सूर्य अस्त होने वाला था।
चित्रकूट गमन उपसम्पदा ग्रहण करके वे कुछ दिन गुर्जरप्रदेश में विहार करते रहे, परन्तु यहां उन्हें सुविहित सिद्धान्त-प्रचार में वैसी सफलता नहीं मिली, जैसी कि वे चाहते थे । उस समय गुजरात चैत्यवासियों का सब से बड़ा गढ़ था; यहां पर जिनवलमगणि जैसे कान्तिकारी विचारक, कटु मालोचक और निर्भय बका की दाल गलना सरळ न था, यह शो अमयदेवाचार्य जैसे मुलझे ।
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हुए और व्यवहार कुशल व्यक्ति का ही काम था, जो चैत्यवासियों के प्रधानाचार्य आचार्य द्रोणसूरि तक से समुचित सन्मान प्राप्त कर सके और अपने नवाड़ों की टीका पर उनकी छाप लगवा कर चैत्यवासियों द्वारा मान्य भी करा सके। जहां श्रीभदेवाचार्य के इस प्रयत्न को स्तुत्य कहना पड़ता है वहां यह भी मानना पड़ता है कि उन्हें उसके लिये कई बार अपने सिद्धन्तों को बलि देकर आचार-शैथिल्य भी स्वीकार करना पडा था परन्तु जिनवल्लभगणि दूसरे ही प्रकार के व्यक्ति थे, वे जिसका विरोध करते थे उसका बडे उप्ररूप में; और उन्हें किसी विषय में और किसी समय शिथिलता तनिक भी पसन्द नहीं थी। इनकी असफलता का एक कारण यह भी होता है कि वास त्याग करने से चैत्यवासी इनको अपना शत्रुसा समझने लगे होंगे और चैत्यवास के संसर्ग में रहने के कारण वसतिमार्गियों से उन्हें समुचित आदर और सहयोग न मिला होगा। इसी कारण संभवतः उन्होंने गुर्जरप्रदेश को छोड़कर मेदपाट ( मेवाद ) में जाना स्वीकार किया । यद्यपि वहां भी सर्वत्र चैत्यवासियों का जोर था, परन्तु नये प्रदेश में एक प्रतिभाशाली व्यक्ति के लिये अपना स्थान बना लेना अधिक सरल होता है। ' घर का जोगी जोगिया, आन गांव का सिद्ध ।' यह कहावत प्रसिद्ध ही है । इसीके अनुसार महात्मा गौतम बुद्ध को जो आदर बाहर मिला वह उनकी जन्मभूमि कपिलवस्तु में नहीं; भगवान महावीर को भी लिच्छवी गण मैं सफलता तब ही मिली जब वे अन्यत्र प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे । यही बात आधुनिक काल में आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी - दयानन्द के जीवन में भी हुई। अतः जिनवल्लभगणि को मेदपाट में अधिक सफलता प्राप्त होना स्वाभाविक ही था ।
• पाटप्रदेश में जाकर उन्होंने पहिले पहल चित्रकूट ( चित्तोड ) में कुछ दिन बिताने का निश्चय किया । वहां पर उनके
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विशुदि काइयो
विर
६ ॥
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गुरु आचार्य अमयदेवसूरि की कीर्ति और प्रतिष्ठा पर्याप्त थीं। अतः वहां के लोग उनका कोई विगांड़ तो न कर सके परन्तु फिर भी उन्हें कुछ द्रजनों का पर्याप्त विरोध सहन करना पड़ा। वहां के श्रावकों से उन्होंने रहने के लिये स्थान मांगा तो उत्तर मिला " यहां एक चण्डिकामठ है वहां यदि ठहरना चाहें तो ठहर जांय । " गणिजी उनके दुष्ट अभिप्राय को अच्छी तरह से समझते थे, परन्तु फिर भी वे देवगुरु के प्रसाद पर विश्वास रख के वहीं पर ठहर गये । चण्डिका देवी भी उनके ज्ञान, : ध्यान और अनुष्ठान से प्रसन्न हुई और उनकी सिद्धिदात्री बन गई। उनके पास प्रतिदिन अनेक दार्शनिक त्राह्मण आने लगे, इनमें से प्रत्येक निज निज शास्त्रों के विषय में उनसे वार्तालाप करता था और उनके उत्तर से सन्तोषलाभ करता था। धीरे धीरे उनकी -विद्वत्ता की प्रसिद्धि और उनके पाण्डित्य का प्रभाव व सुयश सर्वत्र फैल गया । जैन श्रावक भी उनकी ओर आकर्षित हुए और उनको विश्वास होने लगा कि यही एक साबु ओ सर्व संझयों को दूर करके हमारे हृदय के अन्धकार को दूर कर सकता है। गणिजी में जो बात सब से अधिक आकर्षण करने वाली थी वह यह थी कि उनकी कथनी ' और ' करणी ' एक थी। वे -विन सिंद्धांत वचनों की व्याख्या अपने वचनों में करते थे उन्हीं को वे अपने आचरण में भी उतारते थे ।
गणिजी के चमत्कार
चित्रकूट में रहते हुए जिनवल्लभगणिने कई चमत्कारपूर्ण कार्य किये। इनका साधारण नाम का एक भक्त-नायक एक बार • उनके पास आया । वह चाहता था कि अपने जीवन में परिग्रह की एक सीमा निर्धारित करलें । इसका संकल्प लेने के लिये वह उनके पास आया हो उन्होंने पूछा कि तुम अपने सर्व संमह की सीमा किरानी देखना चाहते हो। साभार भाव का
उपोषात । गणिजी के [ चमत्कार ।
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वैभव साधारण ही था, अतः उसने सर्व संग्रह की सीमा २० हजार की रखी । परन्तु जिनवल्लभगणि जो अपने ज्योतिष-ज्ञान से - उसके भावी ऐश्वर्य को देख सकते थे, अतः उन्होंने उस सीमा को और बढाने के लिए कहा, तब साधारण ने तीस सहन कहे, परन्तु जिनवल्लभगणि ने कहा कि 'यह पर्याप्त नहीं है और अधिक बढाओ।' साधारण को इस पर बहुत आश्चर्य हुआ, क्योंकि उसके गृह की समस्त वस्तुओं का मूल्य ५०० भी नहीं होता था, फिर भी गणिजी के वारंवार आग्रह करने पर उसने एक लाल का सर्व परिमह निश्चित किया। स्वल्प कालान्तर में ही उसकी संपत्ति इतनी बढी. कि वह एक लक्षाधीश कहलाने लगा और वह सम्पूर्ण संघ में अग्रगण्य हो गया। इस चमत्कार से वे सारे सेठ भी उनकी ओर आकर्षित हो गये; जो साधुओं के पास धर्म और चारित्र की शिक्षा के लिये नहीं अपितु ऋद्धि-सिद्धि दोहने के लिये जाते हैं।
एक दूसरा चमत्कार उन्होंने और दिखलाया। उनके ज्योतिष-ज्ञान की कीर्ति सर्वत्र फैल गई थी। एक ज्योतिषी ब्राण उनके बश को सहन न कर सका और वह निनक्लभगणि को नीचा दिखाने की दृष्टि से उनके पास आया। आसन देने के पखात् निम्निलिखितः वार्तालाप प्रारंभ हुला:
जि-मद्र! आपका निवासस्थान कहां है ? और आपने किस शास्त्र का अभ्यास किया है। ब्रा०-मेरा निवासस्थान यहां । ही है और मैने अभ्यास-व्याकरण, काव्य, अलघर आदि सब ही शास्त्रों का किया है। जि०-ठीक है, परन्तु विशेष रूप से | किस विषय का किया है। ब्रा०-क्योतिष का । जि०-चन्द्र और आदित्य के लग्नों के विषय में आप जानते हैं ?। बाल-इसमें क्याविना. गणना किके ही एक-दो या तीन-उम्मों का प्रतिपादन कर सकता है। बि-बहुत मुन्दर शान है। त्रा-कान
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उपोद्घाता
विधि नवाईयोपेत
कल्याणक प्ररूपणा।
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के विषय में क्या आप मी कुछ जानते हैं । जि०-हां कुछ थोड़ा सा । ब्रा०-अच्छा, तो आप कुछ कहें । जि०-भूदेव ! आप बतलाइये, मैं बस या बीस कितने लग्नों का प्रतिपादन करूं? - यह बात सुनकर ब्राह्मण आश्चर्यचकित हो गया और उसके आश्चर्य का तो ठिकाना ही न रहा, जब उन्होंने शीघ्र गणना करके उन लग्नों को बतला दिया। इसके बाद गणिजी आकाश की ओर संकेत करके बोले-" विप्रवर ! देखो वह आकाश में 1. दो हाथ का जो मेघ-खण्ड दिखाई पड़ता है, क्या आप बता सकते हैं कि उससे कितनी वर्षा होगी।" ब्राह्मण चारा
हतप्रभ हो गया । उसको निरुत्तर देख कर गणिजीने बतलाया-वह मेघखण्ड दो घड़ी के भीतर सम्पूर्ण गगनमण्डल में ज्यान होकर इतनी जल-वृष्टि करेगा कि दो ' भाजन ' भर आयेंगे । सचमुच ऐसा हुआ भी। इसके परिणाम स्वरूप वह माह्मण जब तक वहां रहा, तब तक उनके चरणों की पदना करके ही भोजन शहा यः ।
पकल्याणक-प्ररूपणा जिनवल्लभगणि जैन सिद्धान्त के कितने मर्मज्ञ थे और उसका प्रतिपादन वे कितने निर्भय होकर करते थे; इस बात का प्रमाण उनके द्वारा की गई छठे कल्याणक की प्ररूपणा में मिलता है। साधारणतया प्रत्येक तीर्थकर के निम्नलिखित पांच कल्याणक माने जाते है:. १-देवलोक से च्युत होकर माता के गर्भ में प्रवेश करना । २-जन्म महण करना। ३-संसार से विरक्त होकर प्रव्रज्या ( दीक्षा ) प्रहण करना । ४-तपश्चर्या द्वारा केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करना । ५-निर्वाण( मुक्ति) प्राप्त करना ।
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anure महावीर के विषय में यह विशेष माना जाता है कि पहिले उन्होंने देवानन्दा श्राणी के गर्भ में प्रवेश किया और वहाँ से उस गर्भ को इन्द्र- आदेश से हरिणगमेषी देव द्वारा महारानी त्रिशला के गर्भ में लाया गया। सूत्रमन्थों में जैसा कि मागे बताया गया है, इस गर्भापहरण की मां उपर्युक्त पांच के समान ही एक कल्याणक माना गया है। जिनवल्लभ गणिने कल्पसूत्रादि के पाठ पढे सम्यग् विमर्श कर इसको छठा कल्याणक प्रसिद्ध किया । अन्य पांच कल्याणकों के उपलक्ष में तो उस समय चैत्यवासी रोग भी उत्सव मनाकर भगवान की पूजा किया करते थे, परन्तु गर्भापहरणे नाम का कल्याणक तत्कालीन जनता में विस्मृत
इसलिये जब आश्विन कृष्णा त्रयोदशी के आने पर जिनवल्लभगणिने श्रावकों से कहा कि आज हमें श्रमण भगवान कल्याणक मनाना है तो वे बड़े आश्चर्य में पड़ गये। परन्तु जब उनको आगमों के प्रमाण देकर समझाया Best art के लिये सहर्ष तैयार हुए। वहां के सभी देवालय चैत्यवासियों के थे; त
मनाया जाये । प्रथम तो जनगण के नेतृत्व में सभी आवक एक चैत्यालय पर गये, परन्तु
एक आर्या धरना देकर द्वार पर बैठ गई । उसका कहना था कि ऐसा काम कभी भी नहीं हवा में होने दूंगी। बहुत समझाने बुझाने पर भी जब उसने अपना हक नहीं छोड़ा, तो मारिस अपने स्थान पर लौट आये । अन्त में एक भावक के घर पर ही भगवान की
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उपोद्घात विविचैत्य | स्थापना।
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पिण्ड-16
विधिचैत्यों की स्थापना विशुदिन इस घटना से जिनवल्लभगणि के प्रावकों को अपनी उपासना के लिये एक स्वतंत्र देवगृह की आवश्यकता प्रतीत हुई। टीकाद्वयोः
'अतः उन्होंने गणिजी के सामने वो देवालय बनाने की इच्छा प्रकट की । गणिजीने भी उनके इस पुष्य प्रयत्न को श्रावकों का यावश्यक कर्त्तव्य व आचार बतलाया और श्रावकों ने भी निर्माण का कार्य प्रारंभ कर दिया। सत्कार्य में वित्र होते ही हैं। इन कार्य में मी अकारण ही वसुदेव नामक सेठ वित्ररूप बन कर उपस्थित हुआ और उसने इन देवगृह-निर्माण करने वाले भावकों | को कापालिक तक कह डाला । एक दिन बाहर जाते हुए गणिजी को वह मिल गया, तो उन्होंने बड़े प्रेम-पूर्वक उससे कहा कि
भने वसुदेव ! गर्व करना ठीक नहीं है । जो श्रावक देवालय धनवा रहे हैं उनमें कोई ऐसा भी होगा जो तुम्हें कभी बन्धनमुक्त करेगा 1' उस समय तो वसुदेव संभवतः इन शब्दों के मर्म को न समझ सका। परन्तु कुछ दिनों बाद जब वह किसी अपराध के कारण राजा का कोपभाजन हुआ और उसे ऊंठ के साथ बांधकर के लेजाने की आशा हुई तो जिनवल्लमगणि के भक्त श्रावक साधारण नाम के सेठने ही उसको छुड़ाया। अन्त में उक्त दोनों मन्दिर पूर्ण हो गए और वाचनाचार्य जिनवल्लभ .गणि ने पार्श्वनाय और महावीर विधिचैत्यों की स्थापना कर दी।
षड्यन्त्र का भण्डाफोड जिनवल्लभ मणि के बढ़ते हुए प्रभाव को कुछ लोग सहन न कर सके और वे उसको कम करने के लिये तरह तरह के | उपाय करने मे । किन्हीं मुनिचन्द्राचार्य ने अपने दो शिष्यों को जिनवल्लभजी के पास भेजा । प्रत्यक्ष में तो वे गणिजी से
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सिद्धान्तवाचना के लिये आये थे परन्तु अप्रत्यक्ष में वे एक षड्यन्त्र का आयोजन कर रहे थे। जिनवल्लभगणि शुद्ध मन से उन दोनों को सिद्धान्तों का अध्ययन कराते थे, परन्तु वे दोनों येन केन प्रकारेण जिनवल्लभगणि के श्रद्धालु श्रावकों में उनके प्रति असद्भाव उत्पन्न करने में लगे हुए थे, और अपने सब कारनामों का समाचार अपने गुरु मुनिचन्द्राचार्य को लिखते रहते थे । एक वार संयोगवश उनका लिखा पत्र जिनवल्लभजी के हाथ आगया और सारा भण्डाफोड हो गया। सारा प्रसंग जानकर उनके मन में खेद उत्पन्न हुआ और उनके मुख से निकल पडा:--
आसीज्जनः कृतघ्नः, क्रियमाणतस्तु साम्प्रतं जातः । इति मे मनसि वितर्कों, भवितालोकः कथं भविता १ ॥ १ ॥ जिन लमगणि बड़े स्पष्टवादी थे और उनकी आलोचना बड़ी कटु होती थी। सभी विद्वान लोग बैठे हुए थे, बहुत से ब्राह्मण विद्वान भी आए हुये थे। इस वार व्याख्यान में निम्नलिखित गाथा आगई:
विईण गिहीणं जाणं [१ ज ] पासथाईण वावि दद्दृणं । जस्स न मुज्झह दिडी, अमृतदिद्धिं तयं चिंति ॥ १ ॥ इस गाथा की व्याख्या उन्होंने बड़े विस्तार के साथ की और इस प्रसंग में चैव्यवासियों के साथ साथ ब्राह्मणों की मी तीव्र आलोचना की । ब्राह्मण लोग इस बात को सहन न कर सके और क्रुद्ध होकर व्याख्यान से उठ गये । उन्होंने एकत्र होकर सोचा कि किसी प्रकार बिनवहम के साथ विवाद करके इनको निष्प्रभ करना चाहिये । परन्तु जिनवल्लमगणि इससे तनिक भी "भयभीत नहीं हुए और उन्होंने निम्निलिखित पथ भोजपत्र पर लिखकर उनके पास भेजा:
मर्यादाभीरमृतमयतया धैर्यगाम्भीर्ययोगाद्, न क्षुम्यन्ते च तावन्नियमितसलिला: सर्वदेते समुद्राः ।
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प्रतिबोध
प्रतिष्ठाएं।
॥९॥
आहो। यो बजेयुः कचिदपि समये दैवयोगात् तदानीं न क्षोणी नाद्रिचक्रं न च रविशशिनौ सर्वमेकार्गवं स्यात ॥१॥ सिनिय श्लोक वृद्ध ब्राह्मणने पढ़ा और अन्य कुपित हुए प्राह्मणों को समझा बुझाकर शांत किया। टीकाइयो
प्रतिबोध और प्रतिष्ठाएँ पेठम्
इस प्रकार हम देखते हैं कि जिनवल्लभगणिने द्रोह, दर्प और विरोध के सामने कभी शिर नहीं झुकाया, साथ ही वे यह भी समझते थे कि मनुष्य कितना निरीह प्राणी है जो लोभादि का शिकार सहज ही में हो जाता है। ऐसे लोगों पर वे क्रोध नहीं करते थे, क्योंकि वे दया के पात्र होते हैं। इस प्रकार के लोग भी उनके पास आते थे, तो वे उनको आध्यात्मिक रोगी समझ कर उनकी चिकित्सा-विधान किया करते थे, शर्त इस बात की थी कि उस व्यक्ति में पूर्ण श्रद्धा होनी आवश्यक थी। एक वार गणदेव नाम का एक भाबक उनके पास आया, उसे स्वर्ण(सोना) सिद्धि की आवश्यकता थी। उसने सुन रखा था कि जिनवल्लभजी के पास स्वर्णसिद्धि है, वह उनके स्थान पर वारंवार आने लगा । गणिजी को उसका यह भाव ज्ञात हो गया, उन्होंने लिप्सा की लपट से दग्ध होते हुये उसके हृदय को परख लिया, अतः उन्होंने ऐसे उपदेशामृत की वृष्टि करना प्रारंभ किया कि यह सेठ स्वार्थी से धर्मार्थी हो गया । तब गणिजीने पूछा भद्र! कहो क्या तुम्हें स्वर्गसिद्धि की आवश्यकता है ? तो, उसका
यही उत्तर वा कि मैं तो श्राद्ध-धर्म का ही व्यवहार करना चाहता हूं। यही सेठ बाद में इनके लिखित 'द्वादशकुलक' नामक Pउपदेशों को लेकर बाम्जन( वागढ़) प्रदेश में गया और उनका प्रचार करके जिनबल्लभगणि की कीर्तिपताका फैलाई । इसके
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फलस्वरूप वहां की सारी जनता में गणिजी के प्रति अपार श्रद्धा और स्नेह का वातावरण बन गयो ।
इसके पश्चात् उनकी कीर्ति दिन-प्रतिदिन बढती गई और वे अपने ज्ञान और चारित्र के लिये प्रसिद्ध होते गये। दर-दर स्थानों से श्रावक लोग उनको आमन्त्रित करने लगे । नागपुर( नागोर ) में जाकर उन्होंने नेमिनाथ विधिचैत्य की प्रतिष्ठा की,
और तत्रस्य संघने पादर-पूर्वक सर्व सम्मति से इनको गुरु-रूप में स्वीकार किया। इधर नरवरपुर के श्रावकों के हृदय में भी राह पाभिवाया या पुर्द दिल निनवल्लभजी को अपने गुरु-रूप में स्वीकार करके उनके द्वारा देवमन्दिर और देवप्रतिमा की स्थापना करवाय। उनकी प्रार्थना स्वीकार हुई और जिनवल्लभगणिने नरवरपुर जाकर उनको कृतार्थ किया । जिन जिन मन्दिरों में उन्होंने प्रतिष्ठा करवाई, उनकी विशेषता यह थी कि उनमें यह स्पष्ट आदेश लिखवा दिया गया था कि । वहां रात्रि के समय पूजा-अर्चन, श्री का प्रवेश तथा ऐसे ही अन्य कार्य जो चैत्यवासियों के मन्दिरों में होते थे-नहीं होंगे।' इस प्रकार अब जिनवल्लभगणि का सन्देश स्पष्टतया सफल होने लगा था । अब उनको सन्तोष हो चला था कि उन्होंने अपने गुरु अभयदेवाचार्य को जो वचन दिया था, वे उसके अनुसार आचरण करने में पूर्ण सफल हो रहे हैं। - १ जिसका नाम सूरिजी के पट्टपर बंबिकाप्रकटित युगप्रधान पद विभूषित दादा श्रीजिनदससूरिजी को प्राप्त हुआ। -. २ इसका उल्लेख तत्कालीन दी देवालय के निर्मापक सेठ धनदेव के पुत्र कवि पद्मानन्द अपने वैराग्यशतक में भी करते है:
“सिकः श्रीजिनवलमस्य मुगुरोः शान्तोपदेशामृतः । श्रीमन्नागपुरे चकार सदनं श्रीनेमिनाथस्य यः। श्रेष्ठी श्रीधनदेव इत्यभिषया ख्यातय तस्याङ्गजा, पद्मानन्दातं व्यषत सुधियामानन्दसम्पत्तये ॥१॥".
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उपोद्घाता
ADVI
समस्या
पूर्ति ।
पेतम्
प्रवचनशक्ति विशुद्धि
जिनवहभगणि की व्याख्यानपटुता, प्रवचनशक्ति की भी बहुत प्रसिद्धि हुई। एक बार विक्रमपुर के आसपास बिहार कर, 'काइयो- रहे थे। मरुकोर्ट निवासियोंने उनके प्रवचन की प्रशंसा सुनकर उनको अपने नगर में बुलाना चाहा। बहुमानपूर्वक बीनती करने
पर जिनवल्लभगणि विक्रमपुर होते हुए मरुकोट्ट पधारे। वहां पहूँचने पर श्रावने एकत्र होकर बड़े ही विनीतभाव से प्रार्थना की
कि 'हे भगवन् ! हम लोग आपके श्रीमुख से भगवद् वचनों पर प्रवचन सुनना चाहते हैं। ' जिनवल्लभगणिने कहा-- श्रावकों ॥१०॥
की यह इच्छा सर्वथा उचित और श्लाघ्य है।' अतः शुम दिवस से प्रवचन प्रारंभ हुआ। अपने व्याख्यान के लिये उन्होंने से श्रीधर्मदासगणि कृत उपदेशमाला की निम्नलिखित गाथा को चुना:
"संचच्छरमुसभजिणो, छम्मासा बदमाणजिणनंदो । इय विहरिया निरसणा, जइज एओवमाणेणं ॥३॥"
इसी गाथा को लेकर वाचनाचार्य जिनवल्लभजीने अनेक दृष्टान्त, उदाहरण आदि देते हुए सिद्धान्त-प्ररूपण करते करते छ महीने लगा दिये । इसको देख कर सभी लोग आश्चर्यचकित हुए और कहने लगे • ये तो स्वयं भगवान तीर्थकर ही मालूम पड़ते हैं, अन्यथा इस प्रकार की अमृतस्राविणी वाणी कहां मिल सकती है?'
समस्यापूर्ति व्याख्यान देने और शास्त्रार्थ करने में जो प्रसिद्धि गणिजीने प्राप्त की, वही समस्या-पूर्ति के क्षेत्र में भी उन्हें सहज सुलभ १जैसलमेर राज्यवती बीकमपुर । ३ मरोठ ।
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हुई । समस्या-पूर्ति में न केवल उनकी काव्य-प्रतिमा, छन्दयोजना तथा प्रबन्धपटुता का परिचय मिलता है अपितु उनकी प्रत्युत्पन्नमति एवं उक्तिसौश्व का भी ज्ञान हमें होता है। एक समय की बात है वे कहीं जा रहे थे, एक विद्वान् उनको मार्ग में मिल गया। उसने उनके पाण्डित्य की प्रसिद्धि पहिले से ही सुन रखी थी, अतः परीक्षा करने की दृष्टि से उसने निम्नलिखित समस्यापद उनके सामने रखाः
" करनः किं भृङ्गो मरकतमणिः किं किमशनिः १ । "
इस पत्र को सुनते ही गणिजीने इसकी पूर्ति तुरन्त ही इस प्रकार कर डाली -
“ चिरं चिचोद्याने चरसि च मुखाब्जं पिबसि च, क्षणादेणाक्षीणां विरहविपमोहं हरसि च ।
नृप । त्वं मानाद्रिं दलयसि च किं कौतुककरं, करनः किं भृङ्गो मरकतमणिः किं किमशनिः १ ॥ १ ॥ " इसको सुनकर वह विद्वान् अत्यन्त प्रसन्न हुआ और बोला- मैंने आपके विषय में जैसा सुना था वैसा ही आपको पाया ऐसा कहकर वह उनके चरणों पर गिर पड़ा ।
ऐसी ही दूसरी घटना धारानगरी की है । उस समय धारा में श्रीनरवर्मा नामक नृपति राज्य कर रहे थे। एकवार . राजसभा में दो पण्डित बाहर से आये । उन्होंने पण्डितों के सामने यह समस्यापद रखा
" कण्ठे कुठारः कमठे ठकारः ।
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राजसभा के सभी पण्डितोंने अपनी बुद्धि के अनुसार इस समस्या की पूर्ति की, परन्तु उन दोनों विदेशी पण्डितों का चित्त
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• टीका पैवस
॥ ११ ॥
प्रसन्न नहीं हुआ। तब किसीने राजा से कहा- देव ! पण्डितों के द्वारा की हुई समस्या-पूर्ति इन दोनों को पसन्द नहीं आई। तब राजने पूछा कि इन दोनों को सन्तुष्ट करने का कोई अन्य उपाय संभव है ? इस पर राजा को उत्तर मिला कि चित्रकूट ('चित्तोड़ ) में जिनवल्लभगणि नाम के श्वेताम्बर साधु हैं जो सब विद्याओं में निपुण माने जाते हैं। तब राजाने साधारण नामके सेठ के पास एक पत्र भेजा, जिसमें उससे अनुरोध किया गया था कि वह अपने गुरु जिनवल्लभगण के द्वारा इस समस्या की पूर्ति करवाकर शीघ्र ही भेजे । प्रतिक्रमण के बाद जब गणिजी को पत्र सुनाया गया तो उन्होंने तत्काल ही इस प्रकार उस समस्या को पूर्ण किया ---
" रे रे नृपाः ! श्रीनरवर्मभूप- प्रसादनाय क्रियतां नताङ्गेः । कण्ठे कुठारः कमठे ठकार चक्रे यदश्वोखुराग्रघातः ॥ १ ॥ "
यह पूर्ति जब राजसभा में पहुंची तो न केवल विदेशी विद्वान ही सन्तुष्ट हुए अपितु स्वयं राजा भी जिनबलभगणि का सदा के लिये भक्त हो गया । यही कारण है कि जब गणिजी कुछ काल उपरान्त धारानगरी पधारे तो राजाने उनको तीन लाख मुद्रा या तीन ग्राम लेने के लिये बहुत कुछ आग्रह किया । परन्तु जब यह आग्रह उस अपरिग्रही और निस्पृह साधुने स्वीकार नहीं किया तो राजाने गणिनी की अनुमति से चित्रकूट में श्रावकों द्वारा निर्मापित दो विधिचैत्यों की पूजा के लिये वह धन दान में दे दिया । इसी बात का उल्लेख उनके गुरुभ्राता जिनशेखराचार्य के प्रशिष्य श्री अभयदेवसूरिने जयन्तविजय नामक काव्य ( र. सं. १२७८ ) में भी किया है:--
" उच्छिष्यो जिनवल्लभो प्रवरभूत् विश्वम्भराभामिनी - भास्वङ्गालललामकोमलय सः स्तोमः समारामभूः ।
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उपोद्घात । आचार्यपद
और
स्वर्गवास ।
॥ ११ ॥
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यस्य श्रीनरवर्मभूपतिशिरःकोटीररत्नाङ्कर- ज्योतिर्जालजलैरपुष्यत सदा पादारविन्दद्वयी ॥ १ ॥ कश्मीरानपदाय सन्ततहिमन्यासङ्गवैराग्यतः, प्रोन्मीलगुणसम्पदा परिचिते यस्यास्यपङ्केरुहे । सान्द्रामोदतरङ्गिता भगवती वाग्देवता तस्थुषी, वाराला मलभव्य काव्यरचनाव्याजादनृत्यच्चिरम् ॥ २ ॥ आचार्यपद और स्वर्गवास
जनवल्लभमणि की प्रसिद्धि और प्रभाव को सुनकर श्रीदेवभद्राचार्य को अपने गुरु प्रसन्नचन्द्राचार्य का अन्तिमवाक्य सारण हो आया 1. उन्होंने सोचा कि मैं अभी तक अपने गुरुश्री के आदेश के अनुसार जिनवल्लभगणि को श्री अभयदेवाचार्य का पर नहीं बना सका । ऐसा विचार कर उन्होंने जिनवल्लभगणि को पत्र लिखा । उस पत्र में लिखा था-" तुम शीघ्र ही अपने समुदाय सहित विहार कर चित्रकूट आओ, मैं भी वहीं पर आरहा हूं । " जिनवल्लभगण उस समय नागपुर ( नागोर ) में थे । करके चित्रकूट ( चितोड़ ) पहुँचे । देवभद्राचार्य भी अपने समुदाय सहित वहां पधारे। देवभद्राचार्य उस समय परम प्रतिष्ठित् गीतार्थसाधु और विद्वान थे । इनके द्वारा रचित महावीरचरियं, पासनाहचरियं, कहारयणकोस इत्यादि महाआज भी रेल कर्या-साहित्य में आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं । उन्होंने उस समय पं. सोमचन्द्र ( जो कि आगे चल जिनषडमसूर के पहर युगप्रधान भीजिनदत्तसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए ) को भी बुलाया था परन्तु वे किसी कारणवश आ सके । आचार्य देवभद्रसूरिने विधिवत् श्रीजिनवल्लभमणि को श्रीअभयदेवसूरि के पट्ट पर स्थापित किया और उस समय श्री जिनवल्लमसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । परन्तु वे इस पद पर अधिक समय तक न रह सके । उन्होंने ज्योतिष गणना
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Robl
विवद्धि -टीकाइयो
पेठस्
॥ १२ ॥
-के अनुसार अपनी आयु छह वर्ष और समझी थी, परन्तु छह महीने ही बीते थे कि एकाएक उनका शरीर अस्वस्थ हो गया । यह देखकर उनको आश्चर्य हुआ और उन्होंने पुनर्गणना की तो पता चला कि पहिले कुछ अह छूट गये थे जिसके कारण छ महीने के स्थान पर छ वर्ष आये। ऐसा निश्चय होजाने पर उन महानुभावने अपने शरीरत्याग की तैयारी धैर्य और सन्तोष के साथ कर दी। संघ एकत्र हुआ; सर्व जीवों के प्रति आपने मैत्रीभाव को प्रकट करते हुए अपराधों की क्षमा याचना की, अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवलीप्रणीत धर्म का झरण अंगीकार किया और तीन दिन का अनशन किया। इस प्रकार तैयार होकर सं. १९६७ कार्तिक कृष्णा अमावास्या- दीपावलि की मध्यरात्रि में पचपरमेष्ठि का स्मरण करते हुए इस असार संसार को स्याग कर श्री जिनवल्लभरिने चतुर्थ देवलोक की यात्रा की ।
शाविरुद्ध आचरण करनेवाले चैत्यवासियों के विरोध में आचार्य हरिभद्रसूरिने जो प्रचण्ड आवाज उठाई थी वह सफल हुई या नहीं कह नहीं सकते, परन्तु आचार्य जिनेश्वरसूरिने पत्तन में जाकर चैत्यवास, और चैत्यवासियों का समूलोच्छेदन करने के लिये जो चिनगारी छोड़ी थी उसको अपने प्रकाण्डपाण्त्यि और अपूर्व प्रतिभा से विभूषित जिनवल्लभमणि जिस प्रबल प्रभञ्जन को लेकर आगे बढे, उसमें चैत्यवास का महाद्रुम निर्मूल होकर धराशायी हो गया और उसके रहेसहे अवशेष आचार्य जिनदत्तसूरि से लेकर द्वि. बाचार्य जिनेश्वरसूरि तक के आचार्यादिने (गणिजी के अनुयायियोंने) सफाया कर दिया । अतएव जिनवल्लभगणि का जीवन एक क्रान्तिकारी जीवन था, जिसकी पवित्र और प्रभूत देनों के लिये जैन समाज उनका सदा के लिये ऋणी होगा । वे एक सये सत्यप्रेमी साधु थे । आडम्बर से उन्हें घृणा थी और मिध्याचरण से था हार्दिक विरोध । उन्होंने जिसको
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उपोद्घात । ग्रंथ
रचना |
॥ १२ ॥
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एक वार सत्य समझा उसको अपनी कथनी' और 'करणी' में निर्भीक होकर उतारा । मनसा वाचा कर्मणा जिस सत्य की उपासना का आदर्श उन्होंने जन-समाज के सामने रखा वह आज भी एक उच्च ज्योतिःस्तम्भ की भांति विद्यमान है। परन्तु क्या हम उसकी प्रखर-प्रभा को अपने अन्धकारपूर्ण हृदयों में आज घुसने दे रहे हैं ?
ग्रन्थरचना गणिवरजी १२ वी शती के सुप्रसिद्ध उद्भट विद्वानों में से एक थे। इनका अलङ्कारशास्त्र, छन्दशाख, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष, नाट्यशास्त्र, कामतन्त्र और सैद्धान्तिक विषयों पर एकाधिपत्य था । इन्होंने अपने जीवनकाल में विविध विषयों पर सैकड़ों ग्रन्थों की रचना की थी, जिसका उल्लेख सुमतिगणि गणधरसार्द्धशतक की वृत्ति में इस प्रकार करते हैं:
"परमद्यापि मगवतामवदातचरित निधीनां श्रीमरुकोदृसप्तवर्षप्रमित कृतनिवासपरिशीलितसमस्तागमानां समप्रगच्छामृतसूक्ष्मार्थसिद्धान्तविचारसार-पडशीति-सार्द्धशतकात्यकर्मग्रन्थ-पिण्डविशुद्धि-पौषधविधि-प्रतिक्रमणसामाचारी-सङ्घपट्टक-धर्मशिक्षाद्वादशकुलकरूपप्रकरण-प्रश्नोत्तरशतक-भृङ्गारशतक-नानाप्रकारविचित्रचित्रकाव्य--शतसपस्तुतिस्तोत्रादिरूपकीर्तिपताका सकल महीमण्डलं मण्डयन्ती विद्वानमनांसि प्रमोदयति । " | .. किन्तु देवदुर्विपाक से बहुत से अमूल्य प्रन्थ नष्ट होगए और इस कारण से इस समय केवल ११ रचनायें ही प्राप्त हैं और दो के केवल नामोल्लेख ही मिलते हैं। उपलब्ध ग्रन्थों की तालिका निम्न है:१ सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार (सार्द्धशतक) प्रकरण, २ आगमिकवस्तुविचारसार (घडशीति) प्रकरण, ३ पिण्डविशुद्धि प्रकरण,
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पिण्डशुद्धि कादयो
उपोद्घाता कविकृत प्राप्याप्राप्यअन्यसूचि।
पेतम्
| ४ पौषधविधि प्रकरण, ५ प्रतिक्रमणसामाचारी, ६ सर्वजीवशरीरावगाहनास्तक, ४ श्रावकवतालक, ८ द्वादशकुनक, ९ धर्मशिक्षा, १० सङ्कपट्टक, ११ प्रश्रोत्तरकपटिशतकाव्यम् . १२ शृङ्गारशतक, १३-१७ आदिनाधादि चरित्र पञ्चक, १८ वीरचरित्र (जय भववण प्रा. गा. १५), १९ चतुर्विशति जिनस्वोत्र ( आ. भीमभव. गा. १४५), २० पश्चकल्याणकस्तव ( सम्म नमिऊग. प्रा. गा. २६) २१ सर्व जिनपश्चकल्याणकस्तव ( पणमियसुर. प्रा. गा.८), २२ नन्दीश्वरस्तोत्र (वंदिय नंदिय. प्रा. गा. २५), २३ ऋषमजिनस्तोत्र ( सयलमुवणिक. प्रा. गा. ३३), २४ लघु अजितशान्तिस्तव ( उल्लासि० प्रा. गा. १७), २५ ऋषभस्तुतिः (मरुदेवीनाभि० प्रा. गा.४), २६ पार्श्वस्तोत्र (सिरिभवण. प्रा. गा. ११), २७ क्षुद्रोपद्रवहर पार्थस्तोत्र (नभिरसुरासुर प्रा. गा. २२), २८ महावीरविज्ञप्तिका (सुरनरवइकयवंदण. प्रा. गा. १२), २९ महाभक्तिगर्भा सर्व विज्ञप्तिका ( लोयालोय. प्रा. गा. २७), ३० भावारिवारणस्तोत्र ( समसंस्कृतप्राकृत गा. ३०), ३१ पञ्चकल्याणकस्तोत्र ( प्रीतिद्वात्रिंशत् सं. प. १३), ३२ कल्याणकस्तव (पुरन्दरपुरस्पदि. सं. प. ७), ३३ सर्वजिनस्तोत्र (प्रीतिप्रसन्नमुख. सं. प. २३), ३४ वीतरागस्तुतिः ( देवाधीशकते. सं. प. १०), ३५ पार्श्वस्तोत्र ( नमस्यद्गीर्वाण. सं. प. ३३, प्रथमकृति'), ३६ पार्श्वस्तोत्र ( पायापार्श्वः सं. प. २९) ३७ पार्श्वस्तोत्र (समुद्यन्तो. सं.प.१८) ३८ पार्श्वस्तोत्र (विनयविनमद्. सं. प.१९), ३९ पार्श्वस्तोत्र (स्वमेव माता त्वं पिता.सं.प. ९ ४० सरस्वतीस्तोत्र ( सरभसलसद् सं. प. २५),४१ नवकारस्तव (किंकि कप्पतरु० अपभ्रंश प. १३),
अनुपलब्ध-१ स्वप्नाष्टकविचार, २ अष्टसप्तति । १" अशानाद् भणिति स्थितेः प्रथमकाभ्यासात् कवित्तस्य यत्, किश्चित्सम्भ्रमहर्षविस्मयवशाचायुकमुके मया ॥ ३३ ॥"
॥१३॥
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इन ग्रन्थों में सार्द्धशतक, पडशीति और पिण्डविशुद्धि ये तीनों ही सैद्धान्तिक अन्य बहुत ही महत्व के हैं। इन ग्रन्थों पर आचार्य मलयगिरि, धनेश्वराचार्य, हरिभद्राचार्य, मुनिबन्छावा, ओपन्द्राचार्य, यशोदेवाचार्य आदि ने तत्काल ही अर्थात् १२ वी शती में ही टीकाएं रचकर इनकी सार्वजनिक उपयोगिता सिद्ध की। और भी इनके प्रायः समग्र ग्रन्थों पर अनेक टीकाएं प्राप्त होती हैं, उन सब का उल्लेख, और गणिजी के काव्यशिल्य पर वल्लभभारती की प्रस्तावना में हम प्रकाश डालेंगे । अतः यहाँ पर कवि की विशदनाक्षता और टीकाकारों के व्यक्तित्व आदि पर विचार नहीं कर रहे हैं।
विरोधियों के असफल प्रयत्न आचार्य जिनवल्लभसूरि के व्यक्तित्व और असाधारण-प्रतिभा से उत्पीडित परवर्ती कई लेखकोंने असंभाव्य कल्पनाएं उत्पन्न कर उनके व्यक्तित्व को दूषित करने का प्रयत्न किया है। इस प्रकार के अवांछनीय दुधयत्न करनेवालों में, ( साहित्य में शोध करने पर ) हमें सर्वप्रथम उपाध्याय धर्मसागरजी के दर्शन होते हैं । धर्मसागरजी जैसे उद्भट विद्वान थे वैसे ही यदि शान्तिप्रिय
और शासनप्रेमी होते तो निश्चित ही महापुरुषों को कोटि में आते। पर शोक!!, उस शताब्दि में उनके जैसा दुराग्रही, कलहप्रेमी, उच्छखल और निहब दूसरा व्यक्ति नहीं हुआ, जिसको तत्कालीन गणनायकों-विजयदानमरि तथा विजयीरसूरि जैसों कोवारंवार बोल (आदेशपत्र) निकाल कर गच्छ बहिष्कृत करना पड़ा और उनके उत्सूत्र प्ररूपणामय ग्रन्थों को जलशरण करवाना पड़ा । अतः ऐसी अवस्था में धर्मसागरजी कल्पित विकल्पों का उत्तर देना तो नहीं चाहिये किन्तु आज भी उन्हीं के वचनों | का उद्धरण देकर समाज में विष फैलानेवाले मानविजयजी आदि कई विनप्रेमी मौजूद है। अतः उनका कुछ समाधान होजाय
CREA%ACHARACT
4%
95%
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पिण्ड विशुद्धि टोकाइयो- पेवस्
उपोद्घातो | उपसम्पदा
ग्रहण विचार।
SARKARYANA
है और साहित्य-जगत् में यथार्थ स्थिति का दिग्दर्शन छोजाय, इसलिये उनके प्रमुख प्रमुख विकल्पों पर विचार कर लेना उचित प्रतीत होता है। सागरजीने जिनवल्लभगणि के विषय में जो विभिन्न विवाद ठाये हैं उनमें से प्रमुख निम्नलिखित है:१-आचार्य अभयदेवसूरि के पास इनने उपसम्पदा प्रहण नहीं की थी, अर्थात् शिष्य नहीं बने थे। २-षट्कल्याणक की
व्य नही बन थ। २-षट्कल्याणक की प्ररूपणा उनकी उत्सूत्रप्ररूपणा थी। ३-उत्सूम्रप्ररूपणा के कारण वे संघ बहिष्कृत थे।४-पिण्डविशुद्धि आदि सैद्धान्तिक प्रन्थों के प्रणेता जिवल्लभ नाम के कोई दूसरे आचार्य थे। अतः अब इन चारों विकल्पों पर हम क्रमशः विचार करते हैं:
उपसम्पदा वस्तुतः यदि कोई व्यक्ति गच्छ--व्यामोह से प्रमाणों के सद्भाव में भी केवल 'येन केन प्रकारेण प्रसिद्धिमान् पुरुषो भवेत् । नीति को अपनाकर अपने लक्ष्य की कालिमा को महापुरुषों पर लगाने का प्रयत्न करता है तो वह दया का पात्र ही है। आधुनिक समय में ही देखिये, महात्मा गांधी के सत्प्रयत्नों को सहन न कर अपनी दूषित मनोवृत्तियों से उनका वध करनेवाला गोडसे, महात्मा के नाम के साथ ही सर्वदा के लिये अमर हो गया ! उसी प्रकार अपनी निहवताभरी प्ररूपणाओं से संघर्षसाहित्य में धर्मसागरजी भी सदा के लिये उल्लेखनीय हो गये ।।
आचार्य जिनवल्लभसूरि के वृत्त को हम ऊपर देख आये हैं कि मूल में आप कूर्चपुरीय चेत्सवासी जिनेश्वराचार्य के शिष्य थे और भाचार्य अभयदेवसूरि से सैद्धान्तिक वाचना प्राप्तकर, सुविहित साधुश्री के वाचरण-व्यवहारों को समझकर, चैत्यवास का त्यागकर अभयदेवाचार्य के पास सपसम्पदा (पुनक्षिा) ग्रहण की। धर्मसागरजी से चार शताब्धि पूर्व ही श्रीसुमतिगणि और
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CARE
NSKROCESSORSCHECRACCRE
जिनपाळोपाध्याय ( जिनका अस्तित्व दीक्षा पर्याय १२२१ से १३१० तक है) ने अपने अन्धों में यह बात स्वीकार की है।
आचार्य जिनेश्वरसूरि के शिष्य और नवाङ्गटीकाकार श्रीअभयदेवरि के सतीर्थ्य गुरुभ्राता श्रीजिनचन्द्रसूरिने सं. ११२५ में औरंगशामा कक्षा मनम की रणना पूर्ण की । उसकी पुष्पिका में लिखा है--
" इति श्रीमजिनचन्द्रसूरिकता तद्विनेयश्रीप्रसन्नचन्द्रसूरिसमभ्यर्थितेन गुणचन्द्रगणि(ना) प्रतिसंस्कृता, जिनबल्लभगणिना च संशोधिता, संबेगरजशालाऽऽराधना समाप्त।।" अर्थात्-श्रीजिनचन्द्रसूरिप्रणीत उनके विनेय प्रसन्नचन्द्राचार्य की अभ्यर्थना से गुणचन्द्रगणि (जो आचार्य बनने पर देवभद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए) द्वारा प्रतिसंस्कृत और गणि जिनवल्लभ ारा संशोधित संवेगरंगशाला पूर्ण हुई । इससे स्पष्ट है कि यदि जिनवल्लभगणि उपसम्पदा प्रहण कर आचार्य अभयदेवसूरि के शिष्य न बने होते तो जिनचन्द्रसूरि जैसे, अपने सतीय अभयदेवसूरि, एवं शिष्य प्रसन्नचन्द्राचार्य, हरिभद्रसूरि, वर्धमानसूरि आदि समर्थ विद्वानों के रहते हुए एक चैत्यवासी गणि से अपनी कृति का संशोधन करवाय-संभावना नहीं की जा सकती ।
सचमुच में जिनवल्लभगणि यदि अभयदेवसूरि के शिष्य बने न होते और उत्सूत्रप्ररूपक होते तो अभयदेवरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् गच्छ में असाधारण प्रतिभाशाली और गीतार्थप्रवर आचार्य देवभवसूरि, जिनके सम्बन्ध में सुमतिगणि कहते है:|.. "सत्तर्कन्यायचर्चाचितचतुगिरः श्रीप्रसभेन्दुसरिः, मूरिः श्रीवर्द्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मनिर्देवभद्रः। ___+ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि-सं. ११२५ से पूर्व ही जिनवल्लमणि चैत्यबास का परित्याग कर उपसंपदा प्रहणपूर्वक नांगटीकाकार। श्रीममयदेवसूरि के शिम्य बन चुके थे। संपादक ।
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इत्याद्या सर्व विद्यार्णवसकलभुवः सञ्चरिष्णूभकीर्तिः, स्तम्भायन्तेऽधुनापि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः॥१॥"
है। उपोधाता बेशुद्धि वे अपने हाथों से मशि जिनवल्लभ को आचार्य अभयदेवसूरि के पट्टधर पद पर कदापि स्थापित नहीं करते । स्यापित करना अमयदेव काद्वयो
स्पष्ट प्रतिपादन करता है कि गणिजीने आचार्य अभयदेवसूरिजी के पास में उपसम्पदा ग्रहण करली थी, अर्थात् शिष्यत्व स्वीकार 18 रिशिष्यपेतम् || कर चुके थे । सं. ११०० में लिखित पट्टावलि में कवि पल्द जिनवल्लभसूरि को अभयदेवसूरि का पट्टधर स्वीकार करते हैं:- व सिद्धि।
सुगुरु जिणेमरसूरि नियमि जिणचंद सुसंजमि । अभयदेउ सबंग नाणी, जिणवल्लहु आगमि ॥" 1१५॥
आचार्य जिनवल्लभसूरि के प्रपौत्र पट्टधर और उ. जिनपाल तथा सुमति गणि के गुरु आचार्य जिनपतिसूरि स्वरचित संधपट्टक वृत्ति में लिखते हैं कि-' चैत्यवास को चतुर्गतिभ्रमणदायक मानकर जिनवल्लभजीने आचार्य अभयदेवसूरि के पास उपसम्पदा प्रहण की थी':
" सुगृहीतनामधेयः, प्रणतप्राणिसन्दोहवितीर्णशुभभागधेयः, चैत्यवासदोषभासनसिद्धान्ताकर्णनापासितकृतचतुर्गतिसंसारायासजिनभवनवासः, सर्वज्ञशासनोत्तमाङ्गस्थानाला]दिनवानवृत्तिकन्ट्रीमदमयदेवसूरिपादसरोजमूले गृहीतचारित्रोपसम्पत्तिः, करुणासुधातरङ्गिणीतरङ्गरकरस्वान्तः सुविधिमार्गावभासनप्रादुःषविशदकीर्तिकौमुदीनि पूदितदिक्सीमन्दिनीवदानध्वान्तः, स्वस्योपसर्गमभ्युपगम्यापि विदुषा दुरध्वविध्वंसनमेवाधेयमिति' सत्पुरुषपदवीमदवीयसी विधानः, समुजितरिभगवान् श्रीजिनवल्लमसूरिः....."
साथ ही इन्हीं जिनवल्लभ गणि रचित सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार ( सार्द्धशतक ) प्रकरण पर वृहद्च्छीय श्रीधनेश्वराचार्यने सं. | ११७१ में टीका रचना पूर्ण को है, (स्मरण रहे कि जिनवल्लभसूरि का स्वर्गवास ११६७ में हुआ था, उसके चार वर्ष पश्चात् ।
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CRkORGAREKe
KNESCRcार
ही इसकी रचना हुई है। अर्थात् अन्धकार और टीकाकार दोनों समक, आचाई उसमें ११९वें पच की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं:
जिणवल्लहगणि" ति जिनवल्लभगणिनामकेन मतिमता सकलार्थसमाहिस्थानाङ्गाद्यङ्गोपाङ्गपञ्चाशकादिशात्रवृत्ति विधानावातावदातकीर्तिसुधाधवलितधरामण्डलानां श्रीमदभयदेवसूरीणां शिष्येण · लिखितं' कर्मप्रकृत्यादिगम्भीरशास्त्रेभ्यः समुद्धत्य हुन्छजिनबल्लभगणिलिखितम् .........।" अर्थात-सार्द्धशतक के प्रणेता स्थानांगसूत्रादि अंगोपांग और पंचाशक आदि के व्याख्याकार आचार्य अभयदेवसूरि के ही शिष्य थे। इससे भी यह बात अत्यन्त सष्ट हो जाती है कि अभयदेवसूरि इनको तपसम्पदा प्रदान कर अपना शिष्य घोषित कर चुके थे। केवल ये ही नहीं किन्तु धर्मसागरजी के ही पूर्वज तपगच्छीय श्रीहेमसमरि।
) अपने कल्पान्तर्वाच्य में लिखते हैं।"नवानीवत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरि जिणे थमण सेढी नदीने उपकंठी श्रीपार्श्वनाथ तणी स्तुति करी, धरणेन्द्र सहाथै श्रीपार्थबिम्ब प्रत्यक्ष कीधो, शरीरतणौ कोढ रोग उपशमाव्यौ, तच्छिष्य जिनवल्लभसूरि हुआ, चारित्रनिर्मल अनेकनन्धतणी निर्माण कीधौ।
और इसी प्रकार तपागच्छीय आचार्य मुनिसुन्दरसूरि स्वप्रणीत त्रिदशतरङ्गिणी गुर्वावली में लिखते हैं:"व्याख्याताऽमयदेवसूरिस्मलप्रज्ञो नवाङ्गथा पुन-मेव्यानां जिनदत्तसुरिरददादु दीक्षा सहस्रस्य त ।
प्रौढः श्रीजिनवल्लंभो गुरुरभृद्ज्ञानादिलक्ष्म्या पुन-ग्रन्थान् श्रीतिलकश्चकार विविधांश्चन्द्रप्रभाचार्यवत ॥१॥" ४ उ. जयसोमकृत प्रश्नोत्तरे अन्य देखें, जो स्वरूप काल में ही प्रश्नोत्तर-चत्वारिंशत् शतक ' के नाम से इस संपादक द्वारा प्रकाशित होने वाला है।
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CSCIE
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उपोद्घातों
अभयदेका मूरिशिष्यत्र सिद्धि
पिण्ड- 1 इत्यादि अवतरणों से सिद्ध है कि गणिजी नवाजीवृत्तिकारक आचार्य अभयदेवसूरि के शिष्य थे। उपसम्पदा के विना शिष्यत्व विशद्धिः स्वीकृत नहीं हो सकता तो पट्टधर आचार्यत्व की कल्पना-कल्पना मात्र ही रह जाती है । अतः यह मानना ही होगा कि जिन- टीकाद्वयोवा वल्लभगणिने चैत्यवास त्याग कर अभयदेवसूरि से उपसम्पदा श्रहण की थी। इसलिये बुरावधान जिनदत्तसूरि जैसे समर्थ विद्वान् पेतम्
स्थान स्थान पर जिनवल्लभसूरि को अभयदेवसूरि का शिष्य कहते हैं।
केवल यही नहीं किन्तु आचार्य जिनवल्लभसूरि स्वयं स्वप्रणीत श्रावकत्रतकुलक में आचार्य अभयदेवसूरि का शिष्य कहते हैं:-- "जुगपचरागमसिरि-अभयदेवमुणिवहपमाणसुद्धेण । जिणवल्लहगणिणा मिहि-वयाइ लिहियाइ मुद्धेण ॥ २८॥"
गणिजी स्वयं को आचार्य अभयदेवसूरि के शिष्य ही नहीं किन्तु अष्टसप्ततिका में तो जिनेश्वरसूरि का शिष्य और अभयका देवसूरि के पास श्रुताध्ययन और उपसम्पदा ग्रहण करने का उल्लेख भी करते हैं:
"लोकार्यकर्चपुरगच्छमहाघनोत्थ-मुक्ताफलोजबलजिनेश्वरसरिशिष्यः।
प्राप्तः प्रथां भुवि गणिजिनवल्लभोत्र, तस्योपसम्पदमवाप्य ततः श्रुतं च ।।" साथ ही स्वप्रणीत प्रश्नोत्तरेकषष्टिशतं काव्य में जहां आचार्य अभयदेवसूरि को “के वा सद्गुरवोऽत्र चारुचरणश्रीसुश्रुता विश्रताः ?" इस प्रश्न के उत्तर में "श्रीमदभयदेवाचार्याः” का उल्लेख किया है, उसकी अवचूरि करते हुए तपागच्छनायक श्रीसोम. | सुन्दरसूरि के शिष्यने (सं. १४८६ में ) ' सद्गुरवः ' के स्थान पर 'मद्गुरकः ' पाठ स्वीकार किया है:Dil.: "श्रीपाके 'इति वचानात् श्रीधातुः । ममामयं पदातीति मदभयदस्तस्मिन् यो मदमयं पदातीति, तत्र मम मना प्रीप्तियु
RECTORREE
॥१६।
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भवतीत्यभिप्रायः ।............इत्यादि स्वयं रचित ग्रन्थों के प्रमाणों से संदेह का अवकाश ही नहीं रह पाता।
पदकल्याणक शास्त्रीय मतानुसार प्रत्येक तीर्थकर के व्यवनर, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ये पांचकल्याणक अनिवार्य रूप से होते ही हैं। परन्तु श्रमण भगवान् महावीर के ईन पांच कल्याणों के अतिरिक्त एक छठा कल्याणक और हुआ, वह था गर्भापहरण* । यह घटना इस प्रकार वर्णित मिलती हैं:
४ इस प्रथम कल्याणक का नाम एक च्यवन ही नहीं, किंतु अवतरण गर्भ, गर्माधान आदि अनेक नाम शास्त्रकार फरमाते है, जैसे कि बाचार्यजिनमवनिमणजी मानीनी शायरम जामलिलाखमणणाणनिवाण पंचकमाणे । तित्ययराणं नियमा, करंति सेसेसु खित्ते ॥ १॥" इस गाथा में अवतरण कहते हैं, आचार्य हरिभद्रसरिजी पंचाशक की "मम्मे जम्मे यतहा. मिक्समणे व पाणनिबाणे । भुवनखण जिणाणं, काणा होति णागचा ॥३॥"इस गाधा में गर्भकल्याणक और इसकी टीका में नबाटीकाकार आ. अभयदेवसूरिजो इसे गर्भाधान कहते हैं।
इन निर्दिष्ट प्रमाणो से निश्रित यह हुआ कि-देवलोक स च्यवनमात्र को ही नहीं अपितु वचकर माता को कुक्षि में तीर्थकर गर्भतया उत्पन | होना कल्याणक है, इसी कारण पत्रकार स्थान स्थान पर लिखते हैं कि-"चुए बहत्ता गम्भ चर्कते" अर्थात् देवलोक से चने और च्यबकर माता | की कुक्षि में गर्भतथा उत्पन्न हुए । संपादक।
जैसे च्यवन शब्द स्वयकर माता की कुक्षि में गर्भतया उत्पन होने का द्योतक है. वैसे ही गर्भापहार शब्द हरण मात्र का नही, किंतु देवानंदा की कुक्षि से अपहरण द्वारा त्रिशला की कुक्षि में स्थापन करने रूप अर्थ का द्योतक है। यही बात तपागच्छीयोपाध्याय जयविजयजी कल्पदीपिका में लिखते हैं, " गर्मस्य-श्रीवर्द्धमानरूपरम हरगं-त्रिशलाक्षी शक्कामण-गर्भहरणं "। इस तरह त्रिशला की कुक्षि में गर्भाधानरूप गर्भहरण-गर्भापहार को कल्याणक न मानना किसी प्रकार युक्तियुक्त नहीं, यदि उपरोक व्याख्योपेत गर्मापहार कल्याणक मानने योग्य न हो तो कल्पसूत्रोक्त "एए चचदस महामुमिणे
वि
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पिण्डविशुद्धि ० .. टीकाद्वयो
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॥ १७ ॥
श्रमण भगवान महावीर का जीव दशम देवलोक से व्युत होकर आषाढ शुट्टा पट्टी के दिवस माहणकुण्डग्राम के निवासी कोडाल गोत्रीय ऋषभदत्त विप्र की पत्नी जालंधरा गोत्रीय देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न हुए । देवानन्दाने चौदह स्वप्न देखे | ८२ दिवस पश्चात् देवलोकस्थ सौधर्मेन्द्र अवधिज्ञान से भगवान को देवानन्दा के गर्भ में स्थित देखकर प्रसन्न होता है और श्रद्धापूर्वक नमुत्यु आदि से स्तुति करता है ! पञ्चात् विचार करता है कि तीर्थंकर का जीव किसी अशुभ कर्मोदय के कारण श्रेष्ठ क्षत्रियों का त्यागकर विप्रादि नीच कुलों में उत्पन्न हो सकता है, परन्तु उस निम्न कुल की माता की योनि से उनका जन्म कक्षपि नहीं होता। मैं इन्द्र हूं, भगवान का भय हूं, अतः मेरा जीताचार ( कर्तव्य ) है कि मैं गर्भसंक्रमण ( अपहरण कर अन्य स्थान पर प्रक्षेप ) करवाऊं ? इत्यादि विचार कर अपना आज्ञाकारी हरिणगमेषी नामक देव को बुलाता है और आदेश देता है कि तुम जाकर देवानन्दा के गर्भ में स्थित भगवान के जीव को लेकर क्षत्रियकुण्ड के अधिपति. ज्ञातवंशीय काश्यप गोत्रीय सिद्धार्थनरेश की पत्नी वाशिष्ठ गोत्रीय त्रिशला क्षत्रियाणी को कुक्षि में स्थापित करो और त्रिशला की कुक्षि में स्थित पुत्री के गर्भ को देवानन्दा ब्राह्मणी के उदर में स्थापित करो ! आदेश प्राप्त कर दरिणगमेवी देव आता है और आश्विन कृष्णा त्रयोदशी की मध्यरात्रि में यह कार्य पूर्ण करता है। इसी रात्रि में त्रिशला क्षत्रियाणी १४ स्वप्न देखती है, राजा सिद्धार्थ से निवेदन करती है। नृपति सिद्धार्थ भी स्वप्नलक्षण पाठकों को बुलाकर स्वप्न फल पूछता है। तब मालूम होता है कि सव्वा पाछे तित्थयरमाया " इस नियमानुसार, और पंचाशकोक कल्याणक के " कलाणफला य जीवाणं " इस लक्षण से युक्त गर्भाधान हा १४ स्वप्न त्रिशलामाता न देखती संपादक ।
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उपोद्घात ।
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कल्याणकं निरूपण ।
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Feato
तीर्थकर अथवा चक्रवर्ती का जीव त्रिशला की रत्नमयी कुक्षि से जन्म ग्रहण करेगा । उसी दिवस से धनद के आज्ञाकारी देव सर्व प्रकार के वस्तुओं को सिद्धार्थ के घर में वृद्धि करते हैं।
इसी गर्भापहरण को मंगलस्वरूप मानकर सब ही शास्त्रकारोंने इसे कल्याणक के रूप में स्वीकार किया है। किन्तु अपनी आभिनिवेशिक मान्यता के वशीभूत होकर, शास्त्रीय मान्यता एवं परंपरा का त्याग कर, कई इस कल्याणक को कल्याणक के रूप में स्वीकार नहीं करते । उनकी मान्यता के अनुसार इसमें निम्नलिखित बाधाएँ हैं:
१. गर्भहरण असिनिन्ध कार्य होने से आश्चर्य (अच्छेरा ) है+ । जो आश्चर्य हो वह मंगलस्वरूप कल्याणक नहीं माना जा सकता। २. शास्त्रों में किसी भी स्थल पर श्रमण भगवान महावीर के छ कल्याणक हुए हैं-स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता । जहाँ कहीं भी उल्लेख है वह कल्याणक शब्द से अभिहित नहीं हैं किन्तु वस्तु या स्थान शब्द से कथित हैं। ३. पञ्चाशक शास्त्र में भूतानागत और भविष्यद् रूप त्रिकालभावि चौवीस चौवीस तीर्थंकरों के कल्याणकों की संख्या-परिमाण सूचन करने में महावीर के पांच ही कल्याणक माने हैं। टीकाकार अभयदेवसूरिने भी पांच ही लिखे हैं। यदि गर्भापहार छठा होता तो उसकी संख्या क्यों नहीं देते ? । १. यदि 'पंच हत्धुत्तरे होत्था, साइणा परिनिव्वुए' आदि से गर्भहरण को भी कल्याणक - • + " नीचर्गोत्रविपाकरूपस्य अतिनिन्यस्य अश्यरूपस्य गर्भापहारस्यापि कल्याणकत्वकथने अनुचितं" कल्पमु. प. .
इसी पर टिप्पन करते हुए आ. सागरानंद लिखते हैं-'म पहारोऽशुभः'। "अकल्याणकभूतस्य गर्भापहारस्य" कल्पकिरणावली। "करोषि ! श्रीमहावीरे, उथ कल्याचकानि षट। यत्तेचेकमकल्याण, विप्रनीचकुलत्वतः ॥१॥" गुरुतत्त्वप्रदीप । संपादक ।
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पेतम्
CREAKISTA
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'रिम- स्वीकार करते हो तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार 'पंच उत्तरासाढे अभीई छठे होत्था' से ऋषभदेव का राज्याभिषेक नामक | उपोद्घाता विशुद्धि कल्याणक भी मानना चाहिए । ५. शाखों में तथा किसी भी आचार्य द्वारा इसका उल्लेख न होने से यह प्रतिपादन अशास्त्रीय है,
वीरपटटीकाइयो- | अतः उत्सूत्रप्ररूपणा है और इसका प्रतिपादन सर्वप्रथम जिनवल्लभ गणिने ही किया है।
कल्याणक हा इन विकल्पों का समाधान (उत्तर) क्रमशः इस प्रकार है:
१. यदि हम आश्चर्य को कल्याणक के रूप में स्वीकार न करें तो हमारे सन्मुख कई बाधाएँ उपस्थित होती है । शास्त्रों में ॥१८॥
जहां दश आश्रयों (अच्छे)मा वर्णन है, पर में ११हीतर पहियार का स्त्री रूप में होना भी एक आश्चर्य माना गया है। यदि नारी का तीर्थकर होना आर्य के अंतर्गत आता है तो सहज ही प्रश्न उठते हैं कि क्या उस नारी का तीर्थकरत्व मंगल. दायक हो सकता है ? क्या उस नारी के जीवन की अमूल्य घटनाएं कल्याणक के रूप में स्वीकार की जा सकती हैं ? क्या उसकी तीर्थकर उपाधि कल्याणकारक हो सकती है ? क्या उसका शासन चतुर्विध संघ के लिये कल्याण-कारक हो सकता है । यदि भगवान महावीर का गर्भापहरण कल्याणकस्वरूप नहीं हो सकता वो नारी का तीर्थकरत्व कैसे कल्याणस्वरूप हो सकता है।
इसी प्रकार दूसरा एक आश्चर्य उत्कृष्ट वेहधारी १०८ मुनियों के साथ भगवान ऋषभदेव का सिद्धिगमन (निर्वाण प्राप्त करना) है। ५०० धनुष परिमाण की देह उत्कृष्टदेह मानी जाती है । इस प्रकार के उत्कृष्ट देहधारी जीव एक समय में एक साथ दो ही मुक्ति जा सकते हैं, यह शास्त्रीय नियम है। दो से अधिक एक समय में मुक्ति नहीं जा सकते, इस शास्त्रीय मर्यादा का उलंघन होने से इसे आश्चर्य मानते हैं वो, क्या हम इसको आश्चर्य मानकर मंगलदायक कल्याणक स्वीकार नहीं कर सकते १ यदि
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हम इसे कल्याणक स्वीकार नहीं करते हैं तो प्रभु ऋषभदेव का निर्वाण प्राप्त करना उनके स्वयं के लिये मंगलस्वरूप, आनन्दधामप्राप्तिरूप कदापि नहीं हो सकता तथा उनका निर्वाण कल्याणक, समाज के लिये श्रेयस्कर भी नही हो सकता। परन्तु आधर्य है कि हम इसे मंगल-स्वरूप कल्याणक अंगीकार करते हैं-करना ही पड़ता है। अनः विचार करना चाहिये कि एक आश्चर्य को तो इम कल्याणक नहीं मानते और दो आश्चर्यों को कल्याणक रूप में स्वीकार करते हैं, क्या यह नीति उचित कही जा सकती है? | यदि गर्भापहार मंगलमय न होता तो आचार्य हेमचन्द्रसूरि अपने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के दशमपर्व, द्वितीय सर्ग में 15 इसे मंगलस्वरूप कदापि स्वीकार नहीं करते, वे कहते हैं।
"देवानन्दागर्भगते, प्रभो तस्य द्विजन्मनः । बभूव महती ऋद्धिा, कल्पद्रुम इवागते ॥ ६ ॥ वस्था गर्भस्थिते नाथे, दूधशीतिदिवसात्यये । सौधर्मकल्पाधिपते, सिंहासनमझम्पत ॥ ७॥+ ज्ञात्वा चावधिना देवा-नन्दागर्भगतं प्रभुम् । सिंहासनात् समुत्थाय, शक्रो नत्वेत्यचिन्तयत् ॥ ८ ॥
+ इस पद्यमें कलिकालसर्पक आचार्य हेमचन्द्रसूरि स्पष्ट फरमाते हैं कि-देवानन्दा की कुझिमें प्रभु महावीरदेव के अवतरित होनेको बयासी दिवम बीत जाने पर पौधर्मेन्द्रका आसन कपिल हुआ, अतः शान्तिचन्वीय जम्बूद्वीपप्राप्तिति के-" तदेव हि कल्याणकं यत्रासनप्रकम्पप्रयुक्तावषयः सकसमुरारेन्त्राः जीतमिति विधित्ववो युगपत्यसम्ममा उपतिष्ठन्ते " इस कथनानुसार जिसमें इन्द्रादि देवताओंका आन! प्रभृति न हुआ हो उसे कल्याणक न माननेवालोने देवानन्दाकी कुक्षिमें वीरविभुके अवतरणको, जिसे कि हरिभवसति व अमयदेवरि जैसे प्रामापिक आचायोंने पंचाशक प्रकरण मूल व पत्तिमें स्पष्टतया काल्याणक माना है, उसे कल्याणक नही मानना चाहिये। संपादक ।
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चिन्हविशुद्धि ० सीमा यो
पेतम्
॥ १९ ॥
कृष्णाश्विनत्रयोदश्यां चन्द्रे हस्तोत्तरास्थिते । स देवशिला गर्भे, स्वामिनं निभृतं न्यधाद् ॥ २९ ॥ गजो वृषो हरिः साभि षेकश्रीः स्रक् शशी रवि । महाध्वजः पूर्णकुम्भः पवसरः सरित्पतिः ॥ ३० ॥ हिमालय, निर्धूमोऽग्निरिति क्रमात् । ददर्श स्वामिनी स्वमान् मुखे प्रविशतस्तदा ॥ ३१ ॥ इन्द्रः पत्या च तज्ज्ञैव तीर्थकजन्मलक्षणे । उदीरिते स्वफले, त्रिशलादेव्यमोदत ।। ३२ ।। गर्भस्थेऽथ प्रभो शक्रा -ऽऽज्ञया जृम्भकनाकिनः । भूयो भूयो निधानानि, न्यधुः सिद्धार्थवेश्मनि ॥ ३४ ॥ यदि हम देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होना कल्याणक मानते हैं और त्रिशला की कुक्षि में संक्रमण होना कल्याणक नहीं मानते हैं तो यह कितना अयुक्त होगा ? जहां हरण को अतिनिन्य कार्य स्वीकार करते है वहां विप्र कुल में उत्पन्न होना भी नीच गोत्र कर्मविपाक के उदय से मानते हैं दोनों ही जघन्यता की कोटि में आते हैं। उस अवस्था में एक का अंगीकार और एक का त्याग कदापि युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता ।
दूसरी बात, च्यवन के पश्चात् जो देवोचित कर्तव्य होते हैं वे हरण के पश्चात् ही हुए हैं, ऐसा शात्रों में चलेख मिलता है, तथा गर्भापहरण यदि कल्याणक न होता तो आचार्य भद्रबाहुस्वामी जैसे इस अधिनिन्य कार्य का शानों में विस्तार से वर्णन कदापि नहीं करते, उनका यह प्रतिपादन हमें एक नूसन दृष्टिप्रदान करता है कि प्रभु महावीर के कल्याणकों की संख्या दंगे ५ ही • स्वीकार हो तो देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होने से न मान कर गर्भहरण के बाद से ही संख्या मानें।
२. शास्त्रीय चल्लेखों में हम किसी गच्छ के अथवा आचार्यों के उल्लेख न देकर कतिपय शास्त्रीय उलेखों पर ही विचार करते हैं:
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उपोद्घात' वषट्
कल्याणक
सिद्धि ।
॥१९॥
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जैनागमों में प्रथम अंग श्रीआचाराङ्गसूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, भावनाध्ययन में वीरचरित्र का वर्णन करते हुए गणधरदेव लिखते हैं:" ते णं काले णं णं समये णं समणे भगवं हीरे से १. मृत्युतराहि चुए पइसा गर्भ वक्ते, २. हत्युत्तराहिं गाओ गर्भ साहरिए, ३. हत्थुत्तरा जाए, ४ हत्युतराहिं सञ्यतो सन्वत्ताय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारयं परवश्य, ५. इत्युत्तराहिं कसिणे परिपुष्णे निव्वाधार निरावरणे अणते अणुत्तरे केबवरणापदंसणे समुत्पन्ने, ६. साणा भगवं परिनिए+ । FI
इसकी टीका करते हुए व्याख्याकार प्राचार्य शीळासूरिने भी ही कल्याणक स्वीकार किये हैं। इसी प्रकार श्रीकल्पसूत्र के प्रारंभ में भी पाठ भाता है:
+ इन पाठका अर्थ नागपुरीय तपागच्छ के मुख्य प्रतिक आचार्य पार्श्वन्द्रसूरि इस प्रकार लिखते हैं
" श्रीमहावीर तेना पंच कल्याणिक दृस्तोत्तरा नक्षत्रमदि हुआ, जिणि उत्तरा नक्षत्र धादि दस्त के ते इस्तोरा कहिये एउ फाल्गुनी नक्षत्रमा॑दि पंच कल्याणिक हुआ, वे कल्याणिक केंद्रा ? कह के दस्तोत्तरा नक्षत्रमदि स्वामी चन्या, चवीने गाँऊगना १, हस्तोवरा नक्षत्रमहि धर्म की बीज गर्भमा २, दस्तोत्तरा नक्षत्रमा लामो जन्म पाया है, दस्तोत्तरा नक्षत्रमं ि * अणमारपणे प्रमजित हुआ. एतावता आदय४, हस्तोत्रा नक्षत्रमहि x x x स्वामी केवल हुआ ५. साइया स्वाति नक्षत्रे भगवं श्रीमदार निर्वाणदिपहुंता ६ । " ( आचारांग सूत्र बाबू प्र. पत्र २३९ व २४२ ) x पसु स्थानेषु गर्भाधान-संहरण-जन्मदीक्षा ज्ञानोत्पत्तिरूप संवृत्ता मतः पथस्तोत्तरो भगवानभूदिति" इस टीका पाठसे गर्भाधानादि जिन पात्र स्थानों में हस्तोत्तरा नक्षत्र इनका कहा गया उन पांच स्थानों में से चार को कल्याणक और एक गमदरण को अकल्याणक नहीं बताया, अतः छः कस्याणक हो मानना टीकाकारके अभिप्राय से युक्तियुक्त है ।
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HESARMARC
AKAR
* उपोद्घात।
वीरषट्कल्याणक सिद्धि ।
" ते णं काले णं ते णं समये णं समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे होत्था, तं जहा-१. हत्थुत्तराहिं चुए चइत्ता गम्भं वक्ते, दे०२. हत्थुत्तराहि गम्भाओ गम्भं साहरिए, ३. हरथुत्तराहिं जाए, ४. इस्युत्तराहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पञ्चइप, ५.
हत्थुत्तराहि अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने, ६, साइणा परिनिचुए भयवं।"
इसकी भी टीका करते हुए केवल कुछ तपगच्छीय आचार्यों को छोड़कर प्रायः सब ही टीका व टवार्थकारोंने छ ही कल्याणक हुए, ऐसा स्वीकार किया है। ___स्थानान सूत्र के पञ्चम स्थानक में पद्मप्रभ, सुविधि, शीतल आदि महावीर पर्यन्त के चौदह तीर्थंकरों के एक एक नक्षत्र में पांच पांच कल्याणकों की गणना करते हुए कुल ७० कल्याणक हुए, करके पाठ दिखाया है उसमें पीर के पांच कल्याणक हस्तोत्तरा नक्षत्र में हुए:
" समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे होत्था, तं जहा-हत्थुत्तराहि चुए चइत्ता गम्भं वक्ते, हत्थुत्तराहि गब्भाओ गम्भ साहरिए, हत्थुत्तराहिं जाए, इत्युत्तराहि मुंडे भवित्ता जाव पवइए, हत्थुचराहि अणते अणुचरे जाव केवलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने । "
इसकी टीका करते हुए आचार्य अभयदेवसूरि लिखते हैं:
" समणे, इत्यादि । हस्तोपलक्षिता उत्तरा हस्तोत्तरा, हस्तो वा उत्तरो यासां इस्तोत्तरा उत्तराफाल्गुन्यः पञ्चसु च्यवनगर्भहरणाविषु हस्तोत्तरा यस्य स तथा, गर्भादू-गर्भस्थानात् गम्भ ति गर्भ-गर्भस्थानान्तरे संहृतः नीतः । निर्वतिस्त स्वातिनक्षत्रे कार्तिकामावास्यायाम् ।"
%AGAR
२०॥
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BIHARITRAKARICHE
इसमें तेरह तीर्थंकरों के पांच पांच कल्याणक एक एक नक्षत्र में होने से कुल मिलाकर ६५ होते हैं और उसमें महावीर के हैं। गर्भहरणसहित केवलज्ञान प्राप्ति तक ५ कल्याणक हस्तोत्तरा नक्षत्र में हुए, स्वीकार कर ७० की संख्या पूर्ण करते हैं। इसमें निर्वाण सम्मिलित नहीं हैं। क्या यहाँ निर्वाण को कल्याणक न माना जाय ? और उसे यदि मानते हैं तो ६ हो ही जाते हैं इसीलिये आचार्य अभयदेवसूरि को विशिष्ट रूप से लिखना पड़ा कि ' निर्वृतिस्तु स्वातिनक्षत्रे कार्तिकाऽमावस्यायाम् ' इति । अतः यह स्पष्ट है कि शास्त्रकारों ने गर्भहरण को कल्याणक के रूप में स्वीकार किया है। यदि गर्मपरिवर्तन अतिनिन्द्य और अशुभ होता तो इसे मङ्गलमय कल्याणकों की गणना में ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं थी । इसमें ग्रहण करना सूचित करता [ है कि गर्भपरिवर्तन भी मङ्गलस्वरूप कल्याणक है।
यहां पर यदि यह विचार किया जाय कि इसमें कहीं भी कल्याणक शब्द की गन्ध तक हमें प्राप्त नहीं होती अपितु इसमें केवल इतना ही कहा गया है कि इस नक्षत्र में ये वस्तुएं हुई, तो इसे कल्याणक के रूप में कैसे स्वीकार किया जाय ? यह केवल मतिविभ्रम है, विद्वत्तापूर्ण विचार नहीं। यहां पर वस्तु ही कल्याणक का पर्यायवाची शब्द है, इसीसे कल्याणक ग्रहण किया जाता है। इस एकार्थक को हम यदि स्वीकार न करें तो हमारे सामने अनेक प्रकार की विप्रतिपत्तिएं खड़ी हो जायेगी। कुछ स्थलों को छोड़कर हमें कहीं भी और किसी भी शास्त्र में कल्याणक शब्द पृथक रूप से प्राप्त नहीं होता, हमें केवल लक्षणा से ही ग्रहण करना होता है। ऐसी अवस्था में क्या हम च्यवन से निर्वाण पदप्राप्ति पर्यन्त की वस्तुओं को कल्याणक स्वीकार नहीं करेंगे ? स्थानाङ्गसूत्र में प्रतिपादित १४ वीर्थङ्करों के ७० कल्याणकों को अंगीकार नहीं करेंगे ? कल्पसूत्र पार्श्वनाथ, नेमिनाथ
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पिन-
कायो
पेवर
SAKAL
आदि परित्रानुसार, यहां भी कल्याणक शब्द का उल्लेख न होने से क्या हम उनके मी कल्याणक स्वीकार नहीं करेंगे ? नहीं, उपोदपाव.. हमें स्वीकार करना होगा। अन्यथा कल्याणकों का ही स्पष्टतः अत्यन्ताभाव हो जायगा, जो सचमुच में शास्त्रविरुद्ध प्रलापमात्र वीरगचहोगा, कल्याणकों का प्रभाव अर्थात् मङ्गलदायक वस्तुओं का अभाव होगा। कस्याणकों का अभाव होने से इन्द्रादिक देवताओं की विहारकी हुई श्रद्धापूर्वक सम्यग् आराधना केवल ढोंग मात्र ही होगी, भक्ति नहीं। अतः कल्याणक शब्द का उल्लेख न होने पर भी कल्याणक हमें लक्षणा से कल्याणक प्रहण करना ही होगा ।
सिदि। यही नहीं, किन्तु तीर्थकर का जीव पूर्वमयों में जिस भय से पह सम्यक्त्व अर्जन करता है वहां से लेकर तीर्थकर मव तक उसके सभी भव ' उत्तममय ' माने जाते हैं। कल्पसूत्रादि शास्त्रों में प्रभु महावीर का मव पोट्टिल राजपुत्र के भव से पंचम भव माना जाता है, परन्तु समवायानसूत्र में गणधरदेव महावीर का पंचम भव देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होना और छठ्ठा मब त्रिशलारानी की कुक्षि में उत्पन्न होना और तीर्थकर रूप से जन्म लेगा मानसे है
समणे भगवं महाबीरे वित्यगरभवग्गणाओ छठे पोट्टिलमपरगणे एगं वासको सामन परियाग पाणिसा सहस्सारे कृप्ये सबढविमाणे देवताए सक्वने।" ... अमष तपस्वी भगवान महावीर के पोट्टिल के मप से पांच ही अब माने गये, यह छा भव कैसा- इसका श्रम न हो
इसलिये टीकाकार अभयदेवरि स्पष्ट कर देते हैं।ATM णे मावि । सिता भगवान् पोट्टिलाभियानो राजपुत्रो प्रभूषः। अत्र वर्षकोटि प्रषण्या पालिवान को MAASI
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देवोऽभूदिति द्वितीयः । ततो नन्दाभिधानो राजसूनुः छत्रानगर्या जशे इति तृतीयः । तत्र वर्षलक्षं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तावा हैं। दशमदेवलोके पुष्पोत्तरवरविजयपुण्डरीकाभिधाने विमाने देवोऽभवत् इति चतुर्थः। ततो ब्राह्मणकुण्डग्रामे ऋषभदत्त-ब्राह्मणम्य । माया देवानन्दाभिधानायाः कुक्षौ उत्पन्नः इति पञ्चमः । ततो व्यशीतितमे दिवसे क्षत्रियकुण्डप्रामे नगरे सिद्धार्थमहाराजम्य त्रिशलाभिधानभायाः कुक्षौ इन्द्रवचनकारिणा हरिनैगमेषिनाम्ना देवेन संहृता-नीतः तीर्थकरतया च जातः, इति षष्ठः । उक्तभवणं हि विना नान्यद्भवग्रहणं षष्ठं अयते भगवतः, इत्येतदेव षष्ठभवग्रहणतया व्याख्यातं, यस्मात्र भवग्रहणादिदं षष्ठं तदप्येतस्मात् षटमेवेति, सुष्ठूच्यते तीर्थकरभवग्रहणात् षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे इति ।"
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होना और उससे अपहृत होकर त्रिशलाकुक्षि में धारण होना अतिनिन्ध या आश्चर्य नहीं किन्तु उत्तम भव है। अतः पृथक् मवनिर्देश से उत्तम भव होने के कारण यह स्वतः ही मङ्गलस्वरूप कल्याणक हो जाता है।
३-पनाशक प्रकरण एवं टीकाकार अभयदेवसूरि द्वारा पञ्चकल्याणक स्वीकार करना अपना निजी महत्त्व रखता है। वहां सामान्य रूप से २४ तीर्थकरों के कल्याणकों की गणना का प्रसंग होने से पांच ही कहे गये है, इससे ६ कल्याणक की मान्यता में यत्किचित् भी बाधा नहीं आती. देखिये, जिस प्रकार चौवीश तीर्थदूरों की सामान्य गणना में १९वें तीर्थकर मल्लिप्रभु की स्त्रीरूप में गणना नहीं करते हैं किन्तु मल्लिनाथजी कहकर पुरुष रूप में गिनते हैं। परन्तु विशिष्ट व्याख्या में या प्रसंग में मल्लि स्त्री थी, कहते हैं तो, क्या सामान्य प्रसंग से मल्लिप्रभुका श्रीत्व छूट जाता है, और क्या वे पुरुष मान ली जाती है ? नहीं। 13
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इसी प्रकार प्रत्येक तीर्थंकर की माता चौदह स्वप्न देखती है। उसमें ऋषभदेव की जननी वृषभ से, महावीर प्रभु की जननी सिंह से और अवशिष्ट अजितनाथ से पार्श्वनाथ पर्यन्त २२ की माताएं हस्ति से लेकर निर्धूम अग्निशिखा पर्यन्त चौदह स्वप्न देखती हैं । कल्पसूत्र में वीरचरित्र में त्रिशलाद्वारा दृष्ट स्वप्नों के अधिकार में आचार्य भद्रबाहुस्वामी, सामान्य पाठ होने से एवं बहुलता की रक्षा करने के लिये सिंह स्वप्न से वर्णन प्रारंभ न कर हस्ति स्वप्न से ही वर्णन प्रारंभ करते हैं, तो क्या यह मान सकते है कि त्रिशला ने चौदह स्वप्नों में सर्वप्रथम सिंह का स्वप्न न देखकर हाथी का स्वप्न देखा था ?
यही क्यों ? आचार्य जिनवल्लभसूरिने स्वयं सर्व जिन पचकल्याणकस्तोत्रों में सामान्य जिनेश्वरों की स्तुति एवं कल्याणनिर्देश मात्र होने से महावीरप्रभु के पांच ही कहे हैं, तो क्या हमें जिनवल्लभसूरि का ही पृथक् अस्तित्व स्वीकार करना होगा ? या उन्हें aaraat करा होगा ? कहीं बलुतः सामान्य प्रसंग से पनाशक में महावीरदेव के पांच ही कल्याणक कहे हैं तो अतिरिक्त कल्याणक का अभाव नहीं हो जाता । अतः सामान्य विशेष व्याख्या को मध्यस्थ दृष्टि से देखें तो छ कल्याणक की मान्यता में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती ।
४ - जम्बूद्वीपप्रति के 'उसमे णं अरहा कोसलिए पंच उत्तरासाढे अभीई छडे होत्या' इस पाठ के अनुसार यहाँ यह सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक ही हैं कि क्या शास्त्रकार ने राज्याभिषेक को कल्याणक स्वीकार कर पंच उत्तरासादे' कहा है ? परन्तु इसका समाधान इसकी टीका करते हुए टीकाकार तपोगच्छीय आचार्य विजयसेनसूरि के शिष्य श्रीशान्तिचन्द्रगणि (जो घर्मसागरजी समकालीन विद्वान थे ) कहते हैं कि-' वीरस्य मर्मापहार इन नायं कल्याणकः ' महावीर के गर्भहरण की तरह ह
वीरगमविहार
कल्याणक
सिद्धि ।
॥ २२ ।
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विशुद्धि टीकाद्वयो
पेतम् ॥ २३ ॥
बल्याणको नो पायः प्रत्येक तीर्थङ्कर का राज्याभिषेक हुआ है उसे भी मानना होगा । यही क्यों ? भगवान ऋषभदेव ने IXI ऋपम। युगलिक धर्म का निवारण कर सुमङ्गला के साथ पाणिग्रहण किया, यह लौकिक व्यवहार से एवं गाईस्थ्यधर्मरूप श्रेष्ठ कार्य : राज्या| होने से इसे भी कल्याणक मानने में क्या आपत्ति है ? यदि इस प्रकार से कल्पनाओं का आश्रय लिया जाय तो पांच ही नहीं भिषेकअपितु कितने ही कल्याणक प्रत्येक तीर्थकर के हो सकते है, परन्तु शास्त्रविहित न होने से इन्हें कल्याणकों की कोटि में किसी
कल्याणक भी शाखकारने नहीं रखा, अतः राज्याभिषेक मी कल्याणक की कोटि में नहीं आ सकता ।
वासिद्धि। ५-कतिपय शास्त्रीय प्रमाणों के उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। अब खरतरगच्छीय आचार्यों के लिखित प्रमाण छोड़कर केवल अन्यान्यगच्छीय आचार्यों के ही प्रमाण प्रस्तुत करते हैं:(क) श्री पृथ्वीचन्द्रसूरि कल्पटिप्पन में लिखते हैं:
" हस्त उत्तरो यासां ताः, बहुवचनं बहुकल्याणकापेक्षम्, इत्यत्र पञ्चसु पञ्च, स्वाती षष्टमेव व्यन्यते ।" (ख) आचार्य विनयचन्द्रसूरि कल्पनिरुक्त (र. १३२५) में लिखते हैं:
" हस्त उत्तरो यासां ता हस्तोत्तरा-उत्तरफल्गुन्यो, बहुवचन बहुकल्याणापेक्षम् । तस्यां हि विमोध्यवनं १, गर्भाद्गर्मसक्रान्तिः २, जन्म ३, व्रतं ४, केवलं ५ चाभवत् । निर्वृतिस्तु स्वातौ ६ ।
।... (ग) तपगच्छीय आचार्य कुलमण्डनसूरि कल्पावरिका में मूल पाठ की व्याख्या करते हुए लिखते हैं।- . . "
"श्रीचर्बमानस्य षण्णां च्यवनादीनां कल्याणकानां हेतुत्वेन कथितौ तौ वा इति अमः।" ".".
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(ब) छाचार्य जयचन्द्रसूरि अपने कल्पान्तवच्य में लिखते है:
" आपाढे सितपष्ठी, त्रयोदशी चाश्विने सिता चैत्रे । मार्गे दशमी सितवै-शाखे सा कार्त्तिके च क्रुदुः ॥ १ ॥ वीरस्य पकल्याणक दिनानि इति । "
(च) सपगमछीय जा० श्रीसोमसुन्दरसूरि या शिष्य स्वप्रणीत कल्पान्तवच्य में लिखते हैं:
"यत्राऽसौ मगवान् महावीरो देवानन्दायाः कुभ दशमदेव लोकगतप्रधानपुष्पोत्तरविमानादवतीर्णः, पञ्चकल्याणकानि उत्तराफाल्गुनिनक्षत्रे जातानि । तद्यथा.... स्वाति नक्षत्रे परिनिर्वृतः निर्वाण प्राप्तो
भगवान् मोक्षं गत इत्यर्थः । एतानि भगवतो वर्द्धमानस्य घटकल्याणकानि कथितानि । " (छ) अवलीय धर्मशेखरसूरि शिव सागर स्वमणीत फल्पसूत्रटीका ( र. १५११ ३ये. सु. ५) लिखते हैं: -- K इस उत्तरोडप्रेसरो यासां ताः उत्तराफाल्गुम्बः बहुवचनं पलकल्याणका पेक्षया ' होत्या ' आसीत् । स्वातिना नक्षत्रेण परिनिर्वृतः निर्वाण प्राप्तः ।
(ज) अळी वाचनाचार्य श्रीमहावजी गणि शिष्य मुनि माणिकऋषि लिखित सं. १७६६ की प्रति में लिखा है"सु श्रनादिकल्याणकेषु दस्तोवरा - इस्तादुत्तरस्यां दिशि वर्त्तमाना या हस्व उचरो यांसां ता उत्तराफाल्गुन्यो यस्य स प हस्तोत्तरो भगवान् ' होत्य' प्ति अभूत् । "
१ शान्तिनाथ मंदिरस्थ अबळपच्छ भंडार, मच्छ पत्र १५० ।
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पिण्ड
विधुति. 'सीकाइयो-६
पेतम्
पीरपटकल्याणकप्रमाणपाठ।
॥२४॥
(झ) जोधपुर केसरियानाथ भंडार में सुरक्षित कल्पसूत्र टीका की एक प्राचीन प्रति' में लिखा है- '
" भीनमारतीक्षिपतेः पञ्चकल्याणकानि हस्त-उत्तरो अप्रे यस्मात् , एवम्भूते उत्तराफाल्गुनीलक्षणे नक्षत्रे जातानि ।
मोक्षकल्याणकस्य स्वाती जातत्वाविति ।” (द) तपागच्छीय पं. शान्तिविजयगणि लिखित (ले. सं. १६६७ लाहोर ) कल्पसूत्र-अन्तर्वाच्य सस्तव में लिखा है:
" श्रमणतपस्वी भगवंत ज्ञानवंत श्रीमहावीरदेव, तेहना पांच कल्याणक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रे हुथा। ...............
स्वातिनक्षत्रे मोक्ष पहुंता श्रीमहावीरदेव ।" (४) लपकेश( कंवला गच्छीय कक्ताचार्य सन्तानीय उपाध्याय रामतिलक शिष्य गणपतिलिखितै (ले. सं. १७२४) कल्प.
सूत्र बालावरोध में लिखा है"ए श्रीकल्पसूत्र तणइ प्रारंभइ जगाध श्रीमहावीरतणां छ कल्याणिक बोलियइ, तद्यथा-'ते गं का पंचाहत्थुसरे होत्था'तिणई समई श्रमण भगवंत श्रीमहावीररहई पञ्चकल्याणिक उत्तराफाल्गुमि नक्षत्र चन्द्रमा सणइ संयोगि प्राप्त हुंतह
हुआं | ..........................."ए संक्षिप्त वाचनाई जगन्नाथ तणां छ कल्याणिक जाणिवा ।" (ड) आञ्चलिक मेरुतुजरिरचित सूरिमन्त्रकल्प के पूर्वलिखित वर्धमान विधाकल्प में लिखा है:
" उपाध्यायादिपदचतुष्टयेन नवपदस्थापनादिनप्रतिपन्नषटस्वपि महावीरकल्याणकेषु यावजीवं विशेषतपः कार्यम् । " १ सामना ० १८ । ३ जोधपुर केशरियानाथ भंडार डा. २..प्रत ने 1 मईयाणा उपाश्रय के भंडार, पत्र"।
*
*%
॥२४॥
%*
So
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PRASANGRAHA
NOTEKASINIK
(2) तपागच्छीय श्रीशान्तिचन्द्रगणि अम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की टीका करते हुए भगवान ऋषमप्रभु का राज्याभिषेक कल्याणक माना
जा सकता है या नहीं? प्रसंग पर लिखते हैं:-"वीरस्य गर्भापहार इव नायं कल्याणकः।" अर्थात् वीर के गीपहार
की तरह यह (ऋषभ का राज्याभिषेक) कल्याणक नहीं है। इससे स्पष्ट है कि गीपहार कल्याणको की परिधि में है। (त) भागमिकगच्छीय आचार्य जयतिलकसूरि स्वप्रणीत सुलसाचरित्र के छठे सर्ग में लिखते हैं:
"देवानन्दोदरे श्रीमान , श्वेतषष्ठयां सदा शुचिः। अवतीणोऽसि मासस्या-पाढस्य शुचिता ततः ॥१॥ त्रिशला सर्वसिद्धेच्छा, प्रयोदश्यामभूद् यतः। तवावताराचेनैषा, सर्वसिद्धा प्रयोदशी ॥ २॥ शुकुत्रयोदश्यां यथा-चलमेरुं प्रचालयन् । चित्रं कृतवास्तव्योगा-चैत्रमासोऽपि कथ्यते ॥ ३ ॥ यस्याद्यदशम्या दुर्ग-मोक्षमार्गस्य शीर्षकम् । चारित्रमादृतं युक्ता, मासोऽस्य मार्गशीर्षता ॥४॥ दशम्यां यस्य शुक्लायां, केवलश्रीरहो! त्वया। बादत्ता तेन मासोऽस्य, युक्ता माधवता प्रभो! ॥ ५ ॥ -- तब निर्वाणकल्याणं, यद्दिनं पावयिष्यति । तन्न वेमि यतो नाथ !, मादृशोऽध्यक्षवेदिनः ॥६॥
सिद्धार्थराजायज । देवराज!, कल्याणकैः षभिरिति स्तुतस्त्वम् ।
तथाविधेशान्तरवैरिषदकं, यथा जयाम्पाशु तव प्रसादात् ॥७॥". # इत्यादि एक नहीं सैकड़ों प्रमाण दिये जा सकते हैं। अतः यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं है कि जिनबल्लभगणि ने ही का यह नूतन प्रतिपादन किया है। श्रीमान् जिनववभगणि ने तो केवल जो वस्तु चैत्यवासियों के कारण विवर' में प्रविष्ट होती
..
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उपोद्घावा जिनवल्डमसरि-साबायत्व निराकरण
पेतम्
॥२५॥
पिण्ड- I जा रही ही उसका पुनः उद्धार कर जनता के सामने रखकर अपनी असीम निर्भीकता का परिचय दिया है.। वस्तुतः गणिजी विशुद्धि का यह पट्कल्याणकों का प्रतिपादन उत्सूत्र प्रतिपादन नहीं था, किन्तु सैद्धान्तिक वस्तु का ही प्रतिपादन था। यदि यह प्ररूपणा..| टीकाइयो-|- उसूत्रप्ररूपणा होती तो तत्कालीन समम गच्छों के आचार्य इसका उम विरोध करते; प्रतिशोध में दुर्दम कदम उठाते । पर
"I आश्चर्य है कि तत्कालवत्ति किसी भी आचार्थने इस प्ररूपणा का विरोध किया हो ऐसा प्रमाण प्राप्त नहीं होता है। प्रत्युत प्रतिपादन के
प्रमाण अनेकों उपलब्ध होते हैं। अतः यह सिद्ध है कि यह प्ररूपणा तत्कालीन समम आचार्यों को मान्य थी। साथ ही यह भी मानना होगा कि खुद तपागच्छीच विद्वानों ने भी षट्कल्याणक लिखे हैं अतः धर्मसागरजी की स्वयं की प्ररूपणा ही निवव-मार्ग की प्ररूपण है, आचार्य जिनवल्लभसूरि की नहीं।
इस कल्याणक के विषय में शास्त्रीय दृष्टि से विशेष अध्ययन करना हो तो मेरे शिरच्छत्र पूज्य गुरुदेव- श्रीजिनमणिसागरपरिजी म. द्वारा लिखित 'पटकल्याणक निर्णय' नामक पुस्तक देखें ।
सङ्घबहिष्कृत जो व्यक्ति पाण्डुरोग से मसिव हो जाता है उसे सृष्टि की समस्त वस्तुएं पीतवर्णी ही प्रतीत होती है वैसे ही धर्मसागरजी को विद्वत्ता का पीलिया हो गया, तत्फलस्वरूप, उचकी दृष्टि में समन गच्छवाले निव, विशुद्ध और कठोर क्रियापानी बरतर:
छ जैसा गेण खर-वर, जिनवकमसूरि जैसा प्राचार्य उत्सूत्रप्रतिपादक, मालूम हुए। जिनवल्लभरि को उत्सूत्रप्ररूपक कहने के
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पचात् एक जटिल समस्या उनके सम्मुख और आई कि ऐसे प्ररूपक तो संघ गण- बहिष्कृत हुआ करते हैं तो क्यों न इनको संवहिष्कृत सिद्ध कर दूं ? इसको सिद्ध करने के लियेकी साहिब सागर में काफी
मोठा उगाया पर निष्फल हुए, अन्त में उनको एक प्रमाण मिल ही गया । वह यह था—
" मङ्घत्राकृतचैत्यकूटपतितस्पान्तस्तरां ताम्यतः स्तन्मुद्रापाव्यनवः शच्च चन्दि कल्पितानी तपसोऽप्येतत्कस्थायिनः सम्भावनपुरवावस्व गोषः कुतः ॥३ यह आचार्य विनककुभसूरिप्रणीत सङ्घट्टक की ३३ वीं कारिका है। इसका अ समस्त टीलाने निहै:जून दोन- आचारवाडे चैत्रवासियों को देने के लिये बनवाये गये ल-कूद वर्षाबाट बो जो अन्यःकरण से उप रहे हैं परन्तु इन चैत्यवासियों को मुद्रा अर्थात्ः! हमारे चैन को र राज्यारू बन्म से यन्पे हुए होने के कारण जरा मी हिन्दु नहीं सकते है कि करते है परन्तु छूट दीपारियों के संघ की परम्परा में पड़े हुए है। ऐसे उसे वे वचनीय डंकल दीनभारित
लिने जो दान
कास-कहां ? अर्थात् जैसे दरिब समूह जब ध्यानक्रमहोता है प्रकार इन तापारियों के इलाके
या बाा है उब सका प्राणीरूप हरियों को केटीका कतिचित् वपूर्ण
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पिण्ड
उपोदवास जिनवार
रि-सा &ा बाबत निराकरण
कालीन विजयप्रेममूरिमामतानुभवी गोनोटोनकर असे बरते हैं वह कितना विचारणीय तथा उपहासास्पद है, देखिये:- विशुद्धि । पद्य में आये हुए " संघव्याघ्रशस्य " शब्द पर विशेष ऊहापोह है। उनका मन्तव्य है कि संघ को व्याघ्र की उपमा देना टीकाद्वयो- पूर्ण रूप से अनुचित है। किन्तु किस संघ को व्याघ्र की उपमा दी है-विचारने का वे परिश्रम नहीं उठाते । आचार्य जिनपति- पेतम्
6 सूरि इस शब्द की व्याख्या करते हुये लिखते हैं:
Pा ." अथ कथमिह संघस्य करतया व्याघ्रण [निरूपणं ? तत्त्वे हि तस्य भगवन्नमस्कारो न घटामिययात् । अयते च तीर्थप्रवर्तना- ॥२६॥
ऽनेहसि 'नमो तित्थस्से'त्याचागमवचनप्रामाण्येन भगवत्तस्तन्नमस्कारविधान, तत्कथमेतदुपपद्यत इति चेत् , न, सहानामश्रवणाद् संघेऽपि प्रकृते भवतः संघभ्रान्तेः । अन्यो हि संघो भगवन्नमस्कारविषयोऽन्यश्चाधुनिको भवदभिमतः । तथाहि-गुणगुणिनोः कथंचिचादात्म्येन ज्ञानादिगुणसमुदायरूपः शुद्धपथप्रथनबद्धादरोऽनुल्लंधितभगवच्छासनः साध्वादिः सिद्धांते सह इत्यभिधीयते । यदाह
सबोवि नागदसण-चरणगुणविभूसियाण समणाणं । समुदायो होइ संघो, गुणसंघाओ ति काऊणं ॥१॥ एवंविधश्च संघो भगवन्नमस्कारविषयः। स हि भगवान्नमस्यदखण्डाखण्डलमौलिमालाललितक्रमकमलोऽपि तीर्थस्य साक्षात्रधापि प्राक्तनजन्मनिर्पर्तितभावसंघवात्सल्यादाईन्त्यं मयावासमिति कृतज्ञता प्रदिदर्शयिषया सबहुमानदर्शनाच लोकोऽप्येनं बहुमन्येत इति जिज्ञापयिषया च तं नमस्कुरुते ।
गुणसमुदाओ संघो, पवयण-तित्थे ति इंति एगट्ठा । तित्थयरो विहु एयं, नमए गुरुभावओ चेव ॥ १॥ . तषिया (१) अरहया, पयपूया य विणयकम्मं च । कयकिचोवि जह कह, कहेइ नमए तहा तिथं ॥२॥
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इतरथा कृतकृत्यत्वेन भगवत्तो यथाकथंचित्तत्रैव भवे मुक्तिसंभवास्किमनेनेति । साम्प्रतिकस्तु भवभिप्रेत उन्मार्गप्रसापकत्वेन,सम्माप्रणाशकत्वेन, जिनाधासर्बस्वलुण्टाकत्वेन, यतिधर्ममाणिक्यकुटाकत्वेन च गुणसमुदायरूपत्वस्य संघलक्षणस्याभावान संघः। यदुक्तम्
केइ उम्मग्गद्वियं, उत्सुत्तपरूवयं पहुं लोय । दलु भणति संघ, संघसरूयं अयाणता ॥१॥ . मुहसीलाओ सच्छंदचारिणो वेरिणो सिपहस्स । आणाभट्ठाओ बहु-जणाओ मा भणह संघोति ॥ २॥ पर पहुकश पासवासोऽपि संघ इत्यभिधया लोकेऽभिधीयत इति मुग्ध ! नाम्ना विप्रलब्धोऽसि । यदुक्तं
एको साहू एका वि साहुणि साचओ य सड्डो य । आणाजुत्तो संघो, सेसो पुण अद्विसंधाओ ।।१॥ अतः संघलक्षणाभावान्नायं बहुमानमहति, तद् बहुमानादिकारिणो भगवत्प्रत्यनीकादिभावेनाभिधानात् । यदुक्तं- .
आणाए अवटुंतं, जो उववृद्धिा मोहदोसेणं । तित्थयरस्स सुयस्स य, संघस्स य पचणीओ सो ॥ १ ॥ तथा
जो साहिजे बट्टह, आणाभंगे पयमाणार्म । मणवायाकारहिं, समाणदोसं तयं विति ॥ १॥ अतएव सुखसीलतानुरागादेरसंघमपि संघ इत्यभिदधतां प्रायश्चित्तं प्रतिपादित सिद्धान्ते । यदाह--
अस्संघ संघ जे, मणति रागेण अहव दोसेण । छओ वा मूलं वा, पच्छित्तं जायए तेसि ॥१॥ तस्माद् युक्तं करतया प्रकृतसंघस्य व्याघ्रतया [नि]रूपणम् ।" गुणसमुदाय, संघ, प्रक्चन तथा तीर्थ शब्द एकार्थक हैं तथा शान, दर्शन, चारित्र गुणों से परिपूर्ण साधु के समुदाय को
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पेतम् ।
पिण्ड- TH यहाँ संघ कहा है और वह संघ बहुमाननीय है। किन्तु उन्मार्गस्थित, सन्मार्ग का विनाशक, जिनामा का नाश करके स्वच्छन्द-18 उपोद्घाता विशद्धि रूप से प्ररूपित चैत्यवासी समुदाय, जो सुख-लोलुपी है उसको यहाँ संघरूप से स्वीकार नहीं किया है । अर्थात् उन्मार्गप्ररूपक जिनवल्लमटीकाद्वयो- धैत्यवासी समुदाय-संघ को ही व्याघ्र की उपमा दी है किन्तु तीर्थ सम्मत संघ को नहीं; जो यथार्थ ही है। और इसी प्रकार के संघ को जब आचार्य हरिभद्रसूरि जैसे समर्थ विद्वान भी चैत्यवास का खंडन करते हुये "(आज्ञावियुक्तः) शेषसंघः
वायत्व अस्थिसंघात एवं कह कर हड्डियों का समुदाय मात्र ही है-प्रतिपादन करते हैं तो, इस वर्तमानीय (चैत्यवासी) संघ को ॥२७॥
जो व्यान की उपमा दी है वह अयुक्त प्रतीत नहीं होती है। । दूसरी विचारणीय वस्तु यह है कि इस टीका में आये हुये " ऐदंयुगीनसहप्रवृत्तिपरिहारेण च सयालयप्रतिपादनममी मूषणं, न तु दूषणं । " वाक्य का प्रश्रय लेकर जो प्रतिपादन करते हैं कि 'जिनवल्लभ संघ बहिष्कृत थे'-किन्तु उन्हें टीकाकार के पूर्ण शब्दों का ध्यान रखना चाहिये कि टीकाकार जो संघबाधत्व को भूषण कहता है उसका आशय क्या हैं? देखिये टीकाकार के पूर्णवाक्या
"ऐदयुगीनसंधप्रवृत्तिपरिहारेण च संघ-बाह्यत्वप्रतिपादनममीषां भूषणं, न तु दूषणम् । तत्प्रवृत्तेरसूत्रवेन :कारिणां || दारुणदुर्गतिविपाकश्रुस्या तत्परिहारेण प्रकृतसंघबाह्यत्वस्यैव तेषां चेतसि चित्तत्वात्तदंतर्भाचे तु तेषामपि तत्प्रतिवर्तिष्णुतयाऽनंत
भवावीपयटनप्रसङ्गात् । अत आधुनिकसंघबाह्यत्वेनैव तेषां गुमित्वं, तथा घ वेधूच्छेदबुद्धिमहापापयसामेक भवति तस्माHAमुक्त्यविना प्रमोव एक विषातज्यो, न वनीयस्यपि द्वेषधीरिति व्यवस्थितम्।" . .
ARTHAKARI
toकामुक
॥
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HERA
ANS
*
उपरि उल्लिखित टीकाकार के शब्दों से यह स्पष्ट है कि जिस यवासी संघ को हमने व्याघ्र की उपमा दी है उम संघ में यदि जिनाशानुसार चालित, सुविहित साधु-समुदाय नहीं रहता है अथवा ये चैत्यवासी कहते हैं कि ' से सुविहित साधु संघ थाय हैं ' तो वह सुविहित-गण के लिये दूषण नहीं है किन्तु भूषणरूप ही है। क्योंकि यदि सुविहित गण उस संघ को स्वीकार करता है और उसकी आम्नायानुसार चलता है तो वह संसार का वृद्धिकारक है।
वस्तुतः आचार्य जिनपठिसूरि का यह कथन उपयुक्त ही है, अन्यथा आचार्य हरिभद्रस्त्रि और आचार्य जिनेश्वरसूरि जैसे प्रौढ़ सुविहित, चैत्यवासियों की बापरणाओं का क्यों विरोध करतो ? विरोध के कारण यह वस्तु भी उपयुक्त है कि चैत्यवासी समुदाय इन सुविहितों को संघबाह्य करता है तो बद्द सुविहितों के लिये दूषणरूप नहीं है, क्योंकि उनका मत-व्यामोह एकान्स दृष्टि से कहने को उन्हें बाधित करता है। इस से यह सिद्ध है कि चैत्यवासी संघ से जिनवाठमसूरि आदि सुविहित बहिष्कृत अवश्य थे किन्तु ये सुविहित संघ के अन्दर और उसके प्रमुख ।
धर्मसागरजीने न जाने अपनी किस असाधारण विद्वत्ता के बल पर इस पञ्च में से सङ्क-बहिष्कृत का अर्थ निकाला ? मैं तो समझता कि स्वयं सागरजी अपने को चैत्यवासियों के प्रमुख समझते हो या उनके अनुयायी हों तो उन्हे कुसंघ और व्याघ्र की उपाधि सम न हुई हो? इसीलिये स्वयं व्याघ्र बनकर अपनी रढमुद्रा ( लेखनी ) द्वारा सुविहितपथप्रकाशक को संघबाम करने का अपना अधिकार बताया हो । में तो सागरजी के विचारों के अनुयायी समस्त विनप्रेमियों का आह्वान करता हूँ कि उनके पास कोई भी या किसी भी प्रकार का प्रमाण हो तो उपस्थित करें, अक्श्य ही सद्भावना के साथ मैं विचार करूंगा।
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पिण्डविशुद्धि ० टीकाइयो
पेतम्
॥ २८ ॥
अन्यथा प्रमाणों के अभाव में इन कपोलकल्पित कल्पनाओं का साहित्य या ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व ही क्या ? उत्सूत्र - प्ररूपक १
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आ. जिनवल्लभसूरिने सूक्ष्मार्थविचारसार प्रकरण की १४ वी गाथा के उत्तरार्ध में संहनन के अधिकार में लिखा है सुचे सत्तिविसेसो, संघयणमिहद्विनिच चि ।। १४ ।। " इस पद्य में उलिखित "सुत्ते सत्तिविसेसो” पर प्रज्ञापना सूत्र की टीका करते हुए [ पृ. ४७० ] आचार्य मलयगिरि लिखते हैं:" तेन यः प्राह सूत्रे शक्तिविशेष एव संहननमिति तथा च तद्रन्थ:-" सुते सचिविसेसो संघयणं" इति स भ्रान्तः । मूलटीकाकारेणापि सूत्रानुयायिना संहननस्यास्थिरचनाविशेषात्मकस्य प्रतिपादितत्वात्, यस्वेकेन्द्रियाणां सेवा संहननमन्त्रोक्तं तत् टीकाकारेण समाहितं, औदारिकशरीरत्वादुपचारतः इदमुक्तं द्रष्टव्यं, न तु तत्त्वदृश्येति । यदि पुनः शक्तिविशेषः स्यात् ततो देवानां नैरयिकाणां संहननमुच्येत । अथ च ते सूत्रे साक्षादसंहनिन उक्ता, इत्यलं उत्सूत्रप्ररूपकविस्पन्दितेषु । " श्रीमलयगिरि के ' उत्सूत्रप्ररूपकविस्पन्दितेषु ' शब्द पर श्रीसागरानन्दसूरि ने ३|| पेज की टिप्पनी लिखकर और श्रीप्रेमविजयजी ( वर्तमान - विजय प्रेमसूरि ) ने सार्द्धशतक की प्रस्तावना में इसी विषय पर २ || पेज लिखकर जो कलम छोड़ी है, और जिन शब्दों का प्रयोग किया है, वह सचमुच में लाप्य है ! |
यहाँ श्रीजनवल्लभरिने जो स्वरचित प्रकरण में शक्तिविशेष को संहनन कहा है वह शास्त्र सम्मत है या नहीं ? पूर्व में 'अपरिणत भगवत्सिद्धान्तसारो वावदूकः सिद्धान्तवाहुल्यमात्मनः ख्यापयचैवं प्रलाप । ' कुमार्गगमृगसिंहनादीगं वचनं । '
KAPURN
उपोमात
उत्सूत्रप्ररूपक
विचार |
॥ २८ ॥
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विचार करने के पश्चात् मलयगिरिजी के शब्दों पर हम विचार करेंगे।
श्रीजिनवल्लभसूरि और श्रीमलयगिरिजी के पूर्ववर्ती आचार्य, साप्तव्याख्याकार श्रीहरिभद्रसूरिने आवश्यकसून की बृद्धृत्ति RI [ आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित पू. ३३७. १ ] में लिखा है:---
" इह च इत्थंभूतास्थिसञ्चयोपमितः शक्तिविशेषः सहननं उच्यते, न तु अस्थिसञ्चय एव, देवानामस्थिरहितानामपि प्रथमसंहननयुक्तत्वात् ।”
अर्थात्-इस प्रकार अस्थिसञ्चय से युक्त शक्तिविशेष को संहनन कहते हैं, केवल अस्थिसम्बय को ही नहीं। क्योंकि देवताओं को अस्थिरहित होने पर भी प्रथम संहनन ( वजर्षभनाराच ) युक्त होने का कथन होने से ।
इसी प्रकार सर्वगच्छमान्य नवाज टीकाकार श्रीअभयदेवसूरि स्वप्रणीत स्थानानसून की टीका ( आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित पृ. ३५७-१) में लिखते हैं:
" संहननं-अस्थिसञ्चयः, वक्ष्यमाणोपमानोपमेयः शक्तिविशेष इत्यन्ये ।"
जब आचार्य हरिभद्रसूरि केवल अस्थिसञ्चय को ही संहनन स्वीकार नहीं करते और आ. श्रीअभयदेवमूरि 'शक्तिविशेष इत्यन्ये ' कह कर इस वस्तु को स्वीकार करते हैं, ऐसी अवस्था में 'भ्रान्त है' कहना समीचीन प्रतीत नहीं होता।
तथा जीवाभिगम सूत्र में जय "सुरनेरच्या छण्इं संघयणाणं असंघयणा" अर्थात्-देव और नारकी छहों संहननों से रहित + वऋषमनाशच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका, और सेवार्स ।
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पिण्डविशुद्धि ० टीकाद्वयो
पेतम्
॥ २९ ॥
अंसइनन है। देवों और नारकियों के छड़ों संहननों से रहित होने पर संहनन रह ही नहीं सकता; जब कि आवश्यक, स्थानान आदि आगम ग्रन्थों में देव और नारकी का वज्रऋषभनाराच संहनन स्वीकार किया गया है; अतः यह विप्रतिपत्ति कैसी ? वस्तुतः अस्थिरहित होने पर भी शक्तिविशेष संहनन स्वीकार करने से ही प्रथम संहनन माना जा सकता है।
और देखिये, इसी सार्द्धशतक प्रकरण के टीकाकार चन्द्रकुलीय आ. श्रीधनेश्वरसूरि भी, जिनका सत्ताकाल आचार्य मलयगिरि से पूर्व है; इस पद्य की टीका करते हुए इसी मत को पुष्ट करते हैं:
"" सूत्रे-आगमे शक्तिविशेषः संहननमुच्यते । कोऽभिप्रायः १ वर्षभनाराचादिशब्दस्य संहननाभिधायकस्य शक्तिविशेषाभिधायकत्तयां व्याख्यातत्वात् शक्तिविशेषः संहननमागमे प्रोच्यते । ईदृशं व संहननं देवनारकयोरपीप्यत एव । तेन देवा वर्षभनाराचसंहनिनो, नारकाः सेवासंहनिन- इत्यागमाभिप्रायतो बोद्धव्यम् ॥ " [ जैन धर्म प्रसारक सभा द्वारा प्रकाशित प्र. १४.
और इसी शक्तिविशेष संहनन परंपरा को मान्य रखते हुए कर्ममंथकार प्रसिद्ध आचार्य देवेन्द्रसूरिने भी अपने शतक नामक - ग्रन्थ में यही वस्तु स्वीकार की है। ऐसी अवस्था में ऊपरि उल्लिखित शास्त्रीय प्रमाणों से यह तो स्पष्ट है कि शक्तिविशेष संहनन सर्वमान्य है, केवल जिनवल्लभसूरि की प्ररूपणा नहीं ।
आचार्य मलयगिरि ने अपने वक्तव्य में 'मूलटीकाकारेणापि' शब्द किस टीकाकार को लक्ष्य रखकर रखा है, विचारणीय है। स्वीप एवमेवो ं मेन्थानुसारेणानुमीयते । प्रेमविनयजी किसा
उपोद्घात ।
| शक्तिविशेष
संहनन
शास्रो
कता 1
॥२९॥
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यदि हम मूल टीकाकार शब्द से प्रज्ञापना, जीवाभिगम आदि सूत्रों के टीकाकार आचार्य हरिभद्रसूरि का ग्रहण करते है तो यह प्रश्र लत्पन्न होता है। क्या आ. मलयगिरि ने हारिभद्रीय आवश्यक टीका का अवलोकन नहीं किया था ? यदि करते तो वे स्वयं. एकपक्षीय सिद्धान्त का प्रतिपादन अपने वक्तव्यों में कैसे कर सकते थे ? और यदि हम मूल-टीकाकार शब्द से सार्द्धशतक टीकाकार आ. धनेश्वरसूरि का ग्रहण करते हैं तो इस टीका में कहीं पर भी ' एव.' का प्रयोग न होने पर मी आचार्य ने किस आधार से ' एवं ' का प्रयोग किया ? चिन्त्य है।
साथ ही मलयगिरि के ये शब्द ' उपचारत इदमुक्तं न तु तत्वदृष्टया' गलतफहमी के द्योतक मात्र ही है, क्योंकि- आचार्य 13 जिनवल्लभसूरि स्वयं उपचार से ही शक्ति विशेष को संहनन स्वीकार करते हैं, निश्चय से नहीं। यदि वे औपचारिक प्रयोग न करते
तो उन्हें 'सत्तिविसेसो संघयण' न कहकर 'सुत्ते सत्तिविसेसञ्चिय संघयणं' कहना अधिक इष्ट रहता, किन्तु ऐसा कथन नहीं | है। अतः ' एवं ' और अनौपचारिक कल्पना व्यर्थ ही है और साथ ही व्यर्थ है उत्सूत्रप्ररूपक की उपाधिप्रदान करना भी । ।
दूसरी बात, इस सिद्धान्त को माननेवालों के लिये जो • उत्सूत्रप्ररूपकबिस्पन्दितेषु' विशेषण दिया गया है, वह तो कदापि युक्त नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यदि यह विशेषण युक्त मानें तो सूत्रकार गणधर महाराज एवं,.आचार्य हरिभद्रसूरि और आचार्य अभयदेवसूरि जैसे आतपुरुष भी उत्सत्रग्ररूपकों की कोटि में आयेंगे।
और साथ ही यह भी विचारणीय है कि एक तरफ तो आचार्य मलयगिरि स्वप्रणीव-जिनवल्लभीय 'आगमिकवस्तुविचारसार
RECENTER
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पिण्डविशुद्धि०
•. टीकाद्वयो
पेतम्
॥ ३० ॥
( षडशीति) प्रकरण ' की टीका करते हुए अवतरणिका में न चायें आचार्यो न शिष्ट इति' कहकर जिनवल्लभसूरि की गिनती fशष्ट आचार्यों की कोटि में करते हैं और दूसरी तरफ उन्हें 'उत्सूत्रप्ररूपक' कहते हैं। ऐसा प्रामाणिक आचार्य के वचनों में यह विरोध क्यों ? इस प्रश्न पर विचार करने से यह स्प है कि श्रीमलयगिरि जैसे प्रामाणिक टीकाकार, उल्लेख न होने पर भी 'ए' का उल्लेख कदापि नहीं कर सकते और पूर्ववर्ती आचायों को यह मान्यता मान्य होने से उत्सूत्ररूपक शब्द का उल्लेख भी नहीं कर सकते । अतः अन्ततोगत्वा किन कारणों के वशीभूत होकर श्रीमलयगिरि को इन शब्दों का प्रयोग करना पडा, निश्चितता हम नहीं कह सकते । वस्तुतः ये शब्द विचिन्त्य है ।
किन्तु सागरजी और प्रेमविजयजीने टिप्पणी लिखते हुए यह भी ख्याल नहीं रखा कि स्वयं के तपगच्छ मान्य आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरि भी जब इस वस्तु का अपने कर्मग्रन्थों में अनुकरण करते हैं तो क्या देवेन्द्रसूरि भी आगमिक ज्ञान से अनभिज्ञ थे जो उन्होने जिनवल्लभ गणि का अनुसरण किया ? नहीं, तो यह स्वतः सिद्ध है कि उपचारतः शक्तिविशेष संहनन आगमसम्मत है, आगम-विरुद्ध नहीं । ऐसी अवस्था में हम दृढतापूर्वक कह सकते हैं कि उत्सूत्रप्ररूपक आदि शब्दों को सागरजी और प्रेमविजयजी शिरमुकुट मानकर आचार्य मलयगिरि के नाम पर गणि जिनवल्लभ पर जो कीचड़ उछालने का प्रयत्न किया है वह वस्तुतः असफल ही है और स्वयं की द्वेषवृत्ति का द्योतक मात्र है ।
इह दि शिष्टाः कचिदिट्टे वस्तुनि प्रवर्तमानाः सन्त इष्टदेवतास्तवाभिधान पुरस्सरमेव प्रवर्त्तन्ते न बावमाचार्थो न शिष्ट हृति' षडशीति टीका, आत्मानंद सभा भावनगर से प्रकाशित पृ. १.
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उपोद्घातः ।
संहनन
निमित्त
सागर-प्रेम जलमंथन
॥ ३० ॥
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पिण्डविशुद्धिकार १७ वीं शती के उत्तरार्द्ध में, उपाध्याय शुभविजयजीगणि अपने • सेनप्रन' में प्रश्नोत्तर करते हैं:
“पिण्डविशुद्धिविधाता जिनवल्लभगणिः खरतरोऽन्यो वा ? इति प्रमः । अत्रोत्तरम्- जिनवल्लभगणे: खरतरगच्छसम्बन्धित्वं न सम्भाव्यते, यतस्तस्कृते पौषधविधिप्रकरणे श्राद्धानां पौषधमध्ये जेमनाक्षरदर्शनात् कल्याणकस्तोत्रे च श्रीवीरस्य पञ्जकल्याणक8| प्रतिपादनाच्च तस्य सामाचारी भिन्ना खरतराणां च भिन्नेति ।" इसकी टिप्पणी करते हुए पं. लालचन्द्र भगवान् गांधी अपभ्रंश काव्यत्रयी की प्रस्तावना में लिखते हैं:
"किन्त्वेव सुदीर्घदृष्ट्या चिन्तने न समीचीनं प्रतिभाति" देखिये, प्रश्न क्या होता है ? और उसका उत्तर क्या मिलता है ? प्रश्न है, पिण्डविशुद्धिकार जिनवल्लभगणि खरतरगच्छीय है या अन्य ? सत्तर है कि, पौषधविधिप्रकरण में पौषध में भोजन का उल्लेख होने से और कल्याणकस्तोत्र में वीरप्रभु के पञ्चकल्याणक कहने से वे भिन्न हैं, तथा इनकी समाचारी भी भिन्न है। मानों, 'कहीं की ईट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा' नीति चरितार्थ कर रहे हों ! इस प्रश्न में पौषधविधि प्रकरण या कल्याणकस्तोत्र के प्रमाणों की क्या आवश्यकता है ? यह तो कुछ न कुछ उत्तर देना ही उत्तर का लक्ष्य प्रतीत हो रहा है।
सुमतिगणि जहाँ गणघर सार्द्धशतक की वृत्ति में "समग्रगच्छाहत-सूक्ष्मार्थसिद्धान्तविचारसार -घद्धशीति-सार्द्धशतकास्यकर्मप्रन्थ-पिण्डविशुद्धि-.......” कहते हैं, वहीं घनेश्वराचार्य सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारवृत्ति में ' अभयदेवसूरि शिष्येण मविमता
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उपोषाव ग्रंथकवि
पेतम् ।
विचार।
॥३१॥
पिण्ड- जिनवल्लभेन' लिख कर प्रमाणित करते हैं कि सुमतिगणि का लिखना पूर्ण सत्य है, गच्छममत्व से मृषा अत्युक्ति नहीं, तो फिर विशुद्धि भ्रम या प्रम का अवकाश दी कहा। यह प्रश्न तो इस बात का प्रतिपादन करता है कि 'हम खरतरों के सुपजीव्य न हों, क्यों टीकाद्वयोकि पिण्डविशुद्धि का अमणपरम्परा की दृष्टि से पढना अत्यावश्यक है। अतः प्रणेता पृथक् हैं बता कर, सनुरुन्मीलित कर कुछ |
क्षणिक शान्ति भले ही उत्तरदाता के अनुयायी प्राप्त कर लें।
पिण्डविशुद्धिदीपिकाकार आचार्य उदयसिंहसूरि, (र. सं. १२९५) जैसे भिन्न गच्छीय प्रौद विद्वान् भी पिण्डविशुद्धि के प्रणेता का " सुविहितविधिसूत्रधार" विशेषण बतलाते हैं जो निश्चित रूप से खरतरगच्छीय जिनवल्लभसूरि से ही संबंधित है। क्यों कि सुविहितपथप्रकाशक या विधिमार्गप्ररूपक विशेषण धर्मसागरजी मी प्रवचनपरीक्षा में खरतरगच्छीय जिनवल्लभसूरि के लिये ही स्वीकार करते हैं। अतः प्रकरणकार वे ही हैं यह भलीभांति सिद्ध होता है। देखिये दीपिकाकार के वचन:"सुर्विहितविधिसूत्रधार, स जयति बिनवल्लभो गणियन । पिण्ड विशुद्धिप्रकरण-मकारि चारित्रनृपमवनम् ॥ २॥"
जगड कवि ( १२७८-१३३१) स्वप्रणीत सम्यक्त्वमाई चउपई में लिखते हैं:"धन्नुसुजिणवल्लहवक्खाणि, नाणस्यण केरी छइ खाणि । यइतालीस सुद्धपिंड विहरेड, त्रिविधु मंदिरु अग प्रगटु करे ।।
खरतरगच्छीय युगप्रवरागम श्रीजिनपतिसूरि के शिष्य श्रीनेमिचन्द्र भंडारी प्रणीत पष्टिशतक प्रकरण के ऊपर तपागच्छीय सुप्रसिद्ध आचार्य श्रीसोमसुन्दरसूरिने बालावबोध की सं. ११९६ में रचना की है । इस अन्यके वालावर्बोध की प्रारंभिक अव
यह षष्टिचतकप्रकरण 'त्रण बालावबोध सहित ' महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय वडोदरा तरफ से प्रकाशित हुआ है।
SERIES
ASSISTAN
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0 तरणिका में ही वे हिम्दते है:
“नेमिचन्द्र मंडारी पहिललं तिस्यउ धर्म न जाणतउ । पछइ श्रीजिनवल्लभमरिना गुण सांभलि अनइ तेहना। कीधा पिण्डविशुद्धि प्रमुख अन्धनई परिचइ साचत धर्म जाणित ।" और इसी प्रकार इसी ग्रन्धके १२९ वें पद्य का बालावबोध करते हुये वे लिखते हैं:
"विठ्ठा० केतकाइ गुरु साक्षात् दीठाइ हुँता तत्त्वना जाणनइ मनि रमइ नहीं, हीयइ हर्ष न करइ । केचि.
अनइ केतलाइ पुण गुरु अणदीठाइ हुँता हीइ रमई वसई, वेहना गुण सांभलि नह होइ हर्ष उपजइ । जिम श्रीजिनवल्लभसूरि । ते जिनवल्लभसूरि नेमिचन्द्र भंडारीयी पहिला हुआ भणी अदृष्टइ हूंता पंण नेमिचन्द्र
मंधारीनइ मनि तेहना कीधा पिण्डविशुद्धि आदिक प्रकरण देखता वरया । इसिउ भाव । " जेसलमेर के सं. १४९७ में प्रतिष्ठित संभवनाथ जिनालय के प्रशस्ति शिलालेख में लिखा है:
"ततः क्रमेण श्रीजिनचन्द्रसूरि-नवाङ्गीवृत्तिकार-श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथप्रकटीकार-श्रीअभयदेवसूरिशिष्य-श्रीपिण्डं.
विशुवादिप्रकरणकारश्रीनिनवलमसूरि......" और यदि विचार करें कि पिण्डविशुद्धिकार पृथक् है ? तो फिर वे कौन थे ? किस गच्छ के थे? इत्यादि अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं जिमका समाधान करने के लिये किसी भी प्रकार का कोई भी प्रमाण नहीं है। तत्कालीन तीन चार शताब्दियों में खरतर गणि जिनवल्लम के अतिरिक कोई आचार्य की उपलब्धि ही जैन-साहित्य में नहीं होती है जो पिण्वविशुद्धिकार हो सके और खरतर
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विनादि टीकाद्वयोः पैतम्
उपोषात।
अंथोत्र | विषय प्रतिपादन ।
गच्छीय गुरुपरम्पराओं के अतिरिक्त इनके संबंध में कोई उल्लेख भी नहीं मिलता। अत: यह सिद्ध है कि पिण्डविशुद्धिकार जिन- वल्लभगणि कोई पृथक् आचार्य नहीं है किन्तु अभयदेवाचार्य के शिष्य खरतरगाछीय ही है, तथा इनके सिद्धान्त मी सर्वमान्य है।
पिण्ड विशुद्धिप्रकरण । आत्मसाधना की दृष्टि से पिण्ड-भोजन की शुद्धि होना अत्यावश्यक है, अन्यथा ' जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन' की उक्ति के अनुसार मानसिक शुद्धि नहीं हो सकती । इसीलिये श्रमण संस्कृति एवं श्रमण परम्परा में संयमी मुनियों का यह प्रमुख अंग माना गया है । पूर्व में भुतघर श्रीश-यभवरिने दशवकालिक सूत्र में और आचार्य भद्रबाहुस्वामीने पिण्डनियुक्ति में इस विषयका बहुत ही विस्तृत और सुन्दर पद्धति से प्रतिपादन किया है । परन्तु वह विस्तृत होने के कारण कण्ठस्थ करने में अल्प बुद्धिवालों की असमर्थता देख कर आचार्य जिनवल्लभसूरिने पिण्डविशुद्धि नाम से इस प्रकरण की स्वतन्त्र रचना की।
इस प्रकरण में कुल १०३ पञ्च है। १-१०२ तक आयर्या छन्द में है और अन्तिम पद्य शार्दूलविक्रीडितवृत्त में। इस में प्रन्थकारने प्रथम और द्वितीय पद्य में नमस्कार और प्रयोजन कथन कर, ३-४ पद्य में गृहस्थाश्रित उत्पादन के १६ दोषों का नामोल्लेख मात्र किया है और ५ से ५७ तक इनका विस्तृत विवेचन किया है। पद्य ५८-५९ में साधु आश्रित उद्गम के १६ दोषों का नामोल्लेख है और ६० से ७६ तक इनका विस्तृत विवेचन है। इस प्रकार कुल गवेषणा और एषणा के मिला कर ३२ दोषों का वर्णन यहाँ पूर्ण होता है। तदनन्तर ग्रहणषणा के १० दोषों का ७७ वें पध में उल्लेख कर ७८-९३ तक इनका विस्तृत प्रतिपादन किया है। पश्चात् ९४ व पन में भक्षण-प्रासैषणा के ५ दोषों का उल्लेख और १०१ वक उनका विवेचन है।।
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१०२ वें पद्य में शुद्धि का निर्जरा फल और अन्तिम पद्य में ग्रन्थकार का नामोल्लेख है। इस प्रकार भोजनशुद्धि के १७ दोषों का। का अनेक भांगों सहित विवेचन १०३ श्लोक के छोटे से प्रकरण के यह भी आजै लघुसत्रिक छन्द में प्रथित करना गणिजी | का उक्तिलाघव और छन्दयोजना का चातुर्य प्रकट करता है। उक्त प्रकरण में प्ररूपित ४७ दोष निम्नलिखित हैं:
गृहस्थानित उत्पादन के १६ दोष-१ आधार्मिक, २ औदेशिक, ३ पूतिकर्म, ४ मिश्रजात, ५ स्थापना, ६ प्राभृतिक, ७ प्रादुष्करण, ८ क्रीत, ९प्रामित्य, १० परिवर्तित, ११ अभिहत, १२ उभिन्न, १३ मालोपहत, १४ अच्छेद्य, १५ अनिसृष्ट और १६ अध्यवपूरक.
साधु आश्रित उद्गम (संपादन) के १६ दोष-१ धात्री, २ दूती, ३ निमित्त, ४ आजीव, ५ वनीपकत्वकरण, ६ चिकित्सा, क्रोध, ८मान, ९ माया, १० लोभ, ११ पूर्व पश्चात्संस्तव, १२ विद्याप्रयोग, १३ मन्त्रप्रयोग, १४ चूर्णप्रयोग, १५ योग और १६ मूल कर्म। ___ग्रहणैषणा के दस दोष-१ शकित, २ म्रक्षित, ३ निक्षित, १ पिहित, ५ संहृत, ६ दायक, ७ उन्मिश्र, ८ अपरिणत, ९ लिप्त और १० छर्दिन । पासषणा के पांच दोष-१ संयोजना, २ प्रमाण, ३ अंगार, ४ धूम, ५ अकारण।
टीकायेंइस प्रकरण की प्रसिद्धि असणसमाज में काफी हुई; इस का पठन-पाठन अत्यधिक वेग से चला, आज भी सैकड़ों हस्तलिखित प्रतियों की उपलब्धि इसके प्रचार का प्रमाण दे रही है। इस पर कई जैन विद्वान् आचार्योंने टीकायें रच कर इसकी प्रामाणिकता सिद्ध की है। वर्तमान में इस पर निन्नलिखित टीकायें प्राप्त हैं:
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FRIER
पिण्डविशुद्धि० टीकाइयो पेतम् ।
१ श्रीचन्द्राचार्यकृत वृत्ति, २ यशोदेवसूरि रचित लघुवृत्ति, ३ उदयसिंहसूरि विरचित दीपिका, ४ अजितदेवसरि गुंफित
उपोद्घात। दीपिका, ५ संवेगदेवगणि लिखित बालावधोध, ६ ? मात कर्तृक अवचूरि ।
वृचिवृत्तिप्रस्तुत संस्करण यशोदेवसूरि कृत लघुवृत्ति एवं उदयसिंहसूरि प्रणीत दीपिका सहित प्रकाश में आ रहा है। लघुवृत्तिकार-यशोदेवमूरि ।
कारादि
विचार । चन्दकलीय श्रीवीरगणि के प्रशिष्य श्रीचन्द्रसूरि के आप शिष्य थे। सं. ११७६ में अपने सुयोग्य शिष्य श्रीपार्श्वदेवगणि की 17 सहायता से आपने इसकी रचना पूर्ण की । इस का संशोधन आचार्य मुनिचन्द्रसूरिने किया। जैसा कि प्रशस्ति में कहा गया है:--
आसीचन्द्रकुलोद्गतिः शमनिधिः सौम्याकृतिः सन्मतिः, संलीनः प्रतिवासरं निलयगो वर्षासु सुध्यानधीः । हेमन्ते शिशिरे च शावरहिम सोढुं कृतो स्थिति-स्विचण्डकरे निदाघसमये चाऽऽतापनाकारकः ॥१॥ आदेयतातपस्त्याग-व्याख्यातृत्वादिसद्गुणैः । लोकोत्तरैर्विचालव, श्रीमवीरगणिप्रभुः ॥२॥ युग्मम] श्रीचन्द्रसूरिनामा, शिष्योऽभृत्वस्य भारतीमधुरः। आनन्दितमन्यजन:, शंसितसंशुद्धसिद्धान्तः ॥ ३ ॥ तस्यान्तेवासिना दुग्धा, श्रीयशोदेवसूरिणा। सुशिष्यपार्श्वदेवस्य, साहाय्यात् प्रस्तुता वृत्तिा ॥४॥
45
पिण्ड विशुद्धिप्रकरण-वृतिं कृत्वा यदवाप्तं मया कुशलम् । तेनाऽऽभवमपि भूयाद्, भगवदचने ममाऽम्यासः॥६॥ 1 विजयदानसूरि जैन प्रन्यमाला, सुरत से प्रकाशित ।
॥३३॥
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A%AESAKAL
पता है कि विषय में ही हैं, पर
अपने में पूर्ण है।
श्रतहमनियर श्रीमाधुनिक रिभिः षः। संशोधितेयमखिला, प्रयत्नतः शेषविषुधैश्च ॥ ७॥
टीका को देखते हुए यह मालूम होता है कि व्याख्याकार 'मूले इन्द्र बिडोजा टीका' के चक्र में नहीं फंसे हैं और न इसका व्यर्थ में कलेवर ही बढाया है, किन्तु ग्रन्थकार के आशय को विशदता और सरसता के साथ बहुत ही सुधर पद्धति से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । भाषा भी आप की दूरुद्द न होकर सरल होते हुए भी प्रवाहपूर्ण एवं परिमार्जित है। साथ ही इसकी एक यह भी विशेषता है कि विषय को रोचक बनाने के लिये प्रसंग-प्रसंग पर अनेक उदाहरण भी दिये गये हैं। उदाहरण बृहदुत्ति की तरह विस्तत न हो कर संक्षेप में ही हैं, पर जो है वे भी प्राकृत आर्याओं में। इससे स्पष्ट है कि आप का प्राकृत भाषा पर भी अच्छा अधिकार था। यह वृत्ति लघु होते हुए भी अपने में पूर्ण है।
आपके प्रणीत और भी ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, जिनकी सूचि निम्न प्रकार है:
आपने सं. ११७२ में हारिभद्रीय पंचाशक प्रकरण पर चूर्णि, सं. ११७१ में इपिथिकी, चैत्यत्रन्दन और वन्दनक पर पूर्णिय, ११७८ में पाटण में सिद्धराज जयसिंह के राज्य में सोनी नेमिचन्द्रकी पौषधशाला में निवास करते हुए पाक्षिक | सूत्र पर सुखावबोधा नाम की टीका और सं. १९८२ में रचित प्रत्याख्यान स्वरूप की रचना की हैं।।
दीपिकाकार-उदयसिंहमूरि चन्द्रकुलीय आगमज्ञ श्रीश्रीप्रमसूरि (धर्मविधिप्रकरणकार ) के प्रशिष्य श्रीमाणिक्यप्रभसूरि (कच्छूली के पार्श्वचैत्य के प्रतिष्ठाकार) के शिष्य श्रीउदयसिंहमूरिने आचार्य यशोदेवसूरि की वृत्ति को आदर्श मानकर तदनुसार ही सं. १२९५ में ७०३
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पिन्विशुद्धि ०
काद्वयो
पैतम्
१२४ ॥
लोक प्रमाणवाली इस दीपिका की रचना की। जैसा कि प्रशस्ति से स्पष्ट हैः
इति विविधविलसद, सुविशुद्धाहारमहितसाधुजनम् । श्रीजिनवल्लभरचितं, प्रकरणमेतन कस्य मुदे ? ॥ १ ॥ मादृश इह प्रकरणे, महार्थपङ्कौ विवेश बालोऽपि । यद्वृच्यङ्गुलिलग्न-स्तं श्रयत गुरुं यशोदेवम् ॥ २ ॥ आसीदिह चन्द्रकुले, श्रीश्रीप्रभसूरिराममधुरीणः । तत्पदकमलमरालः, श्रीमाणिक्यप्रभाचार्यः ॥ ३॥ तच्छिष्याणुर्जडघी - रात्मविदे सुरिरुदयसिंहारूयः । पिण्डविशुद्धेर्वृत्ति-मुद्दधे दीपिकामेनाम् ॥ ४ ॥ अनया पिण्डविशुद्धे - दीपिकया साघवः करस्थितया । शस्यावलोककुशला, दोषोत्थतमांस्यपहरन्तु ॥ ५ ॥ विक्रमतो वर्षाण, पञ्चनवत्यधिकरविमितशतेषु । विद्दितेयं लौकैरिह सूत्रयुता त्र्यधिकसप्तचती ॥ ६ ॥
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अन्य गृहद्वृत्तियों, लघुवृत्तियों का आश्रय लेकर इस दीपिका की रचना हुई है। यह संक्षिप्त होते हुए भी वस्तुतः प्रस्तुत प्रकरण के लिये दीपिका सा ही है। संक्षिप्त रूचि तज्छों के लिये यह दीपिका अत्यन्त ही महत्त्व की है । इस की भाषा भी सरल है, संक्षित होने पर भी विषयों का प्रतिपादन इसमें बहुत ही सुन्दर ढंग से किया गया है। इस में दीपिकाकारने कथानको का आश्रय लेकर कलेवर बढाने का प्रयत्न नहीं किया है। उदाहरणों के लिये वृत्तियों का उल्लेख कर दिया है ।
उदय सिंहरि के सम्बन्ध में देशाइने अपने 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास ' में लिखा है :
" ते उदयसिंहे महावलि (चन्द्रावती ) ना राउळ धंधलो देवनी समक्ष मन्त्रवादिने मन्त्री इराज्यो । तेणे पिण्डंविद्धि
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उपोद्घात! दीपिका
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परिचय |
॥ ३४ ॥
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ECIENCER
)
KACHICAGARIKA
विवरण, धर्मविधिवृत्ति अने चैत्यवन्दन दीपिका रची। अने ते सं. १३१३ मां वर्गस्थ धया। पछी कमळसूरि, प्रज्ञासूरि, प्रज्ञातिलकसूरि वगैरे थया।" [पृ. ४३४ ]
प्रस्तुत संस्करण सम्पादन-पद्धतियों से युक्त होने के कारण महत्त्व का है। सम्पादक श्रीगणिवर चुद्धिमुनिजीने इसके सम्पादन में अत्यधिक परिश्रम किया है, और उन्होंने स्थान स्थान पर टिप्पणीय प्रदान कर इस की महत्ता में भी वृद्धि करदी है इससे इस अन्य की उपयोगिता और अधिक बढ़ गई है।
पूज्य श्रीजिनमणिसागरसूरीश्वरान्तेवासि आश्विन शुक्ला ५, सं. २०१०
उपाध्याय विनयसागर. कोटा (राजस्थान)
साहित्याचार्य, जैनदर्शनशास्त्री, साहित्यरत्न, काच्यतीर्थ, काव्यभूषण, शास्त्रविशारद
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पिण्डविशुद्धि ० टीकाइयो
पेतम्
॥ ३५ ॥
ॐ नमोऽर्द्धतेऽविसंवादिने भ्रमणाय भगवते महावीरायापश्चिमतीर्थकराय ।
पिण्डविशुद्धेरुपक्रमः |
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येनेदं सकलं समूलनिचयं कर्माष्टकं चूर्णितं, दुश्छेद्यं विषमं प्रशान्त कुटिलं नित्यं समुत्पादितम् । येनेदं चिरकालरूविटपं ध्यानेन भस्मीकृतं तं वन्दे परमेश्वरं जितरिपुं देवाधिदेवं जिनम् ॥ १ ॥+ वाचंयमो युगवशे जिनचन्द्रसूरिः, सिद्धान्तवृत्तिरचकोऽभयदेवसूरिः ।
आयतमोऽत्र जिनवल्लभसूरिरई - च्छिष्टिपालन विधानपरो विभाति ।। २ ।।* जासुर्विधमार्गगाः सुविहिताः श्रीमोहनाख्या सुनि-व्रातैः सेवितशिष्टिकाः खस्तरे गच्छे प्रतापोर्जिताः । पूज्याः सन्मुनिकेशरा जिनयशस्सूरीश्वराः श्रीजिन-दशाः श्रीमुनिकेशरा गणिवराः श्रीरत्नसूरीश्वराः ॥ ३ ॥*
हो विद्वज्जनवरिष्ठा विमर्शप्रवणाः पाठकप्रष्ठाः ! समादीयता माहारारा दिपिण्डदोषनिरूपणचणत्वेनान्वर्थाभिधानमेतत्पिण्डविशुद्धिनामकं प्रकरणरत्नं व्याख्याद्वयोपेतं भावत्के करकुड्मले सादरं समर्थ्यमाणं । विनिर्मातारयास्य कविचक्रचक्रवर्त्तिनः सुगृहीतनामधेयाः सुविहितमणपथप्रद्योतका उज्झितचैत्यवासकल्पाः नवाङ्गवृत्त्याय नल्पग्रन्थ सौ घसूत्रणसूत्रधारायमाणानां श्रीमतामभयदेवसूरिमिश्राणामौषसम्पदिकशिष्याश्चैत्यवा सिप्रथितश्रीवीर विभुगर्भोपहाराकल्याणकवादनिर्मूलका युगप्रधान प्रवराः श्रीमज्जिनवल्लभसूरिशेखराः । धर्मप्रासादविस्कोपस्थे महाभारत शान्तिपर्व- ताडपत्रीय प्रतिपुष्पिकायाम् । कविशेवरोपाध्याय श्रीमल मुनिवेश
22
उपक्रमे
मङ्गल प्रास्ताविके
च
॥ ३५ ॥
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रिवराचैते कदा saiमिलामण्डलं मंण्डयामासुः स्वजनुषा ? केषाँ शिष्यवरा अभूवन् ? कथं चाभयदेवसूरीणामन्तिके श्रुताध्ययनमकार्षुश्चारित्रोपसम्पदं जगृहुश्च ? इत्याधारेकाकदम्बकस्य निरासस्तु साहित्याचार्य - दर्शनशास्त्री - साहित्यरत्न - साहित्यभूषणशास्त्रविशारदोपाधिधार कोपाध्याय श्रविनयसाग रोपनिबद्वाद्वाष्ट्र (हिन्दी) भाषात्म का दस्यैवोपघाताद्विधेयो ऽपे वासरपक्षपातोपने त्रैरसहृद चैरिति नेतद्विषये प्रथतेऽइम् ।
"
किन्तु यत्कैश्वित्लप्यते यदुत एतपिण्डविशुद्धिप्रकरणविधातारो जिनवल्लभसूरयो न खरतरगच्छीया इति तद्वितथला मात्रमेव, यतस्तेषां स्वसंवादकमाचार्य विजय सेनसूरि प्रसादित "पिण्डविशुद्धिविधाता जिनबलभगणिः खरतरोऽन्यो घा ? इति प्रश्नोऽत्रोत्तरं - जिनवलमगणैः खरतरगच्छ सम्बन्धित्वं न सम्भाव्यते, यतस्तत्कृते पौषवविधिप्रकरणे श्राद्धानां पौषधमध्ये जेमनाक्षरदर्शनात् कल्याणकस्तोत्रे च श्रीवीरस्य पश्चकल्याणक प्रतिपादनाथ तस्य सामाचारी भिन्ना खरतराणां च भिन्नति २३ । ” ( सेन प्र० उ० १, १०-४ ) एतत्तरादन्यन्न किमपि प्रबलं प्रमाणमस्ति परं न तदपि प्रमाणत्वेन स्वीकरणाई, सर्वप्रायुप्रमाणविकलखास्परोत्कर्ष सहिष्णुत्वेन यत्तत्प्रलपनप्रायत्याच अत एवं हि गान्धीत्युपपदेन साक्षर वर्षपण्डित श्रीमलालचन्द्र भगवानदासेनापभ्रंशकाव्यय्युपधावे " किन्त्वे तरसुदीर्घदृष्ट्या चिन्तने न समीचीनं प्रतिभाती" त्युलेखं विधाय निराकृतं तस्य प्रामाण्यं सर्वथैष ।
समानामशत्यधिके सहते ( १०८०) खरतरविरुदप्रदातृभूप श्री दुर्लभराजा - Sऽपायैश्रीजिनेश्वरसूरीणां योगासम्भवे भिन्नसमयस्य हेतुत्वेनोद्घोषणं तदपि स्वस्य प्रहित्वप्रकटनप्रायमेव यतो न तस्मिन् समये नृपदुर्लभराजस्य सर्वथा जीवितस्वाभाव पति साधयितुं शक्यते केनाप्यतिद्यप्रमाणेन प्रत्युत रायबहादुर हाथीभाइ देसाइ महोदयलिखित 'गौर्जरींय ( गुजरावनों )
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पिण्डविशुद्धि० टीकाद्वयो
पेतम्
॥ ३६ ॥
इतिहास' इति नामक पुस्तकाभिप्रायतः स्पष्टदेव सिद्धस्यशत्यधिके सहस्रे बैक्रमेऽस्तित्वं पत्तने दुर्लभराजस्य, विशेषनिज्ञासुभिर्बिलोक्यः स इतिहासमन्धः सं. १९७७ मुद्रितायास्तुर्यावृत्तेः १६१ पृष्ठे ।
एवं च सिद्धं समानाशीत्यधिके सहस्रे सुतरामखित्वं दुर्लभराजस्य पतने, किन्तु जिनेश्वरसूरीगा मस्तित्वं जाबालिपुरे ज्ञायतेऽष्टवृत्तिप्रशस्त्यादिना तस्मिन् समये परं सम्भाव्यते वर्षाकालापेक्षिकमिति, तथा च शेषकाले नासम्भाव्यं तेषां पत्तागमनं, एतावता खरतर + बिरुदप्राप्तिसमयस्त्वशीत्यधिकं सहस्रं चैक्रमीयोsसन्दिग्ध एव परं तपागच्छीयैर्जगचन्द्रसूरीणां यावजीवाचाम्लतपः
+ पण्डित ज्ञानसागरेणादिपुरे लिखिताः खरतर तपाशब्दव्युत्पत्तयो विद्वज्जनमनोविनोदायात्रोद्धृयते-
" शाब्दिकविशिष्टाः खरतरा' इति शब्दस्य युक्तियुक्त नानाविध एवंविध व्युत्पत्ति विधते । तथाहि अतिशयेन 'स्वरा:' सत्यप्रतिज्ञा ये ते खरतराः १। यद्वा अतिशयेन 'खराः' अननि छद्म धर्मव्यवहारपटवो ये ते खरतराः । यदुतमनेकार्यध्वनिमञ्जय" सत्यसन्धः खरो ज्ञेयः, खरोऽपि परुषो मतः । खरो रासम इत्युक्तो व्यवहारे पटुः खरः ॥ १ ॥ " इति २ 'ख' सूर्यस्तद्वद्राजन्ते निष्प्रतिमप्रतिभाप्राग्भारप्रभाभिः प्रतिवादिविद्वज्जनसंसदि ये ते खराः, अत एव तरन्ति भवाधिमिति तराः खराब से तराश्च खरतरः ३ । 'खान' इन्द्रियाणि 'र:' कामः, तौ 'तस्यन्ति' वशे नयन्ति ये वे स्वरताः साधुजनास्तेषी | मध्ये राजन्ते शोभन्ते ये ते खरतराः । " कचिडः " इति 'ड' प्रत्ययः । 'खं' सुखं भावसमा विलक्षणं, तस्य 'रो' रक्षणं, तसरन्ति-कुर्वन्ति ये ते, धातूनामनेकार्थत्वात्, खरतराः ५ | सादीनां ये यतास्तेषां 'रो'मयं तं तस्यति विध्वंसयति यः स सरतस्तादृनविधोऽभ्यनिस्दिन (घ) प्रसिद्धविशुद्ध सिद्धान्त सिद्धान्तवचननिर्वचनलक्षणो येषां ते खरतराः ६ यहा '' संवित्, तत्र रतास्तत्पराः खरता - मुनिजनास्तान् 'रान्ति' ददति अर्थात् सम्यगुञ्जानादि ये ते खरतराः ७ । 'खः' वप्तस्तद्वद्वा स्तीक्ष्णाः कुमतिमतदारुविदारणे में ते खराः, तानां तस्कराणां जिनमतप्रद्वेषदप्यत्वादिजनलक्षणानां रा इव-वजा इवं ये से -तराः, तराव ते तराव खरतराः । '' स्वर्ग 'रान्ति' ददति अर्था-प्रकजनानां ये ते खराः, अतिशयैन खराः खरतरा इति ।
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उपक्रम -- खरतर
| विरुदावा
त्यब्दादिविचारः ।
॥ ३६ ॥
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करणाद्वाणद्विपमानु(१२८५ )वर्षे सपाविरुदप्राप्तिर्यदुधुध्यते तस्यपुष्पवस्सयवासम्भाग्य, पायास्पस्तदनुयायिभिः स्वगच्छस्य कृत्रिमोत्तमायोद्भावनार्थ निश्यिमाणानेकविधासत्यद्भावितत्वात्तवाहि
जगधन्द्रसूरीणां निजैरेवान्निधिः श्रीमश्वेन्द्र रिभिः स्वरचिहेषु धर्मरलप्रकरणाद्यनेषु अन्धेषु न कुत्रापि नपादिप्राप्तेः सूचनमध्यकारि स्वगुरुणां श्रीमजगइन्द्रसूरीणां, नैनातन्मात्रमेव, अपितु जगचन्दसूरीणां गुरुत्वेऽणनिर्दिश्य मगिरनर्ति चित्र. वालकगच्छीयं देवमद्रोपाध्यायमेव निर्दिष्वन्तस्ते महानुभावाः । यच "मामात्यानतपाचार्य-त्यभिरुवा भिक्षुनायकाः । समभूवन कुले चान्द्रे, श्रीजगन्द्रसूरयः ॥ ४॥" इत्येतत्कर्मपन्यतिप्रशस्तिपद्येन तपाविरुदमानियाराव जगभन्द्रसूरीणां तदपि खरविषाणपदसम्भाव्यमेच, यनोऽस्य पथम्म पाश्चात्यैतदनुपाणिभिः ख्यातिप्राममहायुरूपनाम्ना बमनम्न गया तिच्यापार कपोळफरूप. नोहिस्थितस्यसम्मायने न किमययुक्तरव मुत्पश्यामः । एतावता नहि देवन्द्रसूरीण कृतिसम्पयामिति चण्टकः, धर्मरलपकरणवृस्थाघनेकाम्वपि प्रकृतिण्वेतदर्धसूचनस्वागकरणाः । अपि च 'कर्मपन्ध' इत्येकस्यैव अन्धन्याध्ययनादिवद्विभागरूपेषु वनिप्रकरणेष्वन्ते एतत्पविन्यासकरणमपि कर्तः स्वमतोत्तमत्वालवादिस्यापनाभिनिवेशमेव ध्यनक्ति ।
या सहचारोपक्रमे माम्भतीर्थशान्तिशिनालयस्थतापत्री यचित्तोपगतपननवत्यधिकद्वाननशानाचिदलिकिनबिगष्ट्रीयत्वीयपर्व
- "नान्-संस्कान अतिथी नपत्य नीकान् 'पान्ति रक्षन्तीनिविय माधयः, सपाः ।। यदु नागना हन्ताकानचौर, गुलंद कीर्तिनः।" इति । रापन्ति दृष्टाहकमजनितमस्तायमानुभवन्ति मे ने तपाः, सप सन्ताग गदिनान्दमहावाणिनि इत्यागः तपा-इनि हामितिः२। बहु। 'त:' झोपः, स एव या' पानं गेषा तपाः। अथवा '' शोध 'पाति' रखना, न तु निन्दन्ति-प्रतिकामन्तिमा येत ना, मुदा क्रोधाभातपित्तत्याविति ४ । इति ।"
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पिण्ड
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काद्वयो
तिम्
३७ ॥
प्रतिलेखनपुष्पिकायाः " तपाकी यपौषधशालायां x X x तपादेवभद्रमणिः" इत्येतद्वाक्यद्वयेन वाणद्विपमनु (१२८५ ) - वर्षे तपोत्पत्तिप्रसाधनं तदप्यसमीचीनं, यतस्तदन्यास्वने कास्वप्ये काधि कत्रयोदश शताच्द्रिवर्यवसानेऽपि बीजापुरलिखित प्रतिषु तपेत्यभिधाया अनुपलम्भात्पाश्चात्यैः सागरान्वधर्म कल्यै रामहि कैरना भोगिकै कपोल कल्पनयोल्लिखितं सम्भाव्यते, यदि वैतत्पुष्पिकाकथनं सत्यं स्याचार्द कथं देवेन्द्रसूरिभिर्द्वात्रिंशदधिकत्रयोदशशताब्दियैः क्षेमकीर्तिधूरिभिश्वापि नोलिखितं ? इति नितरां सम्भाव्यते यत्पाश्चात्यानां सागरान्तधर्मकल्पानां कल्पनाकल्पितोऽयं पुष्पिकापाठोऽपि किश्चैतत्पुष्पिकागतेन “तपादेव भद्रगणि" रित्येतद्वाक्ये नापि जगचन्द्रसूरीणां तपाविरुदावाप्तिरर्कत्वहीना भवति ।
न च धर्मरत्नप्रकरणस्यादिकरणानन्तरं तपेति विरुदस्य प्राप्तत्वात्तत्रानुल्लेख: कर्मपत्यवृत्तावुले विहित इति वाच्यं यतो देवेन्द्रसूरितोऽपि पाश्चात्य कालमा विश्री क्षेम कीर्तिपूरिभिर्वक्रमीये द्वात्रिंशदधिके त्रयोदशशते रचितायां वृहत्कपटीकायामपि तथैव चित्रागच्छत्वं देवभद्रविनेयत्वमपि च स्फुटमेवोल्लिखितं श्री जगचन्द्रसूरेः, यदि चोपरोकपुष्पिकायाः कर्ममन्थवृत्तिप्रशस्तिपयस्व चकथनमवितथं स्थात्तर्हि कथं क्षेमकीर्तिसूरिभिरपि नोल्लिखिता स्वस्थ तपेत्यभिख्या ? |
अन्यक्ष " देवमद्रगणीन्द्रोऽपि संविप्रः सपरिच्छदः । गणेन्द्रं श्रीजगचन्द्र- मेत्र भेजे गुरुं तदा ॥ १०३ ॥” इति मुनिसुन्दर. सूरीयगुर्वावल्युदन्तमपि स्वसुहृद एव प्रत्यविध्यन्ति यत आस्तां दृष्टिपथे श्रुतिपथेऽपि नावती मेतत्कस्यापि यच्छुद्धचारित्रोऽपि शिपरिच्छद् स्वयं स्वनिधया कियोद्वारकं गुरुत्वेन भजेत्कोऽपीति सुविसृश्यं घीधनैः ।
विदरपासुनिसुन्दरसूरिणैव विहाय चित्रवालकदेवभद्रीयपरम्परां मणिरत्नसूरि
उपक्रम तपादि
रुदावाप्ति विचारः ।
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परम्परा बाणद्विपभानु(१२८५)वर्षे तपोत्पत्तिश्वोल्लिखिता, यतो मुनिसुन्दरसूरीयगुर्वावलीतः प्राख्न कस्मिन्नपि प्रन्थे जगचन्द्रसूरिभ्यस्तपा बिरुदप्राप्तिरुपलभ्यते, यैः कैरप्युद्घोषिता जगचन्द्रसूरिभ्यस्तपाविरुदप्राप्तिस्ते सर्वेऽपि मुनिसुन्दरसूरितोऽर्वाकालीना एव, । तेऽपि न सर्वेऽप्येकवचनाः, तथाहि
मुनिसुन्दरसूरिप्रभृतयस्तु यावज्जीवाचाम्लकरणात्स्वत एवं जगति तपेति ख्यातिमापन्नाः श्रीजगञ्चन्द्रसूरय इति जल्पन्ति, तद्यथा--" तदादि बाणद्विपभानु(१२८५)वर्षे, श्रीविक्रमायाप तदीयगच्छः । बृदुगणाढ्वोऽपि तपेति नाम, श्रीवस्तुपालादि. भिरर्यमानः ॥ ९६ ॥ " यदि च केनापि राणकेन नृपेण वा तपेति विरुदै दत्तमभविष्यत्तर्हि कथं नोल्लिखितमेभिः १। .....
अन्ये केचन जल्पन्ति, यदुत-आघाटपुरे राणकेन प्रदत्तं तपेति बिरुदं जगचन्द्रसूरिभ्यः, परं केन राणकेन प्रदत्तमिति तु अद्य यावन्न कुत्राप्युल्लेखो दृष्टिपथमायातस्तथाप्यद्यकालीना जना यद्वर्तमानपत्रेषु नामोल्लेखमपि कुर्वाणा दृश्यन्ते, तत्केन प्रमाणेनेत्ति तु तत्त्वविद एव विदन्ति ।
अन्ये पुनर्वदन्ति मण्डपदुर्गे राझ्या समर्पितं तपेति बिरुदं जगचन्द्रसूरिभ्यस्तद्यथा-" एणे आचार्य जावजीव आंबिलतप कर्या, बारे वरसे विहार करता मांडवगढने विषे राणी देखी तपाविरुद दीडो, विक्रमात् १२ पंच्यासी वरसे" इति मद्देशाणा संविमश्रमणोपायचित्कोषस्थायां सं. १८८१ वर्षे खेडमामे चन्द्रविजयलिखितायां चतुर्दशपत्रात्मिकायां तपापट्टावल्यामष्टमपत्रे। .... ' एतद्व्यतिरिकं सुरतद्रो हुकममुनिचित्कोपस्थैकस्मिन्पत्रे लिखित्तायां गाथायां ॥ तवोमयं देवभदाओ" इत्युल्लेखेन देवभद्रो. पाध्यायात्तपादिप्राप्तिराख्याता, न चैवत्कयनेऽनातत्वमाशकुनीयं, तपालब्धिसागरसूरिविनिर्मितपूथ्वीचन्द्रचरित्रप्रशस्तिपाठेनाप्ये
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८ ॥
सस्यैवार्थ समर्थनस्योपलभ्यमानत्वात् तथा चोकम
"स्वच्छे श्रीचन्द्रगच्छेऽनिषत परमाः पठिका चन्द्रशाखा - विख्याता देवभद्रा सुविहितशिरसि स्फारकोटीरतुल्याः । मालानि कृत्वा संततमभिरत रायमोकक्रियायां पद्यावत्या प्रदत्तं स्फुटमिह विरुदं चैर्गृहीतं तपैति ॥ ५१ ॥ " मंत्र तु देवमायापि वपाविरुदस्य पद्यात्या समर्पणमुहिखितं न तु केनापि राणादिना ।
प्रकारेण क्या पापवल्यादीनां पारस्परिक विरोधान्वितत्वेनाष्टण्ट जल्पनं न तथा भरावस्थादीनां विहाय - खरतर विक प्रदायकप्रापको श्रीमहुर्रमराज- जिनेश्वरसूरी स्थानं चापहिलपुर पचन मन्यन्न किमप्युपलभ्यते, अतः प्रायः समस्तानापिस्यादन] कपोलकल्पनामात्रत्वेन गप्पपुराणका कथमपिखिति वाच्येवं श्रीमदेवेन्द्रसूरीणाम् ।
युनिसुन्दरसूरिप्रभृतिविहितपतिनिपट्टावल्याचाधारेण स्वीकियते देवेन्द्रसुरीण सेवामेव साध्यविनेयवन' की सूरीणाअपि उपागच्छीयत्वं तर्हि खरतरगच्छीयपट्टावल्याद्याधारेण स्वयमभयदेवं डिग्निगुरुपरम्पराधारेण नामदेवसूरीणामपि वरतरयत्वस्वीकरणे कयं दुःखत्युदर्द सागरान्दधर्मसङ्काशानां वागच्छीयानाम् ? ।
एवं च सिद्धेऽमयदेवसूरेः खरतरगच्छीयत्वे सिद्धमेव तेषामौपम्यदिशिष्याः श्रीनिवकमसूरया करन विनिमेस्वार इति कि न तस्मिन्नेव समये, अपितु प्राकृपचाच द्वित्रिशताभ्यामप्येतनामचेयः समकक्षिक कोऽपि विज्ञानभूदिति विलोक्यते यमेतत्प्रकरणविधातृत्वेन स्वीकर्तुं शक्यते ।
-कल्याणकामापासहित स्यादि स्तंनं
नपाकि रुदावाप्तिविचारा |
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व्यनकि तत्प्रलापकस्य, यतो नोत्सूत्र पटकल्याणकोपदेशन, किन्तु गर्भस्य श्रीवर्द्धमानरूपस्य हरणं-त्रिशलाकुक्षी सेवामण गर्भहरणं" इति तपागच्छीयोपाध्यायजयविजयविनिर्मितकल्पदीपिकोक्याऽन्वर्थके गर्भापहारे “अकल्याणकभूतस्य नापहारस्य" ( कल्प कि०), "करोषि ? श्रीमहावीरे, कथं कल्याणकानि घट् । यत्तेष्वेकमकल्याण, विपनीचकुलस्वतः ॥ १॥" (गुरुतत्त्वप्रदीपई), "नीचाँत्रविपाकरूपस्य अतिनिन्धस्य आश्चर्यरूपस्य गर्भापहारस्यापि कल्याणकत्वं कयनमनुचितम् । ' ( कल्पसु०), गर्भापहारोऽशुभः " ( क. सु. दि.) इत्याद्यनेकविधासदुक्तियुक्तिभिरकल्याणकोपदेशनमेवोत्सूत्रं, चैत्यवास्यनुकरणपराजुर्मसागराप्राकमायकल्याणकत्वेनाप्रथनात् । धर्मसागरस्त्वनेकविधासत्तरूपणाप्ररूपकत्वादप्रतिमकलहकारित्वाच्च स्वगुर्वादिभिरप्यनेकशः सखाबहिष्कृत । इति सुप्रतीत एवेतिहासविदां, तस्यासत्प्ररूपणा अपि परमतार्किकन्यायाचार्यश्रीयशोविजयोपाध्यायाधैरपि प्रतिमाशतक-धर्मपरीक्षाप्रभृतिषु कल्पसुबोधिकादिष्वपि च भूरिशः प्रकटिताः सुप्रसिद्धाः समयविदाम् ।
यथा हि धर्मसागरस्योत्सन्नभाषणं पालोचितं तत्कालीनैस्तपागच्छीयैरेवाने कैद्विजनवरिष्टस्तथा जिनवल्लभसूरीणां किमपि कथनं तत्समसामयिकाना शासनधुरीणकल्पानी' श्रीमंद्वाविदेवसूरि-हेमचन्द्रसूरि-द्रोणाचार्यादीनां मध्यान्न केनाप्युत्सूत्रतया पर्यालोचित,
न च सबबहिष्कृतत्वमप्युद्घोषितं धर्मसागरम्यतिरिक्तनाम्येन केनापि सुविहितेन, धर्मसागरस्तु जिनबल्लभसूरेः स्वर्गमनतः साधिक1.पञ्चशताम्धनन्तरभावी, तत: एतावदीर्घकालेमध्ये ऽने के विद्वांसोऽभवन, विरचिताब के स्थास्तैः, पर न केनाप्युएपोषित संधबहिष्कृतत्वमेतेषां, अतः स्वगुर्वादिभिरप्यसकृत्सहबहिष्कृतस्योन्मत्ततथा यतत्प्रलापकस्य च धर्मसागरस्य वचो न प्रमाणक्षमम् ।
'यशाचार्यश्रीमन्मलयगिरिविरचितंजीवाभिगम-शापनोपासवृत्त्योः तेन या पाह-सने शक्तिविशेष एवं संहननमिति, तथा
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पिण्डशुद्धि ० काइयो
पेतम्
३९ ॥
च तद्प्रन्थः 'सुते सत्तिविसेसो, संघयण' मिति, स भ्रान्तः, मूलटीकाकारेणापि सूत्रानुयायिना संहननस्यास्थिरचना विशेषात्मकस्य प्रतिपादितत्वात्, यह केन्द्रियाणां सेवार्त्तसंहननमन्यत्रोक्तं तट्टीकाकारेण समाहितं- औदारिकशरीरत्वादुपचारत इदमुक्तं द्रष्टव्यं, नतु तत्त्वस्येति यदि पुनः शक्तिविशेषः स्यात्ततो देवानां नैरविकाणां च संहननमुच्येत, अथ च ते सूत्रे साक्षादसंननिन उक्ता, इत्य उत्सूत्रप्ररूपकविस्पन्दितेषु " इति कथनमुपलभ्यते तदपि विचारं न क्षमते, यतः पूर्वं तावदेतत्कथनं श्रीमन्मलयगिर्याचार्याणामस्ति न वेत्यपि नासन्दिग्धं, " सुत्ते सत्तिविसेसो, संघयण " मित्यत्र मन्थेऽस्य वृत्तावपि चैवकारस्य सूचनमात्रेऽप्यसति " तेन यः प्राह-सूत्रे शक्तिविशेष एव संहननमिती" त्यत्र बलात्कारेणैवैवकारस्य कथनात् । यदि च " सुत्ते सत्तिविसेसो, संघयण ". मित्येतद्वाक्येनास्थिरचनाविशेषात्मकस्या संहननत्वं वक्तुमिष्टमभविष्यत्तर्हि तत्र प्रथे " सुत्ते सत्तिविसेस च्चिय संघयण " मित्येवं वक्तव्यं स्यात्, न चैवमुक्तं, ततः " सुत्ते सत्तिविसेसो, संघयण" मित्यनेनैवकारविकलपाठेन कथं सूत्रे शक्तिविशेष एव संहननं ' यद्वा ' अस्थिरचनाविशेषात्मकस्य संहननत्वाभाव इति साधयितुं शक्यते ? न कथमपि, तथा च श्रीमन्मलयगिरिसङ्काशाः समर्थदीककत्वेन प्रख्याताः ग्रामाणिकाचार्याः कथमेवं नितान्तमसत्यं प्रमाणविकलं च वदेयुः ? न कथमपि । किन-स्वयमपि मलयगिर्याचार्या जिनवल्लभसूरिप्रणीत पडशीतिकावृत्त वेताँच्छिष्टा चार्यत्वेन जल्पन्ति तथा च तद्द्मन्यः-" इह हि शिष्टाः कविदिष्टे वस्तुनि प्रवर्तमानाः सन्त इष्टदेवतास्तवाभिधानपुरस्सरमेव प्रवर्त्तन्ते, न चायमाचार्यो न शिष्ट इति । एवं चैकत्र शिष्टाचार्यत्वेनोतया पुनरन्धत्र' तानेोत्सूत्रप्ररूपकत्वेन कथनरूपविभिन्नवाक्यता सर्वथैवासम्भावनीया, बादशां समर्थप्रामाणिकाचार्याणां प्रामाणिक स्वात् । अय चोपलभ्यते चतुर्दशशतान्यन्तभागपर्यवसानलिखितास्वपि प्रतिकृतिष्वे फेंक पाठि
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उपक्रम
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परमेतत सुतरां निष्टङ्कित, यदुत-" सुत्ते सत्तिविसेसो, संघयण"मिति वाक्यं न सूत्रे शक्तिविशेषात्मकसंहनन निषेध नापि च 'सत्र शक्तिविशेष एव संहनन 'मिति ख्यापकमपि, अपितु 'सूत्रे शक्तिविशेषः संहननमस्ती'त्येतावन्मात्रस्यैवार्थस्य द्योतकं, तत्त जिनवल्लभसूरितोऽपि प्रागनेकैः प्राचीनः प्रामाणिकैश्चाचार्य पुरन्दरैः स्पष्टतयैव प्रतिपादितमस्ति, तथाहि
"ह चेत्थम्भूतास्थिसञ्चयोपमितः शक्तिविशेषः संहननमुच्यते, न स्वस्थिसञ्चय एव, देवानामस्थिरहितानामपि प्रथमसंहननयुक्तत्वात् ।" ( हारि० आ. वृ० पत्र ३६७-१) स्पष्टमुक्तमत्र प्रन्थे पूज्य श्रीहरिभद्रसूरिमित्रैः शक्तिविशेषस्य संहननत्वम् ।
“संहननम्-अस्थिसञ्चयः, वक्ष्यमाणोपमानोपमेयः शक्तिविशेष इत्यन्ये, xxx शक्तिविशेषपक्षे वेवंविधदादेरिव दृढत्वं संहननमिति । " ( स्थानाङ्ग वृत्ति, अ. ६, प. ३३९, वल्लभवि. मुद्रित )
तथा" दिन्वेण संघातेणं-दिव्येन स्वर्गसम्बन्धिना प्रधानेनेत्यर्थों, वर्णादिना युक्त इति गम्यते, समातेन-संहननेन वज्रर्षभनाराचलक्षणेन" (स्था. वृ. अ. ८ प. ३९९, वल्लभवि, मु.)
एवमेव "दिवेणं-देवोचितेन 'संघियणेणं)घाए'ति संहनेन वर्षमनाराचेनेत्यर्थः ।" (औपपातिकसत्रवृत्ति पत्र ५०)
तदेवं निर्दिष्ट प्रमाणाभ्यामपि सूरिशेखराभ्यां स्पष्टभुररीकृतं शक्तिविशेषः संहननमिति, नैतावन्मात्रमेव, किन्तु यत्त | प्रागेकेन्द्रियाणां सेवार्तसंहननमभ्यधायि तदौदारिकशरीरसम्बन्धमात्रमपेक्ष्यौपचारिक, देवा अपि यदन्यत्र प्रज्ञापनादौ वर्षभनाराचसंहननिन उच्यन्ते तदपि गौणवृत्त्या" इत्यनेन श्रीजीवाभिगमवृत्तिपाठेन स्वयमपि मलयगिर्याचार्याः शक्तिविशेष संहननतया स्वीकुर्वन्ति । एवं च श्रीजिनवल्लमसूरिभ्यः पुरोमाविहरिमद्रसूर्यभयदेवसूरिप्रभृतिभिः सर्वमान्यप्रामाणिकाचायः स्वयं मलयगिर्या
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पिण्यविद्धि '. टीकाइयो
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॥४०॥1
पारपि च यररीकृतं शक्तिविशेषः संहननमिति तर्हि जिनवल्लभसूरेः " सुत्ते सत्तिविसेसो, संघयण " भिति कथनं कथमुत्सूत्र भवितुमहे ति ? नेक कथांप ।
शक्तिविश एतत्वौपचारिकं शक्तिविशेषः संहनने, नतु तस्वदृस्येति चेत्सत्यं, किन्तु को जल्पति “सुत्ते सत्तिविसेसो, संघयण " मिय.
एसंहनननेन पाठेनानौपचारिक तत्त्ववृत्त्या वा शक्तिविशेषः संहननं सूत्रे प्रोक्तमिति ? एवकारस्यात्र सर्वथाऽप्यभावात् । - - --
प्रामाण्यम्। एवं च सुतरां सिद्धं, यदुत-"सुत्ते सत्तिविसेसो, संघयण" मिति कयनं नोसूत्रम् , तया च तत्प्रणेतारो सिनवल्लभसूरयोऽपि नोत्सूत्रप्ररूपकाः, असिद्धे च तेषामुत्सर्वप्ररूपकरवे दुरापास्तमेव समदबहिष्कृतत्वमपि, तत्समसामायिकैः प्रौढातिप्रोढेरप्याचार्योदिकरतुचारितत्वात् । यच्च जिनवल्लभसूरेः स्वर्गाप्तितः साधिकपनशताब्धनन्तरभाविधर्मसागराधैर्जल्पितं तस्वस्योत्सूत्रप्ररूपकत्वं साहिष्कृतत्वं चाच्छादयितुमेव, तत्समसामयिकैरनेकैर्षितहरैः स्वस्वप्रन्येषु तथाविधतया ख्यापिठत्वात्सुप्रतीतमेव स्त्रोचीणवादित्वं सहयहिष्कृतत्वं चापि तस्य । . .
एवं च सामायिकशब्दस्य सामाइयं नाम सावज्जजोगपरिवर्ण निरवजजोगपडिसेवणं चे "ति शास्त्रीयव्याख्यानमनाहत्य स्वाभिनिवेशपोषणाय “ सामाइयं नाम निरवजजोगपडिसेवणं सावजजोगपरिषज्वणं चे "ति विपरीतन्याख्यानं, अपवस्वपि पौषयोपासो विधेय एवेत्याप्रहात् पौषधोपवासातिथिसंविभागौ तु प्रतिनियतदिवसानुधेयौ, न प्रतिदिवसाचरणीयो" इत्येवरपाठमान्त.
पर्तिता न प्रतिदिवसाचरणीयौ " इत्येतद्वाक्यस्य पर्षदिनेषु नियतया तदन्यबस्नेषु पानियततया पौषधोपवासविधेषताययापना- IN| वास्याविनाम्ना विष प्राचारी, न तु रात्रौ” इत्येवंविधस्य स्वकपोळकल्पनाकल्पितपाठस्य परिकल्पना अनादितोऽपि
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पाक्षिकं चतुर्दश्यामेवेति स्वाभिमतार्थसिद्धये ठाणाप्रकरणवृत्तेः "तवसेण य पक्खियाईणि वि चउहसीए आयरियाणि इत्येतस्याठगत" पक्खियाईशी "ति वाक्यस्थाने " चाउम्मासियाणी "त्येवंरूपपाठपरिवर्तनं, तथा "गर्भस्य श्रीवर्द्धमानरूपस्य हरण-त्रिशलाकुक्षौ सकामणं गर्भहरणं" इत्येतद्युक्तियुक्तशास्त्रीयार्थच्यञ्जकस्य, न तु हरणमात्रार्थव्यञ्जकस्य, गर्भापहारस्याकल्याणकभूततया अतिनिन्द्याश्चर्यरूपकल्याणकत्वकथनानुचिततया वा व्याकृतिश्चेत्यायनेकविधासदुक्तयस्तेषामेवास्यमल दुर्वाणाः शोभन्ते, नतु सूत्रानुसारिणां श्रीमद्भरिभद्राचार्याभयदेवरिप्रभृतिव्याख्यातवीरवरश्रीमदर्द्धमानजिनत्रिशलाकुश्यागमनरूपतीर्थकरभवानां "कल्लागफला य जीवाण"मिति परवाशकोक्तकल्याणकलक्षणोपेतकल्याणकपञ्चकस्थत्रिशलाकुक्षिगर्भाधानलक्षणगर्भापहाराकल्याणकावादिनामित्यलमतिचसूर्या सागरानुकारिप्रेममानादिभिः ।
अन्थोऽयमतीवोपयोगी रत्नत्रयाराधनोयुक्तानां श्रमणानां आद्धानामपि च, यतो न पिण्डविशुद्धिज्ञानमन्तरा सुलभं तदाराधनं, तच्चैदयुगीनानामस्पमेधाऽऽयुष्काणां सत्त्वानामनेन प्रकरणेनावाप्तुं सुकर, स्वल्पप्रमाणत्वादस्य । अत एव सनेकैराचार्यादिकैर्वृत्तिदीपिकाऽवचूण्याथै नाभिधाननिर्षाणभाषायां लोकभाषायामपि दबाथैबालावबोधाद्यभिधानैरनेके व्याख्यानन्था विरचिताः समुपलभ्यन्ते, तेषु श्रीचन्द्रसरिप्रणीता वृत्तिः सर्वतोऽधिकपरिमाणा, या प्रामुद्रिता, परं त्रुटितपाठत्वादिना नालं सा सम्यगांवोघीय सर्वेषां, अतोऽल्पमेधसामपि सुखावबोधाय श्रीचन्द्रसूरीणामेवान्तिषद्भिः पाक्षिकसूत्रविवरण-पनाशकेचूर्णिप्रमृतिशास्त्रप्रणेतृभिः श्रीमद्यशोदेवसूरिभिः सन्दब्धा नातिविस्तरा लन्बी क्लिष्टाऽपि वा, ततोऽप्यतिलध्वी सुस्पष्टार्थबोधिका चापि चान्द्रकुलीन-श्रीप्रभाचायोन्वासिमाणिक्यप्रभसूरिवरविनेयरत्न-श्रीमदुदयसिंहसूरिवर विनिर्मिता दीपिका च, एतद्व्याख्याद्वयोपेतस्यैतत्प्रकरणरत्नस्य प्रकाश
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उपक्रमे
संशोधनायोपयुक्त| प्रतिपरिचयः।
पेवम्
-- ICI च्या प्रादरभन्मुनिनिध्यहन्दु (१९९७)वत्सरे मम, सदेव च मोहमय्यामवाप्तपुण्यपचनीयभाण्डारकरइन्स्टीच्याख्यचिकोष विनावित सत्कप्रत्याधारेण कारिता मुद्रणाहाँ प्रतिः, तो 'म' संवत्वेन नियुक्ताऽत्र मया । टीकाद्वयो
ततः कार्यान्तरण्यात्वादिसंयोगवशारकतिथिद्वनन्तरमारब्धोऽस्य मुद्रणप्रयासरतत्र च संशोधनकर्मणि निम्ननिर्दिष्टाः प्रतय उपयक्तता नीता मया, पूर्व तावत्पत्तनीय श्रेष्ठिपादकस्थचित्कोषसकताडपत्रीयप्रतिद्वयाधारेणावलोकिता मुद्रणाऱ्या प्रतिः, ततो. मुद्रण- 1
प्रारम्भकाले निर्देश्यमाणं पुस्तकपञ्चक समासादित मचा, सत्र---- ॥४१॥
'संलिका प्रतिबंटपद्रनगरस्थानन्दज्ञानमन्दिरसंस्थापितवयोवृद्धानवरत विहारप्रतिबद्धलक्ष्यश्रीमर्द्धसविजयमुनिपुणवशास्त्रसङ्ग्रहसका प्राचीना शुद्धप्राया च ।
'संक्षिका, साऽप्युपरोकज्ञानमन्दिरावस्थापितानेकत्रीयज्ञानभाण्डागारल्यवस्थितिविधायकप्रवर्तकश्रीमत्कान्तिविजयमहाशयशाखसहसत्का अर्वाचीना नात्यशुद्धा। एतत्प्रतिद्वयमप्यनवरतशास्त्रोद्वारेकबद्धक साक्षरवयश्रीमत्पुण्यविजयमुनिवरानुपहावाप्तम् ।
३.य' संशिका, परमपूज्यसुविहितक्रियानिष्ठखरतरगच्छविभूपणमइच्छासनप्रभावकक्रियोद्धारकश्रीमन्मोहनमुनीशविनेयावतंसोप्रतपस्विवर्तमानखरतरगणसंविमशाखीयाद्याचार्यश्रीजिनयशस्सूरीश्वरभांडागार-योधपुरसत्का नातिप्राचीना नात्यशुद्धा ।
प' संक्षिका, पत्तनीयश्रीसभाण्डागारसत्का, प्रवर्तकश्रीमत्कान्तिविजयमुनिवरविनेयविनेयत्रयोवृद्धश्रीजसविजयमुनिमहास्यद्वारा सम्प्राप्ता प्राचीना शुद्धमाया च ।।
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हप
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५ 'अ' संशिका, बीकानेरवास्तव्येतिहासतत्त्ववेत्ता श्रीमान् भागरचडावी नाटालस्ता गाची उसाच ।
दीपिकायास्त मद्रणाही प्रतिमयैव संवन्नेत्रनिष्यकेन्दु(१९९२)वर्षे मदीयगुरुदेवस्य छत्रछायायां स्थितेन मोहमय्यामनन्तनाथ. | जिनालयस्थचित्कोषीयप्रत्याधारेण निर्मिता, ततः परं संशोधनकार्ये निर्देक्ष्यमाणं प्रतिपञ्चकमुपयुक्तता नीतं मया, तथाहि
१-२'हु-क' संज्ञिके, एते द्वेऽपि प्रती क्रमशः प्रानिर्दिष्टानन्दज्ञानमन्दिरवटपद्रनगरस्थश्रीमद्धंसविजय-कान्तिविजयमनिमतल्लिकयोः शास्त्रसनहसत्के प्राचीने शुद्धप्राये श्रीमत्पुण्यविजयमुनिवरानुग्रहात्सम्प्राप्ते ।
राम' संक्षिका, मोहमयीस्थमहावीरजिनालयगतश्रीजिनदत्तसूरिझानमाण्डागारसत्का, अर्वाचीना नात्यशुद्धा, मदीयविद्यमानाचार्यश्रीमजिनरत्नरिवराणामुपाध्यायश्रीमल्लब्धिमुनिवराणां चानुग्रहादवाप्ता ।
१५' संझिका, पत्तनीयश्रीसहभाण्डागारसत्का वयोवृद्धश्रीजसविजयमुनिवरानुप्रहारसम्प्राप्ता । ५ 'अ' संक्षिका, अगरचन्द्रजी माहटाद्वारा समासादिता।
एतेषां सर्वेषामपि पुस्तकप्रेषणेन मामनुगृहीतुमहाशयानां चिरं कृतज्ञोऽस्मि, विशेषतः श्रीमत्पुण्यविजयमुनिमहाशयाना, यैलिखनसमनन्तरमेव निस्सकोचतयाऽविलम्बेन च स्वायत्तभाण्डागारीयप्राचीनतमशुद्धप्रतिप्रेषणेनातीव सौहार्दभावो मुहुर्त्यश्चितः ।। — एवं च वृत्तिदीपिकयोयोरपि विभिन्न कालीनप्रतिपनकपञ्चकाधारेण सावधानतया विहितेऽपि संशोधनायासेऽत्र निबन्धे याः काम्बन स्खलनमस्त्रटयो वा दृष्टिपथमवतरेयुस्ताः सम्मानीयाः प्रकृतिकृपादयैर्षीधनैर्मयि कृपां विधायेत्यभ्यर्थनापुरस्सरं
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पिण्डविधुद्धि टीकाद्वयोपेतम्
उपक्रमसंयोजक नामादि।
शान्ताय दान्ताय जितेन्द्रियाय, धीराय वीराय मुनीश्वराय ।
सथानज्ञानादिगुणाकराप, भक्या नमः श्रीमुनिमोहनाय ॥१॥ इति परमगुरुनमनरूपमङ्गलमाचरंश्च विरमाम्येतदल्पोपक्रमात् । वि. सं. २०१० पौष कृ.१० बुधे ।
लि. अनुयोगाचार्यश्रीकेशरमुंनिगणिवरविनेयोकच्छमाण्डवी
___ बुद्धिसागरो गणिः संवत्खेलानभोयुग्मे, वैक्रमे माण्डवीपुरे । बुद्ध्यब्धिना हि सन्दब्धो, गणिनाऽयमुपक्रमः॥१॥
॥४२॥
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ॐ अई नमो जिनाय नमा नमः श्रीमांगनिदत्त-कुवत मोहन-यक्ष-पापग्रेभ्यः
श्रीमम्मोहन-यशःस्मारकग्रन्थमालायांपरम सुविहितशिरशेखरायमाण-श्रीमत्वरतरगच्छ प्रतिष्ठासम्प्रापक-नवाप्रकृत्तिकारक-मुविहितसूरिपुरन्दर-श्रीमदभयदेवसूरिग्रहीतोपसम्पच्छिष्य-सुविहितचकचूडामणि-कविचकवर्ति-श्रीमजिनवल्लभत्रिशेखरप्रविनिर्मितं, परमसुविहित-मुगृहीतनामधेय-श्रीमद्यशोदेवसूरिसूत्रितया लघुवृत्त्यारल्या व्याख्यया
विभूषितं, श्रीमचान्द्रकुलाम्बरनभोमणि-धीमन्माणिक्यप्रभाचार्यविनीतविनेय-श्रीमदुदयसिंहसूरिसन्डन्धया दीपिकया सनाथीकृतच
पिण्डविशुद्धि-प्रकरणम् ।
यदुदितलवयोगादेहिनः स्युः कृतार्था-स्तमिह शुभनिधानं वर्द्धमानं प्रणम्य ।
स्वपरजनहितार्थ पिण्डशुद्धर्विधास्ये, जिनपतिमतनीत्या वृत्तिमल्पां सुयोधाम् ।। १ ।। .. तत्र चाहत्प्रणीतसमयसम्पर्कावदातमतिजलधिर्भगवान् श्रीजिनबल्लभगणिर्दुःषमाकालदोषादत्यन्तं हीयमानायु यादीन् । सम्प्रतिकालसावादीनवलोक्य तदनुग्रहार्थ विस्तरवत् पिण्डेषणाध्ययनसारमादाय सहक्षिप्ततरं पिण्डविख्याख्यप्रकरणं चिकीर्षुरादावेव विनवातनिरासार्थ शिष्टसमयपरिपालनार्थ च इष्टदेवतास्ततिरूपमत्यन्ताव्यभिचारिभावमल श्रोतजनप्रत्य
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नेण्ड
शुद्धि ० काइयो
तमू
१ ॥
ममियादि च प्रतिपादयन्निमां गाथामाह-
( दीपिकायां मङ्गलाचरणादिः - )
a नमत श्रीवीरं यस्माचारित्र भूपतिर्जगति । बाह्यान्सरबैरिजयाद, क्षमाधरैः सेव्यतेऽद्यापि ॥ १ ॥ सुविहितसूत्रधारः, स जयति जिनवल्लभो गणिर्येन । पिण्डविशुद्धिप्रकरण-मकारि चारित्रनृपभवनम् ॥ २ ॥ तस्मिन्विवरणदीपं दीप्रमतिस्नेहभाजनमदाद्यः । सोऽपि परोपकृतिरतः, सूरिर्जीयाद्यशोदेवः ॥ ३ ॥ तद्विवरण प्रदीपान्मया पदार्थाभिलाषिणा तत्र । मन्दमतिनेयमात्म-प्रबुद्धये दीपिकोद्भियते ॥ ४ ॥ तत्र विशुद्ध सिद्धान्त सुधासारणिः श्रीजिनवल्लभगणिः सङ्क्षिप्तरुचीनामनुग्रहार्थं पिण्डैषणाऽध्ययनसारार्थं सङ्गृह्य यतीनामाहारदोषोद्धरणं पिण्डविशुद्धिप्रकरणं चिकीर्षुरादावेव कृताभीष्टनमस्कारां सूचिताभिधेयादित्रितयसारां माथामाहदेविंदबिंदवंदिय-पयारविंदे ऽभिवंदिय जिणिंदे । वोच्छामि सुविहियहियं, पिंडविसोहिं समासेणं ॥१॥
व्याख्या- 'देवा' भवनपत्यादय 'इन्द्राथ' चमरादयो देवानामिन्द्रा देवेन्द्रास्तेषां 'वृन्दानि' निकुरुम्वाणि देवेन्द्रवृन्दानि वैर्वन्दितानि - प्रणवानि स्तुतानि च ' पदारविन्दानि ' चरणकमलानि येषां ते देवेन्द्रवृन्दवन्दितपदारविन्दास्तान् जिनेन्द्रा निति योगः । किमित्याह - 'अभिवन्द्य' कुलमनोवाक्कायैः प्रणम्य। 'जिनेन्द्रान्' रागाद्यान्तरदुरिवैरिवारविजयाजिनाअपगतघनघातिकर्मचतुष्टयाः केवलिनस्ते च सामान्या अपि स्युरतोऽईत्परिग्रहार्थमिन्द्रग्रहणं, ततश्च जिनानामिन्द्रा:केवलित्वे सति चतुखिंशदतिशयरूपपरमैश्वर्यवन्तस्तीर्थङ्करा जिनेन्द्रास्तानित्यनेन मङ्गलमुक्तं, एतच स्वर्गापवर्गावन्ध्य
मङ्गलाभिधेयादयः
॥ १ ॥
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कारणसम्यगवानक्रियाहेतस्वाथ्योभृतेऽस्मिन् प्रकरणे प्रवृत्तौ विघ्नसम्भवात्तदपोहार्थमभिहितमिति । अभिवन्य . मित्याह-'योच्छामि 'त 'वक्ष्यामि' भणिष्यामि पिण्डविशुद्धिमिति योगः। किं विशिष्टामित्याह-सविहितहितांनोमन विहितं अनुष्ठानं येषां ते सुविहिताः-सुसाधनस्तेषां हिता-उपकारित्वात् पथ्या-सुविहितहिता, तां ! ‘पिंडविसोहिंति पिण्डविशद्धि, इह पिण्डः समयसमयाऽशनादिचतुर्विधाहारः परिगझते, तर विशुद्धि निनिधरुपैन्ट मादिभिः प्रकारैः शोधन पिण्डाविशाहिस्ता प्रकरणं चाभिधेयसम्बन्धात्तरङ्गवत्यादिवत्तथोच्यते । अनेन चाभिधेयमभिहितं, तदभिधानाचामिधानाभि धेयलक्षणः सम्बन्धोऽप्युक्तो वेदितव्यः । एवं च सम्बन्धाभिधेयशून्यशास्त्रप्रवृत्तिपरिहारिणां श्रोत्तृणामत्र प्रवृत्तिः कृता । मवतीति । ननु पुर्वाचायरेव पिण्डनियुक्त्यादिग्रन्थेषु साऽभिहितेति किं तया पिष्टपेषणन्यायतुल्ययाऽभिहितया? इत्यापदयाह-समासेम' सक्षेपेण । अयमभिप्राय:-पूर्वाचार्यैर्विस्तरेण सा प्रोक्ता, अहं पुनर्मन्दमतिसचानुग्रहार्थ सोपेण तां वक्ष्यामीति । अनेन चाचार्यः प्रकरणकरणे आत्मनः प्रयोजनं दर्शयति, यतः प्रयोजनं विना नाज्ञोऽपि कापि प्रवर्मते । तथा सहक्षिप्तप्रकरणस्य सुखेन पठनादयः क्रियन्त इति विस्तीर्णग्रन्थपठनाद्यसमर्थाः शिष्या अत्र प्रवर्तिता भवन्तीति । शिष्यप्रयोजनं तु पिण्डदोषपरिबानादिकं स्वयमम्ममिति गाथार्थः ॥१॥
मिण्डविशुद्धिं वक्ष्यामीत्युक्तं । ततश्च यैर्दोपैविरहितस्य पिण्डस्य विशुद्धिर्भवति, तान् विवक्षुरिमा प्रस्तावनागाथामाह
दी- जेन्द्रपन्दवन्दिरपादारविन्दान जिनेन्द्रानभित्रन्धेज्य भीष्टसिद्भिदासमस्कृत्य वक्ष्यामि सुविहितहिता' सुसाधूपकारिणीं मिडमिशादि, पिण्डोऽत्र समयसंचया चतुर्विधोशनायाहारस्तस्य विश्वोषि-विविधं शोधनमित्यभिधेयं, तस्मादभिषा
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पिण्ड- विशुद्धि कायो
| लघुवी पिण्डदोषभणनप्रक्रमा
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-1२॥
नामिधेयलक्षणः सम्बन्धोऽप्यूखः । ननु पूर्व पिण्डनियुक्त्यादिप्रन्थेष्वपि सा भणिताऽस्ति, किमनयेत्याह-समासेनेति प्रयोजनं, | तच्च कालदोषाद्वितीर्णशासपटनानासमर्थलमनायझादनन्तर-परम्परभेदं ज्ञेयमिति गाथार्थः ॥१॥ '- अथ जीवानां शिवसुखाबाधिपिण्डदोषभणनेनैव प्रस्तावयाह
जीवा सुहेसिणो तं, सिवम्मि तं संजमेण सो देहे । सो पिंडेण सदोसो, सो पडिकुट्टो इमे ते य ॥२॥ | | व्याख्या-'जीवाः' प्राणिनस्ते किमित्याह-'सुखैषिणः' साताभिलाषिणः, उक्तं च-"सन्वे वि मुकावकरखी, सव्वे वि हुदुक्खभीरुणो जीवा । सव्वे वि जीवियपिया, सब्वे मरणाउ बीहंति ॥१॥"त्ति । 'तं' ति पुनः शब्दार्थस्य गम्यमानत्वात् , तत्पुनः सुखं स्वाभाविक निरुपममनन्तं च शिव एव-सर्चकर्मामावलक्षणमोक्ष एव, यदुक्तं"नावि अस्थि माणुसाणे, तं सोक्खं नविय सव्वदेवाणं । सिद्धाणं सोक्वं, अवावाहं उवगयाणं ॥शा" | संसारिक सुखं तु सुखमेव न भवति, विपर्यासरूपत्वाव, दुःखप्रतीकारमात्रस्य सुखबुद्ध्या ग्रहणात् । मणितं च-"तृषा शुष्यत्यास्ये पियति सलिलं स्वादु सुरभिः, क्षुधातः सन् शालीन कवलयति मांसादिफणितान् । प्रदीप्ते रागानौ दहति तनुमाश्लिष्यति वधूं, प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः॥१॥" इति। 'तंति उक्त न्यायात् तं पुनः शिवं जीवाः प्राप्नुवन्ति, केनेत्याह-संयमेन, "पाश्रवाद्विरमण, पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः। दण्डत्रयविरतिश्चेति, संयमः समदशमेदः॥१॥" इति शास्त्रान्तर[नन्दीवृत्ति प्रसिद्धेन "पुढवि-दग-अगणि-मारुय-वणस्सइबि-ति-घउ-पणिदि ९ अजीवे १०। पेहो ११ प्पेह १२ पमज्जण १३-परिट्ठवण १४ मणो १५ वई १६ काए
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ANSARAKASCARSA
१७॥१॥" इत्यागमप्रसिद्धेन वा । अत्र चायः संयमः प्रसिद्ध एव, द्वितीयस्तु शिष्यहितार्थ किश्चिदुच्यते-तत्र पृथिव्यादिपश्चिन्द्रियान्तजीवानां मनोवा-कायैः करण-कारणानु-मतिमेदतः सञ्चट्टन-परितापना-पद्रावणपरिहाररूपो नवविधः संयमो भवति । अजीवसंयमस्तु पुस्तका? अप्रत्युपेक्ष्य दुष्प्रत्युपेक्ष्य [च पुस्तक-य-तृण-चर्मपञ्चक-विकटहिरण्यादीनामग्रहणरूपः। आइ-किमेषामग्रहण एव संयम ? उत ग्रहणेऽपि ?, उच्यते-अपवादतो ग्रहणेऽपि, यत उक्तं-'दुप्पडिलेहिय दूसं, अद्धाणाई विवित्त गिण्हंति । घेप्पइ पोत्थयपणयं, कालियनिज्जुत्तिकोसट्टा ॥१॥" इत्यादि। ननु शानसाधनबाद पुस्तकपञ्चकस्य कथ नोत्सर्गतोऽपि ग्रहण : उच्यते-सच्चोपघातहेतुत्वात , आह च-"जइतेसिं जीवाणं, तत्थगयाणं (तु) च सोणियं होजा। पीलिज्जंते धणियं, गलिजतं अक्सरे फुसिउं ॥१॥" इत्यादि । 'तत्रगतानां पुस्तकस्थितानां । प्रेक्षासंयमस्तु यत्र स्थानादिकं किश्चिदाचरति, तत्र प्रत्युपेक्ष्य प्रमाय चाचरतीति । उपेक्षासंयमस्तु द्विधा-व्यापारे अव्यापारे च । उपेक्षाशब्दस्य | लोके तथा प्रवृत्तिदर्शनात् । तथा च वक्तारो भवन्ति-उपेक्षकोऽयमस्य ग्रामस्य-चिन्तक इत्यर्थः । तथा किमिदं वस्तु विनश्यदुपेक्षसे ! न चिन्तयसीत्यर्थः। तत्र व्यापारोपेक्षासंयमो यत्साम्भोगिकसाधन सीदन्त इतरांश्च प्रावनिककार्ये प्रेरयति । अव्यापारोपेक्षासंयमन्तु यत्सावद्यकर्मस सीदन्तं गृहिणं न प्रेरयति । प्रमार्जनासंयमस्तु यत्सागारिकसमक्ष पादौन प्रमार्जयति, तदभावे तु प्रमार्जयतीति । परिष्ठापनासंयमस्तु जीवसंसक्तस्याशुद्धस्याधिकस्य क्षेत्रकालातिक्रान्तस्य वा भक्तादेविधि
ना यस्त्यागः । मनःसंयमस्तु तस्यैवाकुशलस्य निरोघः, कुशलस्योदीरण । एवं वासंयमोऽपि | कायसंयमस्तु सति कार्ये उप| योगतो गमनागमनादिविधानं, तदभावे तु सुसंलीनकरचरणाद्यवयवस्यावस्थानमिति । अथ प्रकृतमुच्यते-'सोचि स पुनः
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द्वि०
इयो-8
संयमो 'देहे' काये भवति, उद्घुज्यते च-"शरीरमायं स्वल धर्मसाधनं" इत्यादीति । 'सो'त्ति स पुनदेहः 'पिण्डेनेवा'- दीपिका शनायाहारेणैव ससामानमपि धारयति, आचालगोपालाङ्गनादीनां प्रसिद्धं चैतत् । मह दोषैः मदोपः, 'सोसि स पुनः पिण्ड: 1ोषमणनो'प्रतिकृष्टः' प्रतिषिद्धः, आगम इति गम्यते, 'इमे' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षास्ते दोपाः, च शन्दः पुनः शब्दार्थः । पक्रमः। अत्र च गाथायां सर्वत्रानुरूपक्रियाऽध्याहारतोऽवसेया। " यश्च निम्ब परशुना, यक्षेनं मधुमर्पिषा। यश्चैनं गन्धमाल्याभ्यां सर्वस्य कटुरेव सः॥१॥" इत्यादाविवेति गाथार्थः ॥ २ ॥
साम्प्रतं प्रस्तावितपिण्डदोषावसरः, ते च द्विचत्वारिंशत्, यत आइ-"सोलस उग्गमदोसा, सोलस उपायजाए दोसा उ। दस एसणाए दोसा, पायालीस इय हवंति ॥१॥"चि । तत्र तावदाहारोद्गमविषयषोडशदोपप्रतिपादनाय गाथाद्वयमाह
दी०-जीवाः सर्वेऽपि सुखैषिणस्तदमितत्वात्, गाथाऽन्तीयश्च शब्दः पुनरर्थः प्रत्येकं योज्यः, तत्पुनः सुखं शिवे, निरुपद्रवत्वात, तच्च शिवं 'संयमेन' पञ्चावविरमण-पञ्चेन्द्रियनिग्रह-पायजय-दण्डवयविरतिरूपसप्तदशधाप्रतीतेन, तन्मूलत्वात् । स च संयमो देहे, तत्साध्यत्वात् । स च देहः पिण्डेन, तदाधारत्वात् । स च पिण्डः सदोष: 'प्रतिकृष्टः' सिद्धान्ते निषिद्धा, संयमबाधितत्वात् । ते च दोषा 'इमे' वक्ष्यमाणाः, बहुवचनेनात्र दोषाणां विविधत्वमुक्तं, यदाहः"सोलस उग्गमदोसा, सोलस उप्पायणाइ दोसा य । दस एसणाइ दोसा, गासे पण मिलिय सगन्याला ॥१॥" ॥२॥
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बारा पोड शोमशेरन गाथाद्वयेनाह
आहाकम्मु १ देसिय २, पूईकम्मे य ३ मीसजाए य ४ । ठवणा ५ पाइडियाए ६, पाओयर ७ कीय ८ पामिच्चे ९ ॥ ३ ॥ परिअहिए १० अभिहडु ११-भिन्ने १२ मालोहडे अ १३ अच्छिज्जे १४ ।
अणिसिटु १५ ऽज्झोयरए १६, सोलस पिंडुग्गमे दोसा ॥ ४ ॥ व्याख्या-इह च सर्वत्र विभक्तिलोपादिकं प्राकृतलक्षणं स्वयमेवावसेये, त्रिस्तरभयास नमः। आधानमाषा, प्रस्तावादमुकस्मै साधवे इदं भक्तादिदेयमित्यादिरूपो दातृसङ्कल्पः, तया 'कर्म' पाकादिक्रियेत्याधाकर्म, यद्वा आघायकर्मेति विगृह्म निरुक्तवशेन यकारलोपादाधाकर्मेति, तद्योगाद्भक्तायपि तथोच्यते, एपमन्यत्रापि १ । उद्देशनं उद्देशो-यावदपिकाविप्रणिधान, तेन निसं तत्प्रयोजनं वेत्यौदेशिक भक्तादि, इह दोषभयानप्रक्रमेऽपि यद्दोषवतो भक्तादेरभिधानं तत्तयोरमेदविवक्षणात्, एवमन्यत्रापि २ शुद्धस्यापि अविशुद्धभक्तादिमीलनात् पूते-रपवित्रस्य कर्म करणमिति पूतिकर्म, च: सहाचये ३। मिश्रेण-गृहिसाभादिप्रणिपानलक्षणभावेन जात-पाकादिभाषनुपगसमिति मिश्रजातं, चः पूर्ववत् ४ । स्था'प्यते मापदानाप किश्चित्कालं यावभिधीयते पत्तत्र स्थापना, भक्तायेय ५। 'प्राभृतं' कौलिक, तदिवोपचारसाधयिका सा आत्मृतिका प्रादुर-प्राकाश्य, तस्म' करणं साध्वर्थ विधानं प्रादुष्कारस्तद्विशेषितं मक्ताद्यपि प्रादुकार एवोच्यते ७।।
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पिण्डविशुद्धि टीकाद्वयोपेतम्
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क्रीयते स्म-साधुनिमित्तमादिना गृह्यते स्मति क्रीतं ८ । अपमित्यं प्रामित्यं वा-दास्याम्येतत्तवेत्यभिधाय माधुनिमित्तं गृहीत-1 उगम मुच्छिन्न उद्यतकमिति यावत् ९ । 'परिवर्तितं 'माध्वयं कुतपरावर्ग १० अमि' इति साध्वभिमुख 'हृतं' दोषषोडशस्थानान्तरादानीतमभिहतं, अभ्याहृतमित्ययः ११ । उद्भेदनमुद्भिनं, साध्वर्थ कुशूलादेरुद्घाटनं, तद्योगाद्भक्ताद्यपि तथोच्यते | कनामा १२। मालान्मनादरपहृतं-साध्वर्थमानीतं मालापहृतं, चः पूर्ववत् १३ । 'आच्छिद्यते' अनिच्छतोऽपि पुत्रादेः सका- || न्वयम् ॥ शात्साधुदानाय गृह्यते यत्तदाच्छेद्यं १४ । न निसृष्टं-सर्वस्वामिभिः साधुदानाप नानुजातमनिसृष्टं १५। 'अधि' इति | आधिक्येनावपूरणं-स्वार्थ दत्वाद्रहमादेमरणमध्यवपूरः, स एवाऽध्यवपूरकः, तद्योगाद्वक्ताद्यवेवमुच्यते १६ । इत्येवं घोडनसङ्ख्याः पिण्डस्या-नागाहारस्योदमा प्रसूतिरुपतिः प्रभवो जन्मेति पर्यायाः पिण्डोद्गमस्तस्मिन् दोषा उक्तस्वरूपाः स्युरिति माथाद्वयार्थः।। ३-४ ।।
साम्प्रतमाधाकर्मदोषो व्याख्यायते, अस्य च सान्वयानि चत्वारि नामानि भवन्ति, तद्यथा-आधाकर्म अधःकर्म आत्मघ्नं आत्मकर्म चेति । तत्राचं न्याचिख्यासुराह
दी०-आधाय साधून पहजीवनिकायविराधनादिना 'कर्म' भक्तादिपाकक्रियाकरणं, तदाधाकर्म, निरुक्ताद्यलोपः १। तदेव यावन्तियारदर्थि] कादीनुद्दिश्य कृतमौद्देशिकम् २ आषाकर्माद्यवयवः पतिस्तद्योगात्पूतिकर्म ३ । किञ्चिद् गृहियोग्य किशित्साधूनामिति मिश्रजातम् ४ । साध्वर्थ पृथक स्थापित स्थापना ५ । विवाहादेः पश्चात्पुरस्करण सावा. गमनं प्रतीक्षमाणप्रामृतेन मवा प्राभृतिका ६ । यत्यर्थ देयवस्तुनः प्रकटीकरण-प्रादुष्कारः ७| क्रीतं द्रम्पादिना ८। 181॥४॥
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40-6
साध्वर्थमुद्धारानीतं प्राविस ९ ना कृतमय परिवर्तितम् १० स्थानान्तरात्सार्थ साध्वालयमानीय 5 दत्तमभ्याहृतम् ११ । घटादिकमुद्भिद्य ददत उद्भिन्नम् १२ । मालादेरुत्तारणान्मालापहृतम् १३ । भृत्यादेरनिच्छतो
गृहीतमाच्छेद्यम् १४ । बहूनां सत्कं शेषैरननुज्ञातमेकेन दत्तमनिसृष्टम् १५ । स्वार्थ पाकारम्भेऽधिक्षेपोऽध्यवपूरकः १६ । एवं षोडश 'पिण्डोद्गमे' आहारोत्पत्तौ दोषाः स्युरिति गाथाद्वयार्थः ।। ३-४ ॥
अर्थतान् सूत्रकृद्विवृणोति, तत्राबदोपस्य चत्वारि नामानि, यथा-आधाकर्म १, अधःकर्म २, आत्मघ्नं ३, आत्मकर्म ४ चेति । आद्यं व्याचिख्यासुराहआहाएँ वियप्पेणं, जईण कम्ममसणाइकरणं जं । छक्कायारंभेणं, तं आहाकम्ममाहंसु ॥५॥
व्याख्या--'आहाएं चि आधया, पर्यायमाह-'वियप्पेणं 'ति 'विकल्पेन' दायकाध्यवसायेन, केषां सम्बन्धिनेत्याह'जईणति यतीनां सम्प्रदानभूतसाधूनां, यतिदानबुध्येति तात्पर्य 'कम्मति कर्म, किं तदित्याह-'असणाइकरणं जति अशनादीनां-भोजनप्रभृतीनां 'करणं' निष्पादनं यत्, केन प्रकारेणेत्याह-पटकायारम्भेण षट्सङ्ख्यपृश्चिच्यादिजीवनिकायोपमर्दैन, ''ति तदापाकम्मति 'आहंसु 'त्ति आहु:-उक्तवन्तस्तीर्थकरगणधरादय इति गम्यत इति गाथार्थः ।। ५॥ ... साम्प्रतं द्वितीय-नृतीयनाम्नी व्याचिख्यासुराह
दी०-आधानमाधा, तया, विकल्पेन-दायकाध्यवसायेनेति पर्यायः, केषां ? यतीनां 'कर्म' अशनादिकरणं यत्पटकायारम्मेण.तदाधाकर्मेत्याहुरिति गाथार्थः॥५॥
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आद्यदोषनामचतुष्टये द्वितीयवृतीयनामान्वयम् ।।
पिण्ड- अथ द्वितीय-तृतीयनामाम्वयमाहविशुद्धि | अहवा जं तग्गाहि, कुणइ अहे संजमाउ नरए वा। हणइ व चरणायं से, अहकम्म तमायहम्मं वा ॥६॥ टोकादयो ।
व्याख्या-अथवेति प्रथंमार्थाऽपेक्षया अपरार्थप्रकारप्रतिपादनार्थः, 'जं 'ति यरसाधुदानसङ्कल्पषटकायारम्मनिष्पनपेतम्
मशनादिकं कर्वभूतं, 'तग्राहिण उक्तविशेषणाशनाडादायकं, साधुमिति प्रक्रमः, 'करोति' विधचे-नयतीत्यर्थः । क्वेत्याह॥५॥
'अघोऽधस्तादसंयम इत्यर्थः, नीचनीचतरनीचतमसंयमस्थानेषु वा । कस्मात् सकाशादित्याह-संयमात् । चारित्रात, उच्चोखतरोचतमसंयमस्थानेभ्यो बा, अथवा 'अध' इत्यधोगती, यदाह-'मरए वति, नरके-सीमन्तकादौ, वा शन्दो विकल्पार्थः, तदधःकर्मेति योगः, अधो-धस्तात् 'कर्म क्रिया-अधाकर्मेति । तृतीयमाह-हणइ वचि, यदित्यत्रापि योज्यते, ततश्च यत्साधुसङ्कल्पपटकायारम्भकृतं मक्तादिकं दलित ' बिनाशि, 'या' गीगावचनाः, किमित्याह-'चरणायेति चरणात्मानं-चारित्ररूपं प्राणिनं, कस्य सम्बन्धिनमित्याह-' से 'त्ति तस्य-मणितस्वरूपभक्तादिग्राहिणः साधोस्तदात्मनमिति सम्बन्धः । आत्मानं-स्त्रं हन्तीस्यात्मध्नं, अमनुष्यकर केऽपि च ठक् । 'अहकम्म तमायहम्मं वत्ति व्याख्यातमेच, नवरं-'या' शब्दोत्रामिधानसमुच्चयार्थो द्रष्टव्य इति माथार्थः ॥ ६॥
सम्प्रस्यात्मकर्मलक्षणं चरमनामभेदं व्याख्यातमाह
दी.-अयवेति प्रकारान्तरार्थः, यत्कर्म तग्राहिणं साधु संयमादधः करोति-असंयमे नरके वा नयति, वा विकल्पार्थः। तीयमाइ-पत्कर्म हन्ति वा चरणास्मानं 'से तस्य-साधोस्तदधःकर्म आत्मघ्नं च, वा समुच्चये, इति माधार्थः ॥ ६॥
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आत्मकर्मान्यमाह -
अट्ठ कम्माइँ अहे, वंधइ पकरेड़ चिणइ उवचिणइ |
भोई अ साहू, जं भणियं भगवईऍ फुडं ॥ ७ ॥
व्याख्या----अष्टावप्यष्टसख्यान्यपि न केवलं समेत्यपि शब्दार्थः । कानीत्याह- कर्माणि ज्ञानावरणादीनि, किंविषarticle 'अहे 'ति अधोगती - अधोगांतविषयाणि, नरकगतिप्रायोग्याणीत्यर्थः । किमित्याह-' बध्नाति प्रकृतिरूपतया - पृष्टरूपतया वा निर्वर्त्तयति । तथा ' प्रकरोति ' स्थितिरूपतया बद्धरूपतया वा निष्पादयति । तथा ' चिनोति ' अनुभागरूपतया निचरूपतया वा विधते । तथा 'उपचिनोति' प्रदेशरूपतया निकाचनारूपतया वा सञ्जनयति, साधुरिति योगः । यंत्र च प्रकृत्यादिस्वरूपं मोदकदृष्टान्तादवसेयं यथा हि मोदको वाताद्यपहर्तृद्रव्यनिष्पन्नत्वात् प्रकृत्या कश्चिद्वातमपहरति कश्चित्पिच, कश्चिच लेष्माणमित्यादि । स्थित्या तु स एव कश्चिद् दिनमेकमास्ते, कश्चिद्वयं कश्चिच त्रयमित्यादि । अनुभावेन .सु. मधुरत्वलक्षणेन कश्विदेकमुणानुभावः, कश्चिद् द्विगुणानुभावः, कचित् त्रिगुणानुभाव इत्यादि । प्रदेशस्तु कणिकादिइम्यरूपैः कश्चिदेकप्रसूतिप्रमाणो भवति, अन्यस्तु प्रसृतिद्वयमानोऽपरस्तु प्रसृतित्रयमान इत्यादि । एवं कर्मापि ज्ञानावार - क्रानिलैनिचत्वात् प्रकृत्या किञ्चित् ज्ञानमावृणोति, किश्चिदर्शनं, किञ्चिन्नु सुखदुःखे जनयतीत्यादि, स्थित्या तु - आपकोटा कोटपादिकालावस्थागि भवति । अनुभावेन स्वेकस्थानिक- द्विस्थानिक-सीधमन्दादिकरसोपेतं, प्रदेश वस्तु
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पेतम्
पिण्ड- अल्पबहुप्रदेशनिष्पन्न स्यादिति । स्पृष्टादिस्वरूपं पुनरेवं-किल किश्चित् कर्म जीवप्रदेशः स्पृष्टमात्रं स्यात्तच्च कालान्तरस्थिति- * आघदोप
शुद्धि मप्राप्यैव विघटते, शुष्ककुख्यापतितशुष्कचूर्णमुष्टिवत् । किञ्चित्पुनः स्पृष्टं बद्धं च स्यातच कालान्तरेण विघटते, आर्द्रकुख्या- तृतीयनाकायो- पंतितशुष्कचूर्णमुष्टिवत् । किञ्चित्पुनः स्पृष्टं बद्धं निधत्तं च स्यात्तञ्च बहुत्तरकालेन विवटते, आर्द्रकुडयापाततसस्नेहचूर्णा- मान्वयेक
पिण्डवत । किश्चित्पुनः स्पृष्टं बर्द्ध निधत्तं निकाचित्तं च स्यात्तच जीवेन सहकत्वमापन्न कालान्तरेण वेद्यत इति । किंचिशिष्टः मवन्यादि साधुरित्याह-'कमियभो 'सि कार्मिकभोजी-लौल्यनिःशूकत्वाभ्यामाधाकर्माभ्यवहरणशीलः । अत्र च शीलार्थप्रत्ययो
स्वरूपम्॥ पादानं कारणानाभोगतदोवृनिरासाथै, साधुर्मुनिरिति योजितमेव । ननु कथमिदमवसीयते ? यदुतोक्तविशेषणः साधुरष्टापि कर्माणि बघ्मातीत्यादि, एतदाशङ्कयाह-' भणिय 'मित्यादि, यद्यस्मात्कारणाद्भणितं प्रतिपादितं, सुधर्मस्वामिनेति
गम्यते, क? भगवत्यां-विवाहप्रज्ञप्ती [ प्रथमे शते नवमोद्देशके ], किमर्थापच्यादिना ? नेत्याह- स्फुटं' प्रक, तथा च दा तत्सूत्रं-" आहाकम्भ णं झुंजमाणे समणे निग्गथे कि बंधइ ? किं पकरेइ ? किं चिणइ ? किं उवचिणइ १ । गोयमा ! |
आहाकम्म मुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपयडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ, हस्सकालठिईयाओ दीहकालठिईयाओ पकरेह, मंदाणुभावाओ तिवाणुभावाओ पकरेइ, अप्पपएसग्गाओ बहुपएसम्गाओ पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंघ सिय नो बंधह, आसायावेयणिजं च कम्म भुञ्जो मुजो उचिणइ, अणाइयं च णं 'अणषयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियनह । सेकेणऽद्रेणं मंते ! एवं बुचा ? आहाकम्भ णं झुंजमापो जाव अणुपरिअर, गोयमा! आहाकम्मं झुंजमाणे आयाए धम्म अइकमाइ, आयाए धम्म अइक्कममाणे पुढविकार्य नावकखइ ५,
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जात्र तसकार्य नावखड़ । जेसि पि य णं जीवाणं सरीरयाई आहारमाहारेह ते वि जीवे नात्रकंखड़, से एणद्वेणं गोयमा ! एवं बुचइ - आहाकम्मं णं गुंजमाणे जाव अणुपरिअ" ति । इदं च सुगमं, नवरं ' आउयजाओ 'ति । यस्मादेकत्र मवग्रहणे सकदेवान्तर्मुहूर्त्तमात्रकाल एवायुपो बन्धस्तत उक्तमायुर्वज इति । 'सिढिलबंधणबद्धाओ 'ति श्रथबन्धनं-स्पृष्टता वा बद्धता वा निघलता वा तेन ' बद्धा' आत्मप्रदेशेषु सम्बन्धिताः, पूर्वावस्थायामशुभतरपरिणामस्य कथञ्चिदभावात् शिथिलबन्धननद्धा, एताश्वाशुमा एव द्रष्टव्याः, आधाकर्म्म भोजिनिर्ग्रन्थस्य निन्द्राप्रस्तावाद । ताः किमित्याह-'वर्णिययंत्रण बाओ पकरेति 'ति गाढतरबन्धनबद्धा - बद्धावस्था वा निघत्तावस्था वा निकाचितावस्था वा प्रकरोति । प्रशब्दस्यादिकर्मार्थत्वात् सकदाषाकम्मभोजनेऽपि कर्त्तुमारभते, आधाकर्म्म भोजित्वस्याशुभयोगरूपत्वेन गाढतरप्रकृतिबन्धनहेतुत्वात्, आह च-' जोगा* पयडिपएसं 'ति, पौनःपुन्यसम्भवे तु तस्य ताः करोत्येवेति । तथा इस्त्रकालस्थितिकाः दीर्घकालस्थितिकाः प्रकरोति, तत्र स्थितिः - उपात्तकर्म्मणोऽवस्थानं, तामल्पकालां महतीं करोतीत्यर्थः, आधाकर्म्मभोजित्वस्य लौल्यनिमित्तत्वात् तस्य च कषायरूपतया स्थितिबन्धहेतुत्वात्, आइ च- 'टिई अणुभागं कसायओ कुणइ 'त्ति । तथा मन्देत्यादि, इहानुभावो - विपाको रसविशेष इत्यर्थः, ततश्च मन्दानुभावाः- परिपेलवरसाः सती तीव्रानुभावा- गाढतररसाः प्रकरोति, आधाकर्म्मभोजित्वस्य कषायरूपत्वादनुभागबन्धस्य च कषायप्रत्ययत्वादिति । तथा 'अप्पपए से 'त्यादि ' अल्पं ' स्वोकं ' प्रदेशां' कर्म्मदलिकपरिमाणं यासां तास्तथा, ता बहुप्रदेशाग्राः प्रकरोति, प्रदेशबन्धस्यापि योगप्रत्य
* " योगात् प्रकृति प्रदेशबन्धौ भवतः " X" निमित्तत्वात् " इति अ. प्रतिकृतौ पर्यायौ ।
प्रभु
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पिण्डविशुद्धि ०
काद्वयो
पेतम्
1७॥
"
यत्वादाधाकर्मभोजित्वस्य च योगरूपत्वादिति । तथा 'आउयं चेत्यादि, आयुः पुनः कर्म, स्यात् कदाचिद्रघ्नाति स्यान वध्नाति यस्मात् त्रिभागाद्यचशेषायुषः परभवायुः प्रकुर्वन्ति तेन यदा त्रिभागादिस्तदा बध्नाति, अन्यदा न नातीति । तथा' असाये 'स्यादि, असातावेदनीयं च दुःखवेदनीयं कर्म पुनः 'भूयोभूयः' पुनःपुनः 'उपचिनोति' उपचितं करोति । ननु कर्म्म सप्तान्तर्त्तित्वादसातावेदनीयस्य पूर्वोक्तविशेषणेभ्य एव तदुपचयप्रतिपत्तेः किं* तद्ब्रहणेन ? इत्यत्रोच्यते-आधाकर्म्मभोजी अत्यन्तं दुःखितो भवतीति प्रतिपादनेन मयजननादाधाकर्म्म भोजित्वनिरासार्थमिदमित्यदृष्टमिति । अणाइयं 'ति अविद्यमानादिकं 'अणवयग्गं 'ति 'अवयग्ग'त्ति देशीवचनो अन्तवाचकस्ततस्तन्निषेधात् 'अणवयग्गं' अनन्तमित्यर्थः । अतएव 'दीहमद्धं 'ति 'दीर्घाद्ध' प्रभूतकालं 'चाउरंत' ति चतुरन्तं देवादिगतिभेदाच्चतुर्विभागं तदेव स्वार्थिक+ प्रत्ययोपादानाचातुरन्तं 'संसारकान्तारं ' भवारथ्यं ' अणुपरिग्रह 'त्ति पुनःपुनभ्रमति । ' आयाए 'त्ति आत्मना 'घ' चारित्रधर्मं श्रुतधर्मं वा । 'पुढविकार्य नावकंवह 'ति पृथ्वीकार्य नापेक्षते- नानुकम्पत इत्यर्थं इति । एवं चानेन गाथासूत्रेणात्मनः कबन्धाभिधानादात्मकम्र्मेत्यभिहितमिति गाथार्थः ॥ ७ ॥
एवं तावन्नामान्यर्थप्रतिपादनद्वारेण प्रथमदोषं व्याख्याय साम्प्रतं तमेव विशेषतो व्याचिख्यासुरिमां द्वारगाथामाह - दी० – अष्टावपि कर्माणि ज्ञानावरणादीनि 'अधो' नरके बध्नाति X प्रकृति-स्पृष्टरूपाभ्यां प्रकरोति-स्थिति- बद्धरूपाम्यां, * * किमेतदुग्र० ” अ. य. । + " इकण्” इति पर्यायो अ. पुस्तके । " स्वार्थेऽण् " मां० ।
X प्रकृत्यादिस्वरूपं मोदकदृष्टान्तेन ज्ञातव्यं, यथा-प्रकृत्या कश्चिन्मोदको वातं हरति कश्चितपित्तं कचि लेष्माणं स्थित्वा
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आद्यदोषचरमनामान्वये क र्मबन्धादि
स्वरूपम्
॥७॥
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चिनोति - अनुभाग-निधत्तरूपाभ्यां उपचिनोति- प्रदेश निकाचनारूपाभ्यां कः ? कार्मिकमोजी साधुः, भोजीति तच्छीलार्थ इन् कारणे तद्भोक्तृनिरासार्थः । किमिदं स्वमनीषिकयोच्यते ? इत्याह-यद्भणितं सुधर्मस्वामिना 'भगवत्यां पञ्चमाङ्गे स्फुटं, आलापकार्थ एवात्रोक्त इति गाथार्थः । एवमात्मनः कर्मबन्धादात्मकर्म ॥ ७ ॥
उक्तो नामचतुष्टयार्थः, साम्प्रतं तदेव नवभिर्द्वा रैर्विशेषेणाह -
तं पुण जं जस्सं जहाँ, जारिसॅमसणे य तस्स जे दोसा । दाणे य जहा पुच्छा, छलर्णा सुद्धी य तह वोच्छं ॥ ८ ॥
व्याख्या -- तदाधाकर्म्म, पुनः शब्दो विशेषणार्थः, यत्किञ्चिदशनादिकमुच्यते, तदहं वक्ष्ये इति गाथाऽन्त्य क्रियया योगः, एवमन्यत्रापि वक्ष्यति च-' असणाइच उन्भेय 'मित्यादि १ तथा यस्य निमित्तं कृतं तत्स्यात्तं वक्ष्ये, वक्ष्यति च'साहम्मिय से 'त्यादि २ । तथा 'जह'त्ति यथा-यैः प्रकारैः प्रतिषेषणादिभिस्तत्स्यात्तान्वक्ष्ये, वक्ष्यति च-' पडिसेवणे 'त्यादि ३ | तथा 'यादर्श' यस्य वस्तुनस्तुल्यं तत्स्यात्, भणिष्यति च- 'वंतुच्चारसुरे 'त्यादि ४ । तथा ' अशने ' मोजने तस्याधाकम्मैदोषवतः पिण्डस्य येऽतिक्रमादयो दोषाः स्युः, वक्ष्यति च ' कम्मरगहणे 'त्यादि ५ | तथा 'दाणे कश्चिद्दिनमेकं कश्चिद्धर्थं कचित्रयं, अनुभावेन स्निग्धमधुरस्वलक्षणेन कश्चिदेकगुणानुभावः कश्चिद्विगुणानुभावः कश्चित्रिगुणानुभावः, 'प्रदेश:- कणिकादिद्रव्यरूपैः कश्चिदेकप्रसृतिप्रमाणः कश्चिद्विप्रसृतिप्रमाण अपरविप्रसृतिप्रमाणः, एवं कर्मापि किचिज्ज्ञानमावृणोति किचिद्दर्शनं किचित्सुखदुःखे जनयतीति । "स्वमनीषिकया ? इत्याह" क. अ. प. म. ।
C
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पिण्ड
शुद्धि० काद्वयो
पेतम्
॥ ८ ॥
'चि 'दाने' वितरणे गृहस्थस्य ये दोषा यतिसत्कचरणघातादयः स्युस्तान्वक्ष्ये च शब्दो दोषानुकर्षणार्थः तथा च वक्ष्यति 'जहणो चरणे'त्यादि ६ । तथा 'जहा पुच्छ 'त्ति 'यथा' येन प्रकारेण देशाद्यनुचित + भक्तदानादिलक्षणेन 'पृच्छा' प्रश्नः सम्भवति, वक्ष्यति च 'देसाणुचियं बहुव्व 'मित्यादि ७ | तथा 'छलण 'चि 'छलना' साधोर्भिक्षार्थं प्रविष्टस् तथाविधकारणैरनेषणीयाऽऽशङ्काऽभावादशुद्ध भक्तग्रहणरूपा व्यंसना यथा स्यात्, वक्ष्यति च- 'धोवंति न पुढ' मित्यादि ८ । तथा 'सुद्धी 'ति 'शुद्धिः' कथञ्चिदशुद्ध पिण्डग्रहणेऽपि निर्दोषता यथा स्यादेतद्विपक्षत्वाचाशुद्धिर्यथा स्यात्, च शब्द उक्तसमुचये । 'तह वोच्छं 'ति । ' तथा 'तेन शुद्ध ग्रहणपरिणामादिना प्रकारेण 'वक्ष्ये' अभिधास्ये, वक्ष्यति च - 'आहाकम्मपरिणओ' इत्यादि ९ । इति द्वारगाथा समासार्थः ॥ ८ ॥ सम्प्रत्याद्यद्वारं व्याचिख्यासुराह—
दी० - 'तत्' आधाकर्म, पुनर्विशेषोक्तौ यद्भक्तादि १, यस्य कृते कृतं स्यात् २, यथा-यैः प्रकारैः ३, यादृशं यत्तुल्यं ४, अशने च तस्य ये दोषाः ५, दाने दातुश्च ये [ दोषाः ] ६, यथा पृच्छा-बाह्याचरणदर्शनात्प्रश्नः ७, छलना अनेपणीयाशङ्काभावादशुद्ध ग्रह ८, शुद्धिव- सदोषपिण्डग्रहणेऽपि निर्दोषता ९, तथा वक्ष्ये इति गाथार्थः ॥ ८ ॥ अथाधद्वारमाहअसणाइचउन्भेयं, आहाकम्ममिह बेंति आहारं । पढमं चिय जइजोग्गं, कीरतं निट्ठियं च तहिं ॥ ९ ॥ व्याख्या – 'असणाइचउन्भेयं' ति 'अशनं' भोजनं 'आदि:' प्रथमं येषां पानखादिमस्वादिमानां ते तथा, + "सदानादिभक्तलक्षणेन" अ य । "तदानादिलक्षणेन इ. क. प. 1
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उद्गमा
द्यदोष
निरूपणे
द्वारनवक* नामानि ॥
11-211
"
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ESSACR
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हैं| तेच 'चत्वारः' चतुःसङ्ख्या 'मेदाः' प्रकारा यस्य स तथा, तं आहारमिति योगः। तत्राशन-शालितन्दुलसूपादि,
पानं-सौवीरतन्दुलयामादि, सादिर्भ फलपुयादि, रूदिक-हरीतकीशुण्ठ्यादि । इमं च किमित्याह-'आहाकम्ममिह बॅति'ति आधाकर्म इह-जिनप्रवचने, न तु शाक्यादिशासने, अथवा इहेति पिण्डविशुद्धिपक्रमे, अन्यथा यद्गेहादिक चीयते वस्त्रादिकं +व्यूयते तुम्बकादेश्च यन्मुखादि क्रियते तदपि, युवते-प्रतिपादयन्ति, गणधरादय इति गम्यते ।। 'आहार' पिण्डमिति योजितमेव । किमविशेपेणेव? नेत्याह-'पढम'मित्यादि, प्रथम-मादौ “चिय-चेव-एवार्थे " इति वचनात् 'चिय'शब्द एवाथें द्रष्टव्यस्तस्य च प्रयोग दर्शयिष्यामः । 'यतियोग्य' साध्वर्थ, उपलक्षणत्वात् गृहिनिमिचं च 'क्रियमाणं' कर्तुमारब्धं तथा 'निष्ठितं' निष्ठां प्राप्तं-साधुग्रहणयोग्यतां गतमित्यर्थः, चः समुच्चये 'तहिं' ति प्राक्तनावधारणस्येह सम्बन्धात्तत्रैव-साध्वर्थमेव यतिनिमित्तमेवेत्यर्थः । अनेन च वक्ष्यमाणे प्रथम-तृतीयभङ्गद्वये आधाकर्म मवति, नान्यत्यावेदितमिति गाथार्थः॥९॥'जहजोग्गं करतं, निद्वियं च तहिं'तीत्युक्तं, अनच क्रियमाणं निष्ठितमिति पददयेन भङ्गचतुष्कं चितमतस्तत्प्रतिपादनार्थमाह
दी-अशनं १, आदिशब्दापानं २ खादिमं ३ स्वादिमं ४ चेति चतुर्भेदमाहारं 'इह' जिनमते पिण्डविशुद्धौ वा तद्विद आषाकर्म त्रुवते, कीदर्श ! प्रथममेव यतियोग्य मिश्रं वा 'क्रियमाणं' कर्तुमारब्धं 'निष्ठित' निष्पादितं वा 'तस्मिन् ' यत्यर्थे, इति गाथार्थः ॥९॥ कृतनिष्ठितयोश्चतुर्मङ्गीमाह
+ " यूयते " अ० | "धूयते-अयते " इत्यपि प्रत्यन्तरे । - जैनमते" प. अ.।
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पिण्ड-1 तस्स कड तस्स निद्रिय, चउभंगो तत्थ दुचरिमा कप्पा। फासुकडं रद्धं वा, निट्रियमियरं कडं सव्वं ॥१०॥|| लघुचा विशुद्धिक व्याख्या-'तस्स कड तस्स निट्ठिय'ति विभक्तिलोपात्तस्य कृतं तस्य निष्ठितमिति वाक्थे 'चउभंगो 'सि चतू
बुद्गकाद्वयो- रूंपो भङ्गश्चतुर्भङ्गो,जातिनिर्देशाचत्वारो भङ्गा भवन्तीत्यर्थः। तत्रायः कण्ठोक्त एव ११ तदुपलक्षितास्त्वन्ये त्रय इमे-तस्य कृत
माद्यदोषपेतम् मन्यस्य निष्ठितं २, अन्यस्य कृतं तस्य निष्ठितं ३, अन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितमिति ४। तत्र तस्येति प्रस्तावात्साघो
निरूपणे निमिन्दं कृतं' गर्नुशार मा यति सामोरेव निमित्तं निष्ठितमिति सर्वथा प्रासुकीभृतं राद्धं वेति प्रथमः १ । तथा
कतनिधि तस्य कृतमिति पूर्ववत् , ततो दातुः साधुगोचरदानपरिणामापगमादन्यस्येति गृहस्थस्य निमित्तं, निष्ठितमिति पूर्ववदिति
तयोश्चतुद्वितीयः २ । तथाऽन्यस्य कृतमिति पूर्ववत् , ततो दातुः साधुविषयदानपरिणामभवनात क्रियान्तरप्रवर्चने तस्य निष्ठित
मसी ॥ | मिति पूर्ववदिति तृतीयः ३ । तथा अन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितमिति पूर्ववदिति चतुर्थः ४ । 'तस्थ 'त्ति तत्र-तेषु चतुर्यु भङ्गेषु । मध्ये 'द्विचरमौ' द्वितीयचतुर्थों, तो किमित्याह-'कप्प'त्ति कल्प्यौ-साधोरासेवायोग्यौ, एतद्धर्तिभक्तादेः शुद्धत्वात् , प्रथमतृतीयौ त्वकल्प्यावेव, तत्सम्मविभक्तादेः पूर्वमाधाकर्मत्वेनाभिहितत्वात् । अथ कृतनिष्ठितस्वरूपमाह-'फासुकड'मित्यादि, प्रगता 'असवः' प्राणा यस्मात्तस्मासुकं-निर्जिवं 'कृतं' विहितं यत्तन्दुलादि, तथा 'रद्धं बत्ति राद्ध-संस्कृतं, वा समुच्चये, सत्किमित्याह-'निष्ठितं' निष्ठाङ्गतमभिधीयत इति शेषः। तथा 'इयर'ति 'इतरत्' अन्यत्-यन्त्र प्रासुकी कृतं यच्च न राद्धं, | तत्किमित्याह- कृतं' कृताख्यं 'सर्व' निरवशेषमिति गाथार्थः ।। १०॥ एनमेवार्थ दृष्टान्तपुरस्सरं विशेषेणाहदी-'तस्य' साधोर्योग्यं कृतं तस्य निष्ठितमित्येको मङ्गः १, तदुपलक्षितात्रयोऽन्ये, यथा-तस्य कृतमन्यस्य निष्ठितं
॥९ ॥
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कन्न
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२, अन्यस्य कृतं तस्य निष्ठितं ३, अन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितं ४ चेति । तत्र तेषु द्वितीयचतुर्थों भङ्गो 'कल्प्यौ' शुद्धौ।। कृतनिष्ठितयोलेक्षणमाह-'प्रासुकं' निर्जीव यत्तन्दुलादि कृतं राद्धं वा तनिष्ठितं, इतर-द्विपरीतं कृताख्यमिति गाथार्थः ॥१०॥
अमुमेवार्थ दृष्टान्तेनाहसाहुनिमित्तं ववियाइ, ता कडाजाव तंदुला दुच्छडा। तिछडाउनिट्ठिया पा-णगाइ जहसंभवं नेजा ॥११॥
व्याख्या-'साधुनिमित्तं यत्यर्थ 'वविधाइ ति 'उप्ता' सेपिता, आदिशब्दाल्लून पूनादिपरिग्रहः, तन्दुला इति योगः। 'ता'इति तावत् , किमित्याह-'कृताः' कृताख्या, भण्यन्त इति शेषः । इह च सर्वत्र 'क्रियमाणं कृत'मिति वचनात्, " 'कृतं' क्रियमाणं व्याख्येयं । 'जाव'ति यावत् 'तन्दुला:' शाल्यादिकणाः 'दुच्छड 'ति द्वौ 'वारी' छठिताः' कण्डिताः। अत्र च तन्दुलानामुप्तलूनादिविशेषणानि प्रस्थककारणादारुणि प्रस्थकव्यपदेशवत कारणे कार्योपचारादचसेयानि । तथा 'तिछडा उति त्रीन् वारान् 'छटिताः' कण्डिता इत्यर्थः । तुः पुनरर्थ, ततश्च याव[]
द्विछटितास्तावत्कृताः, विश्छटिताः पुनस्त एव 'निष्ठिता'निष्ठिताख्या, भण्यन्त इति प्रक्रमः । अत्र च विशेषज्ञापनाथ वृद्धसम्प्रदायः कश्चिदुच्यते, यथायदि प्रथमां द्वितीयां वा बारां साधुनिमिचमात्मनिमित्तं वा करटिं छटित्वा तन्दुलाः कृतास्तृतीयां वारां त्वात्मनिमित्वं छटिता राद्धा वा, ते साधूनां कल्पन्ते । यदि तु प्रथमां द्वितीयां वा बारां साधुनिमित्तं स्वनिमित्तं वा तृतीयां चारा तु साधुनिमित्तमेव कण्डिता, राद्धास्त्वात्मनिमित्तं, ते एकेपामादेशेन एकेनान्यस्मै दचास्तेनाप्यन्यस्मायित्यादिरूपेण यावत् सहस्रथे स्थाने गतास्तावन्न कल्पन्ते, ततः परं कल्पन्ते, अन्येषां तु न कदाचिदपि । यदि तु प्रथमां द्वितीयां वा वारां साधु
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पिण्ड- या निमित्त स्वनिमित्तं वा तृतीयाँ वासं त्वात्मनिमित्तमेव कण्डिता, राद्धाः पुनः साधुनिमित्तमेव, ते न कल्पन्ते । यदि तु || | लघुाची प्रथमा द्वितीयां वा बारां साधुनिमित्तमात्मनिमित्तं वा तनीयबारां तु साधुनिमित्तमेव कहिता राद्धाश्च तदर्थमेव, तेऽपि ।
कृतनिष्ठिअंसाधूनामकरप्या एव, निष्ठिततन्दुल ४ तत्पाकजनितद्विगुणाधाकर्मदोषदृष्टत्वात् । एवमशनाहारमाश्रित्योक्तं, अथ पान- 18 तयोविशेषपेतम् काद्याहारमगीकृत्योच्यते-'पाणगाइ जहसंभवं नेज' ति | पानक-द्वितीयाहारभेदस्तदादि-'प्रथमं यस्य तत्तथा,
स्वरूपम् ॥ तत्कर्मतापक्रमादिशब्दात् खादिमस्वादिग्रहः । तस्किमित्याह-'यथासम्भवं' कृतनिष्ठितसम्भवानतिक्रमेण 'नयेत् । प्रज्ञापकः कर्ता श्रोप्रतीतौ प्रापयेत् । तथाहि-पानकं यतिनिमित्तखातपादिगतं तदर्थमेव च तत आनीतं यावत्थामृतपरिणामेनैव का प्रासुकी क्रियमाणं नाद्यापि सर्वथा प्रासुकी भवति तावत्कृतं, ततस्तथाभूतपरिणामेनैव कर्वा कथनादिना सर्वथा प्रासुकी कृतं तु निष्ठितं । स्वादिम-कर्कटिकादाडिमाप्रमातुलिङ्गकुष्माण्डवृन्ताकादि, तत्साधुनिमित्तमुप्त यात्रचथाभूतपरिणामेनैव दात्रा तत खण्डीकृत, तथाभूतं च क्षणे क्षणे प्रासकी भवत्सद्यावत्तत्परिणामस्यैव दातुर्माद्यापि सवथा प्रासुकी भवति तावत् कृतं, ततः साधुनिमित्तमेव रन्धनादिना प्रामुकी कृतं तु निष्ठितं । स्वादिम-भुङ्गाबेरादि, तदपि खादिमबदवसेयं । ननु स्वादिम-शङ्गबेरादीत्ययुक्तमुक्त, सिद्धान्ते तस्याशनाहारमध्ये अधीतत्वाद, तथाचाहावश्यकर्णिकार:"असणे अल्लगमूलग-मंसाइ"ति, न, अराद्धप्रासुकावस्थस्य स्वादिमत्वात् , तस्यैव साधुग्रहणयोग्यत्वेन मुख्यरूप. +" तमात्मनिमित्तं वा" मां०1*"सेऽपि न कल्पन्त एव" य. अ.ह.क. प. "तन्दुलाया ( सम्पन्न इति पुयायः) तत्पाक" अ०।०तन्दुलायात सत्पाक" य. ह.क.8"दिमपरिग्रहः" अ. " यथाहि" अ.प. य.इ.क.
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तयेह चिन्तयितुमभिप्रेतत्वात् , आह च- . “सचित्तभावविकली-कयम्मि दवम्मि मग्गणा होई । का मग्गणा? उ दम्बे, सचेयणे फासुभोईणं ॥१॥"
'मागणे 'ति आधाकम्मविचारणेत्यर्थः । तथेह सर्वत्र भक्तपानादेस्तदर्थ निष्ठागमने दातुः साध्वर्थ क्रियाविशेषो द्रष्टव्यो, न तु तद्दानपरिणाममात्रमेव, क्रियाशून्यस्य तस्यादुष्टत्वात् । यदाह"न खलु परिणाममेत्तं, पयाणकाले असक्कियारहियं। गिहिणोतणयं तुजई, दूसइ आणाइ पडिबद्धं ॥१॥"
तथा विमिनदेयमाश्रित्य स्वभोग्याद्यत्र वस्तुनि सङ्कल्पनं क्रियाकाले तदष्ट, विषयोऽनयोः पुण्यार्थ यावदर्थिकयोरित्यर्थः । स्वोचिते तु यदारम्भ तथा सङ्कल्पनं क्वचिन्न दुष्ट, शुभभावत्वात, तच्छुद्धापरयोगबत् । अत्र च भक्ताधाकर्मसम्भवप्रदर्शकमिदमुदाहरणं, यथा-अणेगकुलसयसंकुलो कोदवरालभरपउरभिक्खो सुलभरमणिअवसहीसंजुओ निद्वापायसज्झायनिबाहो एगो गामो अत्थि। नत्थ य (जिणदत्तो नाम) सावओ परिवसह, साहू य तत्थ एंति, परं आयरियाइपाउग्गो सालिकरो | नस्थि ति सावरण मण्णमाणावि न चिट्ठति । अन्नया खेतपडिलेहणत्थं केइ साहुणो तत्थ आगया, ठिया कइवि दिणे, तओ गुरुपाउग्गं नस्थि चि अणभिरुइयखेता पट्टिया गुरुसमीवं । तओ सावएणं एमो साहू पुच्छिओ-'किं तुभं खे रुइयं न वति । तओ तेण साहुणा उज्जुगचेय उ भणियं-'जुञ्जइ गणस्स खेतं, परं गुरुपाउग्मो सालिकरो नत्यि'ति । तओ | गएसु तेसु विनायपरमस्थेण इमिणा वाविपाणि सालिबीयाणि, जाया य बहवे सालिमृडया, अनया य पोयणक्सेण ते असे वा साहुणो भागए दट्टण तेण चिंतियं-तहा एएसिं सालिकरं देमि जहा विनायपउरपाउग्गदवसंभवा गुरुणो आणति]
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पिण्डविशुद्धि ० टीकाइयो
पेतम्
॥ ११ ॥
त्ति (?) अहाकम्मिय संकं च न करेंति ति । तओ Xबिरिंचिऊण सयणाईन दिनो साली, भणिया य - ' सयं खाएजह साहूणंपि दिजह' । तेहिं तहेव रद्धो । इमो य वयरो नाओ बालाईहिं, साहुणो य एसणोवउत्ता भिक्खं हिंडता तेर्सि संक सुणंति, जहा एगो +भणइ 'एए ते साहुणो, जेसि अट्ठार घरे घरे सालिकूरो रो' । अन्नो +भणइ-मम घरे एएहिं लद्धी, अवरोह-अपि एस तं दाहामि, अमो *मावरं भणइ - एवं साहूणं देहि देहि, अन्नो भगइ - थक्के थकावडियं संपन्न, जेण अभचए सालिभत्तयं जायं । एत्थ लोइओ दितो नेओ, जहा-काइ महिला भणइ - " मज्झ य पहस्स मरणं, दियरस य मे मया भज्जा । तो कालाणुरूवमिमं संवृत्तं "ति । तहा अनो जणणि मणइ-चाउलोदगं देहि, अन्नो आयाम, अन कंजि, इच्चाइ बालाइजणजंपियं सोउं पुच्छंति - किमेवं ? ति । तओ ताणि उज्जुगाणि कहति, माइडाणियाणि पद्मवियाणि वा परोपरं निरिक्खंति । एवं च नाऊण ताणि घराणि परिहरंता तत्थेव अनघरेलु भिक्खं हिंडंति, आणि पुण पचास गामे वयंति त्ति । एतदनुसारतस्तु पानादीनामपि सम्भवो भावनीय इति गाथार्थः ॥ ११ ॥
प्रतिपादितमाघाकर्म्मस्वरूपप्रतिपादकं प्रथमद्वारमथ यस्येति द्वितीयद्वारावसरः, तत्र यस्य कृते कृतमाधाक च कृते कृतं न स्यादित्येतदभिधित्सुराह---
स्याद्यस्य
दी० - साधुनिमिषताः शाल्पादयोरोपिताः, आदिशद्वालूनादि ज्ञेयं तावत्कृता यावत्तन्दुला द्वौ वारौ ' छटिता: ' (a): श्रीनू वाटिताः पुनस्त एव निष्ठिताख्याः स्युः, इदमशनमाधित्योक्तं, इतराश्रितमाह-पानकादिशेषxविरंचिण] [ विभज्य ] " अ. इ. क. प. + "पभणई" अ. 1 * "सायर" सादरमिति पर्यायोऽपि अ. ।
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लघुघुतावाघाकर्म४९ सम्भवप्रद कोदा
हरणम्.
॥ ११ ॥
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माहारप्रयं यथासम्भवं नयेत् , कोऽर्थः ?, साध्वर्थ कूपादिखनन १चिर्भटिकादि २हरीतक्याद्यारोपणादि ३मात्रैः कतनिष्ठिते (प्रतीते), श्रोतृप्रतीतौ प्रापयेत् । अत्रोदाहरणं-एकस्मिन् ग्रामे कदशनाहारिणि सूरियोग्यभक्तालामात्साधवः मूरि नानयन्ति, श्रावकश्चैकस्तदृत्कण्ठितः । अन्यदा केषानित्साधूनां वर्षाक्षेत्रं विलोक्यानिच्छया पश्चाद्गच्छतां तेन साधुरेकः पृष्टःकुतः क्षेत्रं न रुचितं , स च ऋजुको गुरुप्रायोग्यशाल्योदनाद्यभावादित्याह । ततस्तेन वर्षाकाले शालिरुतो बहुकश्च जातो, यतिध्वागतेषु स्वजनगृहेषु शालीन् दत्वा भणितं-स्वयं भोक्तव्यः साधूनाश्च दातव्यः, तैस्तथा कृते 'मावर्थ शालि'रिति चालकाद्यालापाद् बाह्यलिङ्गैथानेषणां ज्ञात्वा ते न जगृहुः । एवं पानकाद्याहारेध्यपि लक्ष्यमिति गाथार्थः ॥ ११॥
उक्तं यदिति द्वार, साम्प्रतं यस्येति द्वितीयमाह--- साहम्मियस्स पश्यण-लिंगेहिं कए कयं हवइ कम्म। पत्तेयबुद्धनिण्हय-तित्थयरट्ठाए पुण कप्पे ॥१२॥
व्याख्या-साहम्मियस्स'त्ति 'समानेन' तुल्येन 'धर्मेण' स्वभावेन चस्तीति साधर्मिको, विक्षितसहशपर्यायबानित्यर्थः, तस्य कथमिह साधम्मिकता ग्राह्येत्याह-'पश्यणलिंगेहिं 'ति, प्रवचनं च लिङ्गं च प्रवचनलिङ्गे, ताम्यां ।। तत्र प्रवचन-सकलजीवादिपदार्थप्ररूपकं अत्यन्तानवद्यचरणकरणप्रवर्तकं अचिन्त्यशक्तिकलितं अविसंवादकं भवार्णवमणपरमबोहित्थकल्पं द्वादशाझं, तस्य च निराधारस्याऽसम्भवाचदाधारभूतः सोऽपि प्रवचनं, तथा 'लिजयते' चिह्नघते साधुरनेनेति लिङ्गजोहरणास्वपोतिकागोच्छकपात्रकादीनि । 'कए'ति 'कते' निमित्तं 'कयं "ति 'कृतं' विहितं, अनादि-इति गम्यते भवति' जायते, किमित्याह-'कम्म' ति सूचकत्वादाधाकर्माभिहितशब्दार्थ, इदमुक्तं भवति
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पिण्ड
विशुद्धि ० टीकाद्वयो
पेतम्
॥ १२ ॥
उक्तरूपप्रवचनलिङ्गाभ्यां सङ्घान्तर्वर्त्तिसाधूनां सङ्घान्तर्वर्त्तिसाधु-रेकादशप्रतिमाप्रतिपसश्रावकश्च साधम्मिको भवति, तस्य कृते अशनादि कृतं आधाकर्म भवतीति । अनेन च प्रवचनतः साधर्मिको न लिङ्गतः १, लिङ्गतो न प्रवचनतः २, प्रवचनतो लिङ्गतच २, न प्रचचनतो न लिङ्गतः ४, इति सिद्धान्तप्रसिद्ध चतुर्भङ्गीतृतीय भङ्गवर्त्तिसाधम्मिकार्थं कृतं न कल्पत इति प्रतिपादितं । एतद्वर्ण्य शेष भङ्गत्रयसम्भविसाघम्मिकेभ्यस्तु कृतं कल्पत एवेत्याह 'पत्तेयबुद्धनिण्ये' त्यादिपश्चार्द्ध-तत्रैकं वृषभादिनानिमित्तं प्रतीत्य बुद्धाः प्रत्येकबुद्धाः - समयप्रसिद्धसाधुविशेषाः, ते च सम्भवे सति जघन्यतो रजोहरणमुखपोतिका - मात्रोपकरणकलिता उत्कृष्टतस्तु चोलपट्टक मात्रक कल्पनिक वर्जित नवविधोपधिधारिणः तथा नियमतो जघन्यत एकादशाङ्गश्रुतविद उकृष्टतस्तु भित्रदशपूर्वश्रुतवेदिनः, तथा देवताऽर्पितलिङ्गाः ' रूप्पं पत्तेयबुद्ध 'त्ति वचनालिङ्गयर्जिता वा भवन्तीति' तथा 'निन्दुर' सामान निराकुर्वन्तीति निन्हवा - जमालि-तिष्यगुप्तप्रभृतयः । तथा येनेह जीवा जन्मजरामरणसलिलं मिथ्यादर्शनाविरतिगम्भीरं महाभीषणकषायपातालं सुदुरुत्तरमहामोहावर्तरौद्रं विचित्र दुःखौघदुष्टश्वापदगणं रागद्वेषपवनप्रक्षोभितं सन्ततसंयोगवियोगतरङ्गदुर्गमं प्रबलमनोरथवेलाकुलं संसारापारसागरं तरन्ति तत्तीर्थ, तच्च प्रवचनं तदाधारत्वाच्चतुर्वर्णश्रमण सङ्घश्व, तत्कुर्वन्तीति तीर्थकराः शास्तारः, एतेषामर्थाय - निमित्तं कृतमशनादीति प्रक्रमः । पुनः शब्दो भिवाक्यताप्रतिपादनार्थः । ' कल्पते ' गृहीतुं युज्यते । अयमिह भावार्थ:- प्रत्येकबुद्धास्तीर्थकराश्च प्रवचनलिङ्गातीतत्वात् ' न प्रवचनतो न लिङ्कत' इति चतुर्थे भङ्गे वर्त्तन्ते, अतस्तदर्थं कृतं कल्पते, आधाकर्मत्वाभावात् उक्तं च कल्प भाष्ये+ " भवतीति अ. 1 * " एववर्ज " प. ६. क. x " मुखवस्त्रिका " अ. य. ।
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यस्य कृतेकृतमाधा• कर्म स्यात्तनिरूपणम्
॥ १२ ॥
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" जीवं उद्दिस्त कर्ड, कम्मं सोविय जया उ साहम्मी । सोविय सहए भंगे, लिंगाईणं न सेसेसु ॥ १ ॥ " अस्या अपि व्याख्या-' जीवं ' प्राणिनं ' उद्दिश्य ' आश्रित्य ' कृतं ' विहितं यदनादि, तत्किमित्याह- 'कम्मं 'ति तदेवाषाकर्म स्यान्नान्यद्, अनेन च यदि कश्चिद् गृही मुग्धबुद्धिः स्नेहादिना गृहीतववज्यस्य मृतस्य जीवतो वा पित्रादेः प्रतिकृतेः पुरतो ढौकनाय बल्यादिकं निष्पादयति, तदर्थमेव मृतभक्तं वा कुर्यात् तदाघाक्रम्मं न भवतीति प्रतिपादिनं । सोऽपि च जीवो यदा तु साकः सोऽपि च साधम्मिको यदि वृतीयभङ्गे भवति 'लिंगाइणं'ति लिङ्गवचनयोरित्यर्थः, न 'शेषेषु' प्रथमद्वितीयचतुर्थेष्विति । किञ्च" साहम्मिओ न सत्था, तस्स कथं तेण कप्पड़ जईगं । जं पुण पडिमाण कर्म, सत्य कहा की अजीवत्ता ॥ १ ॥ " इह च कृतमित्यत्र तत्रत्यप्रक्रमवशादशनादीति शेषो दृश्यः । 'तत्'चि तत्र- प्रतिमार्थकृते 'कथे' ति कल्पयाकल्प्यविचारः, ' के 'ति न काचिदित्यर्थः । अजीवत्वादित्यवेतनत्वात्प्रतिमाया इति । अन्यच्च-“ संबद्दमेहपुप्फा, सयुं निमित्तं कया जड़ जईणं । न हु लग्भा पडिसिद्धुं किं पुन पडिमडमारहूं ? || १ || अन्यथा - " जड़ समणाण न कप्पर, एवं ऐगाणिया जिनवरिंदा गणहरमाईसमणा, अकप्पिए न विय चिति ॥ १ ॥ तम्हा कप्पड़ ठाउं, जह सिद्धायपणमिं होड़ अविरुद्धं "ति । ननु यदि तीर्थंकरार्थं कृत
X" मुग्धः स्नेहादिना " अ + " शास्ता " । १" का [कथा] वार्ता ?" । २" शास्तु स्तीर्थंकरस्य " ३ " यतीनां प्रतिषेद्धुं लभ्याः-यतीनां के आधाकर्मिका न भवन्तीति तत्सुतरां न प्रतिषेद्धुं उभ्यमिति मावः " । ४ " एकाकिनः” । ५ " [सिद्धायतने ] प्रासादे - समवसरणे " इवि पर्यायाः अ.
न
३
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पदोन | निकपणे | पम्यैनि
निरूपणम्।
माधाकर्म मयासतो माता पद निम्पादित अनिवाइनेपि नापो किन निवासादि क्रियते , उप-महावामनादीपप्रपना, भाइन "जामिन आहाफम्म, मासिका विजयत, मत्ती होकपा, मामायणा परमा ॥१॥" मनु पथा मन म्याहत सायाधार्मिकस्सादयति, तपा किसाबसम्पर्षणाहिक परमपिपसि, अपिया की दोषयाममतीही -"तिस्थपरमामगोषम, अपहातारपक्षमाभवा । पम्म को भरहा, पूर्व पाषात तु॥१॥ नीलामी भरका, कालियो भनिय जीर्षमणुप्रती। पंबितोपितहा, अपोखबहोत पूर्ण ॥२॥'सामध्य 'चियो भाषामायणम्य भाषा सामाी, मम्मा,
भापोवामणोपायुवाहकोमिः"स्पारयो मावासमा नाविवर्षन्ते, नीर्थकरजीयोपिनाम: बन्यो प्रसवपाविधनपतिमानसमावणार्म कथयति मा चारोप का देबाहितिनामिस्याई प्रमोनला तथा INTER न व हमि दितीपमोनिया, सरहियामिवाररिस्पेन प्रयपानवायरमाय, वर्ष, मतम्मदर्थमपि
Pawar कापि निनावरना स्प: काप्यावासमा यत्र स्थान बनेन डाला। स्पस्वत्र हिलीयम पा .कोकम मापुग्पा प्राणायामुक्तवतीयमा परन्त इति, तदान कम्पने। नया प्रवचनको न कि इस प्रथम मणिप्रतिमाधर्मप्रतिमायभायका एकवचनान्तविवादमोहरणादिसणसाघुशिलामावाद, पन्नस्यत्र " agfined ये निमम "| "जीत ] 4m [A] मी |
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कल्पते, यदाह -- x दस ससिहागा सावग - पवयणसाहम्मिया न लिंगेण । लिंगेण उ साहम्मी, नो पवयणनिम्हगा सव्वे ॥ १ ॥ " इति गाथार्थः ॥ १२ ॥
उक्त यस्येति द्वारं, साम्प्रतं यथेत्यस्यावसरः, तत्र च यैः प्रकारैराधाकर्म्मपरिभोगजन्यः कर्मबन्धः स्यात्तान् सष्टान्तानभिधातुमाह -
दी-प्रवचनलिङ्गाभ्यां साधर्मिकस्य कृते कृतं भवत्यकर्म, तत्र वचनं द्वादशाङ्गी तदाधारभूतः सोऽपि, लिङ्गरजोहरण-मुखखिकाएं ताभ्यां सङ्घान्तर्वर्त्ती यतिजन एकादश प्रतिमास्थः श्रावकश्च साधर्मिको ज्ञेयः । स च चतुर्द्धा, error सर्मिको न लिङ्गतः १, लिङ्गतो न प्रवचनतः २, प्रवचनतो लिङ्गतत्र ३, न प्रवचनतो न लिङ्गतः ४ । अन कल्पते, इतरभङ्गत्रयमवं तु शुद्धमित्याह- प्रत्येकबुद्धा जघन्यत एकादशाङ्गिन उत्कृष्टतस्तु + मिश्र(त्रुटित) दर्शपूर्विणो देवताऽर्पितलिङ्गा लिङ्गाय, निहवा जमाल्यादयः, तीर्थकरा- जिनास्तदर्थाय कृतं पुनः कल्पते, द्वौ प्रवचन लिहावी महे श्रेय निवास्तु द्वितीये, अर्हद्भिम्बवल्याद्यर्थमपि कृतं कल्पते, तृतीयभङ्गोक्त साधर्मिकजीवार्थ तु नैव नतु पये कल्पते तत्कथं न तद्भवने वासः ?, सत्यं, महाऽऽशातनादोषादिति गाथार्थः ॥ १२ ॥ यथेति देतीय सटान्तमाह
उक्त यस्
पडिलेवण-पडिमुणणी, संवासेऽणुमोर्येणाहि त होइ । इह तेणरायसुर्यपाल - रादुट्ठेहिं दिट्ठता ॥ १३ ॥
"
" दशमतिमास्याः आवेकाः सशिखाकाः शिखायुका भवन्ति " इति पर्याय: अ + “ अभिन क. ।
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पिष्ट
विशुद्धि० टीकाइयो -
पेतस्
॥ १४ ॥
म्याख्या--प्रतिषेत्रणं - प्रविषेवणा आसेवना परिभोग इति यावत् १ । तथा प्रतिश्रवणं प्रतिभवणा-कर्तुमिच्छतोऽनुज्ञादानलक्षणा २ तथा संत्रसनं संवासः, आघाकर्मभोजिभिः सहैकत्रावस्थानं ३ | तथाऽनुमोदनं अनुमोदना आघाकर्मभोजिप्रशं 'सनं ४ । अत्र च प्रतिषेवणा च प्रतिभवणा चेत्यादिद्वन्द्वः कार्यः, ततथैवाभिः प्रतिषेवणादिभिः क्रियमाणाभिः किमित्याद''ति तदाषाकर्म- तद्भोगादिजन्यः कर्मबन्ध इति हृदयं ' भवति जायते । एवं प्रतिषेत्रणादीनां उद्देशमात्रं कुत्रा, अथैतास्वेवोदाहरणान्याइ~'इहेति जसु प्रतिवेषणादिषु यथाक्रमं स्तेनाथ - चौराः, राजसुतव- नृपपुत्रः, पल्लिव- भिल्लप्रायजनमनिवेशः, राजदृष्टश्च नृपापराधकारी, स्तेनराजसुतपल्लिराजदुष्टास्तैः करणभूतैः किमित्याह-' दृष्टान्ता' उदाहरणानि भवन्तीविप्रक्रमः । एतामप्रतिषेवादिस्वरूपव्याख्यानावसरे अनन्तरमेव वक्ष्याम इति गाथार्थः ॥ १३ ॥
इदानीं प्रतिषेवणा-प्रतिभवणे व्याख्यातुमाह
दी० - ' प्रतिसेवना ' आघाकर्मपरिभोगः १, प्रतिश्रवणा -तद्भोक्तुरनुज्ञा २, संत्रासस्तद्भोजिभिस्सह ३, अनुमोदना - उद्भोक्तृप्रशंसा ४, आभिस्तदाधाकर्म मवति, तज्जन्यः कर्मबन्धः स्यादिति गाथा [?] पूर्वार्द्धार्थः । आमां यथाक्रमं दृष्टान्तानाह - 'इह' एषु स्तेना- भोराः १, राजसुतो - नृपपुत्रः २, पछि भिलस्थानं ३, राजदुष्टो नृपापराधी ४, तेषां दृष्टान्तास्ते च यथास्थानं वक्ष्यामीति गाथार्थः ॥ १ ॥ अथाद्यद्वयार्थमाह-
सयमन्त्रेण व दिनं, कम्मियमसणाइ खाइ पडिसेवा । • दक्खिन्नादुवओगे, भणओ लाभो चि परिसुणणा ॥. १४.
लघुवर्णबुद्रमावदोषे ममेति द्वारस्वरूपम् ।
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न्यास्मा—स्वबमात्मनाऽऽनीतमिति सम्वते । अन्येन वा आत्मव्यतिरिक्तसाधुनाऽऽनीवेति गम्यते । वा शब्दो विकल्पार्थी 'द' वित्तीय. किमित्याह- 'कम्मिय'ति कर्म्मणा-साध्वर्धक्रिपया निर्वृत्तं कार्मिकं घाव 'अनादि मकपानादि, किं करोतीत्याह- 'स्वाचि स्वादति मोहोपदनचिचत्वा निःशुकत्वाद्भवति यः माधुरिति गम्यते । न पुनरेवं मात्र बति, बथा-“जस्स कए आहारो, पाणिवहो तस्स होइ नियमेणं । पाणित्र है वय भंगो. बत्रभंगे दुग्गई चेवत्ति ॥ १ ॥ " तस्य किं भवतीत्याह-प्रतिषेवा पूर्वोकउन्दार्षा स्यादिति शेषः अत्र च पुरा सूचितं नोरोदाहनं यथा—
एमंनियामे जयेगे दोरा परिवनीने ते य जलवा एगाओ सन्निवेनाओ गावीओ हरिऊन निचगामा मिलिया । जाहे स पत्रिका तज नियमंडलोत्ति काउं निन्भया मोयधवेलाए नैनिं मोबीनं मञ्झाओ किचियाओ चिनाऊ मोबन्धं प लग्या. तम्मि बतावे केड पहिया मिलिया, मोषणकरवत्यं च सवि मोतुकामेहि चोरेहिं निमंतिया । नओई इंजि पचड्डा, क्रेडिवि गोमयस्वयं बहुपावंति कार्ड सघं मस्वणं न कयं, किंतु अचेसिं परिवेसमाइX पाद्धं । एवंत विद्या+ जायचा, जो तेहिं ने सोचि मदिरा तत्थ जे पहिया जाम 'पहिया अम्हें'ति मयंना त्रि गोमंसभक्ख परिवेसलाइ दोसेब नेवि इसवि तेहिं विति । एवमन्यत्र जे कम्मियं मचाइ जाणिति, तं समं इंति, अन् य तेष निमंनंति निमंतिया म जे तं जति अबेसि च जे तं परिवेति भागमाथि वा जे संठन, ने सने चि नरगाइफले निकम्मा लिप्यंनिति, उक्तं च-“जे वि य परिवेसनी, भाषणाणि घरंति य । तेवि बज्झति तिब्वेणं, कम्मुणा किमु मोड़ो ! ॥ १ ॥ " x परिवार" प. अ. ब. + "चारिका" इति पचः ख मां ।
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पिण्डशुद्धि०
काइयो
पेतम्
२५ ॥
४
अत्र योजना यथा - चोरट्ठाणीया आदाकम्मभक्खगनिमंतग साहुगो, संसभक्खनपहियसरिसा निमंतियाहा कम्ममोदसाहुणो, गोमंसपरिवेसगाइपहियतुल्ला कम्मियपरिवेसगाइसाहुणो, पद्दतुछे मणुस्सजम्मं, कूविषसरिमाणि कम्माणि, मरणाहट्टाणीयं नरगाइगमति । अत्र च स्वतो निमन्त्रणातो वा आधाकर्मभोक्तृसाधुषु मुख्यतः प्रतिषेवा प्रसङ्गतः प्रतिश्रवणादयश्च भावनीया इति । अथ प्रतिश्रवणां व्याख्यातुमाह- 'दखिन्ने' त्यादिपचार्द्ध तत्र 'दखिन्ना दुवउगे 'ति दाक्षिण्यं प्रतीतं, तदादि : - प्रथमं यस्य तत्तथा तेन । त्रिभक्तिलोपथ सूत्रे प्राकृतत्वादित्युक्तमेव । आदिशब्दात् स्नेहसम्बन्धमयादिपरिग्रहः । उपयोगो यतिजनप्रतीतो भक्तादिग्रहण समयभान्यनुष्ठानविशेषः । सचाऽयं लेशतः यदा हि किल सraat भिक्षाद्यर्थं जिगमिषयो भवन्ति तदा कायिकयादिव्यापारं कृत्वा पात्राचुपकरणं गृहीत्वा सम्यगुपयुक्ताः सन्तो गुरोरग्रतः स्थित्वा भणन्ति पथा - 'संदिसह उबओगं करेमो'त्ति, ततः 'करेह'त्ति वचनोच्चारणतस्तेनाऽनुज्ञाताः सन्तः 'उवओगकरावणियं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थूससिएण मित्यादिचार्य कायोसर्गेण तिष्ठन्ति चिन्तयन्ति च तत्र नमस्कारमुत्सारित कायोत्सर्गाश्च नमस्कारपाठपुरस्सरमर्द्धाविनतगात्रा + भणति, यथा'संविसह चि, अत्र च निमित्तोपयुक्तो ब्रूते गुरुर्यथा - 'लाभो 'ति । ततः साधवः सविशेषावनता वदन्ति, यथा- 'कहवे. त्यामो चि, अत्र च गुरुर्भणति - 'यथा तह' तिX यथा गृहीतं पूर्व साधुभिरित्यर्थः । एवं चाभिहिते गुरुणा साधवो भणन्ति, यथा'जय सियाएं जस्म य जोगो 'चि यस्य च सक्तवस्त्रादेः प्रवचनोक्तेन विधिना 'योगः' सम्बन्धः प्राप्तिलक्षण इत्यर्थः, इति । यात्रा भवन्ति भणन्ति च " य. । X " यथा तिहि-चि " अ.
| लघुकुनाबुद्गमाद्य
दोषस्य
यथेति द्वारे
प्रति-सेवा
प्रति
श्रवणयोः | स्वरूपम्
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तस्मिन् क्रियमाणे सति, आधाकर्मभोक्साधुनेति गम्यते । भगतो'ब्रुवाणस्याचार्यादेरिति गम्यते । किमित्याह-'लाभो'त्ति लाममिति शब्द, किं स्यादित्याह प्रतिश्रवणा-याणतशब्दार्था, स्यादिति प्रक्रमः । इह च सूत्रकृता "आलोहए मुलद्ध, II भणड भणंतस्स पडिसुणणा" इति ग्रन्थान्तरप्रसिद्धप्रतिश्रवणायाः स्वरूपान्तरं प्रशंसारूपस्वादनुमोदनैव विवक्षितेति न न्यूनता सूत्रस्याशङ्कनी येति । उपलक्षणत्वाद्वा तदपीह द्रष्टव्यमिति । अत्रापि प्राक् सूचितं राजसुतोदाहरण, यथा
एगो रायपुत्तो रजगहणुस्सुओ चिंतेइ, जहा-'एस मम पिया रोविन भरइ ति नियभडे सहाए काऊण एवं मारिचा रजंगिण्हामिति । तओ नियभडेहिं सह इमं मंतियं, तत्थ केहिवि वुत्तं-'अम्हे तुह सहाया होमो केहिवि वुत्त एवं करेहि' केहिदि तसिणीकया, केहिवि तं सर्व स्त्रो निवेदयं । तओ ना पढमा तित्रिवि कुमारो य बाबाइया, चउत्था पुण पूहयचि । एवं लोगुत्तरेवि जे आहाकम्म आणेता सयं भुंजंति, अन्ने य तेण निमंतंति, जे य निमंतिया 'भुंजह तुम्मे अम्हेचि झुंजामोति मणति, जे य आहाकम्मभोइचित्तरक्खणत्थमुवओगे 'लाभो'त्ति पंति, आलोइए 'सुलद्धति वा भासंति, जे य मोणेण अच्छंति, ते सहेवि नरगाइफलेण दारुणकम्मुमा लिप्पंति । जे पुण पडिसेइंति, ते कम्मबंधाओ मुचंतित्ति । उवणओ पुण एवं+कायहो, जहा-कुमारठाणीया आहाकम्मनिमंतगसाहुणो, पिइवहठाणीओ आहाकम्मपरिभोगो, पढममडत्तिगठाणीया सेसनिमंतियाइसाहुणो, चउत्थपुरिसठाणीया तम्भोगपडिसेहगसाहुणोचि । अत्र च आधाकर्मभोक्तणां प्रतिपेवादयश्चत्वारोऽपि मावनीयाः, तथाहि-आधाकर्ममोजित्वात्प्रतिषेत्रणा, निमश्रणाद्वारेणान्येषामपि तत्परिभोग प्रति प्रवर्चकत्वात्प्रतिश्रवणा.
+ " पुणरेवं " अ.या।
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पिन्छशुद्धि बायो। पेतम्
तझोजिभिश्च. सहकत्रावस्थानात्संवासस्तद्भोजिबहुमानाच्चानुमोदना तेषां, यदाह-"पडिसेवणा पडिसुणणा, संवास- दीपिकापा ऽणुमोयणा य चउरोवि । पिइमारगरायसुए, विभासियव्वा जइजणे यx॥१॥" शेषाणां तूक्तानुसारतो यथा- मद्गमा सम्भवं वाच्यमिति । तथेह दृष्टान्ते पदातिभिर्दान्तिके तु निमत्रितादिसाधुभिः प्रकृतमिति प्रतिश्रवणोक्तेति माथार्थः ॥१४॥ दोषस्य अथ संवासानुमोदने व्याख्यातुमाह
है यथेति द्वारे दी-खयमानीतं अन्येन वा दत्तं 'कार्मिक आधाकार्मिकमशनादिपिण्ड यः साधुनिश्शूकः खादति, सा प्रतिसेवा । प्रतिसेवा| अत्र चौरोदाहरणं कथ्यते-केचिच्चौराः कुतोऽपि गा अपहृत्य स्त्रग्रामासनमाजग्मुः, तत्र निर्भयानां तेषां स्वयं मारितगोमा प्रतिसाशनकाले केचित्पथिका मिलितास्तद्भोक्तुं निमत्रिताच, ततः कैश्चिद्भुक्त, कैश्चिद्गोमांसशूकया नैव, परं परिवेपणादि-* श्रवणयो साहाय्यं कृतं । अत्रान्तरे वाहरिकैस्ते चौरा 'मार्गस्था वय'मिति वदन्तोऽपि पथिकाच हताः । अत्रोफ्नया-चौराभा
स्वरूपम्। आधाकर्मप्रतिसेवकाः, पथिकाभास्तनिमन्त्रणामोजिनः, परिवेषकामास्तत्सहायाः, पथावस्थानाभं नृजन्म, गोमांसाशनकल्पमाधाकर्मभोजनं, वाहरिकाभानि कर्माणि+, मरणार्म नस्कादिगमन मिति | प्रतिश्रवणामाह-विभक्तिलोपाद्दाक्षिण्यादिना, | आदिशब्दात्सम्बन्धस्नेहमयादिना, 'उपयोगो' यतिप्रतीतं भक्तादिग्रहणकालानुष्ठान, यथा-भिक्षाद्यर्थ व्रजन्तो यतयः कृतकायिक्यादिव्यापारा गृहीतपात्रापधयो गुरुं बदन्ति-सन्दिशत उपयोग कुर्मः, ततस्तदादेशेन तदर्थमष्टोच्यासमुत्सर्ग विधायान्ते नमस्कारोच्चारपूर्व 'संदिसहत्ति भणन्ति, गुरुराह-'लाभुत्ति, नम्राङ्गास्तेऽप्याहु:-कह गिण्हामुति, गुरु...x.".जणेणं "अ. य.। + "वाहरिकामा विषयाः ".
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भणति-'जह गहियं पुव्यसाहुहिं ति, तेऽन्याहु:-'इच्छं आवस्सियाए जस्स य जोगुति, अ(तस्मिन् कार्मिकाशिना साधुना क्रियमाणे गुरोर्लाभुचि भणतः प्रतिश्रवणा, केऽप्यशुद्धभक्तालोचने 'सुलढू'त्ति भणतस्तामाहुः, अत्रानुमोदनैव स्थापितेति न विरोधः । अत्रोदाहरण यथा- एको राज्ञः सुतो राज्योत्सुका स्थविरपितधोद्यतः स्वाभिप्राय रहसि भटानामाह, ततः कैश्चिदुक्तं-सहाया वयमिहार्थ, कैश्चित्कुरुष्वेति, कैश्चिन्मौनं कृतं, कैश्चिद्राज्ञो निवेदितं । अथ राज्ञा प्रथमे वयः | सकुमारा मारिताश्चतुर्थाश्च पूजिताः । अत्र योजना-कुमारामाः कार्मिकनिमन्त्रकाः, पिवधाभस्तद्भोगः, प्रथमभटत्रया| भास्तत्प्रतिश्रवणादिकारकाः, चतुर्थभटामास्तनिरोधका इति गाथार्थः ॥ १४ ॥ अथ संवासानुमोदने आइ| संवासो सहवासो, कम्मियभोइहि तप्पसंसाओ। अणुमोयणति तोते, तं च चए तिविहतिविहेणं ॥१५॥
व्याख्या--संवसनं संवासो मण्यते, का ? इत्याह-'सहवास' एकत्रावस्थानं । कैरित्याह-कार्मिकमोजिभिराधाकर्मसेविभिः, साधुभिरिति गम्यते । अत्रच पूर्व(परिचितः पल्लिदृष्टान्तो यथा-एगाए विरामगिरिसन्निविट्ठाए पल्लिए बहवे चोरा माइणवाणियादओ य परिवसंति । ते य चोरा एगस्स राहणो मंडले चोरियं काउं पल्लीए पविसंति । अन्नया अमरिसाऊरियहिययेण महासामगि काऊण तेण राइणा सा पल्ली गहिया, तीए महिन्जमाणीए केवि चोरा हया केबि. नट्ठा, बंभणयणियाइएहिं चिंतियं, जहा-'अम्हं अचोराणं राया न किंचिवि करेहि चिन ते पलाणा । तओ राहणा तेवि गिहाविया । तओ तेहिं भणियं, जहा-'देव! अम्हे बंभणवणियादओन पुण चोरा, तओ राइणा उल्लवियं-रे पाविट्ठा तुम्मे चोरेहिंतोवि अहिययरमत्रराहिणो, जेण अम्हाणं अवराहकारीणं मझे वसत्ति, एवं मर्णतेणं राइणा तेवि निग्गहियति । एवं अम्हवि जे आहा
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विशुद्धि
पेतम् ।
कम्मभोईहि साहहिं सम वसंति ते तदोसाओ चेव कलुसियसुद्दपरिणामा उवचियजम्मजरामरणनिबंधणकम्ममहाभरा अब- लघुत्ता
सं दुग्गईए षडति । एत्थोवणओ जहा-रायठाणीयाणि कम्माणि, पल्लिहाणीया वसही, चोरट्ठाणीया आहाकम्मभोइसाहुणो, बुद्गमावसैकाद्वयो- वणियाइठाणीया आहाकम्मभोइसहयासिमाहुणो, उवालंभमरणठाणीया दुग्गइत्ति । इह च वणिगब्राह्मणादिभिः सहवामदोष-18 दोषस्य
दुष्टसाधुभिश्च प्रकृतं, चौराणामाषाकर्मभोक्तसाधनां च पूर्ववत् प्रतिषेवादयश्चवारोऽपि भावनीया इत्युक्तः संवासो, अथानु- यति द्वारे
मोदनामाह-'नष्पमंसाओ अणुमोयणत्ति'ति । तेषामाधाकर्म भोक्नुसाधूनां तस्य चाधाकर्मिकभक्तस्य 'प्रशंसा' सुखपा- संवासानु॥१७॥ी रणकं भवतां? सुन्दरा यूयं? सुखदेवसिकं युष्माकं ? शोभना एते, य एवं मिष्टाहारेण जीवन्तीत्याधुक्तिस्वरूपा साचिदं कालो मोदनयोः
चितमेतदित्यादिवचनसंदर्भरूपा वा श्लाघा, तुः पुनरर्थस्तदर्थश्च स्वयं भावनीयः । किमित्याह-'अनुमोदना' पूर्वोक्तशब्दार्था, स्वरूपम् ।। उच्यत इति प्रक्रमः, इति शब्दः प्रतिषेधादीनां व्याख्यानपरिसमाप्ति द्योतपति । अत्रापि प्रागभिहितो राजदुष्टस्टान्तो यथा
एगो वणियकुमारो अईव इरिथलोलुओ अंतेउरसमीवेण गच्छंतो दिवो रायमहिलाहि, तेणवि ताओ सरागं पलोइयाओ जाओ य परोप्परं दहमणुराओ । तओ दिवजोएणं कहवि संपत्तीए सो ताओ पइदिणं सेविउं पयट्टो । पच्छा स्नानाओ | तओ विसिदूवत्थनेवत्थो विचित्ताभरण विभृसिओ कयकुंकुमंगरागो तंबूलरंजियाहरो रयणीए अंतेउरे पविट्ठो समाणो वहेऊण नपरमज्झे | पक्खिवाविओतत्य य अवत्तवेसधारिणो राइणा चारियपुरिसा यावारिया, मणिया य, जहा-जेएवं पसंसति निदति य ते मम समासे आयाति । पमाए यसो नागरगाइलोगेणं वेडिओ, तत्थोक्लवुनतेहि केहिंवि भणियं, जहा-'जाएण जीव लोगमि सगळेण वि नरेणावस्सं मरियवं, परं जाओ नरबइमहिलाओ अम्हारिसेहिं अकय पुनहि लोयणेहिपि दई दुखमाओ, ॥१७॥
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*प
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ताओ विजं माणिऊण मओ, ता एस धनो कप पुनो सुलद्धं एयस्स माणुसं जम्मं सुजीवियं च एयस्सेव'सि । अहिं मणियं-13 'पावकारी एसो, जो जणणि मारिमाणं नियमामिभजाणं चुक्को'ति । एयं च सोउं ते चारपुरिसेहिं रनो समप्पिया । राइला विजेहिं सो पसंसिओ ते वावाइया, इयरे मुक्का पूइया य नि । एवं लोगुत्तरेवि एगे साहुणो आहाकम्म मुंजंति, अवरे जंपति'धन्ना एए, सुहं जीवंति'। अने पुण मणंति-'पिरत्यु एतेसि, जे अरिहंतवुत्तसिद्धतनिसिद्धं विचुहजणगरहणिजमाहारमाहाति । एत्थोवणशो नमो-अंतेडाहाणीयं लाहाफम, परसेनगवणि यसुयसरिसा तस्सेवगमाहुणो, 'घनो एसो 'त्ति जंपमपुरिसठाणीया तस्सेवगपसंसगा, 'अन्नो एसो 'त्ति जंपगपुस्मिसरिसा तेस्सेवगनिंदगा, रायठाणीयाणि कम्माणि, मरणठाणीयो संसारोत्ति। अत्र च वणिपुत्रप्रशंसकपुरुषैराधाकर्मभोक्तृप्रशंसकसाधुभिश्च प्रकृतं, वणिपुत्रस्याधाकर्मभोक्तृसाधूनां पुनः पूर्ववत् प्रतिषेवादयश्चत्वारोऽपि मावनीया इति । उक्ताः प्रतिवादयस्तांश्च झात्वा सुसाधुना यद्विधेय तदुपदिशबाह-'तोते' इत्यादि, ततो यतः आषाकर्म-तद्भोक्तृसाध्वपरिहारिणां साधूनां उक्तलक्षणाः प्रतिषेचादयोदुर्गतिगमननिवन्धना दोषाः सम्भवन्ति तस्मात्कारणातान् निन्द्यजीधिकानिस्तान् अयथावादकारिणो निःशूकशिरोमणीन् अटितवाम्बुलपत्रकल्पानाधाकर्मभोजिसाधून तच्च संयमजीवित सद्योविनाशविषतुल्यमाधाकर्मदोषदुष्टमाहारं, चः समुच्चये, 'चए'चि बजेद-परिवर्जयेत् । कथमित्याह-'तिविहतिविहेणं 'ति त्रिविघंत्रिविधेन करणकारणानुमतिविशिष्टमनोबाकायैरित्यर्थः। तत्र दोस्तृसाधून् प्रतिश्रवणासंवासानुमोदनातो वर्जयेत् , यथा-न तेषां तद्विषयामनुज्ञादानलक्षणां | प्रतिभवां त्रिविन करणेन कर्याचाप्येवमेवान्येन कारयेत् नाप्यन्यं कुर्वन्तमेवं समनुजानीयात् । तथा न तेषु स्ववैरिषु
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1
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ण्ड
शुद्धि. काद्वयो
राम्
२८ ॥
मध्ये स्वयं वसेत्, नाप्यन्यं साधुं वासयेवाप्यन्यं वसन्तं मनोवाक्कायैः समनुजानीयात् । एवमनुमोदनामपि तेषां स्वयं न . कुर्यात, न कारयेनाप्यन्यं कुर्वाणं त्रिविधेन करणेनानुजानीयात् । आधाकर्मिकं च प्रतिषेधाऽनुमोदनतो विवर्जयेद्यथा- न तत्स्वयें त्रिविधेन भुञ्जीत नान्यं भोजयेनाप्यन्यं भुञ्जानं समनुजानीयात् । एवमनुमोदनेऽपि वाच्यमिति गाथार्थः ॥ १५ ॥
उक्तं यथेति द्वारं, साम्प्रतं यादृशमिति द्वारं, तत्र यानीव दृश्यते यादृशं यैर्वस्तुभिः समानमाधाकर्मिकमित्येतदभिधातुमाहदी० - 'संवासः' सहवासः कार्मिकभोजिभिः, अनोदाहरणं - एकस्यां पर्वतान्तर्वर्तियां चौराधिष्ठितायां बहवो प्रियो ( प ) वसन्ति । अन्यदा तच्चौरोपवादेकेन राज्ञा पल्लि गृहीत्वा केचिचौरा हताः केचिन्नष्टाः, 'निरपराधा वर्ग'मिति वदन्तोऽपि चोरसंवासाद्वणिजादयोऽपि निगृहीताः । अत्रोपनयः- नृपाभानि कर्माणि, पल्लितुल्या वसतिः, चोरामाः कार्मिक भोजिनः, वणिगा[द्या] भास्तद्धो जिसंवासिनः, निग्रहामा दुर्गतिरिति । अनुमोदनामाह - तेषां कार्मिकभोक्तृणां प्रशंसया 'धन्या सुन्दरभोजिनो यूय' मित्यादिकया 'तु' पुनरनुमोदनेति । अत्राख्यानकं - एको वणिकुमारः सुरूपः स्त्रीलोलो नृपान्तःपुरीभिर्दृष्टः, उभयानुरागाद्व्यवहृतिवना ताः शिषेवे, यावद्राज्ञा ज्ञातो (हतो), हत्वा च राजमार्गे क्षिप्तः, ततः स कैथि- 'द्वन्योऽसौ, योऽन्येषां दृग्भ्यामप्यदृश्यान् राजदारान् संसेव्य अवश्यम्भाविमरणमा' त्यादिवचनैः प्रशंसितः, अन्यैश्व 'पापीयानसौ, यो जनन्य इव निजखामिभार्याः सिषेवे' इत्यादिनिन्दितः । ततो नृपेण पूर्वनियुक्तचरानीतास्तत्प्रशंसका हताः निन्दकाश्च पूजिता इति । अश्रोपनयः - अन्तः पुराभमाधाकर्म, वणिक्सुताभास्तद्भोजिनः, प्रशंसका भास्तदनुमोदकाः, निन्दकामास्तद्गर्हकाः, नृपाभानि कर्माणि, मरणामः संसारः । एषु दृष्टान्तेषु एकमुख्यत्वे प्रसङ्गादन्येऽपि योज्याः ।
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दीपिकायामाद्यदोषस्य
यथेति द्वारे संवासानु| मोदनयोः
| स्त्ररूपम् ॥
॥ १८ ॥
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| उक्ताः प्रतिषेवणाद्याः, अतस्तद्योगे विधेयमाह-ततः कारणात्तान-कार्मिकमोजिनो यतीन् तच्चाधाकर्म त्रिविधं त्रिविधेन-मनोबाकायैस्त्यजेदिति गाथार्थः ॥ १५ ॥ उक्तं यथेति द्वारं, अथ यादृशं तदिति चतुर्थमाहबंतुच्चारसुरागो-मंससममिमंति तेण तज्जुत्तं । पत्तं पि कयतिकप्पं, कप्पइ पुव्वं करिसघटुं ॥१६॥
व्याख्या-'वान्तं च भुक्तोद्विलितं 'उच्चारच पुरीपं 'सुरा च' मद्यविशेषो 'मोमांसं च' बहुला+ पिशितं, तानि तथा, है तैरत्वन्तं सर्वजनजुगुप्सितैः 'समतुल्यं संयमिना निन्धत्वादिदमाषाकर्मिकभक्तादि । इति शब्दो यस्मादर्थस्ततश्च यस्मादिद
मेभिरतिकुत्सितः समानं, तेन कारणेन तद्युक्तं' तेनाधाकर्मणा 'युक्तं' खरण्टित, किं तदित्याह-'पात्रमपि' भाजनमपि 'कयतिकप्पं ति कृता-विहितात्रयखिसलथा: 'कल्पाः' समयप्रसिद्धा धावनप्रकारा यस्य तत्कृतत्रिकल्पं, तदेव किं १ 'कल्पते' यतीनां परिभोक्तुं युज्यते। किंविशिष्टं सदित्याह-'पूर्व' कल्पकरणकालाप्रथमतः 'करीषघृष्टं' शुष्कगोमयसंसृष्टं । इदमुक्त भवति-यदि कथश्चिदनामोगादिगृहीताधाकर्मभक्तादिना संसृष्टं भाजनं स्यात्तदा गोमयादिसम्मार्जनतो निर्लेपताविधानपुरस्सरं कल्पत्रये कृते सत्येव तत् साधूनां परिभोक्तुं कल्पते, नान्यथा, अतो चान्तोच्चारादिवत्तदप्यत्यन्तं गर्हितमेवेति । अत्र कश्चिदाह-वान्तोच्चारगोमांसग्रहणमत्र कर्तुमुचितं, न सुराग्रहणं, तस्या लोकपेयत्वात, पेयस्य च जुगुप्सितत्वेनानारूढत्वाद् अन्यथा पेयत्वायोगात् । नैवं, तस्याः कैश्चिदेव जघन्यचरितैः पाने आचरितत्वात न च तदाचरितमपि शिष्टानांप्रमाण, अन्यथा + "एकवारप्रसूता गौ बहुला इत्युच्यते” इति पर्यायः अ । "बहुला तु, सुरभ्यां नीलिकैलयोः ।। १२७३ ॥” इति हैमानेकार्थः ।
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द्वियो
बान्तोच्चारादीनामपि सारमेयादिभिर्भोजने आचरित्वात्तेषामपि मध्यत्वप्रसङ्गात् । एवं घन किञ्चिदपेयमभक्ष्यं वा स्यादितिला
लघुश्चायत्किञ्चिदेतदिति । अथवा वैदिकमतापेक्षं सुराया जुगुप्सितस्वमिति । उपलक्षणमात्रं चेह वान्तादिग्रहणं, तेन गइरिकाकरमी- वाद्यदोष क्षीरल्हसुनपल[]ण्डकाकमांसादीन्यपि वेदसमयगर्हितानीह द्रष्टव्यानि, एवं चाभक्षणीयमेवेदमित्युक्तं भवति । ततोऽस्यैवा- याहशमिमोज्यत्वसमर्थनार्थ दृष्टान्त उच्यते-एगमि नगरे एगो सेवगो परिवसइ, तस्सऽनया जेडभाया पाहुणगो आगओ । तओ तेण तितुर्यनियमहिलाए मंसमाणिऊण समप्पियं, तं च तीसे घरवावारवावडाए मारेण मक्खियं । तओ तीए भयसंभंतहिययाए अज द्वारम् । मंस अलभमाणाए कप्पडियमडयमसं साणेण तक्खणगिलिङग्गिलियं दिन, तं च गहेऊण धोविय संधूविय अन्नवण्णं करिय भोयणस्थमुवटियाण ताणं परिवेसियं । तेहि य गंघेण नायं, जहा-'वंतमेयं 'ति । तओ भत्तुणा रुद्रुण सा वाडिया अन्नं च रंधाविया, तओ भत्तं ति। केई मणति-जहा केणइ मंसासिणा कप्पडिएणं अईसाररोगपीडिएणं मंसखंडाणि वोसिरियाणि, मारेण य मंसे खद्धे भत्तुणो भएण तीए ताणि घेव गिण्हिता धोवियाणि, जाव परिवेसियाणि । तओ उपलवुनतेण दारगेण चारिओ जणओ, जहा-अम्माए एयाणि एवं कयाणि, ता ताय? मा भक्खेहि ति। तओ तेण सा निम्मच्छिया अनंच
रंधाविय मुत्तं ति । एवमाधाकाप्यभोज्यमित्यपनय इति गाथार्थः॥ १६ ।। MII उक्तं थारशमिति द्वारं, साम्प्रतमशने पतस्य ये दोषा इति द्वार व्याचिख्यासुराह
...दीवान्तो-चार-सुरा-गोमांसानि प्रतीतानि, तत्सममिदं आधाकर्मेति, इति यसादर्थे, यत एमिस्तुल्यं तेन काबेना... सयुक्त' आधाकर्मखरण्टितं पात्रमपि कृतम्रिकल्पं ' श्रीन्वारान् पौत, "पूर्व प्रथम ' करीबष्ट - Saneel
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गोमयोन्मृष्ट कल्पते, नान्यथेति । अत्र सुराग्रहणं शिष्टानुसारेण, अन्यथा वान्तादीन्यपि कुकराद्यशनाद्भक्ष्याणि स्युः, अतो वान्तादिवत्सर्वथेदं साधुभिस्त्याज्यं । अत्रार्थे दृष्टान्तमाह-कश्चित्सेवको मिलनायातभ्रातृकते स्वमहिलाया मांसमर्पयत् । तदन्यापूतायां मार्जारेण भक्षितं, सा तदभावेन भईभीता मृतकमांसं शुना वान्तं दृष्ट्वा तदेव संस्कृत्य तयोर्ददौ तौ च गन्धादिना तद्वान्तं विज्ञाय तां च निर्मळ नवीनमानीय भुक्तो। केऽप्याहु:-सा केनाप्यतीसारिणा व्युत्सृष्टं मांसमाप, तच्च चालकेन पितुराख्यावमिति, एवामाधाकर्माप्यमोज्यमिति गाथार्थः ॥ १६ ॥
उक्तं यादृशद्वारं, अथ तदशने ये दोषा इति पञ्चममाहकम्मग्गहणेऽइक्कम-वइकमा तहऽइयाऽणायारों । आणाभंगऽणवत्था, मिच्छत्तै-विराहों य भवे ॥१७॥
व्याख्या-'कर्मण' आधाकर्मणो ‘ग्रहणं' उपादानं कर्मग्रहणं । इह च 'कर्मग्रहणमित्युक्तेऽपि “ आहा- | कम्मग्गाही, अहो अहो नेह अप्पाण "मित्यादाविव भक्षणमित्यपि व्याख्येयं, (+यतः)ग्रहणमात्र एवं वक्ष्यमाणदोषासम्भवात् प्रस्तुतद्वारविरोधाश्च । तस्मिन्सति किमित्याह-'अइफमे 'त्यादि, अतिक्रमव्यतिक्रमौ वक्ष्यमाणलक्षणो, दोषाविति शेषः, बचनष्यत्ययामवेतामिति वक्ष्यमाणक्रियायोगः। तथाऽतीचारानाचारौ वक्ष्यमाणलक्षणावेव । किमियन्त एव तद्ग्रहणे दोषा भवेयुरुवान्येऽपि १, उच्यते-अन्येऽपि, यत आह-' आणे'त्यादि, 'आज्ञा 'सर्वज्ञवचनं, तस्या 'भङ्गोऽतिक्रमणमाज्ञामजस्तग्रहणे मवेत् । आह च-" आणं सव्वजिणाणं, गिण्हंतोतं अइकमइ लुद्धो। आणं चाइक+ केबल अ पुस्तक एवोपळभ्यतेऽयं शब्दः।
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SRG
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पिष्ट-
शुद्धि कायो- पेतम्
। २०॥
मंतो, कस्साएसा कुणइ सेसं? ॥१॥” अत्र लुब्ध इति विशेषणं योऽलुब्धो ग्लानादिकारणे यतनया तद्गृहाति न
स लवृत्तातामतिकामतीति ज्ञापयति । तथा आज्ञा चातिक्रामन् कस्य शास्त्रविशेषस्यादेशात ?, न कस्यापीत्यर्थः, करोति शेष प्रत्युपेक्षणा- वाद्यदोषख शिवस्तुण्डमुण्डनावश्यकाअनुष्ठान, तद्भङ्गे तस्यव्यर्थत्वादिति भावः । तथाऽनवस्थाऽन्येषां धर्मविषयेऽनास्था तद्हणे मवेत् , पश्चमद्वारे आह च-" एकेण कयमकज्जं, करेह तप्पचया पुणो अन्नो। सायाबहुलपरंपर-वोच्छेओ सेजमतवाणं ॥१॥" &ातिकमाअस्या भावार्थ:-एकेनापि साधुना कुमाएकार्य महकमोगादिलवाललोग करोति 'तत्प्रत्ययात्तदालम्बनेन पुनर-मादीनामापरोऽपि साधुरकार्य । ततश्च 'सायाबहुल 'त्ति 'साताबहुलवाद' सुखाभिलाषित्वात् प्राणिनां, परम्पश्यैकमकार्य कुर्वन्तं नामजादीदृष्टाऽन्यः, तत् प्रत्ययादपर, एवं यावत्सर्वेषामकार्ये प्रवृत्ती व्यवच्छेदः संयमतपसोः स्यादिति २। तथा'मिथ्यात्वं' विपर्यस्ता
नांच निरूध्यवसायलक्षणं तदपि तद्हणे भवेत् , यदाह-"जो जहवायं न कुणइ, मिच्छद्दिट्टी तओ हु को अन्नो? । बढ़ेइ य पणं। मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो ।। १॥" अस्या भावार्थ:-यः कश्चित्साधुर्यथावाद' यथाप्रतिज्ञातं न करोति, साधना हि प्रवज्याग्रहणकाले 'सर्व सावध योगं प्रत्याख्यामीति वदता प्राणिवधहेतुत्वादाधाकापि प्रत्याख्यातमेव, अतस्तद्धानेन तेन यथावादो न कृतः स्यादिति मिध्यादृष्टिस्ततस्तस्मात्सकाशात, हुर्वाक्यालङ्कारे, कोऽन्यो, नान्यः कोऽपि, किन्तु स एवेत्यर्थः, स्थाव, किन-बर्द्धयति च मिथ्यात्वमात्मना+परस्य गृहस्थादेः 'शङ्का" अहो एतेऽन्यथावादिनः अन्यथाकारिण इत्यादिलक्षणामारेका जनयबिति३ तथा विराधनाऽऽत्मसंयमोमयप्रवचनविनाशस्तल्लक्षणो दोषस्ताहणे,
+ "मात्मनः" अ. य. x"माशो " अ.।
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"
चः समुचये, भवेजायेत । यत आह- "खद्धे निद्धे य रुघा, सुत्ते हाणी तिगिच्छणे काया । पडियरगाण य हाणी, कुइ किलेसं च किस्संतो ॥ १ ॥ अस्या अपि भावार्थ : – किलाघाकर्म प्रायः प्राघूर्णकस्येव साधोरपि गौरवेण विधीयत इति स्वादुः स्निग्धं च स्यात्, ततश्च ' वद्धे 'ति प्रचुरे स्वादुतया स्निग्धे च तस्मिन् भक्षिते सति 'रुजा 'ज्वरविसूचिकादिलक्षणो व्याधिः स्यादनेन चात्मविराधनोक्ता, ततत्र 'सुत्ते 'ति सूत्रार्थ पौरुष्यकरणात्सूत्रार्थयोनिः स्वासथा चिकित्सायां क्रियमाणायां 'कायाः पृथिष्यादयो व्यापाद्यन्ते । तथा प्रतिजानरकसाधूनां च हानिः सूत्रार्थयोरनेन च संयम विराधनोक्ता तथा करोति क्लेशं दीर्घरोगितामित्यर्थः, 'क्लिश्यमानः ' पीडामनुभवत्सन् । अनेन चोभयचिराधनोक्ता । उपलक्षणत्वाच्चाहो घस्मराX अमी सितपटभिक्षव, एतत् शास्त्रकारेण चामीषां सम्यग्भोजनादिविधिर्नोपदिष्टो येनैते एवमनुभवन्तीत्यादिलक्षणा प्रवचनविराधनाऽपि द्रष्टव्या इति गाथार्थः ॥ १७ ॥
अथ प्रागुक्तानतिक्रमादिदोषान् व्याख्यातुमाह-
दी० - आधा कर्मग्रहणे अतिक्रमव्यतिक्रमों तथा अवीचारा-नाचारौ वक्ष्यमाणार्थौ दोषौ स्यातां । किमन्येऽपीत्याह' आज्ञामङ्गः सर्वज्ञवचनातिक्रमः, तथा ' अनवस्था' अन्येषां धर्मेऽनास्था, तथा मिध्यात्वं यथोक्ताकरणात, तथा विराधना आत्मसंयमो भयरूपा, तत्र गौरवादाघाकर्म, तच्च स्त्रिग्धं रोगायेत्याद्यात्मविराधना, तद्योगे संयमस्योभयस्यापि 'मवेदिति गाथार्थः ॥ १७ ॥ अतिक्रमादीनामर्थमाह
x" भक्षणशीला " इति पर्यायो मां, पुस्तके |
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२१॥
कीड-6 आहाकम्मामंतण-पडिसुणमाणे अइक्कमो होइ । पयभेयाइ वइक्कम, गहिए तइएयरो गिलिए ॥१८॥ ५ लघुला
व्याख्या-'आहाकम्मामतणचि विभक्तिलोपादाबाकर्मणा-पूर्वोक्तशब्दार्थेना मन्त्रण' मो यते ! गृहाणेदमिति #वायदोपस्व काइयो का गृहस्थाश्यर्थनं, तस्मिन् सति 'प्रतिशृण्वति' ग्रहीष्यामीति जल्पति अनिषेधधिया मौनावलम्बिनि वा सति साधौ, किमि 13ापत्रमद्वार
स्याह-'अतिक्रमो' मनाक चारित्रघोल्लवन 'मरति जायते । ततः पयभेयाति विमक्तिलोपा'पदस्य चरणम्य मेद-स्तु-ट्रानिक्रमादिद्वहकार्य गमनायोत्पाटनं पदमेदः, स आदिर्यस्य तहगमनादेस्तत्पदमेदादि, तस्मिन् विहिते सति यावत्तन गृहाति नाव- वरूपम् ।। किमित्याइ-विशेषेणातिक्रमो-व्यतिक्रमः, पूर्वसाद्गुरुश्चरणापराध इत्यर्थः। ततो 'गृहीते' पात्रकादौ स्वीकृते सति, आषाकर्म. भीति प्रक्रमः, यावन्मुखे न प्रक्षिपति तावद्मत्यागमनादावपि, किमित्याह-तृतीयो-तिचारोऽतिशयेन चारश्चारित्रलहनमतिचारो, द्वितीयापरापाद्गुरुतरचरणापराध इत्यर्थः । तत 'इतरोऽनाचारस्ता 'आचार' कल्पो मर्यादेति पावचनिषेधादनाचारः, तृतीयदोषाद्गुरुतमचारित्रदोष इत्यर्थः । स भवति, क सतीत्याह-'गिलिते' गलरन्ध्रादधः प्रवेशिते, आघाफर्मकबलादाविति प्रक्रमाद्गम्यत इति । केचित्तु ग्रहणं कवलोद्धरणमेव यावद्लिनं तु मुखे क्षेप इति ज्याख्यान्तीति । अत्राह ऋश्चित्-नन्वतिक्रमादयः प्रस्तुतदोषाः "पिंड असोहयतो, अचरित्ती इत्थ संसओ नत्थि । चारिसंमि असंते, सब्वा दिक्खा निरत्वीया ॥” इत्याचाममानुसारतः सर्वथा चरणामावरूपा एव व्याख्यातुं युज्यन्ते, न पुनर्यथा मवद्विरत्र चरणापराधरूपा व्याल्यायन्ते, नैवं, उचगुणगोचराणामतिक्रमादीनां सूत्रे सर्वथा चरमाभावसम्पादकत्वानमिधानात्, यदाह दवाचूर्णिकलसिविश्याना" इति पर्यायः छ।
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CHECARECHECRER
"शवलयति *विचारणायां मूलगुणेसु आइमेसुतिसुभंगेसु सबलो भवइ । चउत्थभंगे सब्वभंगो, तत्थ अचरित्ती घेव भवइ । उत्तरगुणेसु चउसु वि ठाणेसु सयलो"त्ति। अत्र भङ्गकास्तत्रत्यप्रक्रमवशादतिक्रमादय एवावसे याः। यद्येवं 'पिंडं असोहयतो' इत्यादिग्रन्थः कथं नीयते ?, उच्यते-निश्चयनयाभिप्रायतया उत्सर्गदेशनाविषयतया अभीक्ष्णसेवागोचरतया वा नेतन्योऽयमिति । अपरस्त्वाह-ननु मनसा चरणविषयप्रतिषेत्रायां गच्छचासिनां प्रायश्चित्तं नोक्तमागमे ।। यदाइ-" जीवो पमायबहुलो, पडिवक्खे दुक्करं ठवेडं मे वित्तियारतं करिशी, जिला दुग्गयरिणी वा ॥१॥" अस्या भावार्थ:-मनसा सेविते नास्ति प्रायश्चित्रं, यतोऽयं जीवः प्रमादबहुला, सदा तस्याऽभ्यस्तत्वादतः प्रतिपक्षेऽप्रमादलक्षणे दुकरं "ति दुष्करं स्थापयितुं 'जे' इति पादपूरणे, किश्च-कियन्मात्रमयं जीवोऽतिचपलचित्तजनितापराघसम्भवं प्रायश्चिसं वक्ष्यति ? दरिद्राधमर्ण इवेति । न च प्रायश्चित्तामणनेऽप्यतिचारसद्भावस्तत्सम्मवे तदभणनस्यानुपपनत्वात् । तस्किमिहोच्यते ? गृहस्थेनाधाकर्मनिमन्त्रणे तदपरिजिहासोमौनावलम्बिनोऽपि साधोरविक्रमलक्षणश्चरणापराधः । अत्रोचरं-मनसा सेविते प्रायश्चित्रं नास्तीति यदुच्यते तत्र तपःप्रभृतिक प्रायश्चित्तं नास्तीत्यवगन्तव्यं । प्रतिक्रमणादिकन्तु तत्राप्यस्त्येव, मनोदुष्प्रणिधानादौ प्रतिक्रमणादिप्रायश्चित्तस्य सुप्रसिद्धत्वात् । एवं च सति मनोविराधनायां कथं न प्रायश्चित् । कथं च नापराध ? इत्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥ १८॥
*अन्न "शबल इति" एवं भवितुमईतीति मम मतिः। १ मूलगुणेषु प्राणातिपातादिषु यथाक्रम अतिक्रमादयः संयोक्या इति माया)२ अतिक्रम-च्यविक्रम-अतीचार-अनाचाराः, एषु चतुर्वपीत्यर्थः"। ३ "विचार्यते" इति पर्यायाः । ४ आषाकर्मापरित्यक्तुकामस्य ।
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मेम्ड
माइयो
मतम्
२२॥
साम्प्रतं. तद्भोजनदोषाधिकार एव यः कथञ्चिदेतद्भक्त्वा सम्यगगुरुभ्योपुनःकारेणालोच्य प्रायश्चित्तं न प्रतिपद्यते स अतिक्रमाविराधक एव भवतीत्यावेदयबाह
देरेव स्व' दी०-'आधा मन्त्रणं' तद्दायकापर्थन 'प्रतिपति अनियेति विशाधोरतिक्रमो-मनाक चारित्रोल्लसनं
रूपं दीपिभवति, 'पदभेदादौ तहणार्थ चलनादौ व्यतिक्रमः पूर्वस्मादधिकः, 'गृहीते' स्वीकृते तस्मिंस्तृतीयोऽतीचाराख्यो
| कायाम् । द्वितीयादधिकः, इतरश्चतुर्थोऽनाचाराख्यस्तृतीयादधिको 'गिलिते' तस्मिन् भक्षिते स्यात् । अत्र विभक्तिलोपादिकं प्राकृत
त्वादिति गाथार्थ ॥१८॥ अथ कथञ्चिदेतदुक्त्वा यो नालोचयति स किमित्याह| भुंजइ आहाकम्म, सम्मन य जो पडिक्कमति लुद्धो। सबजिणाणाविमुह-स्स तस्स आराहणा नस्थि॥
- व्याख्या-यः साधु' ' अभ्यवहरति, किं तदित्याह-'आधाकर्म ' पूर्वोक्तस्वरूपं, सम्यम्भावशुद्ध्या ' न च ' नैव | 'य' इति योजितमेव, 'प्रतिक्रामति' प्रायश्चित्तप्रतिपच्या तद्भोजनात प्रतिनिवर्तते । किं विशिष्टः सन्नित्याह-'लुब्धों' गृद्धा, अनेन च यः कथनिमुक्त्वाऽपि सम्यकप्रतिक्रामति यवालुब्धो ग्लानादिकारणे मुझे तस्य च्युदासः कृतो वेदितव्य इति । 'सर्वजिनाज्ञाविमुखस्य' समस्ततीर्थकरोपदेशपराङ्मुखस्य तस्य-द्रव्ययतेः, किमित्याह-'आराधना' सुगतिनिवन्धनसदनुष्ठाननिष्पादना 'नास्ति' न विद्यत एवेति गाथार्थः ॥ १९ ॥
उक्तमशने तस्य ये दोषा इति पश्चमद्वार, साम्प्रतं 'दाने च तस्य ये दोषा' इति षष्ठद्वारं व्याचिख्यासुराह..दी-मुझे आधाकर्म यः साधुः, सम्यग्भावाच न प्रतिक्रामेत्-प्रायश्चित्तप्रतिपच्या गुरोर्नालोचयेत् 'लुब्धो' गृद्ध- 12॥२२॥
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स्तस्य-द्रव्ययतेः सर्वजिनाज्ञाविमुखस्य आराधना मृगतिहेतृत्वनुष्यानरूपा नास्तीति गाधार्थः ॥ १९ ॥
उक्तं तदशने दोषद्वारं, अथ षष्ठं तदाने दोषाख्यमाहत जइणो चरणविघाइ-त्ति दाणमेयस्स नत्थि आहेण । बीयपए जइ कत्थ वि, पत्तत्रिसेसे व होज जओ।२०
व्याख्या—'यते' साधोः सम्बन्धि 'चरणं' चारित्रं विहन्ति विषमिश्रामवत्प्राणान् परिभुक्तं सद्विनाशयतीत्येवं शीलं चरणविधाति । उपलक्षणं चैतत्तदायकाशुभाल्पायुर्वन्धनिवन्धनत्वस्य, तथा च प्रज्ञप्तिसूत्रं-[श. ५ उ. ६ पत्र २२५] "कहपणं भंते! जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ?, गोयमा!(तिहिं ठाणेहि, तंजहा-)पाणे अइवाइत्ता १, मुसं वइत्ता २, तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता ३, एवं स्वलु जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ।" अस्यार्थः- कथं ' केन प्रकारेण, 'ण'मिति वाक्यालङ्कारमात्रे, मदन्त ! 'जीवा' प्राणिनः "अप्पाउयत्ताए ति-अल्पमायुर्यस्यासावल्पायुष्कस्तस्य मावस्तत्ता, तस्यै-अल्पायुष्कताये, स्वल्पजीवितव्यनिवन्धनमित्यर्थः, अल्पायुष्कतया वा कर्म आयुष्कलक्षणं 'प्रकुर्वन्ति' बन्नन्ति । ('पाणे अइवाइत्त' त्ति) प्राणान-जीवान'तिपात्य' विनाश्य 'मुसं वइत्त 'त्ति मृपावादमत्वा 'तहारूवं 'सि तथाविधस्वभाव-भक्तिदानोचितपात्रमित्यर्थः 'समर्णव'सि'श्राम्यति' तपस्यतीति श्रमणोऽतस्तं 'माहणं व 'त्ति मा इनेत्येवं योज्यं प्रति वक्ति स्वयं हनननिवृत्तः समऽसौ माहनः, अथवा ब्रम-ब्रह्मचर्य कुशलानुष्ठानं वाऽस्यास्तीति ब्राह्मणोऽतस्तं, 'वा' शद्धी समुच्चये, 'अफासुएर्ण'तिन प्रगता असवो' असमन्तो यस्मादप्रासक-सजीवमित्यर्थः, तेन, 'अणेसणिज्जेणं'ति
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एण्यत इत्येषणीयं-फलप्यं, तभिषेधादनेषणीयं, तेन अनादिना प्रसिद्धन 'पहिलामेस 'सि प्रतिलभ्य लामवन्तं कस्वा । अथ निभाइमियानि एवं पक्षणेन क्रियायेणेति, शेष सुबोध। मथमत्र मावामध्यवसाय- वाधार विशेषादेतयं जघन्यायुःफलं भवति । अथवेडापेक्षिकी अल्पायुष्कता प्रापा, यता-किल जिनागमामिसंस्कृतमायो समय: सू प्रथमवयसं भोगिनं कश्चन मृतं दृष्ट्वा बक्तारो भवन्ति-नूनमनेन भवान्तरे किशिवशुभ प्राणिपातादिकमासेवितं भकल्प्य वा दोषा मुनिम्यो दतं येनाय भोग्यऽप्यल्पायुः संवत्त इति । अन्ये वाहुर्यो लीयो जिनसाधुगुणपक्षपातितया तस्पूनार्थ पृषिभ्यापा
पष्ट द्वारम सम्मेण १, स्वमाण्डासत्योत्कर्षणादिना २, माधाकर्मादिकरणेन प ३, प्राणातिपातादिषु वर्तते तस्य पधादिविरतिनिरबगदाननिमित्तायुष्फापेक्षयेयमस्पायुष्कता समवसेया" | अपयेहापासुकादिदानमपायुकतायां मुख्य कारणमितरे हु सहकारिकारणे इति व्याख्येय, प्राणातिपातन-मृपावादनयोनिविशेषणस्वाद, तपाहि-प्राणामतिपात्याधाकर्मादिकरणतो, | मषोक्त्वा यथा-मो यते । स्वार्थमिदं सिद्ध भक्तादि, कल्पनीयं चेदं भवतामतो नानेषणीयमिदमिति शा कायति ।।। तका अतिलम्म्य साधून दाउपाणिनोऽल्पजीवितव्यनिबन्धनमायुर्वनन्तीति । एषमस्य ममनिकामात्रमुक्त, विस्तरार्थस्तु सहखसेपः। अथ प्रकसमुच्यते-सत्र 'परणविघाइ ति' इति शो हेतो, तत इति देतो'दर्शन' साधुम्यो वितरण, एतस्प-भाषाकर्मणो मक्कादेर्नास्ति-शास्त्रविहितं विवेकिगृहिणां न विद्यते, केन ? इस्याह-'ओपेन' उत्सर्गेण-कारण
कारणतस्तु स्पादपीत्यावेदयबाह 'बीयपए' इत्यादि, उत्सर्गापेक्षया द्वितीयपदमपवादस्तस्मिन् यदि वेदना विनिर्मादादौ तदानं भवेत् । अत्र च यदीति एषाणा कादाचित्कल्पमस्पादयति, यतो न संविप्रभावित
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।
| श्रावकाः बागमामिहत्वात्माधुसंयमवाधापरिहारित्वाचदुपष्टम्मकत्वाच सुयतिम्य एतद्यथाकथश्चिन्प्रयच्छन्ति, नापि यत्रयो
यथाकपचिदेव गृहन्ति । यदाह-"कारणपडिसेवा वि हु, सावजानिच्छए अकरणिज्ञा" । किंमधागात का "बहुसो वियारइत्ता", कर्तव्येति शेषः । “ अधारणिज्जेसु अत्थेस ॥१॥" अन्यागाढकारणेविन्यर्थः । " जवि
य समणुनाया",मात्रद्यप्रतिपेवेति प्रक्रमः। "तहवि य दोसोन बज्जणे दिहो । दधम्मयाह एवं, नाभिकम्बल निसेवनियया ॥२॥" तथा पात्रविशेषः-समग्रगुणयुक्तपात्र, तद्विषये, वा शन्दोऽशुद्धदानमम्मयप्रकारान्तरममुच्चयायः। यदि तहानमिति प्रक्रमो, मवेत-स्यात् । ननु कि कारणमपवादमेवाश्रित्येदं दीयते, नोत्सर्गतोऽपीत्यत आह-'जानि. यतो-यस्मात्कारणादिदं वक्ष्यमाणं मूत्रमत्र नियामकमस्तीति गाथार्थः ॥ २०॥ तदेवाह
दी०-यतेचोरित्रविघातिस्यादिति हेतोरेतस्थाधाकर्मणो दानं विवकिनां नास्ति ‘ोधेन'उन्सर्गेण-कारणं दिना. तदेवाइ-द्वितीयपदे अपवादाख्ये यदि काप्यनिर्वाहादौ पात्रविशेषे वा तद्दानं मवेद, नान्यथा, यत इति वक्ष्यमाणोता. लाविति माथार्थः ॥ २० ॥ तामेवाह
संथरणमि असुद्धं, दोण्ह वि गेण्हतदेतयाणऽहियं । आउरदिटुंतेणं, तं चेव हियं असंथरणे ॥२१॥ . १ वरणविषादीदमिति' इत्यपि ३० * समुदतेयं गाथा समानामशीयधिक सहस्रऽणहिलपचने श्रीमदुर्लभराजराजसदसि चैनवासीन्विजित्य बरतरविरुदसम्प्रापक-श्रीमजिनेश्वरसूरिवरविनेयावतंसेर्नवासवृचिविधानात्खरतरगच्छवियप्रापराचार्यवयः श्रीमदर्भदेवरिपादेः पनमावृचौ पक्षमाष्टमझवषष्ठोदेशच्योः क्रमेण २२७-३७३ पत्रयोः ।
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पिण्ट विशुद्धि० टीकाइयों
पेतम्:
॥ २४ ॥
व्याख्या--' संस्तरणे' प्रासुकैषणीयाहारादिप्राप्यैव साधूनां निर्वाहे सति अशुद्धमनेषणीयं गृझमाणं दीयमानं, चेति गम्यते । द्वयोरपि, नैकस्य कस्यापीत्यपि शब्दार्थः, गृहीतृदात्रोः - साधु श्रावकयोरित्यर्थः । किमित्याह-' अहितं' अनर्थहेतुत्वादपथ्यं स्यादिति शेषः । उत्सर्गतस्तावदे, अपवादस्तु आउरे 'त्यादि, आतुरो ' रोगी, तस्य ' दृष्टान्त' उदाहरणं न्याय इति यावदातुरान्तस्तेन, यथा हि रोगिणः कामप्यवस्थामाश्रित्य पथ्यमप्यपथ्यं स्यात्काञ्चित् पुनः समाश्रित्यापथ्यमपि पध्यं, तथा च भिषक्शास्त्रम् - " उत्पद्यते हि सावस्था, देशकालामयान् प्रति । यस्यां कार्यमकार्य स्यात् कर्मकार्यन् वर्जयेत् ॥ १ ॥ " कार्य-विधेयं, तदप्यकार्य न कर्त्तव्यं स्यात् । कर्मकार्य कर्त्तष्यक्रियामित्यर्थः । एवमेव 'तं 'ति तदेवाशुद्धमपि दीयमानं गृह्यमाणं च दातृगृहीत्रोतिमवस्थोचितत्वात्पथ्यं स्यात् । कवेत्याह- ' असंस्तरणे ' अनिदुर्भिक्षग्लानाद्यवस्थायामित्यर्थः । अयमभिप्रायो- यद्यपि इदमाघाकर्माज्ञाभङ्गाद्यनेकदोषकारणं वर्णितं, तथापि - " सवस्थ संजमं सं-जमाल अप्पाणमेव रक्खेज्जा । मुम्बइ अहवायाओ, पुणो विसोही तथा बिरई ॥ १ ॥ काह अछति अदुवा अहीहं, तवोवहाणेसु य उज्जमिस्तं । गणं च नीई व सारविस्सं, सालंबसेबी समुबेह सुक्खं ॥ २ ॥ साबणो पडतो, अप्पाणं दुग्गमे त्रि धारेई । इय सालंबणसेबी, घारे जई असदभाव ॥ ३ ॥ अप्पेण बहुमिच्छेजा, एयं पंडियलक्खणं । सव्वासु पडिसेवासु, एवं अट्ठपयं विऊ ॥ ४ ॥ न वि fife अणुन्नार्य, पडिसिद्धं बाचि जिणवरिंदेहिं । एसा तेर्सि आणा, कज्जे सचेण होयव्वं ॥ ५ ॥ धावतो
१. नीई व व सार०" य. के. इ. । "नीईए सार" प. ।
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कारण विश पतों दातव्यादातव्य
आतुर
दृष्टान्तः ।
॥ २४ ॥
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Re उचाओx, मग्गन्नू किन गच्छइ ? कमेण । किं वा मउई किरिया, न कीरए ? असहओ तिकच ।। ६॥" इत्याचागमाभित्रैर्यथावसरं बहुतरगुणलाभाकासया गृह्यमाणं दीयमानं च न दोषायेति गाथार्थः ॥ २१ ॥
अथ यदुक्तं-'पत्तविसेसे व होज 'चि तयाख्यानयबाह
दी०- संस्तरणे' शुद्धानादिलाभानिर्वाहे सति अशुद्धं गृण्हतो द्वयोरपि गृहीतदात्रो-यतिगृहस्थयोरहित-अनर्थहेतुत्वादपथ्यं, 'आतुरदृष्टान्तेन' रोगिणो बातेन+, तस्य हि अवस्थाविशेषादनमेवापध्य पथ्यं च स्यात् , तथा तदेव तयोहितगुणहेतुत्वात्पथ्यं, क?' असंस्तरणे' दुर्भिक्षग्लानाद्यवस्थास्विति गाथार्थः ॥ २१ ॥ अत्र पात्रविशेपे वेति यदुक्तं तदाह-- भणियं च पंचमंगे, सुपत्तसुद्धऽन्नदाणचउभंगे। पढमो सुद्धो बीए, भयणा सेसा अणिटुफला ॥२२॥
व्याख्या-'भणितं च' प्रतिपादितं च, त्याह-पञ्चमाने प्रज्ञयमिधाने, व स्थाने ? इत्याह-सुपत्तसुद्धऽन्नदाणचउभंगे 'ति, शोभन 'पात्रं' दानस्थान सुपात्रं, तत्र तस्मै वा शुद्धामदान-एषणीयाहारवितरणं सुपात्रशुद्धानदान, तद्विपय'तुमको विकल्पचतुष्टयं, स तथा, तस्मिन , किं भणितमित्याह-'पढमो'इत्यादि, प्रथमः-सुपात्रे शुद्धान्नदानमित्येवं. लक्षण आधभङ्गा, शुद्ध-एकान्तेन निर्जराहेतुत्वानिर्दोषः। द्वितीये-सुपात्रे अशुद्धानदानमित्येवस्वरूपे द्विसह्यभङ्गके • भंजना' बहुत्तरनिर्जराऽल्पतरपापकर्मबन्धसम्मवाच्छुद्धेर्विकल्पना । शेषौ-कुपाचे शुद्धामदानं कुपात्रेऽशुद्धानदानमित्येवंx“मान्तोऽपि गच्छन्" इति पर्यायः अ. " सखाओ" इ. क.। + " न्यायेन "अ.म.।
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एल
लघुपचाबुद्गमाबदोषे पात्रदानयोश्चतुर्मङ्गी।
तिम्
पेण्ड-है| लक्षणौ तृतीयचतुर्थभङ्ग कावनिष्टफलावेव-*एकान्तेन पापकर्मबन्धहेतुत्वादनीप्सितकार्यप्रसाधको, इति शब्दाच्याहारादित्ये-
तहणितं । तथा च प्रज्ञायष्टमशनषष्ठोद्देशकसूत्रम्करद्वयो| "समणोधासगरसण मते ! नहारूवं समणं वा माहणं वा एसणिज्जेणं फासुएणं असण-पाण-
खाइम साइमेर्ण पडिलामेमाणस्स किं कजहर, गोयमा! एगंतसो से निजरा कज्जई, नस्थि य से पावे
कम्मे कन्जह "ति अस्यार्थ:-' श्रमणोपासकस्य ' श्रावकस्य 'ण'मिति वाक्यालंकारे · भदंत !' सकलकल्याणनिलय ! २५ ॥
तथारूपं श्रमणं वा 'माइन वा 'ब्राह्मणं वा प्रामुकैपणीयेनाशनादिना'प्रतिलाभयतो' लाभवन्तं कुर्वतः । 'किंकजह 'त्ति किं फलं भवतीत्यर्थः १, गौतम !'एगंतसो 'त्ति एकान्तेन निर्जरा क्रियते, 'सेति तस्य श्रमणोपासकस्य 'नत्थि य से सि नास्ति चैतद्यत् से' तस्य पापं कर्म · क्रियते' भवति, अप्रासुकदान इवेति प्रथमभनार्थप्रतिपादकसूत्रार्थः।
द्वितीयभङ्गसूत्रं पुनरिद-" समणोवासयस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं चा अफासुएणं अणेसणिजेणं असण-पाण-वाइम-साइमेणं पडिलामेमाणस्स किं कजह!, गोयमा! बहुतरिया निजरा कज्जइ अप्पतराए से पावे कम्मे कबइ "ति अस्यार्थः प्राग्वनवर-' बहुतरिय 'ति बहुतरा पापकर्मापेक्षया । 'अप्पत. राए 'त्ति अस्पतरं निर्जरापेक्षया । अयमर्थ:-गुणवते पात्रायाप्रासुकादिद्रव्यदाने चारित्रसाधनकायोपष्टम्भो १, जीवघातो २, व्यवहारतस्तच्चारित्रवाघा च ३ भवति । ततश्च चारित्रसाधककायोपष्टम्भानिर्जरा जीवघातादेव पापं कर्म स्यात् । तत्र च * ॥ फलावेकान्तेन " इ.क. + " गोयमा !" अ.इ.क. य. ।
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॥२५॥
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स्वहेतोः सामर्थ्यात् पापापेक्षया बहुसरा निर्जरा, निर्जरापेक्षया चाल्पतरं पापं भवति । इह च विवेचका मन्यन्ते--असंस्तरणादिकारणत एवाप्राकादिदाने बहुतरा निर्जरा भवति, नाकारणे, यदुक्तं- 'संघरणंमि असुद्ध मित्यादि, तथा-" नागागाणं कम्पणखाणं, अन्नपाणाईणं दव्वाणं देसकालसद्धा सकारसंजुत्तं पराए भत्तीए आषाणुग्गहबुद्वीप संजया दाण "मित्यादि, अन्येत्वाहरकारपणेऽपि गुणवत्याश्रायात्रासुकादिदाने परिणामवाद बहुत निर्जरा मवत्यल्पतरं च पापं कर्मेति, निर्विशेषणत्वात्सूत्रस्य परिणामस्य च प्रमाणत्वात् । आइ च- " परमरहस्स मिसीगं, +समत्तगणिपिड - भरियसाराणं । परिणामियं पमाणं, निच्छयमवलंबमाणानं ॥ १ ॥ "ति । नन्वेवं धर्मार्थमप्रासुका दिदानं कर्तव्यमापनमित्यत्रोच्यते - आपद्यतां नाम, भूमिकापेक्षया को दोषः, यतो पतिधर्म्माशिक्तस्य गृहथस्य द्रव्यस्तवे प्राणातिपातादिकतमेव प्रवचने, यचोच्यते- 'संधरणंमि असुद्ध 'मित्यादिना अशुद्धं द्वयोरपि दातृगृहीत्रोरहितायेति, तदूग्राहकस्य व्यव stra: संयमfarstra arयकस्य च कष्टान्तभावितत्वेनाप्युत्पत्वेन वा ददतः शुमारपाशुष्कता निमित्तत्वात् ।
* “यत सक्तं," अ.य. । × गाथेयं सम्पूर्णाऽस्यैव प्रम्भस्यैकविंशतितमा + पठितसम सगणिपिटक साराणां - अधीत द्वादशांगभारीणां । १ यात्रापेक्षया । २ पासस्थाई हि भाविया से लुब्धकदृष्टान्तभाविया, कई १, ते पसत्या एवं कलि-जहा लुगो हरिणम्स पिटुओ घाव, हरिणस्स पलायमाणस्स सयं बुद्धगस्स वि जेण तेपप्पगारेण हरिण अबे (?) वा भायंतस्स सेयं, एवं जहा हरिणो तहा साहू, जहा लुगा तहा साबना साहू य, अकप्यकाण्डमहाराजे पकायन्ति । पासस्था सढे भणति-ज्रेण सेणचारेण सचाई अलीयाई भासण सुम्भेहिं कपियं अकपियं वा स [मपिभवं ] इति पर्यायाः अ. "
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पिण्डविशुद्धि ०
काद्वयोपेतम्
| २६ ॥
शुभमपि चारं अतिमिह विवक्षितमिति द्वितीयमङ्गप्रतिबद्धसूत्रसङ्क्षेपार्थः ।
तृतीयचतुर्थभङ्गकसूत्रं पुनरिदं-" समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं अस्संजयं अविरये अप्पाडच'स्वाय पावकम्मं फासुएण वा अफासुरण वा एसणिज्रेण वा अणेसणिज्रेण वा असण पाण-वाइम साइमेणं पडिला माणस किं कज्जइ १, गोयमा ! एगंतसो से पावे कंमे कचड़, नत्थि से कावि निज्जरा कज्जह"त्ति, प्रतीतार्थं चैतन्नचरं--' असंयतः ' सप्तदशप्रकारसंयमाद्वहिर्भूतस्तथा विविध-मनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतस्तनिषेधादवितः । तथा प्रतिवानि स्थितिहासतो ग्रन्थिभेदेन प्रत्याख्यातानि हेत्वभावतः पुनर्वृद्धिनिरोधात् कर्माणि ज्ञानाचरणादीनि येन स तथा तनिषेधात् अप्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा, तं, एवं च ' असंजए' त्यादिना निर्गुणः पात्रविशेष उक्तः, फासुरण वा अफासुरण वेत्यादिना तु प्रासुकाप्रासुकादेर्दानस्य पापकर्मफलता निर्जराया अभावयोक्तः, असंयमोपष्टम्भस्योभयत्रापि तुल्यस्यात् । यश्च आसुकादी जीवधाताभावेन अप्रासुकादौ च जीवघातसद्भावेन विशेषः सोऽत्र न विवक्षितः । पापकर्मणो निर्जराया अभावस्यैव चेह विवक्षितत्वादिति तृतीयचतुर्थभङ्गसूचकसूत्रार्थः । एवं तावत्- ' सुपत्तसुद्धऽन्नदाणउभंगे पढमो सुद्धो' इत्यादिग्रन्थ सुखावबोधार्थं सव्याख्यानं सूत्रत्रयमपि निदर्शितं । अत्र च द्वितीय सूत्रभावार्थ अन्ये पुनराहुरकारणेऽपि गुणवत्पात्रायाप्रासुकादिदाने परिणामवशात्रहुतरा निर्जरा भवत्यल्पतरं च पापकर्मेत्यादिलक्षणमाश्रित्य 'पत्तविसेसे व होज्ज' चि प्राक्तन [विंशतितम] गाथाऽवयवार्थो भावनीय इति गाथार्थः || २२ ||
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उक्त दाने च तस्य ये दोषा इति षष्ठद्वारं, साम्प्रतं यथाप्रच्छेति सप्तमं द्वारं, तत्र यथा पृच्छा सम्भवस्तथा दर्शयितुमाह---
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लघुघुताबुद्धमायेंदोघे दानपात्रयोश
तुङ्गी ।
॥ २६ ॥
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दी-मणितं पैतत्पञ्चमाले अष्टमशतषष्ठोद्देशके सुपात्रशुद्धाभदानोपलक्षणे तच्चतमझे, यथा-मुपाचे शुद्धामं १, सुपात्रे अशुद्धानं २, अपात्र शुद्धा, अपान अनुदाजामति ४ । एषां स्वरूपमाह-प्रथमो मतः शुद्धो, निर्जगहेतुत्वात् , द्वितीवे 'भजना' शुद्धर्विकल्पना, बहुतरनिर्जराऽल्पतरपापबन्धात् । शेषौ द्वावनिष्टफलौ, एकान्वेन पापबन्धहेतुन्वादिनि गाथार्थना२२॥ - उक्तं दानद्वार, अय यथापृच्छेति सप्तमं आह-- देसाणुचियं बहुदव-मप्पकुलमायरोय तो पुच्छे। कस्स कए केण कयं?, लक्खिज्जइ वज्झलिंगहि ॥२३॥ ____ व्याल्या-देशस्य-मालबादिमण्डलस्यानुचित-तत्रासम्भवादयोग्य देशानुचित, तथा 'बहु' प्रचरं, किं तदित्याहहै।'द्रव्यं ' शाल्योदनादि, तथा 'अल्यं' एकठ्यादिमानुष 'कुलं' गृहं, तथा आदरो-दातुर्मतिविशेषकृतः मम्त्रमः,
चः समुच्चये, यदि स्यादिति शेषः 'तो'चि ततस्तदनन्तरं तदा वा-तस्मिन्काले, किमिस्याह-पृच्छन् ' प्रश्नं कुर्यान् । केनप्रकारेणेत्याह-कस्से त्यादि, कस्य-किं गृहस्थस्याऽऽदोश्चित्साघोः 'कने' निमिची तथा केन पुरुषादिना 'कुतं' निष्पादितमिदं झाल्योदनादि द्रव्यमिति प्रक्रमः । एवं च प्रश्न कृते सति यदि दाता प्राञ्जलस्वमावो भवति नदा कथयत्येव यथाभवनिमित्तमेतद्विहितं, अघ मायावित्वात्सत्यं न कथयति तथापि तनु जायत इति दर्शयन्त्राइ-लक्विजह बझलिंगहि ति 'लक्ष्यते 'ज्ञायते यदुतामिदमिति । के कुत्त्वेस्थाह-बाझलिङ्गः सविलक्षहसितपरस्परावलोकनस्खलद्भाषितादिमिाह| वनिचिहै, वय साधुभिस्तत्परिहर्चव्यमिति । अथ कदाचित्पृष्टे सति दाता रोपं कुर्यात् । का ततिर्यमाकमस्मद्गृहवृत्तान्तपरिझाने इत्यादिकं, साक्षेपवचनं वा किञ्चित् ज्याचतस्तद्भावमलीकसत्यकोपादिकं ज्ञात्वा गृहीतव्यमिति माथार्थः ॥ २३ ॥
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AKAKKA
मातात्विात्सत्यं न कथयात बामलिङ्गः सविनकार्यात् । का सप्तिमा मायाः ॥
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विशुद्धि कायो- पेतम्
॥२७॥
वृत्ती
उक्त गणान्तति सामना, माला ललनेन्यमहारं व्याख्यातुमाह---
उद्गमा दी०-देशस्य मालवाकादेरनुचितं तत्रासम्भावि 'बहुद्रव्य शाल्योदनादि अल्पकुलं 'स्तोकमानुपादिगृहं 'आदरश्च' दोषे दी दातुर्भक्तिसम्भ्रमो यदि स्यादत्ततस्तदा वा पृच्छत्-कस्य कृते इदं ? केन हेतुना पुंसा वा कृतं ? भक्तादीति पृष्टे पदि सत्यं 8 कार्या या नाचष्टे तथापि लक्ष्यते पाह्यलिङ्ग-विविधशरीरादिचिह्नरिति गाथार्थः ।। २३ ।। उक्तं यथापृच्छाद्वारे, अंथ छलनेत्यष्टममाह- पृच्छति थोवंतिन पुढे न क-हियं च गूढेहिं नायरोककओ।इय छलिओविन लग्गइ,सुओवउत्तो असढभावोसप्तमं ल
व्याख्या-स्तो ' स्वल्पं, द्रव्यमिति गम्यते, इति हेतोरुपलक्षणस्वादहपि देशोचितमिति कारणाद्वान' व 'पृष्टं' 131 पूर्वोक्तप्रकारेण प्रनितं, साधुनेति गम्यते, तथा 'न' नैव कथितं-मायाविवाहिभिः साधुना पृष्टमपि न निवेदितं, यथा | छलने भवदर्थ कृतमेदिति । 'वा' विकल्पे। तथा 'रलक्ष्यस्वभावः, गृहिभिरिति गम्यते । 'न' चादरो-भक्तिविशेषः ष्टमं द्वार कृतोऽम्युत्थानवन्दनप्रसभवदनत्वादिसम्भ्रमो 'वा' विकल्पे 'कृतो चिहितः । इत्येवमनेन प्रकारेण 'छलितोऽपि' अशुदाहारग्रहणतो गृहिभिर्यसितोऽपि, साधुरिति प्रक्रमः, किमित्याह-'न' व 'लगति' अशुद्धाहारग्रहणादिजनितकर्मणा सह श्लिष्यति । किविशिष्टः सन्निस्याह-'श्रुते 'पिण्डैषणाभ्ययनादौ 'उपयुक्तो 'दत्तावधान:-श्रुतोपयुक्ता, सिद्धान्तोक्तपिण्डदोषपरिज्ञानोपायावहितचित्त इत्यर्थः । पुनरपि झिविशिष्ट इत्याह ' अशठमावो' निर्मायचित्तपरिणतिरनेन चैतदाचष्टे-यः ! |-पिण्डैषणानमिझोऽभिज्ञोऽपि वा प्रमादितयाऽनुपयोगवान् व्यंस्यते, स कर्मणा बध्यत एव, भगवदाचाचिरापकत्वात् हिष्टपरिणामस्वाति गाथार्थः ।। २४ ॥
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उक्तं यथा छलना स्यादित्यष्टमद्वार, अथ कथञ्चिदशुद्धपिण्डग्रहणेऽपि शुद्धिर्यथा स्थाचद्विपक्षत्वात्तदग्रहणेऽप्यशुद्धिश्च यथा स्थादित्येवं लक्षणं नवमद्वारमभिघित्सुराह ।
दी०-स्तोकं देयद्रव्यं, उपलक्षणावह्वपि देशोचितमिति न पृष्टं, पृष्टं चेत्र कथितं मायाविस्वाद् गृहिभिस्तथा 'गृहै' रलक्ष्यस्तै वादरो वा-भक्तिसम्भ्रमः कृत, इत्येवं 'छलितोऽपि' अशुद्धं ग्राहितोऽपि साधुने 'लगति' तजन्यकर्मणा न श्लिष्यति, कथम्भृतः ? 'श्रुतोपयुक्तः एषणाविधिसावधान 'अशठभावो' निर्मायचित्त इति गाथार्थः ॥ २४ ॥
उक् छलनाद्वारं, अधुना शुद्धा(? शुद्धया)ख्यं नवममाहआहाकम्मपरिणओ, बज्झइ लिंगिव सुद्धभोई वि। सुद्धं गवेसमाणो, सुज्झइ खगोव कम्मे वि॥२५॥
व्याख्या-'आधाकर्मपरिणतोऽशुद्धाहारग्रहण भोजनाऽभिलापी सन् , भिक्षुरिति गम्यते । किमित्याह-'बध्यते' आधाकर्ममोगप्रमवदारुणकर्मणा श्लिष्यते । क इवेत्याह-'लिङ्गिवत् तथाविषद्रव्यसाधुवेषधारकपुरुषवत् । अनेन च संविधानक सूचयति । किंविशिष्टो भिक्षुरित्याह-'शुद्धभोज्यपि' प्रासुकैपणीयाहाराभ्यवहार्यपि, न केवलमशुद्धमोजीत्यपि शब्दार्थः । अनेन
च परिणाम एव तन्वतः कर्मवन्धकारणमित्याचष्टे । लिनिसंविधानकं चेदम्M. एगम्मि नगरे एगेण सावएणं संघभोजं दवावियं । तं च सोऊणं एगो साहू पचासनगामाओ तग्महणत्यं सिग्घ
मागओ । तओ तं भिक्खट्टमुवट्ठियं दटुं सावएणं मणिया साविया 'देहि एयस्स भिक्खं 'ति । तीए भणियं-सबंपि तं दिवं। तओ तेण. मणियं मम मत्तमझाओ देहि । तओ तीए ओयणमोयगाइयं पडिपुन्नं भोयणं दिन्नं, साहुणा य संघभत्तं ति भन्न
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पेतम् ।
लघुवृचावायदोषस्य नवमद्वारे शुद्ध. ताया अशुद्धतायाश्च स्वरूपम् ।
पिण्ड- माणेण अईसाउं उक्कोसगं वत्ति मुच्छिएण य तं भुत्तं ति । एवं च सो सद्धपि भुजतो असु(ह)द्धपरिणामवसेण आहाकम्म. विशुद्धिापरिमोगदोसजणि यकम्मुणा बद्धोति । टीकाइयो- ' अनेन च शुद्धग्रहणेऽपि शुद्धिर्यथा न स्यादित्येतत्प्रतिपादितं, अथाशुद्धग्रहणऽपि शुद्धियथा स्यात्तथा दर्शयति-'शुद्ध'
मित्यादि, 'शुद्ध' निर्दोष, पिण्डमिति गम्यते । 'गवेषयन् आगमनीत्या मार्गयन् , साधुरिति प्रक्रमः, किमित्याह-
शुद्ध्यति-विशुद्धपरिणामस्वात्कर्ममलक्षपणतो निर्मली भवति, क इवेत्याह-'क्षपक इब' विकृष्टतपाकर्तृसाधुवत् । अनेनापि ॥२८॥
संविधानकं सूचयति । क सत्यपीत्याइ-'कर्मण्यपि आधाकर्मभोगेपीत्यर्थः । न केवलमितरभोग इत्यपि शब्दार्थः । अनेन च परिणामशुद्धिरेव तत्त्वतः कर्मक्षयकारणमित्याह । पम्यते च 'परमरहस्समिसीण'मित्यादि । क्षपकसंविधानकं चेद--
एगम्मि सुविहियसाहुगच्छे एगो साहू इहपरलोयनिरासंसो सम्मं अहिगयजिणवयणरहस्सो बोसट्टचत्तनियदेहो विगिट्ठतचोकम्मनिरओ चिट्ठह । अन्नया य सो खवगसाह मासक्खवणपारणगनिमितं मा इहनगरे तवचरणावञ्जियलोगाओ अणेसणा मविस्सइति गओ पच्चासत्रगामं । तत्थ य एगाए सावियाए उवलदखगतचोकम्मबुर्तताए मा कयाइ खवगो इह एह' चि संजायदाणसद्धाए धयगुलसंजुत्तं पायसं संसाहिय, तहा 'मा आहाकम्मर्सकाए खवगो न गिम्हहि 'ति माइट्ठाणेण पत्तपुडपमल्लगाणि पायसखरंटियाणि इओ तो पकिन्त्राणि डिंभस्वाणि य माइवाणं गाहियाणि, जहा-जया एरिसो साहू इत्थागच्छद तया तुम्भे मणेजह, जहा-अम्मोपियं पायसं अम्हाणं परिवेसिय, अहं च तुम्मे निम्मच्छिस्सामि । तओ भणिजहकिं दिणे दिणे पायसं रघिजा, न किंपि कर्ज अम्हं इमिणा, मम्गाई अम्हे इमस्स ति । इत्थंतरे सो खवगो भिक्खं हिंडतो
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a य समालोइयपाडता
में अणुगाई करिता
नमोकार विहीए
मवियच्चयावसेण पढमं तीसे चेव घरमागओ,सा य भत्तिमरपूरियनिरंतरहियथावि संवरियागारा अकयसंभमा मोणेणं चेव ठिया। ताणि य माइट्ठाणपनचियाणि डिभरूवाणि तहेव काउमारद्वाणि । तओ तीए ताणि तहेव निभच्छिऊण एयाणि ताव मनिल्लयाणि न गिण्हंति, जह तुज्झ रोयह तो तुम गिण्ड इमं पायसं ति भणमाणीए तस्स जावणा निमित्तं घयगुलसंजुत्तस्स पायसस्स भायणं भरेऊण आणियं, साहुणा य एसणोवउत्तेणं सुद्धं ति कलिऊण गहिय, तओ पजतं ति काउं नियचो गोयराओ, आगओ य किंचि वि रहपएसं । तत्थ य समालोहयपडिकतो कयतकालोचियसज्झायजोगो चिंति पय(तो)हो, जहा-जइ एत्थावसरे केह अद्धाणाइपडिक्नगा साहणो एंति, परमन्नगहणेगा य मे अणुमाई करिति, तो तारिओ होमि भवनवाओ ति, हच्चाइसुद्धऽज्झवसाणपरो तमि य विसिद्धाहारे मासक्खवणपारणगपत्ते वि अमन्छिओ कट्टिऊण पंचनमोकार विहीए भुंजिउं पयत्तो । तओ सुहज्झवसायस्स भोयणावसाणे निरावरणं पडिपुन केवलबरनाणदंसणं समुप्पनं सिद्धो थ कालेणं भयवं खवगकेवलिचि ॥
इह च परिणामशुद्धिरेव तत्वतः कर्मक्षयकारणमित्युक्तं, तत्र परिणामशुद्धिरपि सर्वज्ञानाराधनानुगतैव यथोक्तफलप्रसाधिका, नान्यथेति मन्तव्यं । यथोक्त-"भावशुद्धिरपि ज्ञेया, यैषा मार्गानुसारिणी। प्रज्ञापनाप्रियात्यन्तं, न पुनः स्वाग्रहात्मिका ॥१॥" ततश्च स्वच्छन्दभावपरिहारार्थ आज्ञाभङ्गामणकारिणो महापायस्वकार्यप्रसाधकल्वप्रतिपादकमुदाहरणमुच्यते
एगंमि नगरे एगस्स रनो पत्तपुष्फफलसमिद्धपायवगणरमणिजाणि दोनि उजाणाणि अहेसि, तं जहा: चंदोदयं च सरोदय च । तत्थ चंदोदय नगरस्स अवरदिसाए, सूरोदयं पुवदिसाए । अह वसंतसमए अंतेउरकीलाकोउगस्थिणा पस्थिवर्ण संज्झाए ।
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पिण्ड विशुद्धि ० टीकाइयो
पेतम्
॥ २९ ॥
पडहमदापुरस्सरं नियपुरिसेहिं नयरे घोसावियं, जहा भो भो ! सुणंतु वणककुदाराइयो पुरिसा ! बन्ना समाइ- अहं भाए अंतरपरिगओ सरोदये उज्जाणे गमिस्सामि, तं तुब्मेहिं चंद्रोदये चैव गंतवं ति । तओ राया पच्चूसे सूरोदये गमणागम• सुसंमुही सूरो त्ति कलिऊण चंद्रोदयं गओ । तं च घासणं सोउं जं तत्थ दुरप्पाणो सिडिंगप्पा यपुरिसा, ते ' अम्हे दुल्लमदंसणाओ नरिंदमहिलाओ पासिस्सामो' त्ति चिंतिऊण यूरोदयं गया । तत्थ य पत्तलदुमसालासु लिक्कि ठिया । ते च उजाणा| रक्खियपुरिसेहिं रायाणाभंगकारिणो त्ति महेऊणं पहया बद्धा य । जे पुण तणहारगाइणो घोसणं सोऊणं चंदोदयं गया, तेहिं सहसापविडाओ दिट्ठाओ वस्वसणभूसणधराओ पणिदुमुहीओ वियसियरकमलदी हरलोयणाओ निबंगणाओ, तओ तेवि हेच बद्धा, नयराभिमुई चलियरस य अवरण्हे राहूणो दंसिया दोवि वग्गा उआणपालहिं । तओ राइमा पुच्छिऊण तत्रयरं रोदयगामिणो अदिशेवरोहा विं ममाणाभंगकारिणो ति वद्दाविया, इयरे आणाकारिणो त्ति दिडोवरोहा वि विसजियति । एवमित्य व तिथयराणाभंगकारिणो अकयाहाकम्ममोगा वि जम्मजरामरणवेयणा निबंधणदारुणकम्मबंधाइयं महाणत्थं पार्विति, इयरे कर्हिचितम्भोगकारिणो वि ताओ मुश्चंति सकलपसाहगा य भवति । भणियं च " सयलसुरासुरपणमियजिणगणहर भणिय समयपरतंता । आराहिऊण सम्मत्त-नाणचरणाई परमाई || १ | सत्तट्टभवग्गहणतरकालंमि केवलं नाणं । उप्पाडिकण जंति य, विहुयमला सासयं मोक्खं ॥ २ ॥ तत्थ य जरजम्मणमरण-रोगतहाहाभयविमुक्का । साइअपज्जव साणं, कालमणतं लहंति सुहं ॥ ३ ॥” इति गाथार्थः || २५ || एवं चाज्ञामङ्गाद्यनेकदोषनिबन्धने आधाकर्म्मग्रहणे प्रतिपादिते सत्याह कविद
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लघुवृचावाद्यदोषा
टमद्वारे परिणामशुद्धेमहत्वम् ।
।। २९ ।।
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दी०-आधाकर्मपरिणतोऽशुद्धपिण्डार्थी 'वख्यते' तजन्यकर्मणा लिप्यते शुद्धमोज्यपि, आस्तामितरः। कब | इत्याह-लिङ्गीय वेषधारकसाधुवन् , तत्कयेयं-कश्चित्साघुरेकस्मिन्नगरे कस्यापि श्रावकस्य गृहे सङ्घमोज्यं श्रुत्वा तीरग्रामाद्रसलोलतया तत्राजगाम, तद्विक्षार्थ श्रावकरिता पत्नी 'सर्वमग्रे दत्त'मित्युवाच, ततो 'मम मक्तादपि देहीपुस्वा दापितं सम्पूर्णमिष्टावं, सङ्घभक्तधिया विहत्य बुमुजे, स चैवमशुद्धपरिणामादशुद्धकर्मणा बद्धः। किमशुद्धमोज्यपि शुक्ष्यति ? इत्याह-शुद्धं गवेषयन् 'शुद्ध्यति' कर्ममलक्षयान्निमली भवति 'कर्मण्यपि आघाकर्मभोगेऽपि 'क्षपक इव' उत्कृष्ट
कसाघुवत् । तत्कथेयं-यथा करिमश्विद् गच्छे साधुरेको निरीहस्तपस्वी मासक्षपणान्ते पारणार्थमनेषणीयभयाद् अामान्तरं+ यातस्तत्रैका श्राविका विज्ञाततत्पारणा दानश्रद्धया झटिति कृतपरमाना प्रगुणितधृतगुडा आधाकर्माच्छादनाय बहिः क्षिप्तपायसोपलिसपत्रादिषटका 'नित्यं न रोचत इदमिति शिक्षितचीराबमोबिवालका तं रूपकं गृहमायान्तं वीक्ष्य धीरामपूर्णमाननं सतगुडमुत्पाब बालपरिवेशनच्छचनाऽम्युत्थिता तेषां शिक्षाक्शादगृहां आपको जल्पितो-'यदि दव | रोचते तदा गृहायेत्युक्ते शुद्धधिया बिहत्य तदशुद्धमप्यमञ्छितो सञ्जानो विशुद्धाध्यवसायवनाचदन्ते केवलज्ञानमाप, | एवमसाक्दमोन्यपि शुद्धान्वेषणाच्छुद इति गाथार्थः ॥ २५ ॥ • अथ त्रिकरणधुदस्य साधोराधाकर्मणा को दोषः । इति पूर्वपश्चपाह__ + अन्तरं ययौ, तौका "काम:- . -.
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पिण्डविशुद्धि टीकाद्वयो
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लघुपत्तावाद्यदोषाटमद्वारे प. रिणामशुद्धमहत्त्वम् ।
पेतम्
॥३०॥
नणु मुणिणा जं न कयं, न कारियं नाणुमोइयं तं से।
गिहिणा कडमाइयओ, तिगरणसुद्धस्स को दोसो ? ॥ २६ ॥ व्याख्या-नन्विति प्रश्ने, 'मुनिना' साधुना यदशनादिक 'न' व 'कृतं स्वयं निष्पादितं तथा 'न''नव 'कारितं अन्येन निर्वसितं तथा 'न' नैवा'नुमोदित' परेण क्रियमाणं कृतं वा श्लावितं तदशनादिकं 'सेति तस्य मुनेगृहिणा-अगारिणा 'कृतं' निष्पादितं सत् 'आइयओ'त्ति आददानस्य-गृङ्गतः, किंविशिष्टस्य मुनेरित्याह-'त्रिकरणशुद्धस्य मनोवाकायनिदोपस्य सतः 'को दोषः' किं दूषणं ?, न कोऽपीत्यर्थः । अयमत्र प्रेरकाभिप्राय:-इह किल तावजीवस्य मनोवाकायैः सावधयोगकरणादिरूपतया व्यापृतैरेव दोषो जायते, न चैतेषां मध्यादेकमपि साधुमत्कं गृहिणा साध्वर्थ पिण्डे क्रियमाणे च्याप्रियते, अतः कथं तहणे तस्य दोषसम्भवः । इति माथार्थः ॥ २६ ॥ अत्रोत्तरमा--
दी-नन्विति पूर्वपक्षे, मुनिना यन्न कृतं न कारितं नानुमोदितं, तदाधाकर्म 'से तस्य गृहिणा कृतमा ददानस्य | गृण्डतः त्रिकरणशुद्धस्य को दोषः । इति गाथार्थः ।। २६ ।। अत्रोसरमाह-- सञ्चं तहवि मुणतो, गिण्हतो वद्धए पसंग से। निद्धंधसोय गिद्धो, न मुयइ सजियंपि सो पच्छा॥२७॥
व्याख्या-'सत्यं' अदितथमेतदनन्तरोक्तमिति गम्यते । तथापि' एवमपि सतीत्यर्थः। 'मुणन् ' साध्वर्थमिदं | विहितमित्यवगच्छन् , साधुरिति गम्यते, किं कुर्वाण ! इत्याह-'गृहन् ' स्वीकुर्वन् गृहिणा दीयमान, पिण्डमिति गम्यते ।
SALORESAXE
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॥३०॥
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किं करोतीत्याह-'बर्द्धयति वृद्धिं नयति । कमित्याइ-'प्रसङ्ग पुनःपुनराधाकर्मकरणप्रसक्ति, कस्येत्याह-'सेति तस्य दावगृहिणः, अपरं च तद्हणे साधुरपि यत्करोति तदाह-'निबंधसों निःशूको-निर्दय इत्यर्थः । च शब्दो दोषान्तर समुच्चयार्थः । तथा 'लुब्धो' गृद्धः किं करोतीत्याह-'न' नैव 'मुश्चति' परित्यजति, किं तदित्याह-सजियं पिति सजीवमपि-अप्रासुकमपि, न केवलं निर्जीवमित्यपि शब्दार्थः । 'सो'शुद्धाहारबाही साधुः 'पश्चात् सकृदपि ग्रहणानन्तरं, अयमत्राभिप्राय:-अकुशलान्यासतो निर्द्धन्धसत्वसद्भावात्तत्रैव सदा रतिमान् भवति । यदाह-"करोत्यादौ तावत्सघृणहृदयः किश्चिदशुभ, द्वितीय सापेक्षो विमृशति च कार्य च कुरुते। तृतीयं निःशङ्को विगतवृणमन्यत्प्रकुरुते, तता पापाभ्यासात्सततमशुभेषु परमते ॥१॥” इति गाथार्थः ।। २७ ॥
व्याख्यातं शुद्धिरिति नरमद्वारं, तयाख्यानाच व्याख्याता "तं पुण जं जस्से"त्यादिद्वारगाथा, तब्याख्यानाच व्याख्यात आधाकारूयः प्रथमपिण्डोद्गमदोषः। अथ मूलद्वारमाथाऽभिहितं द्वितीयदोषमौदेशिकाभिधानं व्याख्यातुमाह----
दी०-सत्यमिदं, तथाप्येवं सति 'मुणंतो जानन् मुनिस्तथा गृहन् कार्मिकं बर्द्धयति 'प्रसङ्ग नित्यमाघाकर्मकरणप्रसक्ति 'से' तस्य गृहिणः, स्वयं कथं ! इत्याह-निदधसोय' निश्शूकश्च 'गृद्धो लुब्धः सन मुश्चति 'सजीवमपि अप्रासुकमपि साधुः पश्चात् तद्हणानन्तरमिति गाथार्थः ।। २७ ।।
उक्तो नवभिरिराधाकर्माख्या प्रथम उद्गमदोषा, अथ द्वितीयमौदेशिकाख्यमाहउद्देसियमोहविभा-गओय ओहे सए जमारंभे। भिक्खाउ कइवि कप्पड़, जो एही तस्स दाणट्ठा ॥२८॥
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T
पिण्ड
XARRIO
पेतम्
ब्याख्या-इहौदेशिकं द्विविधं भवति, तद्यथा-ओषौदेशिक विभागौदेशिकं चेति, एतदेवाऽऽह-'औदेशिक पूर्वोक्त औद्देशिक विदिशब्दार्थ, ओघ इति विभक्तिलोपा दोषत' ओघमाश्रित्य, उद्देशादिवक्ष्यमाणभेदाविवक्षणासामान्यत इत्यर्थः । तथा 'विमा- द्वैविध्य
गती' विभागमाश्रित्य, उद्देशादिवक्ष्यमाणविशेषविवक्षणाद्विशेषत इत्यर्थः । चः समुचये । स्यादिति शेषः । तत्राद्यमेद माद्यस्य च विवृण्वन्नाह-'ओहे'त्यादि । 'ओघे ओघविषयं औदेशिकं तत्स्यात् , यत्किमित्याह- यह 'स्व स्वकीये-स्वार्थप्रव- तस्वरूपम् । तित इत्यर्थः। यदित्यस्य योगो दर्शित एव । कस्मिनित्याह-'आरम्भे अग्रिवालनस्थाल्यादि आ] रोपणादिके पाकादिव्यापारे, किमित्याह-भिक्षामक्तादिविभागान् +त्यपि' कियतीरपि द्विवादिकान, न पुनः समग्राहारमपीत्यपिशब्दार्थः, 'कल्पते विवक्षयति, काचिदात्रीति गम्यते । किमर्थमित्याह-यः कश्चिदनिर्धारितस्वरूपः पाण्डिकादिरेष्यति-आममिप्यति, तस्य पापण्डिकादे'दर्दानार्थ बितरणानिमित्तं । इदमुक्तं भवति-यत्काचिदमारिणी क्वचिदुर्भिक्षादावनुभृतबुभुक्षादिदुःखा समासादितसुभिक्षभोजनमात्रधना "नादत्तं भुज्यते न चाकृतं फलती"ति भावितमतिः स्वार्थनिष्पाद्यमानाहारमध्याद्यः कश्चिदेष्यति तस्य दानार्थ कतिचिद्भिक्षाः सङ्कल्पयति तदोघौद्देशिकं, एतच्च पिण्डेपणोपयुक्तेन साधुना "दिनाओ ताओ पंच-वि+रेहाओ करेह देह व गणंती | देह इओ माय !इओ, अवणेह य एत्तिया भिक्खा ॥१॥" इत्यादिहातचेष्टाभिरवगम्य निस्सन्देहेऽनापृच्छय सन्देहे स्वापृच्छय परिहर्तव्यं । विवक्षितमिक्षासु ४च दत्तासु अदत्तासु च अन्योबतास चा शेष शुद्धत्वाद् गृहीतव्यमिति गाथार्थः ।। २८ ॥ उक्तमोघौदेशिक, साम्प्रतं विभागौदेशिक व्याधिख्यासुराह
ल्या कपा +कियत्यपि प.क.हा+पंच ति ह.1 'नादत्तासु दत्तासुप अन्यत्रो अः, प दत्तासु अन्यत्रो फ.काह।
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दी०-औद्देशिकमोघतो विभागतश्च द्विधा, तत्र 'ओष: सामान्यतो दातृविकल्पस्तस्मिन् , किमित्याह-यत् 'स्वके स्वार्थ * आरंमे पाकादौ मिक्षामक्तादिविभागान् 'कत्यपि' कियती अपि कल्पते, काचिदात्रीति गम्यं, किमर्थ ? इत्याह-या कश्चिदनिर्दिष्टः पापंडिकादिरेष्यति तस्य दानार्थमिति स्पष्टं । कल्पितमिक्षादानाद्धं च शुद्धमिति ॥ २८ ।। ___ उक्तमोघौद्देशिकं, अथ द्वितीयं भेदैराह-- बारसविहं विभागे, चउहुद्दिष्टुं कडं च कम्मं च । उद्देससमुद्देसा-देससमाएँसभेएणं ॥ २९ ॥ ।
व्याख्या--'द्वादशविध' द्वादशप्रकार 'बिभागे' विभागविषयं औदेशिकं भवतीति गम्यते । द्वादशविघत्वमेव दर्शयति-18 'चउहुद्दिमित्यादि, चतुर्मि:प्रकारेश्चतुर्दा मवति, किं तदित्याह-उद्दिष्टं वक्ष्यमाणलक्षणं, तथा कृतं च वक्ष्यमाणलक्षणं. चः शब्दश्चतुत्यस्यानुकर्षणार्थः, तथा कर्म च वक्ष्यमाणस्वरूपं, चः प्राग्वत् । केन प्रकारेणेत्याह-'उद्देसे'त्यादि, उद्देशं च | वक्ष्यमाणलक्षण, एवं समुद्देशं चादेशं च समादेशं च उद्देशसमुद्देशादेशसमादेशानि, एतल्लक्षणो यो भेद प्रकारस्तेन । अयमर्थःबेमामोद्देशिकमुद्दिष्ट-कृत-कमेलक्षणमूलमेदात्रिविध, तदपि प्रत्येक उद्देश-समुद्देशा-देश-समादेशलक्षणोचरभेदाच्चतुर्विघमित्ये वमिदं द्वादशविध भवतीति गाथार्थः ।। २९ ॥ साम्प्रतं प्रागुद्दिष्टोद्देशादिभेदचतुष्टयं न्याचिख्यासुराह:. दी०-द्वादशविघं तद्विमागे विचार्यमाणे, कथं ? इत्याद-चतुर्दा' उद्दिष्टं १ कृतं २ कर्म३ चेति त्रिभेदमपि चतुप्रकार, कैः १ उदेश-समद्देश-आदेश-समादेशमेदैदिशविधमिति गाथार्थः ॥ २९ ॥ उद्देशारदीनां व्याख्यानमाx शादीनाइ" म. * " व्याख्यामाह"क. प. ।
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देशिक
पिण्ड- जावंतियमुद्देस, पासंडीणं भवे समुद्देसं । समणाणं आपसं, निग्गंथाणं समाएसं ॥ ३० ॥ द्वादशविधे विशुद्धि
व्याख्या--'जावंतिय' ति सूचकत्वा+धावार्थकाना-समस्तार्थिनां निमित्तं कल्पितं, अशनादीति सर्वत्र गम्य, I|विभागोटीकाइयो- 8 मवेद, किमित्याह-'उद्देश औदेशिकाख्यं । तथा 'पाषण्ड' व्रतं, तद्विद्यते येषां ते पापण्डिनश्चरकादयस्तेषां निमित पेतम् दा विवक्षितमशनादि भवेत्' स्यादिति क्रियापदं सर्वत्र सम्बन्धनीयं । किमित्याह-समुदेश समुदेशसङ्गं । तथा 'श्रमणानां | | उद्देशादि
निर्ग्रन्थ-शाक्य-तापस-गरिका-जीविकलक्षणानां निमित्तं कल्पितं भवेत, किमित्याह-'आदेश' आदेशिकनामकं । तथा चतुर्णा 'निर्ग्रन्थाना साधनां कृते कल्पितं भवेत, किमित्याह-समादेश समादेशाभिश्वमिति गाथार्थः ॥ ३० ॥
स्वरूपम् । अथ प्रागुद्दिष्टमेचोद्दिष्ट-कृत-कर्मलक्षणं विभागौद्देशिकमूलमेदत्रयं विवृण्वन्नाह
दी०-'यावन्तिकादीनां समस्तार्थिनां कृते कल्पित, भक्तादीति गम्य, किं स्यात उद्देशाख्य, पापण्डिनां-चरकादीनां कृते तदेव समुद्देशाख्यं मवेत , श्रमणानां-निग्रेन्ध-शाक्य-तापस-गैरिका-जीविकानां कृते तच्चादेशाख्यं, निग्रन्थानां साधूनां कृते तत्समादेशाख्यमिति माथार्थः ॥ ३०॥ अथ प्रागुक्तोद्दिष्टादित्रयं विवृण्वन्नाहसंखडिमुत्तुबरियं, चउण्हमुद्दिसइ जंतमुद्दिष्टुं । वंजणमीसाइकडं, तमग्गितवियाइ पुण कम्मं ॥३१॥
व्याख्या--'संखडित्ति विमक्तिलोपात्सङ्ख्या विवाहादिप्रकरणे 'भुत्तुवरियति 'भुक्ते' स्वजनादिभिरम्यवहृते | + स्वारसूत्र सचा प. IF "वाटिभिक्षाचराः" इति पर्यायः भ.।
PH॥३२॥ 450
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SEX RAGNESIRE
'उद्वरित' शेषीभृतं भुक्तोद्वरितं यदोदन-तीमन-दधि-मोदकचूण्यांदिभक्त, तत्तदवस्थमेव 'चतुर्णी' चतुस्सयानां याचदर्थिकपाण्डिक-श्रमण-निर्ग्रन्थानामिति प्रक्रमाद्गम्यते, निमित्तमिति शेषः। 'उशिति मनसा सङ्कल्पयति वाचा वा निर्दिशति, गृहस्थ इति गम्यते, यथा-समस्तभिक्षुकेम्य इदं दातव्यं पापण्डिकेम्यो वेत्यादि, यदित्यस्य योगो दर्शित एव । 'तं' ति तद्भक्त, किमित्याह-'उद्दिष्टं उद्दिष्टौदेशिकं, ज्ञातव्यमिति शेषः । एतस्य चाकल्प्यता यावदर्थिकाद्यर्थ व्यवस्थापिते तत्र जीवघातमम्भवशात् । न चेदमित्थं स्थापनान्तर्भावि, 'सट्टाण-परहाणे'त्यादिभिन्नलक्षणत्वात्तस्या + इति । तथा 'वंजणमीसाइकई तंति 'व्यञ्जनेन' दध्यादिना 'मिथ' संयोजितं-व्यञ्जनमिश्र, तदादियस्य तद्यञ्जनमिश्रादि, यदोदनादीति प्रक्रमः। आदिशब्दश्च स्वगतानेकमेदसूचनार्थो व्याख्येयः। 'कृत' कृतौदेशिक नदोदनादि विज्ञेयमिति प्रक्रमः । इदमुक्तं भवति-'संवडिभुत्तुवरियं, चउण्हमुद्दिसइज' इत्यत्राप्यनुवर्त्तते, ततश्च प्रकरणोपभुक्तावशिष्टं यदोदनमोदकचूादिकं 'व्यञ्जनेन' दधि-तीमन-विकट-फाणित-निर्भञ्जनघृतादिना तदर्थमेव मिश्रं कृत्वा चतुर्णा यावदर्थिकादीनां अन्यतरनिमिचमुद्दिशति गृही, यदुत-इदममुकेभ्यो दातव्यमिति, तव्यं औद्देशिकमपि सत् करम्बकादिलक्षण| पर्यायान्तरेण कृतत्वात् 'कृतं' कृतौदेशिकमित्यवसेयमिति । तथा 'अग्गितवियाइ पुण कम्मति 'अग्नि वैशिस्तत्र तेन वा 'तापितं' उष्णीकृतं अग्नितापितं. गुडादीति गम्यते, तदादिर्यस्य तदग्नितापितादि, आदिशब्दात्सचित्त- I जल-लवण-राजिकासम्मिश्रदध्यादिपरिग्रहः। पुनः शब्दो भिन्नवाक्योपदर्शनार्थः। 'कर्म' कमौदेशिकं ज्ञातव्यं । ।
+ परम्परादिस्थापनाया मिन्नस्वरूपस्वादिति भावः (पर्यायः अ.)।
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पि-16
विशुद्धि
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टीकाइयोपेतस्
॥ ३३ ॥
अयमत्र मावार्थ:-इहापि 'संखडिभुत्तुवरियं' इत्याद्यनुवर्सते, ततश्च विवाहादिप्रकरणोपयुक्तावशेष यन्मोदकचूर्ण-मुद्: द्वादशविवे गौदनादिकं तदर्थमेव अग्नितापितगुडादिना पुनर्मोदकादि विधाय सुद्गादीन्वा पुनः संस्कृत्य सचित्तजल-लवणप्रभृति- विमागौद्रव्यसम्मिश्रदध्यादिना करम्बकं वा कृत्वा चतुर्णा यावदार्थकादीनामन्यतरनिमित्तमदिशति, तदौदेशिकमपि [ एतदेव 18 देशिक प्रन्थोक्तेन ] "आहाए वियप्पेणं, जईण कम्ममसणाइकरणं । छकायारंभेणं,तं आहाकम्ममाहंसु॥५॥" उद्दिष्टादिइत्येतल्लक्षणेन देशतः कर्मणा युक्तत्वात् 'कर्म' कम्ौदेशिकं ज्ञातव्यमिति गाथार्थः ॥३१॥
प्रयव्याख्यात औद्देशिकाख्यो द्वितीयः पिण्डोद्गमदोषः, अथ तमेव तृतीयं पूतिकर्माख्यं व्यचिख्यासुराह--
स्वरूपम् । दी.-'सङ्खड्यां' विवाहादौ मुक्तादुद्वरित-शेषीभूतं भक्तादि चतुर्णा पूर्वमायोकानां कने, यदिति सर्वत्र, 'उद्दिशति' मनोवाग्भ्यां निर्दिशति तदुद्दिष्टाख्यं, तदेवोद्वरित 'व्यञ्जनमिश्रादि दध्यादिना मिश्रितं कूरादि कृताख्यमुच्यते, अमिना तापितं गुडादिस्तदादिर्यस्य, आदिशब्दात्सचित्तजललवणादीनां सङ्ग्रहस्तदेवेथम्भूतं पुनः कर्माख्यं भवेदिति गाथार्थः ॥ ३१॥ उक्तं त्रयोदशधा औद्देशिक, अथ तृतीयं पूतिकर्माख्यमाह-- उग्गमकोडिकणेण वि, असुइलवेणं व जुत्तमसणाई। सुद्धपि होइ पूई, तं सुहुमं बायरं ति दुहा॥३२॥
व्याख्या-उद्गमकोटिरविशुद्धकोटिर्मलगुणा इत्येकार्थाः, सा चाधाकर्मलक्षणा. पक्ष्यति [अत्रैव]-"इय कम्म १४ उद्देसिय-तिय २ मीस ३ उज्झोयरंतिमदुगं च। आहारपूड १ थायर-पाहडि १ अविसोहिकोडित्ति ॥ ५३ ॥" तस्या उद्गमकोटेरुपचारादुद्गमकोटिदोषयुक्ताहारस्य 'कणोऽवयव उद्गमकोटिकणस्तेनापि, न केवलं बहुने
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है त्यपि शब्दार्थः । 'असुइलवण व 'त्ति 'या' शब्दस्यैवार्थत्वादशुचिलवेनेव-विष्ठाऽवयवेन यथा 'युक्त' मिलित, किं |
तदित्याह-'अशनादि' भोजनपानादि । किविशिष्टमपि सदित्याह-'शुद्धमपि' पूर्वावस्थायां सर्वथा दोषरहितमपि सत. आस्तामशुद्धमित्यपि शब्दार्थः । 'भवति जायते। किमित्याह-'पूति' अपवित्र-सदोषमित्यर्थः । एवं सामान्येन प्रतिदोषम. मिधायाथ मेदतस्तमाह-'तं सुहम'मित्यादि, 'तंति तत्पूति 'मूक्ष्म अल्पदोषत्वाच्छलक्षणं तथा 'बादरं बहदोषत्वेन स्थूलं । इत्यमुना प्रकारेण 'द्विधा' द्विप्रकारं भवतीति प्रक्रम इति गाथार्थः ॥ ३२ ॥ अथ तद्विविधमपि व्याख्यातमाह--
दी०-'उद्गमकोटि रुद्गमदोषदशकविभागोऽत्रैचोदमदोषान्ने नक्ष्यमाणस्तहोषयुक्ताहारस्य 'कणोऽवयवस्तेनापि, आस्तां * बहुना, अशुचिलवेनेव, युक्तमशनादि, शुद्धमपि भवति 'पूति' अपवित्रं, एवं सामान्येनोक्त्वा भेदस्तदाह-तत्पूति सूक्ष्मं |
बादरं च द्विधेति गाथार्थः ॥ ३२ ॥ अथ द्वैविध्यमाह--
सुहमंकम्मियगंधऽग्गि-धूमबप्फेहिं तंपुण न दुटुं। दुविहं बायरमुवगरण-भत्तपाणे तहिं पढमं॥३३॥ IA व्याख्या-'सक्ष्म बादरेतरं पूति स्यादिति शेषः, कैरित्याह-कार्मिकगन्धामिधूमनाप्पैः। 'कार्मिक' आधार्मिकं 'गन्ध' - मकादिसत्का प्राणि:, 'अविध वाशिः 'धूम'वामीन्धनसम्पर्कजो वस्तुविशेषो 'बाष्पोष्यमकादेरूष्मा गन्धानिध्मबाष्पा:,
कानमन्वामियूमनापाः कार्मिकमन्वामिधूमनापास्तः । अयमर्थ:-शुद्धमध्यशनादिकमाषाकर्मिकमक्कादिगन्धबाप्पा
मिलित समपूति स्यादितिः । आह-पयेवं वर्हि नास्त्येव किश्चिदपूति, एकत्रोत्पनैरपि तैर्विशीर्यंतश्चेतच ममनतः दिव्यासरित्याध याद ते पुण न बुट्टीति 'सत्' सक्ष्म पूति 'पुन विशेषणे 'न' नैव 'दुष्ट दोषकारि, किन्तु ।
ETIRHEME .
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पिण्डविशुद्धि ० काद्वयो
पेतम्
३४ ॥
प्ररूपणामाश्रमे वतन पुनः परिहार्य, आचीर्णत्वादशक्य परिहारत्वाच्चेति भावना | अथ बादरपूतिविवरणायाह- 'दुविह' मित्यादि, 'द्विविधं' द्विप्रकारं 'बादर' स्थूलं पूर्ति स्यादिति प्रक्रमः । द्विविधमेवाह- 'उबगरणभत्तपणे ति, राज्यमानस्य 'दीयमानस्य वा अशनादेर्यदुपकुरुते तदुपकरणं चुल्यादि करण्यानं 'तस्मिन्' तद्विषयं उपकरणविषयं भक्तपानविषयं चेत्यर्थः । तत्राद्यं भेदं व्याचिख्यासुः प्रस्तावनामाह- 'तहिं पदमं' ति 'तत्र' तयोर्मध्ये 'प्रथम' आद्यमुपकरणपूत्यभिधानं एवं स्यादिति शेषः, इति गाथार्थः ॥ ३३ ॥ यथा स्यात्तथैव दर्शयति
दी० सूक्ष्माख्यं पूति स्यात् कैः १ कार्मिकगन्धाग्निधूमवाप्यैः प्रतीतेः तत्पुनर्न दुष्टं अशक्यपरिहारत्वादाचीर्णं । बादराख्यमाह-द्विविधं बादरं पूर्ति - उपकरणविषयं भक्तपानविषयं च तयोः प्रथममाहेति गाधार्थः ॥ ३३ ॥ कम्मिय चुली भायण-डोवठियं पूइ कप्पड़ पुढो तं । बीयं कम्मियवग्वार- हिंगु लोणाइ जत्थ हुहे ॥३४॥
व्याख्या--' कार्मिका' आधाकर्मिकाः 'चुली' चाधिश्रयणी 'भाजनं च' स्थाल्यादि 'डोवच' चटुकचुल्लिभाजन डोवाः, कार्मिकाश्च ते चुल्लिभाजन डोवाच कार्मिक चुल्लिभाजनडोवाः । उपलक्षणं चैते कच्छुकोदुखलिकादीनां तेषु 'स्थितं ' गवं, शुद्धमप्पशनादीति गम्यते । किमित्याह- 'पूर्ति' पूर्वोक्तशब्दार्थं स्यादिति शेषः । ततश्च साधूनां ग्रहीतुं तन्न कल्पते । किं सर्वथा ? नेत्याद- 'कप्पड़ पुढो तं'ति 'कल्पते' ग्रहीतुं युज्यते 'पृथग्' विभिन्नं स्वयोगेनान्यत्र सङ्कान्तमित्यर्थः, तदुपकरणपूति । अथ मक्तपानपूतिस्वरूपमाह - 'बीय' मित्यादि, द्वितीयं - भक्तपानविषयं पूति तत्स्यादिति प्रक्रमः । यत्र किमित्याह'कम्मियेत्यादि, कार्मिका-व्याधाकर्मिकाणि वाधारहिङ्गुलवणादीनि अत्र समासः सुकर एवेति न दर्शितः । यत्र शुद्धेऽ
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उद्गमषोडशके
तृतीयस्य
पूतिकर्मणो
द्वैविध्यम् ।
॥ ३४ ॥
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यशनादौ 'छुहे'त्ति 'क्षिपति संस्कारार्थं मध्ये प्रवेशयति तत्र वाघासे हिग्वादिदहनसमुत्थो धूमः हिङ्गुलवणे प्रतीते, नवरं - आधाकर्मिकत्वं हिङ्गुद्रव्यस्य स्वार्थनिष्पन्नमुद्गादिभक्तसंस्कारार्थं सचित्तोदकेन साधुनिमित्तं द्रवीकृतस्य, लवणस्य तु तदर्थमेव चूर्णितपरिणामितस्येत्यादिगमेन भावनीये । आदिशब्दाञ्जीरकादिपरिग्रह, इति गाथार्थः ॥ ३४ ॥ तथा
दी० - कार्मिकार्थं चुल्लीभाजने प्रतीते, डोवथटुकः उपलक्षणत्वादन्यदपि कार्मिकोपकरणं, तेषु स्थितं तद्वतं शुद्धमपि भक्तादि उपकरणपूत्याख्यं वज्यं, किं सर्वथा ? नेत्याह-कल्पते तत् 'पृथग्' विभिन्नं स्वयोगेनान्यत्र सङ्क्रामितमित्यर्थः । द्वितीयमाह - 'द्वितीय' भक्तापानाख्यं पूर्ति तत्स्यात् यत्र कार्मिकवरधार हिडलवणादीनि क्षिपेदाता संस्कारायेति गाथार्थः ॥ ३४ ॥ एतदेवाह---
कम्मिय वेसण धूमिय-महव कथं कम्मखरडिए भाणे । आहारपूइ तं कम्म - लित्तहत्थाइ छिक्कं च ॥ ३५ ॥
व्याख्या- 'कार्मिकवेसनेन' तसघृतादिक्षितकुस्तुम्बुरुणा, उपलक्षणत्वाद्राजिकादिना च 'धूमितं ' स्फोटितं सन्धूमितमिति यात्रत्, कार्मिकवेसन धूमितं यत्येवादीति गम्यते । अथचेति प्रकारान्तरद्योतनार्थः । 'कृतं' स्वार्थं निष्पादितं स्थापित वा यदशनादीति गम्यते । केत्याह- 'कम्मखर डिए भाणे'त्ति 'कर्मखरण्टिते' आषाकर्मलिप्ते 'भाणे' ति. भाजने स्थाल्यादिके । . तत्किमित्याह- 'आहारपूर्ति' भक्तपानपूर्ति स्यादिति शेषः, तत्पूर्वोक्तमशनादिकं । न केवलमेतदेव, किन्तु 'कर्म्मलिप्तहस्तादिस्पृष्टं च' व्यधाकर्मखरण्टितकर-करोटिकादिछु च । 'च' शब्द उक्तसमुच्चयार्थ इति गाथार्थः ॥ ३५ ॥
अथ दादगृहभाजन विषय पूतिविभागं साधुपात्र कल्पयाकल्प्यविधिं चाभिधित्सुराद---
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उद्गमवोडपके दागृहपात्रविषय
विमागम्
दी०--'कार्मिकवेशनेन' तप्तधृतराजिकादिश्वपादिना धृमितं, अथवा कार्मिकस्वरण्टिने माजने 'कृ' निष्पादितं स्थापित विशुद्धिारातमकादि आहारपूतिरुच्यते, न केवलं तव, कार्मिकलिप्तहस्तादिस्पृष्टं चेति गाथार्थः ॥ ३५ ॥ अत्र विशेषमाह-- भयो-I पढमे दिणम्मि कम्म, तिपिण उपूइकयकम्मपायघरं । पूइ तिलेवं पिढरं, कप्पइ पायं कयतिकप्प॥३६॥
न्याययाः-'प्रथम' आय-पत्राधाकर्मणः पालो विहिन इत्ता दिने दिवसे 'कर्म' आधार्मिकं । "तिण्णि उत्ति | ॥३५ 'श्रीषि विमलयानि दिनानि पुनः 'पूति' पून्यमिधानं स्वादिति शेषः। किं तदित्याह-'कयकम्मपायधति 'कृतो'
विहितः 'कर्मण' आधाकाहारस्य 'पाको रन्धनं यत्र तत्कृतकर्मपाकं, तच तद्गृहं चेति कृतकर्मपाकगृहं । तथा 'पूति' अपवित्र स्यादिति वर्त्तते । किं उदित्याह-'तिलेवं पिढरं ति 'त्रयनिसङ्ख्या 'लेपा' मक्तादिदिग्धतारूपा यस्य तत्त्रिले 'पिठर स्वालिका । अत्र वृद्धसम्प्रदाय:-जम्मि य मारणे कम्मियं रद्धं तम्मि अकयतिकप्पे बह गिही अप्पणो अढाए रंधर तो तं पूई, पुणो बीयवाराए जे रंघद तं पि पई, पुणो त्रि तइयवाराए जं रंघह तं पि पूर, चउत्थवाराए सुद्धं ति । बह अहाभावेण गिट्टी निरवयदे धारतियं कप्पिए रंघह तो पहमवेलाए वि सुदं चैव चि । इह चाधाकर्मपाकानन्तरं स्वार्थ वारत्रयं भक्तरन्धनेन यत्स्थालिकाया: खरण्टनत्रयं सम्पद्यते तल्लेपत्रयममिप्रेतमतस्तदन्विता स्वालीका तदुपसंस्कृतं मक्तं च | पूति भवतीति मावार्थः । अतः कार्मिकपाकगृहे दिनचतुष्कं न प्रवेष्टव्यं, परं "xअतरंताई जोग्गा-सईएनगिण्हति
४ अनिर्वाहादी, धाविशव्याद्वारपानादिप्रहः । + शुद्धाभावे । . . . ... ... ... ...
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तत्थ पविसे | अन्नमहाणसुवक्वड, जं वा सन्नी मयं भुंजे ॥१॥" तथा 'कल्पते' परिमोक्तुं युज्यते, साधुनामिति गम्यते 'पात्र' स्वभाजनं, पूतिमत्तादिलिप्समिति द्रष्टव्यं । किंविशिष्टं सदित्याह - 'कुता' विहिता अङ्गुलिप्रोज्छन करीषोवर्त्तनादूर्ध्वमिति द्रष्टव्यं, 'त्रय' खिमङ्ख्याः 'कल्पा' जलक्षालनरूपा यस्य तत्कृतन्त्रिकल्पमिति गाथार्थः || ३६ ||
व्याख्यातः पूत्याख्यस्तृतीयः पिण्डोद्वमदोषः, अथ तमंत्र मिश्रजाताख्यं चतुर्थं व्याख्यातुमाह
दी० - प्रथमे दिने 'कर्म' कार्मिक, त्रीणि दिनानि तु पूर्ति स्थान, किं तदित्याह कृतकार्मिक पार्क गृहं तत्र दिनचतुष्टयं न विहर्तव्यं, तथा त्रिलेपं पिटर स्याल्यादि, इह कार्मिकपकानन्तरं स्वायं वास्त्रयं भक्तरन्धनेन अकृतत्रिकल्पस्थ स्थायादेः खरण्टनत्रयं त्रिलेपमाहुः, चतुर्थलेपे तु न पूतिरिति मात्रः । कृतत्रिकल्पे प्रथममेव शुद्धयति । तथा कल्पते यतीनां 'पा' स्वभाजनं, पूतिभक्तादिलितमिति गम्यं क्रतत्रिकल्पं - अङ्गुलीप्रोञ्छन करीषोद्वर्त्तनादुद्धं कृतास्त्रयः कल्याललचालनरूपा यत्र तचथेति गाथार्थः ।। ३६ ।। उक्तं पूतिकर्म, अथ चतुर्थ मिश्रज्ञाताख्यमाह
जं पढमं जावंतिय-पासंडिजईण अध्पणो य कए। आर भइ त तिमीसं ति, मीसजायं भवे तिविहं ॥ ३७ ॥
व्याख्या- 'ज' ति यदोदनादि 'प्रथम' आदित एव अग्निसन्धुक्षणा + विश्रयणदानादेः प्रसूतीत्यर्थः, आरमेत X तन्मतं मवेदिति सम्बन्धः । किमर्थमित्याह - 'जावतिये 'त्यादि 'यावदर्शिका' समस्तभिक्षुकाः 'पाषण्डिन' * अन्यमद्दानसोपस्कृतं तदयावे तु यम् [ 'संज्ञी' ] श्रावकः स्वयं मुझे तन्महानसोपस्कृतमपि गृह्णन्ति ( पर्यायाः अ. ) । + णादणा प. क. इ. अ. 1 X आरभते प. क. इ. अ. । हु पापण्डिका प. क. इ. 1
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| पमं साधुकृते गृहस्थः स्थापयति तत्स्थापनेति योगः । अनेन चाधारोपाधिकं स्वस्थानस्थापना परस्थानस्थापना चेति | स्थापनायाः सिद्धान्तप्रसिद्धं भेदद्वयं दर्शितं, यदाह-"सट्टाणपरट्ठाणे, दुविहं ठचियं तु होइ नायव्वं ।। किंचिशिष्टं तदशनादि स्थापयति ? इत्याह-'परंपराणंतरं 'ति अपरापरदध्यादिपर्यायसन्तानः परम्परः, म यस्य क्षीरादेविद्यते तत्परम्परसम्बन्धात्परम्परं । तथा न विद्यते ' अन्तर' पर्यायान्तरलक्षणो विशेषो यम्य तदनन्तरं घृतादि । ततश्च परम्परं चानन्तरं च परम्परानन्तरं-तत्परम्पररूपमनन्तररूपं चेत्यर्थः । अनेन च द्रव्योषाधिकं परम्परस्थापना अनन्तरस्थापना चेति ग्रन्थान्तराभिहितं स्थापनाभेदद्वयमुक्तं । तथा 'चिरित्तरिय ति 'चिरं च प्रभूतकाल 'इत्वरं च स्वल्पकालं चिरेत्वरं तव । अनेन च कालोपाधिकं चिरस्थापना इत्वरस्थापना चेति सिद्धान्तोक्तं स्थापनाया वैविध्यं प्रदर्शितं । इत्येवं सा 'द्विधा स्वस्थानादिभेदेन द्विप्रकारा । 'त्रिधाऽपि' प्रकारत्रयेणापि, न केवलमेकधा द्विधा वेत्यपि शब्दार्थः । अयमत्र भावार्थ:-प्रत्येकं सकलस्थापितमेदसमहात् स्वस्थानस्थापना परस्थानस्थापना चेत्येवं, परम्परस्थापना अनन्तरस्थापना | चेत्येवं वा चिरस्थापना इत्वरस्थापना चेत्येवं वा द्विविधा स्थापना भवतीति । स्थापन स्थापना-न्यसनमित्यर्थः, भवतीति
शेषः, अशनादि-मोजनपानादि यदनिर्दिष्टस्वरूपं किश्चित्स्थापयति-न्यस्यति-धारयतीत्यर्थः, गृहस्थ इति गम्यते, साधुकृते-यतिनिमिचमिति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ अथ स्वस्थानादिस्वरूपं विमणिपुराह
दी०-स्वस्थानं भक्तपाकस्य चुल्ल्यादि, परस्थानं छब्बकादि, तस्मिन् अशनादि यत्स्थापयति समवर्थ सा स्थापना, तच कथम्भूतं? परम्परं क्षीरादि अनन्तरं घृतादि, उच्च तदिति समासः । तथा चिरेत्वरं-बहुकालाल्पकालमेदाद, एवं
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स्थापना स्वरथानादिभेदेन त्रिधाऽपि प्रत्येक द्विधा भवतीति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ अथ स्वस्थानादिम्वरूपमाह--
उगमविशुद्धि चुल्लुक्खाइ सट्ठाणं, खीराइ परंपरं घयाइयरं । दवट्ठिई जाव चिरं, अचिरं तिघरंतरं कप्पं ॥३९॥ 18 पोडशके काइयो- व्याख्या--'चुल्लि वाभिमाणी “उसा थाली चुल्ल्युखे, ते आदी यस्याःवचुल्लकादेराधारभूतवस्तुनः तच्चु- स्वस्थानपेतम् ।
ल्ल्युखादि, किमित्याह-'स्वस्थान' निजाश्रयो, भण्यत इति शेषः । अयमत्र भावार्थ:-मक्तपाकस्य स्वस्थानं द्विधा | स्थापनादे मवति-स्थानस्वस्थानं भाजनस्वस्थानं च । तत्र चुल्ल्यादिकं तिष्ठत्यस्मिन् स्थाल्यादीति स्थानमाधारस्तद्रपं स्वस्थान स्थान
स्वरूपम् । स्वस्थानमुरूयते । स्थाल्यादिकं तु भाजनस्वस्थानमिति | सुस्थिठादिकं छब्बकवारकादिकं च परस्थानमुच्यत इति स्वयमेव द्रष्टव्यं, सुजानत्वाम गाथायां नोक्तमिति । स्थापनायोजना तु प्रागदर्शितैवेति । तथा 'स्वीराइपरंपर'सि क्षीरादिदुग्धेचरसप्रभृतिद्रव्यं, किमित्याह-दधि-प्रक्षण ककवादिपर्यायपरम्पराऽन्वितत्वात्परम्परं भण्यत इति शेषः । अयमर्थ:क्षीरादिविकारद्रव्येषु परम्परास्थापनाऽपि स्यात् | कवमिति चेदुच्यते-किल काचिदगारिणी केनापि साधुना क्षीरं याचिता सती क्षणान्तरे दास्यामित्यम्युपगम्य समयान्तरे तत्सम्प्राप्तौ अन्यत्र लब्धदुग्ध साधु प्रत्युवाच, यदुत-गृहाणेदं, तेन चोकं-लब्ध मयाऽन्यत्र प्रयोजनोत्पचौ तु युष्मदीयमपि गृहीष्ये । एवं चाकर्ण्य सा ऋणभीतव अद्य तावत्साधुन
गृहाति (ग्रन्थानं १०००), दातव्यं चेदं मयाऽस्मायन्यथा साधुणं दुर्मोक्षमिह परत्र च भविष्यति, न चेदमित्थमेव IMLघ शक्यते, विनश्वरत्वात्ततो दघि कृत्वेदमागामिनि दिने दास्यामीति विचिन्त्य स्थापनाशकार । ततो द्वितीयदिने दधि X.य. ह. अ. पुस्तकेब्वेवंविधः पाठः, क. प. पुस्तकयोस्तु “ यस्य पुल्ल्युखादेरा.” इति पाठः |
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दीयमानं साना ने, ततो नवनीतदानकुख्या पुनः स्थापनामकार्षीः, एवं मन्धु दानया, एवं तदानया इत्येवं परम्परस्थापनाऽपि क्षीरे स्यादेव मिक्षुरसादिष्वपि यथासम्भवं वाच्यमिति । तथा 'घयाइयरं'ति 'घृतादि' घृतगुडप्रभृतिक्रमविकारिद्रव्यं किमित्याह - 'इत्तरद्' अनन्तरं भण्यते-घृताद्यविकारिद्र्ष्येष्वनन्तरस्थापनैव स्यादित्यर्थः । तथा 'दब्बडिई जाब चिरंति द्रव्यस्य घृतगुडादेः 'स्थिति' र्विवक्षितपर्यायेणावस्थानं द्रव्यस्थितिस्तां यावन्मर्यादीकृत्य 'चिरं चिरस्थापितमित्यर्थः । भण्यत इति प्रक्रमः । तच्चोत्कृष्टतो देशोनामपि पूर्वकोटिं यावत्सम्भवतीति । तथा 'अचिरं तिघरंतरं कति 'अचिरं' इत्वरस्थापितं मम्यते, किं तदित्याह 'त्रिगृहान्तरं' गृहश्रयान्तरालवर्त्तिद्रव्यं । इदमुक्तं भवति-पतिस्थितगृहत्रयमध्यादेकस्मिन् गृहे साधुसङाटकस्य भिक्षां जिघृक्षोस्तदपस्तृतीयगृहादेकस्यापि साधोर्दृष्टिविषयभूतात्तद्दानार्थ स्वस्तस्थापितं कचिद् भक्ताद्यानयति तदित्वरस्थापितं एतच प्रज्ञापनामात्रेणैवैवमुच्यते, न पुनः परिहार्य, अत एवाह'क' ति 'कल्प्यं' कल्पनीयं “भिक्खरगाही एगत्थ, कुणइ बीओ य दोस्र उवओगं" इत्याद्यागमाभिज्ञसाधून ग्रामं, आवरितत्वाद, उत्कृष्टाचीर्णाम्याहृतवदिति गाथार्थः ॥ ३९ ॥
प्रतिपादितः स्थापनाख्यः पञ्चमः पिण्डोमदोषः, साम्प्रतं तमेव षष्ठं प्राभृतिकामियानं प्रतिपादयितुमाह-डी० की प्रतीक्षा, 'उस्खा' स्थाली, तदादि स्वस्थानं, तस्मादुद्धृत्यान्यत्क्षेपणस्थानं परस्थानं स्वयमत्र ज्ञेयं, श्रीरावणादि परम्परायेोगात् परम्परं, घृतादि इतरदनन्तरं, अनन्तरपर्यायान्तराभावात् । तथा 'द्रम्य स्थिति पर्याXsagar निष्काशितजलस्वक माषादर्याग्भाषि वा दधिपरिणामविशेषो मधुः ।
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KA
पिण- I
दि. काइयो- पेतम्
उगम | पोर कामामृतिका निरूपणम् ।
+
८
॥
+
येण, द्रव्यस्य-घृतादेवस्थान द्रष्यस्थितिस्ता यावत्स्थापित चिराख्यं, तच्चोत्कृष्टतो देशोनामपि पूर्वकोटि सम्भवति । इत्व- राख्यभाइ-त्रिगृहान्तरं साधो पङ्किस्थितगृहप्रयमध्यादेकस्मिन् विहरतस्तृतीयगृहे साधुदर्शनादानार्थ यस्तादौ स्थापित भक्तादि तदित्वरं, एतय करूप्यं, गृहप्रयादुपरि नैवेति गाथार्थः ॥ ३९ ॥ उक्ता स्थापना, अथ षष्ठं प्रामृतिकारूपमाह
बायरसुहमुस्सक्कण-मोसकणमिय दुहेह पाइडिया।
परओ करणमुस्सक्कण-मोसकणमारओ करणं ॥ ४० ॥ व्याख्या-बायरसहमुस्सकण ति 'बादरं च स्थुरारम्भगोचरतया स्थरं 'सूक्ष्म च' सूक्ष्मारम्भगोचरतया अल्पं, समाहारत्वावादरसूक्ष्म, चादरसूक्ष्म न ददुवक व समर्पण, सामेति गम्यते, बादरसूक्ष्मोरध्वष्कण । तथा 'ओसकणं'ति 'च' शब्दाध्याहारावादरसूक्ष्मविशेषणानुशेश्च पादरसूक्ष्माववकणं च-स्थूलाल्पावसर्पणं, इत्येवं द्विधा' द्विप्रकारा 'इह' अत्र प्रकरणे, अन्यत्र प्रकारान्तरेणापि "तं पागडमियरं वा, करेइ उज्जुअणुज्जुवे"त्येवं विधेन दैविध्यं समस्तीत्यत इत्युक्त, प्राभूतिका पूर्वोक्तशब्दार्था स्यादिति शेषः। उत्वकणाववष्कणस्वरूपमाह-'परओ इत्यादि, स्वयोगप्रतिकालावधेः 'परतो'ऽग्रतः 'करण' आरम्भस्य प्रवर्सनं, किमित्याह-'उत्ष्वकर्ण' उत्वकणशब्दार्थ उच्यत इति शेषः। तथा 'अवष्यष्कणं' अवध्वष्कणशब्दार्थ उच्यते, किं तदित्याह-स्वयोगप्रवृत्तिकालावधेरारतो-किरणसाध्वर्थमारम्भस्य प्रवर्तनं । इह पक्षममुत्सर्पणमवसर्पणं चा सूक्ष्मप्राभृतिका, यथा काचिसूत्रं कर्तयन्ती दारकेण भोजनं
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॥ ३८॥
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SC-
STRE
याचिता सती ब्रते-साधौ समागते तचापि दास्यामीत्येवं दागकदानस्योत्सर्षणतस्तथा साध्वयोत्थिता पुत्र! तवापि दास्यामीत्येवं दारकदानस्यावसर्पणतः । तथा बादरमुत्सममवसर्पणं च, बादरा मा यथा साधुसंविभागकरणान्महन्मङ्गलं पुण्यं वा जायत इति भावनया साधुदानार्थ पुत्रविधाहादिदिनस्योत्सर्पणतोऽवमर्पणतश्चति गाथार्थः ॥ ४०॥
इत्युक्तं पिण्डोद्गमदोपेषु षष्ठं प्राभृतिकाद्वारं, अथ तेष्वेव सप्तमं प्रादुष्करणद्वारं व्याख्यातुमाह
दी-'बादरसूक्ष्म स्थूलाल्पं 'उबक्रणं' साध्वर्थ भाव्युत्सवादेारम्भस्या+प्रतः करणं, 'अवध्वाकर्ण' च अब्दलोपात्तस्यैवाकिरणमित्येवं मधुलाल्पभेदाव्यमपि द्विधा इह ग्रंथे प्राभृतिकोच्यते । मेदव्याख्यामाह-परतः करणं उत्ष्वकणं, यथा-काचिनारी दारकेण याचितभोजना त्रूते-साध्वागमेरतवापि दास्यामीति सूक्ष्म तत् । बादरं तु साधुदानं पुण्यायेति श्रद्धया भाविविवाहादेः साध्वर्थमग्रतो नयनं । तथा अववष्कण 'आरतो'ऽकिरण तथैव सूक्ष्मवादरमेदाम्यामिति गाथार्थः ॥ ४० ॥ उका प्रामृतिका, अथ सप्तमं प्रादुष्करणाख्यमाहपाओयरणं दुविह.पागडकरणं पगासकरणं च । सतिमिरघरे पयडणं, समणट्टा जमसणाईणं ॥४१॥
व्याख्या-प्रादुष्करणं प्रागुक्तशम्दार्थ तदुच्यत इति शेषः । यत्सतिमिरगृहे श्रमणार्थमशनादीनां प्रकटनमिति सम्बन्धः । सच्च पुनर्द्विविध द्विमेदं, तद्यथा 'पागडकरणं पगासकरण चत्ति 'प्रकटे' सप्रकाशे-गृहादहिरित्यर्थः 'करण' देंयद्रव्यादेर्व्यवस्थापन प्रकटकरणं, तथा 'प्रकाशस्योद्योतस्य 'करण' विधान प्रकाशकरण, च.. समुच्चये, सतिमिर+"रम्भस्य परतः "इ. Ix“ साध्यागमने तवापि दास्यामीति " म.। "सावागमनेन दास्यामीति" इ.।
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उद्गमपोडके प्रादुष्करणवर्णनम् ।
पिण्ड- गृहे-सान्धकारागारे 'प्रकटन' प्रकाशनं 'भमणार्थ साधुनिमिर्स, साधवो अन्धकारवति गृहे अचक्षुर्विषयत्वाद्विक्षा न गृहविशुद्धिान्तीत्यतस्तेषां मिक्षाग्रहणनिमित्तमित्यर्थः, यदशनादीना-भरूपाना+दीमा दिपा विधीयत इतिर माथार्थः।। ४१॥ काइयो- अथ प्रकटकरण-प्रकाशकरणे व्याख्यातुमाह
दी०-प्रादुष्करण तदुच्यते-'यत्सतिमिरगृहे' सान्धकारस्थाने, अचक्षुर्विषयमिक्षाया अग्रहणात् , श्रमणार्थमशनादीनां
प्रकटनमिति योगः, तविविधं-प्रकटकरणं प्रकाशकरण चेतिमेदाम्यामिति माथार्थः ॥४१॥ मेदयोरर्थमाह॥३९॥
पायडकरणं बहिया-करणं देयस्त अहव चुल्लीए। बीयं माणि-दीव-गवक्ख कुडुछिड्डाइकरणेणं ॥४२॥
व्याख्या-प्रकटकरणमुक्तशब्दार्थ, मण्यत इति शेषः । किं तदित्याह-'बहियाकरण'ति 'बहिस्ता'दन्धकारगृहादहिः 'करणं विधानं, कस्येत्याह-'देयस्य' दातव्यवस्तुनः अथवेति प्राकारान्तरप्रदर्शनार्थः 'चुल्ल्या' अधिश्रयण्याः। अत्र यदि सञ्चारिणीमन्यां वा स्वार्थविहितां चुल्लिं बहिः करोति तदाऽयमेवैको दोषः स्यादथ साध्वर्थाय नूतनामेव तां करोति तत उपकरणप्रतिदोषोऽपीति । तथा 'बीय' मित्यादि, द्वितीय-प्रकाशकरणं, स्यादिति शेषः। केनेस्याह-'मणिदीवेत्यादि, मणिश्व-रत्नविशेषो 'दीपश्च' प्रदीपो 'गवाक्षश्च वातायन: 'कुख्यच्छिद्रं च मित्तिविवरं मणिदीपगवाक्षकुडथच्छिद्राणि, एतान्यादिर्यस्यान्यद्वार-पूर्वकृतद्वारवर्द्धनादेस्तत्तथा, तस्य 'करण' केनापिरूपेण विधानं,
+ पान प्रभृतीनां" प.ह.क. x" "ति शेषः, इति गा.".प.ह.क. . .
॥३९॥
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तेन । इदमुक्तं भवति यत्कश्चिदविवेकि दायको मन्दप्रकाशगृहमध्यस्थितस्यैव दातव्यवस्तुनः साधुभिक्षाशुद्ध्यर्थ मणिप्रदीपाग्निप्रभया गवाक्षादिकरणेन वा प्रकाशं करोति नत्प्रकाशकरणमुच्यत इति माथार्थः ।। ४२ ॥
इत्युक्तं पिण्डोद्गमदोषेषु सप्तमं प्रादुष्करणद्वार, साम्प्रतं तेष्वेवाष्टमं क्रीतद्वारं व्याचिख्यासुराह
दी-प्रकटकरणाख्यं देयस्य वस्तुनः सान्धकारगृहाबहिस्तात्करणं अथवा चुल्ल्या, द्वितीयं प्रकाशकरणाख्यं स्यात् , केन ? मणिदीपगवावकडथच्छिद्रादिकरपोनेति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ उक्तं प्रादुष्करण, अथाष्टमं क्रीताळ्यमाहकिणणं नीर मुल्लोण, साउद लं सपरनामावहिं । चुन्नाइ कहाइ धणाइ-भत्तमंखाइ रूबेहिं ॥ ४३ ।। |
व्याख्या-'क्रयण' अन्यसकाशात्साध्वर्थ यद्भक्तादेग्रहणं, तत्किमित्याह-'क्रीत' क्रयणक्रीतयोर मेदोपचारात् क्रीताख्यं तद्भक्तायुच्यत इति शेषः । केन यत् क्रयणमित्याह-'मूल्येन' स्वद्रव्यादिना वक्ष्यमाणेन । तच्च पुनर्मूल्यं कतिविधं भवती त्याह 'पउह तंति 'चतुर्की' चतुभिः प्रकारेस्तन्मूल्यं । कैरित्याह-'सपरदब्वभावेहिंति स्वारमा परवान्यः स्वपरी, तथा द्रव्ये च वक्ष्यमाणलक्षणे भावौ च वक्ष्यमाणलक्षणावेव द्रव्य मावाः, ततब स्वपस्योर्द्रज्यमावाः स्वपस्द्रच्यभावास्तैः, किस्वरूपैरित्याह-'चूर्णादी'त्यादि 'चूर्ण' औषधद्रव्यसङ्करचोदः, स आदिर्यस्य स्वद्रव्यगणस्य स चूर्णादिः, स च 'कथेवि धर्मकथा, साऽऽदिर्यस्य स्वभावप्रकारसमूहस्य स कथादिः, स च 'धन' रूपककपर्दकादि, तदादिर्यस्य परद्रव्यसमुदयस्य सधनादिः, सच मक्तबासौ मलाश्च भक्तमः, स आदिर्यस्य भक्तिमत्तथाविधजनसमाजस्य स भक्तमावि, भावप्रक्रमेऽपि मावमावबतोरमेदोपचारान्मवादीत्युक्तं । मलच सुकृतदुष्कृतफलसूचकचित्रफलकोपजीवी भिक्षुविशेषः, सच-चूर्णादिकथादि
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पिण्ड
विद्यादि।
टीकाद्वयो
पेतम्
॥४०॥
धनादिमतसङ्कादयस्ते 'रूप' स्वरूपं येषां स्वपरद्रव्यभावानां ते तथा, तैः । इदमुक्तं भवति-आहारादिलिप्सया वर्णनिर्माल्य
उद्गमगुटिकागन्धचन्दनबाहुकण्डकबालपोतकादिलक्षणेनास्मद्रव्येण गृहिणः प्रदत्तेन यदशनादिक साधुना लभ्यते तदात्मद्रव्य. षोडशके श्रीरामुच्यते, अन व दोषा: दूषिप्रदानानन्तरं दैववशतो नितरां मान्ये मरणे वा गृहस्थस्य उड्डाहः स्यादथ कथञ्चिन्नीरो
इटम क्रीतगत्वं भवेत्ततश्चाटुकारिता असंयतप्रगुणीकरणेऽधिकरणदोषश्च साधोः स्यादिति । तथा आहारलिप्सयैव धर्मकथा-तकोपन्यास
दोषनिरूविकृष्टमासादितपश्चरण-शीतोष्णाचातापनाकरणलक्षणेनात्मभावेन यदवाप्यते तद्भावक्रीतं, अत्र च दोषा:-स्वानुष्ठानफल्गुता
पणम् । करणप्रभृतयो वाच्याः। तथा सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन गृही स्वद्रव्येण साधुनिमित्तं यदशनादि क्रीणाति तत्परद्रव्यश्रीतं, अत्र दोषाः प्रतीता एव | तथा साधुभक्तमवादिसत्कविज्ञानलक्षणेन परभावेनोपार्जितं यदशनादि साधुना लभ्यते तत्परभावक्रीतं । अब सम्प्रदायो यथा-किलैकदा एका साधुशय्यातरमलो भक्त्या साधून भक्तपानादिना निमत्रितवान् , ते च शय्यातरपिण्डोऽयमिति न जगृहुः। ततस्तेनाननुगृहीतेन दित्सुना गतप्राये वर्षाकाले कतरस्यां दिशि यूयं गमिष्यथेति पृच्छा चक्रे, तेऽप्यूचुरमुकस्यां दिशीति । ततश्च स तत्राग्रत एवं गत्वा निजविज्ञानेन लोकपरिचयं चकार, दीयमानं च कार्य गृहीष्यामीति वचनपुरस्सरं न स्वीकृतवाँस्तावद्यावत्साधवः समाययुस्ततश्च घृतक्षीरादिकं महत्तरगृहादावितश्वेतश्च याचनतो | मीलितं तेभ्यो दत्तवानिति । अत्र च परभावक्रीताम्याहृतस्थापनालक्षणं दोषत्रयं स्यादिति गाथार्थः ।। ४३ ॥
उक्तं पिण्डोद्गमेध्वष्टमं क्रीतद्वारं, साम्प्रतं तेष्वेव नवमं प्रामित्यद्वारमभिधित्सुराहदी०-पतिदेयवस्तुनः क्रयणं क्रीतं स्यात् , केन ? मूल्येन । तच्च स्वपरद्रव्ययो यथोचराोक्तैश्चतुर्दा । तत्र चूर्णादि, || ॥४०॥
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चूर्ण-औषधद्रव्यसंयोगस्तेन गृहिणोऽपितेन साधुर्यल्लमते तत्स्वद्रव्य क्रीतं १। कथादीति, भक्ताद्यर्थ +धर्माद्याख्यान, तया यदवाप्तं तत्स्वभावक्रीतं २ । धनादीति, धनं-सचित्ताचित्तमिश्रमेदं स्वद्रव्यं, तेन साध्वयं गृही गृहीत्वा xयद्देयं ददाति तत्परद्रज्यक्रीतं ३ । भक्तमलादीति, कश्चित्साधुभक्तः स्वविज्ञानेन रञ्जितजनान याचयित्वा यद्ददाति तत्परभावक्रीतं ४ । सर्वत्रादिशब्दस्तद्गतानेकभावदर्शनायेति गाथार्थः ॥ ४३ ।। उक्तं क्रीतं, अथ नवमं प्रामित्यमाह-- समणट्टा उच्छिदिय, जं देयं देइ तमिह पामिच्चं । तं दुटुं जइभइणी-उद्धारियतेल्लनाएणं ॥४४॥
व्याख्या-'श्रमणार्थ' यतिनिमित्तं 'उच्छिदियत्ति 'उच्छिध' अन्यत उद्यतकं गृहीत्वा यत्किञ्चिद् 'देय दातव्यं मतादिपस्तु 'याति प्रगन्य एव प्रयच्छति, गृहस्थ इति गम्यते तदु' दातव्यं मक्तादिवस्तु 'इह' अत्र प्रकरणे प्रवचने वा 'पामिचंति प्रामित्यमपमित्यं वा, उच्यत इति शेषः । इदं चात्र सामान्यभणनेऽपि लौकिकलोकोचरापमित्य मेदाद्विविधं विज्ञेयं, आगमे तथा भणनाबदाह-"पामिचं पिय दुविह, लोइयलोउत्तरं समासेणं ।" इत्यादि । 'त'ति पुनः शन्दार्थस्य गम्यमानत्वात तत्पुन 'ईष्ट दोषकारि । केन प्रत्ययेनेत्याह-यतिमगिन्युद्धारिततैलज्ञातेन, यतिमगिन्यासाधुस्वना 'उद्धारित' मूल्यामावादुद्धारके गृहीतं यत्तल-स्नेहविशेषस्तस्य तल्लक्षणं वा 'ज्ञात' उदाहरण; तेन । तश्चेदं-- । तेणं काले गं ते णं समए गं कोसलाविसए एगो कुलपुत्तओ होत्था । सो य धम्म सोऊण संजायसंवेगो निक्खंतो। +“ धर्मव्याख्यानतया "ह, म.1x" यद्ददाति" क. ह. म.।
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SNEPALNACANCE
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पका
कमेव समप्रियमुखबरियालायां मयकदमबन्धमत्रो मत्रायमनियम मचावादिलिप किवीमा मा-कोमम मचावमा बीमा व मानव-
हमति, नापनाकामियी श्रीमती निमामि पविट्ठी कामे मंदिरे । मा य महोयगलम नीवविलमिगे ममावि मोकिमयामिकापरिवमानमा ममममिक्रोमवा मनियामाचवं फलवामिला मचिमि तिमाहामाग्विार सामा। दबी वीर बहोरम मट्टाम्बी पार्म न मिना नि दिपिांतील दकितिमाEिA माहियातीय समयामिव विहरिबो मन्च माह । मेपि अयानिमियाद्रीय माया भावार से दाम परिवानगव वा विवामी माह मणिनोनीमेशामायापनि बीअप्पादिx-बास्य अविरत्र वायत्री मोएलोषित बनियमान
मिnिta स्थ अनमिनमा पुर्वि कामाल होना ?।। माह
विमानमार माहिती व मो सम्मानमामि । बोलीचे व वामा मात्र
मामो मारो बाबो, यो मामिडी बहिबो-कोमा | THAबायु ममी बारित्रो, खो। विप्रा
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एसोच्चिय अभिग्गहो गहिओ । इत्थंतरम्मि सा तस्स साहुणो भगिणी पवाए उवडिया, मुका य तेणं पदया। कित्तिया य । एरिसा नाणिणो भविस्संति ? तम्हा पामिचं न घेत्तई ति, एस लोइय पामिचदिळतो ति ।।
लोकोत्तरापमित्यं तु यत्साघोः सकाशादपरसाधुर्ववादिकं कतिपयदिनभोगबुद्ध्या तद्विधान्यदानवुझ्या चोद्यतकं गृहीत्वाऽन्यस्मै साधवे प्रयच्छति स्वयं वा परिभुढे तद्विज्ञेयं । तत्र चामी दोषा:-"महलिय-फालिय खोसिय-हियन वावि अन्नमग्गंते । अइसुंदरे वि दिन्ने, दुक्कररोई कलहमाई ॥१॥" तत्र 'मलिनित' शरीरादिमलदिग्धं 'पाटित' द्विधाकृतं खासित जीर्णतां नातं ''चारादिना गृहीतं 'नष्ट' पतितं, शेष सुबोधमिति । अत्रापवादो यथा-- "उव्वत्ताए दाणं, दुल्लभ खग्गूड-अलस-पामिच्चे । तं पि य गुरुस्स पासे, ठवेइ सो देइ मा कलहो ।। १॥" 'उञ्चत्ताए दाणं'त्ति सीदता साधोर्राधिकया वस्खादेनिं कार्यमित्येष तावदुत्सर्गमार्गः, अपवादतस्तु दुर्लभ वस्ने 'खग्गूडे'
ठे अलसे वा अपमित्यं स्यात्, खग्गूडो हि वक्रतया अलसस्तु याचनाकष्ट भयेन, न मुधिकया तद्ददातीत्यपमित्य क्रियत इति भावः । शेष प्रतीतमिति माथार्थः ॥४४॥
इत्युक्तं नवमं प्रामित्यद्वार, साम्प्रतं दशमं परिवर्तितद्वारममिधातुमाह... दी०-श्रमणार्थ 'उच्छिद्य' उच्छिन्नं गृहीत्वा यद्देयं ददाति तेभ्यस्तमिह प्रामित्यं स्यात् , यतिभागिन्युद्धारित
झातेन, तचेद-कोशलविषये एकः कुलपुत्रको निष्क्रान्तः, स च गीतार्थत्वे खजनानन्वेष्टुं चलितखतः सर्वमपि तत्कुलं * व्यवच्छिन, भगिन्येकैव कष्टं जीवतीति कुतोऽपि ज्ञातवृत्चान्तस्तत्र जगाम । भगिन्यपि तद्दर्शनादतीव हृष्टा यतिना निषिद्ध
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पिण्डविशुद्धि टीकादयोपेतम्
॥४२॥
पाकादिक्रिया वणिजो गृहातैलकर्ष वर्द्धमानमुद्धारेणानीय तम्मै ददौ । विहने साधौ तत्तैलं प्रवर्द्धमानं दातुमश्चमा तद्गृहे उदगमदामन्वमापन्ना। कालेन माधुरपि तत्रागतो ज्ञाततद्दासत्ववृत्तान्तम्तस्य वणिजो गृहास स्थितवर्षाकल्पो वणिज मकुटुम्ब घोडके 'चोधितवान् | ततो मया प्रतार्थी न कश्विनिषष्य इति गृहीतामिग्रहस्य वणिजः सुतो प्रतं जग्राह । साऽपि बतिममिनी ६ दशमबतार्थिनी दासत्वान्मुक्ता प्रबजितेति भ्रातृसाहाय्यातं तैलाच दासत्वं प्राप्तेति प्रामित्यं वजयेद । एतच्च लौकिकं, यदा साघुः परिवर्तित साधोः पावदिन्यार्पणबुझ्या वस्त्रादिकमुद्धारेण गृह्णाति तदा लोकोत्तरमपि कलहादिदोषकज्झेयमिति गाथार्थः ॥ ४४ ॥ दोषउक्तं प्रामित्य, अथ परिवर्तिताख्यं दशममाह
वर्णनम् । पल्लट्टिय जं दवं, तदन्नदत्वेहिं देइ साहणं । तं परियट्टियमेत्थं, वणिदुगभगिणीहिं दिटुंतो ॥४५॥
व्याख्या-'पल्लहिय'त्ति परिणाम माम सवर वाला रितशित 'द्रव्यं घृतशाल्योदनादिवस्तु, कास्यामित्याह| 'तदन्नदब्वेहिंति तच्च-परिवर्तनीयद्रव्यापक्षया समानजातियं, अन्यच्च-सदपवयैव विजातीय, तदन्ये च ते द्रव्ये च
घृतादिवस्तुनी तदन्यद्रव्ये, ताम्यां ददाति' प्रयच्छति 'साणं'ति 'माधुभ्यो' यतिभ्यस्तघृतादिद्रभ्यं, किमित्याह| 'परिवर्जितं' परिवर्तितसचं, भण्यत इति शेषः । अयमर्थः-साधुगौरवानिमित्तं आत्मलायवपरिहारार्थ वा स्वकीयदुर्गन्धघृतकोद्रवौदनादिद्रव्यसमर्पणेन यत्परकीयसुगन्धघृतशाल्योदनादिद्रव्यं गृहीत्वा माधुम्यो ददाति, तत्परिवर्तितमुच्यत इति । एतदपि लौकिकलोकोत्तरमेदाद्विविधमवसेयं, यदाह-"परियहिय पि दुविह, लोइय लोउत्तरं समासेण"ति । एत्थंति अत्र लौकिकपरिवर्तिते 'वणिदगभगिणी'ति'वणिगद्विस्य वाणिजक्रयगलस्य 'भगिन्यौ' स्वसारौ चणिद्विकमगिन्यो- xn४२॥
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ताम्या 'दशन्त उदाहरण लिनेगमिति । तयशा
वसन्तपुरे नगरे द्वौ बाणिजको-देवदचधनदत्तनामानौ बभूवतुः। तत्र देवदत्तभगिनी लक्ष्मीनाम्नी धनदत्तेन परिणीता, धनदत्तभगिनी च बन्धुमती देवदत्तेन | अन्यदा देवदत्तभ्राता समुपजातवैराग्यस्तृणवदपहाय कटुकरिपाकान् काममोगान् प्रबजितः । स चैकदा साधुविहारचर्यया विहान् वसन्तपुरनगरमाजगाम । तत्र च कृतोचितस्त्रार्थपौरुष्यादिसाधुकत्यो यथोचितमिक्षासमये विहरअनुकम्पया भगिनीलक्ष्मीगृहं प्रविष्टः। चिन्तितं च तया, यथेकं तावदेष मम म्राता अपरं साधुरन्यच्च प्राघूर्णकस्तदसौ विशिष्टां प्रतिपत्तिमर्हति, केवलं दारिधभावामाम्मद्गृहे तथाविध किश्चिद्दातव्यमस्ति । ततश्च कोद्रवौदनेन निजभ्रातुर्देवदत्तस्य गृहाच्छाल्योदनं परिवर्त्य सा तस्मै मादरमदात् । इतश्च देवदत्तो सुजानो बन्धुमत्या मणितो, यथा-प्रयच्छामि कोद्रचौदनं यदि ते रोचते, नो वेत्तिष्ठत्विति । एतच्च श्रुत्वा अविज्ञाततवृत्चान्ततया झटित्युल्लसितकोपानलेन ताडिताऽसौ वं । तया चोक्तं तवैव भगिन्या नीतः शाल्योदनः, किं मामेवमनपराधकारिणीमपि ताडसि, ततः स्थितोऽसौ । धनदत्वेनापि तं व्यतिकरं विज्ञाय ममानया परगृहादेवं फरमानीय प्रयच्छन्त्या अतीव लघुत्वमापादितमिति विचिन्त्य सञ्जातप्रचण्डकोपेन कि पापे! मामेवं जने लघु करोपीति ब्रुवाणेन स्वजाया लक्ष्मीरपि प्रहतेति । अमुश्वार्थ विज्ञाय साधुना धर्मकथनपुरस्सरमुपश्चमय्य तानि सर्वाण्यपि प्रवाजितानीति | कियन्तश्चेशा आत्मपरोचारणसमर्था भविष्यन्ति । तस्मात्परिवर्चितं सर्वधा न ग्रामिति भावः। लोकोचरपरिवत्ति स्विदं-यच्छुमणःप्रमणेन सह वनादिपरिवर्चन करोति। तत्र चामी दोषा:-"ऊणहियद्ब्बलं वा,
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खरगुरुज्छिन्नमहलं असीयमहं । दुवण वा नाउं विपरिणमे अन्नमणिओ वा ॥१॥" नत्र 'भगृनं' लघु 'अधिकाअतिबलं 'दुर्वलं' जीर्णप्रायं 'खरं' फर्कनस्पर्श 'गुरु' मारिकं 'छिन्न' पाशकदशापर्यन्तरहितं 'मलिनं' मन्दाविनं. प्रीतम' 11गमदोगे शीतरक्षणाचमं 'दुर्वणे विरूपच्छायमित्यादिदोपान्वितं परकीयवस्त्रादिकं विज्ञाय स्वयं परेण बोन्प्रायिनो विपरिणमेदायक
दामे प्राहरूयोर्मध्यादेकतर इत्यतस्तत्परिवर्चनं न कार्य, कारणे तु विधिना कर्तव्यमपीत्याह च-" एगस्म माणजुत्तं, न उ पग्निनिने बीयस्सेवमाइकज्जेसु | गुरुपायमूले ठवणे, सो दलगह अन्नहा कलहो ॥ १ ॥" इति गाथार्थः ।। ४५ ॥
1 वणिग्दिकप्रतिपादितं दशमं परिवर्तितद्वारं, इदानीमध्याहृतलक्षणमेकादशद्वारं प्रतिपादयाह
मगिन्युदादी-परावर्य यद्रव्य दुर्गन्धघृतादि तदन्यद्रव्यः सुगन्धघृतादिमिर्ददाति माधुभ्यस्तपरिवचितं स्यात् । इत्थं 'अत्र 8
हम्णम् । वणिगद्विकमगिन्योदृष्टान्तः, सचार्य-वसन्तपुरे द्वौ वणिजौ देवदत्तधनदत्ताख्यो, तत्राद्यस्य भगिनी लक्ष्म । परिणीता, द्वितीयस्य च भगिनी पन्धुमत्याच्या प्रथमेन | अथ प्रथमम्य माना विषयविरागाहीत तो बिहरन लक्ष्मी
गृहं प्रविष्टः, सा च चिरायातमातृगौरवार्थ गृहराद्धकोद्रवण बन्धुमतीगृहराई मालिकर परावर्तेनानीय तस्मै ददौ ।। * इतश्च देवदत्तो सुखानः कोद्रपकरदर्शनापितः पापे । किं रादमिदमिति बन्धुमतामताडयत् , यावसया कथितं-तवैव मगिनी शालिकरं गृहीत्वा मतेति । धनदत्तोऽपि विदितवृत्तान्तो लक्ष्मी प्रति कुपितः, आः पापे । परगृहराद्ध घान्यमानीय मामेवं लघू करोपीति त ताडितवानिति जनाद्विबानतस्कलहोत्थानोनिस्तान सम्बोध्य प्रव्रज्यामग्राहयत । तदेवं परिवर्तित
x"स्य धुभावा" । "अदब"म।
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है दोषाय । एतदपि लोकलोकोत्तरभेदात् पूर्ववद्विधेति माथार्थः ॥४५॥ उक्तं परिवर्तितं, अथैकादशमम्याहृतमाहPा गिहिणा सपरग्गामाइ आणियं अभिहडं जईणट्ठा । तं बहुदोसं नेयं, पायडच्छन्नाइबहुभेय ॥४६॥
व्याख्या-'गृहिणा' अगारिणा'सपरग्गामाइ आणियं तिस्त्रश्व-निवासमात्रापेक्षया साधोरात्मीयः, परव-स्वकीयादन्यः स्वपरौ, तोच तो ग्रामौ च-सनिवेशविशेषौ स्वपरणामी, तावादी यस्य स्वपरदेशपाटकगृहादिस्थानविशेषस्यासौ स्वपरप्रामादिस्तस्मादानीतं-साधुस्थाने प्रापितं स्वपरग्रामाद्यानीतं, यदशनादीति गम्यते । तत्किमित्याह-'अभिहर्ड'ति अभ्याहृतं पूर्वोक्तशब्दार्थः, तदण्यत इति शेषः। किमर्थमानीतमित्याह-'यतीना' साधूनां 'अर्थाय' निमित्तं । 'त'ति पुनः शब्दाध्याहारात्तदम्याहृतं पुनर्बहुदोष-संयमात्मविराधनालक्षणानेकानर्थकारण 'वेयं तत्परिजिहीर्षुणा सस्वेन बोद्धव्यं । तत्र स्वपरग्रामादेलपथेन स्थलपथेन वा पादाम्या नावादिना मळ्यादिवाहनेन वा साध्वर्थ भक्तादि गृहीत्वा समागच्छतो गृहिण: पृथिव्यादिसक्वोपमर्दैन संयमविराधना, जलनिमजनमकरकच्छपग्राहकण्टकादिचौरश्वापदादिभ्यस्त्वात्मविराधनेति । तथा 'पागडछन्नाइवहुमेय'ति 'प्रकटं च प्रकाशं यदन्यैरपि दायत इत्यर्थः । 'छ,' च गुप्तं-यनान्येन केनापि लक्ष्यत इत्यर्थः, प्रकटछत्रे, ते आदी येषां आचीर्णानाचीर्णप्रभृति मेदानां ते प्रकटछनादयस्ते 'बहवो'ऽनेके 'मेदा' प्रकारा यस्य तत्प्रकटछनादिबहुभेदं । अत्र 'च' शब्दाध्याहारो द्रष्टव्य इति गाथार्थः ॥ ४६॥
अथाचीर्णस्वरूपं तद्ग्रहणविधि चाहदी०-गृहिणा स्वपरग्रामादेरादिशब्दादेशपाटकगृहादेरप्यानीतं यतीनामर्थाय अम्याहृतं स्यात् , तद्वहुदोपं ज्ञेयं, मार्ग
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पिण्ड-1 जीवोपमर्दादिहेतुत्वात् । तथा 'प्रकट' अन्येषां ज्ञातं 'छन' अन्यैरलक्ष्य, आदिशब्दादाचीर्णानाचीर्णादयो बहवो भेदा ||
आयेयुद्विशुद्धिका यस्य तत्तथेति, च शब्दाध्याहार इति गाथार्थः ॥ ४६॥ अथाचीर्णमाह
| गमदोषेटीकाइयो- आइण्णं तुक्कोसं, हत्थसयंतो घरे उ तिन्नि तहिं। एगस्थ भिक्खग्गाही, बीओ दुसु कुणइ उवओग ४७ वेकादशेऽ
न्याख्या-'आचीणे' गीतार्थसाधुमिग्रहणे आचरितं अम्याहृतं ['तु] पुनरुत्कृष्ट-सर्षबहु । कियदित्याह-'हस्तमतान्त' म्याहत करशतमध्ये । 'गृहाणि' स्वगाराणि पुन स्त्रीणि त्रिसङ्घयानि यावत् । एतदुक्तं भवति-महत्या मोक्तजनपङ्क्तो दूरप्रवेश
आची 11४४|| तथाविधगृहे पङ्किस्थितगृहनये वा साधुसलाटकस्य भिक्षां जिघृक्षोस्तहानार्थ यद्भक्तादि कश्चिद्धस्तशतादानयति, तदुत्कृष्ट
नाचीर्णयोः माचीर्णाम्याहतं,परतस्त्वनाचीर्णाम्याहृतं,उपयोगासम्मवात् । हस्तपरिवर्तनरूपं तु जधन्याचीर्णाभ्याहतं, शेषं तु मध्य ममिति। स्वरूपम् । 'तहिति 'तत्र' तेषु त्रिषु गृहेषु मध्ये 'एकत्र' एकस्मिन् गृहे, या मिथार्थ धर्मलाभो विहित इत्यर्थः । 'भिक्षाग्राही' मिक्षाप्रतीच्छक:-सङ्घाटकातनसाघुरित्यर्थः । 'बीओ'त्ति 'च' शब्दाच्याहाराद्वितीयश्च-मिक्षाग्राहकादपर: 'द्वयों'धर्मलामितगृहादितरयोरगारयोर्विषये, किमित्याह-'करोति विदधाति 'उपयोग' अवधानं अनेषणीयावगतये गृहद्वयभिक्षादायकगतं व्यापार निमालयतीत्यर्थः । आह-ननूक्तं स्थापनायां "अधिरं तिघरंतरं कप्पं" ति, तदस्याचीर्णाम्याइतस्य इत्वरस्थापितस्य च को विशेषः १ उच्यते-तत्र कालविवक्षा, इह तु गृहनयापान्तरालक्षेत्रविवक्षेति विशेष इति गाथार्थः ॥ १७ ॥
उक्तमेकादमध्याहृतं द्वारं, अधुना द्वादशं उद्भिनद्वारं व्याख्यातुमाहदी-बाचीर्णमभ्याइतं 'तु' पुनरुत्कृष्टं हस्तशतस्य 'अन्त'मध्ये गृहाणि त्रीणि यावत् , तेषु गृहेषु मध्ये एकस्मिन् ॥४४॥
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गृहे भिक्षार्थमाभिते मिक्षाग्राही साधुद्वितीयस्तु द्वयोरितरगृहयोः करोत्युपयोग-दायिकाश्रितां शुद्धिमन्वेषयतीति । नन्वस्य इत्वरस्थापनायाश्च को भेदः १ सत्य, तत्र कालस्य विवक्षा इह तु क्षेत्रस्येति गाथार्थः॥४७॥
उक्तमम्याहृतं, अथ द्वादशमुद्भिमाख्यमाह-- जउछगणाइविलितं,उभिदियदेइ जंतमुब्भिन्नं। समणट्रमपरिभोगं, कवाडमुग्घाडियं वावि॥४८॥ ___व्याख्या-'जतुछगणादिना' लाक्षागोमयप्रभृतिना, आदि शब्दान्मृत्तिकया च 'विलिप्तं' उपलि जतुलगणादिविलित, तत्कर्मतापन कोष्ठिकादीति गम्यते । 'उद्भिद्य उद्घाट्य, श्रमणार्थमित्यत्रापि सम्बध्यते 'ददाति' साधुभ्यः प्रयच्छति, गृहस्थ इति गम्यते, यदत्तादि 'तदुनि' उद्धिनाख्यं उच्यत इति शेषः, कोष्ठिकाद्युद्भित्रभाजनसम्बन्धात् । तथा 'श्रमणार्थ साधुनिमित्तं 'अपरिभोग' अव्यापार 'कपार्ट' लोकप्रसिद्ध 'उद्घाट्य' उद्घाटं कृत्वा 'या' विकल्पार्थों मिमक्रमयोगश्त्र, | ततश्चेदमुक्तं भवति-कपाट वा उद्घाख्य यद्भक्तादि ददाति तदप्युद्धिममिति । अपि शब्दात्कपाटालादर्दरकाद्यपनयनग्रहः।
अत्र च दोषाः-कोष्ठिकादाधुद्भिद्यमाने पहजीवनिकायवधः, उद्भिने च क्रयविक्रयादिविषयमधिकरण, पुनरुपलिप्यमानेऽप्यग्निपृथिभ्युदकादिवघः स्यात् । कपाटेऽप्युद्घाव्यमाने पुनर्दीयमाने च साध्वर्थ गृहकोकिलामूषिकादिवधः स्यात्, अध्यापारदर्दरकेऽप्यपनीयमाने कन्धु-पिपील्यादिजीवविराधना स्यादित्युद्धिम्न वर्जनीयमेवेति, कारणतस्तु यतनया ग्रहणेऽपि न दोषो, यदाह-"घेप्पड अकुंचियागम्मि, कवाडे पइदिणं परिवहंते । अजऊमुदियगंठी, परिभुज्जइ ॥१॥ अङ्कुचिकाके' अविद्यमानोल्लालकच्छिद्र इत्यर्थः यद्वा अक्रेशरव इति गाथार्थः ।। ४८ ॥
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|आयपूद:
त्रयोदश्वर
व्याख्यातं द्वादशमुद्भिनद्वार, साम्प्रतं त्रयोदशं मालापहतद्वारं व्याचिख्यासुराहविशुद्धि दी.--'जतु' लाक्षा 'छगण' गोमयं, आदिशब्दान्मृत्तिकादयस्तैलिसं स्थानमुद्भिद्य-साध्वर्थमुदुघाट्य ददानि यद्भक्तादि
| गमदोपे रोकायो-४ तदुदिनाख्यं स्यात् । तथा श्रमणार्थ 'अपरिमोग' अव्यापार कपाटमद्धाट्य, रा अपिशब्दारकपाटार्गलाद्यपीति गाथार्थः॥४८॥ पेतम् | उक्तमुद्भिनं, अथ त्रयोदशमं मालापहृतमाह
मालाप | उडअहोभयतिरिएसु,मालभूमिहरकुंभीधरणिठियं । करदुग्गेज्झं दलयइ,जंतं मालोहडं चउहा ॥१९॥ ॥४५॥
इतम्य ज्याख्या-अघिउमतिपस्विति इतरतरद्वन्द्वः, ऊधिउमयतिर्यगदिक्समाश्रितेविस्यर्थः। कवित्याह-मालेत्यादि, निरूपणम् विभक्तिलोपान्मालभूमिगृहम्मिधरणिपु, तत्र 'मालो' मञ्चो गृहोपरिमागोवा, तद्ग्रहणस्य चोपलक्षणार्थत्वात्सीकक
नागदन्तकादीनामूर्द्धमतानां परिग्रहः । तथा भूमिगृहं लोकप्रतीतं. तद्वहणाचाघोदिग्गतानां गर्तादीनां परिग्रहः । तथा 'कुम्मी' ठा उष्ट्रिका, तदुपादानाच उमयाथितव्यापाराणां कुशूलादीनामवरोधः, उच्चकुम्म्यादिपु हि तन्मध्यगतदेयाकर्षणार्थ पार्युत्पा- 131
टनेनोर्दाश्रितव्यापारोऽधोमुखवादादिप्रसारणे चाधोगतच्यापासे दातुरित्युमयाश्रितव्यापारत्वमिति । तथा 'धरणि मेदिनी, तगणनाच तिर्यगाश्रितानां करेण कष्टप्राप्याणां शेषाधारविशेषाणां सग्रहो द्रष्टव्यः। ततश्चैतेषु मालादिषु 'स्थितं' गतं-समाधितमित्यर्थः। किंविशिष्टं सदित्याह-'कराय' इस्तदुष्प्राप्यं सत् , किमित्याह-'दलयई'चि 'ददाति' साधुभ्य: प्रयच्छति गृही यद्भक्तायादाय तन्मालापहृतं,दोषविशेषो भण्यत इति शेषः। एतच व्याख्यातोपाधिमेदा'चतुर्दा चतुष्प्रकार, यथा-ऊर्द्धमालापहतं अधोमालापहतमित्यादि । ननु मालान्मश्रादेरपहत-मानीतं मालापहतमुच्यते, तत्कथं भूमिगृहाया- ।
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नीतमपि तदभिधेयतया व्याख्यायते ? उच्यते-व्युत्पत्तिनिमित्तमेवेदमस्य, प्रवृत्तिनिमिस तु भूमिगृहाधानीतमपि, आगमे तथा रूढत्वादित्यदोषः । अत्र चोदाहरणं यथा
इहेब जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे जयपुरे नगरे पमइभद्दओ दाणधम्मरुई जखदिनो नाम गाहावई होत्था । पगइविणीया य वसुमई से भारिया। अन्नया य गोयरचरियाए विहरंतो समागओ से गिहे गुणरयणागरो नाम एगो साहू। उडिया य वसुमई सिक्कगमालोहडभिक्खं दाउं । तओ अकप्पो ति काऊण पडिसेहेऊण निग्गओ सो मयवं । तयणंतरं च भिक्खहूँ पविट्ठो एगो तच्चणिओ, पुच्छिओ य सविम्हएण जक्खदिनेण, जहा-मो! कीस इमिणा साहुणा मिक्खा न गहिय ति। तओ तेण पाबोचहयमा भणिय, जहा-अदिवाणाखु इभे चराया, केवलमेएसि सस्थयारेण गलओ चेव न मोडिउत्ति । तओगिहवइणा असंबद्धपलावी एसो ति किमगेण संलत्तेणं ति चिंतिऊण दवापिया भिक्खा वसुमईए । सा वि जाहे उच्चसिक्कगठियकुडंगाओ हत्थं छोण मोयगे गिण्डइ ताहे मोयगसुरमिगंधक्सपविण कण्हाहिणा करे डकत्ति पलवंती पडिया घस त्ति धरणीयले । आउलीहओ य जक्खदिनो, जीवाविया य कहवि गारूडिएहिं । अनदियहम्मि पुणो समागओ सो साहू, मणिओ य जक्वदिनेणं, जहा-मय! तम्मि दिणे जाणतेण वि कीस न साहिओ? मुयंगमो, अहो मे नियचर्ण!! ति । तओ साहुणा मणिय, जहा-मोन मए नाओ सूर्यगमो, किंतु अम्हाणं मालोहडमिक्खागहणं सपच्चत्रायं ति काऊंण पडिसिद्ध भयवया 'जिणेण ति । धम्मो य साहिओ। तंच सोऊण अहो आरहओ धम्मो अइनिउगो सिमाविताणि संबुद्धाणि दोबि । गओ साहू सहाण, ति । अथास्य बहुदोषता ख्यापनार्थमन्यदपि कथानकमुच्यते
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पिण्ड
विशुद्धि० टीकाद्वयोपेतम्
॥ ४६ ॥
किरे एगम्मि नगरे एगया एगो साहू भिक्खट्टाए पविट्ठो, निस्सेणिमालोहडं भिक्खं दलमाणि अंगारि पडिसेहेऊण निग्गओ । एत्यंतरे पविडो एगो परिवायगो, पुच्छिओ य गिरवणा-कीस अणेण साहुणा भिक्खा न गहिय चि । तओ तेण भणियं - अदिन्नाणा इमे ति । तओ तस्स भिक्खादाण निमित्त निस्सणिमारुहती धस त्ति पडिया से भारिया गोहुमजंतगोवर, फाडिया य से कुच्छी, निवडिओ य फुरफुरायमाणो गन्भो, मया य सा । अन्नदियहम्मि आगरण साहुणा पुच्छिण तहेव संबोऊन पचाविउ ति । इत्याद्यनेकापायकारणं मालापहृतं विज्ञाय संयमिना परिहार्यमेवेति गाथार्थः ॥ ४९ ॥
व्याख्यातं त्रयोदशं मालापहृतं द्वारं, अथ चतुर्दशमाच्छेद्यद्वारं व्याचिख्यासुराह
दी० - ऊर्द्धाधिउभयतिर्यक्षु यथासङ्घथं माल-भूमिगृह- कुम्भी- धरणीषु स्थितं, तत्र 'माले' मश्चे गृहोपरितनभागे वा, उपलक्षणाच सिककादि, ऊर्द्धस्थितं १, भूमिगृहादिष्ववः स्थितं २, कुम्भीकोष्ठिकादिषु पार्थुत्पाटनादधोबाहु प्रसारणाच्च उभयस्थितं ३, 'धरणिः' पृथ्वी, तत्रस्थेषु कष्टप्राप्याचारेषु तिर्यस्थितं ४, करदुर्ग्राह्यं 'दलयति' ददाति यद्भक्तादि तन्मालापहृतं व्याख्यातोपाधिभेदाचतुर्द्धा स्यादिति गाथार्थः ॥ ४९ ॥ उक्तं मालापहृतं, अथ चतुर्दशमाच्छेद्यमाह - अच्छिदिय अन्नेसिं, बलावि जं देंति सामिपहृतेणा । तं अच्छेज्जं तिविहं, न कप्पए ऽणणुमयं तेहिं ॥ ५०॥
व्याख्या- 'आच्छिद्य' अपहृत्य - उद्दाल्येति यावत् । केभ्यः सकाशादित्याह - 'अन्नेसिं' ति अन्येभ्यो दातुमनोप्सदुद्भ्योऽपि कौटुम्बिकदासमृतकादिम्यो 'बलादपि' हठादेव - बलात्कारेणैवेत्यर्थः । यद्भक्तादि, किमित्याह- 'ददति' साधुभ्यः प्रयच्छन्ति । -के कर्तारः : इत्याह- 'सामिपहृतेण' चि, 'स्वामी च' राजा 'प्रमुख' गृहादिनायकः 'स्तेनाथ' चौराः स्वामित्रस्तेनाः ।
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आयेषूद्रमदोषेषु च
तुर्दशस्या
छेद्यस्व
विवरणम् ।
॥ ४६ ॥
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तदाच्छेद्य-बाच्छेद्याख्यो दोषविशेषो भण्यत इति शेषः । एतच्च 'त्रिविध स्वामिप्रमुस्तेनलक्षणदायकमेदात्रिप्रकारं विजेयं । कुर र समरि 'ग' व 'कर साधूनां ग्रहीतुं युज्यते । किविशिष्टं सदित्याह-'अननुमतं' अननुन्नातं, अनुज्ञातं तु कल्पत एवेत्यर्थादुक्तं भवति । 'तेहिं ति 'ते' कौटुम्बिकादिभिरनेकदोषसम्भवात् । यदाह- "गोवालए य भयए, खरए पुत्ते य धूपसुण्हाय । अवि[अचि यत्तमसंखडाई, केह पओसं जहा गोवो ॥१॥" अस्या भावार्थ:-गोपालके तथा 'भृतके कर्मकरे 'व्यक्षरे' दासे तथा पुत्रे दुहितरि च 'स्नुषायां च' वधूटिकायां, चकाराहार्यादिपरिग्रहः । एतद्विषये प्रमोराच्छेद्यं स्यात्, ततश्च स यद्येतेभ्य:- स्वामिकौटुम्बिकादिभ्योऽपि, चौरास्तु पथिकादिभ्योऽपि, अनीप्सद्यः सकाशाद् गृहीत्वा भक्तादिकं प्रयच्छन्ति, साधवस्तूपरोधादिनाऽपि यदि गृहन्ति तदैते दोषाः स्युः । 'अग्रीतिगोपादीनां मानसं दुःखं स्यात् , तथा 'असंखडं कलहः, आदिशब्दादन्तराया-दत्तादान-कानेकद्रव्यव्यवच्छेदो-पाश्रयनिष्कासन-गालीप्रदानप्रमृतिदोषजालपरिग्रहः । तथा केचित् प्रद्वेषं साधोरुपरि गच्छेयुः, यथा-गोपः कश्चित् ।
किल केनापि प्रभुणा कस्यापि गोपस्य भृतिदिने तदीयदुग्ध कियदायाच्छिय साघवे दत्तं, साधुना तु गृहीतं । ततश्च स पयोमाजनमादाय स्वगृहमागमत् । दृष्टं च न्यून पयोभाजनं तद्भार्यया, ततः सा तस्मै आक्रोशान् दातुं प्रवृत्ता, चेटरूपाणि च रोदितुं लग्नानि । सतो गोपोऽप्युल्लसितबहलकोपानलः सज्जातसाधुवश्वपरिणाम इतश्चेतश्च तदन्वेषणं कुर्वाणो ददृशे साधुना, ज्ञाततदभिप्रायेण च तत्परितोषार्थमेवमालापश्चक्रे, यथा-गृहपतिनिधान्मया त्वदीयदुग्धं गृहीतं, साम्प्रतं च तवार्पणायोबलितोऽहं, ने चं भवद्गृई जानामीति गृहाणेदं, ततो गोपेन सज्जातोपशमेनोक्तं, यथा-तवैव भवत्वेतचिरं च त्वया जीवितव्य
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मिति मुच्ोऽसि, द्वितीयवारमेवं माकरिति । एक्मनेन्दोनिवन्धनमिदं शास्त्रा समक्षुमिः परिहार्यमेवेति गाथार्थः ॥५०॥ यादेवन व्याख्या पर्दशमाच्छेपद्वार, साम्प्रट पदशमनिसृष्टाध्यद्वार विमणिपुराह
टोपेषु पा ST : दी०-'बाच्छिा उदात्य 'अन्येभ्यों मृत्यादिम्यः सकाशावादपि यदति सामिप्रसस्तेनाः । तत्र स्वामी राजा देनम्या
' प्रहादीनां पतिः 'स्तेना बोराम, तदाच्छे त्रिविध स्वामिप्रसस्तेन मेदेने करपते 'अननुमतं' अननुजातं तेर्मन्यादिमि
निसृष्टर रिति गाथार्थः ॥५०॥ उक्रमाच्छेध, अब पञ्चदशमनिसृष्टमाइ
सम्पम अणिसिष्टुभदिन्नमाणु-मय शुजं देजातिंच तिहा साहारण-बोल्लगजहाणिसिटुं नि॥५१६ ___न्याख्या-'बनिसृष्ट' अनिसृष्टसम्बदोगो, भवेदिति गम्यते । किं वदित्याह-'अदा' अक्तिीनं यद्वा 'अननुमने अमुकबित-अननुजातमित्यर्थः। 'वा' किल्पाः । 'बहुना बनेकेषां स्वामिना 'तुल्य' माधारण बहतुत्य एकोऽद्वितीयो दाना यन्मोदकादिकं कर्मतापत्र 'दवाद' प्रयच्छेदिति । 'तच्य' वत्युनरनिसृष्टं 'त्रिषा' उपाधिमेदाभिप्रकार म्यान , कनोश्वेनस्थाह-'साहारणचोल्लगजाणिसिद्धीति, बनिसृष्टश्चन्दस्य प्रत्येकममिसम्बन्धात्माघारबानिसृष्टं चोचकानिसृष्टं जहानिमृष्टं देवेव। तत्र माघारच-पडूना मित्रादिस्वामिमां सामान्यं यन्मोदकादि, नंदेव तद्विषयं वा अनिष्ट माघारणानिमष्टं । बोदाहरणं, यथा
छिपइडिए नगरे माणिमइपरहेडिंगचीमाए अवाणमिचेहि मोडियमचं कारिय नीयन रमणियमाणे, ननोने नन्ग वापान गया नवमनिमिषं । एत्वंतरे मिक्खानिमिर्च ममामयो एमो माह । नबो रक्सबालबागएम मणिव
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ari ! अपि गतीसार मित्ताणं सामना एए मोयगा, कहमेगो ते देमि १ । साहुणा भणियं ते कहिं गया । तेण हाइति । साहुणा मणियं अहो ते विभाणं !! जे परसंतिएण चि पुष्णं न तरसि काउणं ति, किंच बत्तीसाए वि मोयहिंदि एगो चैव गच्छिही, वा सामन्नदद्वेणं अप्पत्वएणं बहुपुन्नहेउणा कुणसु मोयगदाणेण धम्मं ति । एवं पुणरुत्तभणिरणं तेणं दिन्ना से मोयगा । तओ सो ताओ ठाणाओ नियतंतो पुच्छिओ सम्मुहावडिय माणिभद्दाईहिं, जहा भयवं ! कित्थितए लं वि, तेण वि सभएणं संलतं न किंचिवि नि, तओ तेहिं बला पलोयंतेहिं दिहं से मोयगमरियं भायणं, पुच्छिओ या संदर्सन दिष्णं ति । तओ सलोत्तो चोरो ति भणतेहिं गहिओ माहू, आयडिऊण नीओ ववहारत्थाणं, पुच्छिओ य कारणिएहिं, साहियं च सवं जहावुत्तं तं साहुणा, चिंतियं च तेहिं समुज्जुओ एस साहु ति, मणिओ य- मा पुणो एवं काहिसि निविसएण + य गंतवं ति, मुकोति ।
यस्मादेते दोषास्तस्मान्न ग्राद्यमिदं । तथा स्वामिना पदातिभ्यः प्रसादी क्रियमाणं कौटुम्बिकेन क्षेत्रादिस्थित कर्म करे - यो दीयमानं मक्तं चोलको मण्यते स एव तद्विषयं वा अनिसृष्टं चोल्लकानिसृष्टं । एतच्चाननुज्ञातं अदत्तादानान्तरायादिदोषसम्भवाद् ग्रहीतुं न कल्पत एव । तथा 'जड्डो' हस्ती, तस्य सम्बन्धि भक्तपिण्डरूपं वस्तु राज्ञा गजेन चानिसृष्टं जड्डानिसृष्टं एतदप्यननुज्ञातं साघुभक्तमेण्ठादिना दीयमानमपि न कल्पते, राजपिण्ड- गजान्तराया दचादांना स्मोपघातादिदोष" सम्भवादिति गाथार्थः ॥ ५१ ॥
+ निर्विषयेण - देशातिक्रमेण गन्तव्यमित्यर्थः । ( ५० अ० )
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पिण्ड
शुद्धि०
काइयो
पेतम्
४८ ॥
दी निसृष्टं तत्स्यात् यद् 'बहुतुल्यं' बहूनां सत्कं तैरदत्तमननुमतं वा तयोर्मध्यादेको दद्यात् । तत्र त्रिधा-साधारणचोल्लग - जङ्घानिसृष्टमेदैः । तत्र 'साधारणं' बहुस्वामिकं, तथा 'चोलकः' स्वाम्यादिना सेवकादीनामेकत्र प्रसादीकृतं भक्तादि, तद्विषयं २ | 'नड्डो' हस्ती, तद्भक्तपिण्डमध्याद्दत्तं ३, राजपिण्डादत्तादिदोषकृखड्डा निसृष्टमित्याहुरिति गाथार्थः ॥ ५१ ॥ उक्तपनिहृष्टं, अर्थ पोडशमध्यवदूरका रूपमाह
जावंतियजइपासं- डियत्थमोयरइ तंदुले पच्छा । सट्ठा मूलारंभे, जमेस अज्झोयरो तिविहो ॥ ५२ ॥ व्याख्या- 'यावदर्शिकाच' समस्तभिक्षाचरा 'यतयश्च' निर्ग्रन्थाः 'पाषण्डिनश्च' सर्वती र्धिकास्ते तथा तेषामर्थाय निमित्तं यादकियतिपापण्डिकार्थं । किमित्याह यद् 'अवतारयति' क्षिपति स्थाल्यां गृहस्थ इति गम्यते । कानित्याह- 'तन्दुलान्' धान्यकणान् उपलक्षणत्वाज्जलादि च । कथमित्याह--' पश्चात् ' मूलारम्भोत्तरकालं । व सतीत्याह- 'सष्ट्ठा मूलारम्भे' चित 'स्वार्थाय' आत्मनिमित्तं - गृहनिमित्तमित्यर्थः । मूलारम्भे- अग्निज्वालनाद्रहणदानादिलक्षणे व्यापारे प्रवृत्ते सतीत्यर्थः । यदित्यस्य सम्बन्धो दर्शित एव । एषोऽयं 'अध्यवपूगे' ऽध्यवपूरकाख्यो दोषो, भण्यत इति शेषः । स च यावदर्थिकादिविषय मेदात्रिविध- त्रिप्रकारः स्यात् यथा - यावदर्थिक मिश्राध्यवपूरको यतिमिश्राध्ययपूरकः पाषण्डिमिश्राध्यत्रपूरकश्श्रेति । इह च श्रमण मिश्राभ्यवपूरकोsपि घटते, केवलं कुतोऽपि कारणाच्छुमणाः पाषण्डिनां मध्ये विवक्षिता इत्यसौ नोक्त इति सम्भावयामः । अस्य वाद्य मेदे यावत्पश्चात्प्रक्षिप्तं तावत्युद्धृते शेषं स्थालीगत कल्पत एव, न शेष मेदयोरिति गाथार्थः ॥ ५२ ॥ व्याख्यातं वोपमवपूरकाख्यद्वारं, तयाख्यानाच समर्थिताः सर्वेऽपि पिण्डोद्गमदोषा, अथ तेष्वेवाविशोधिकोटिममिधातुमाह
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आद्येषूद्गमदोषेषु
षोडशस्या
व्यवपूर
कस्य स्व
रूपम् ।
॥ ४८ ॥
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दी० - ' यावदर्थिनः सर्वे भिक्षार्थिनो 'यतयः' साधवः 'पाषण्डिनः सर्वतीर्थकास्तदर्थ यदवतारयति - प्रक्षिपति स्थालयां, गृहीति गम्यं । तन्दुलानुपलक्षणत्वात्सर्वधान्यादीन् पश्चान्मूलारम्भस्य, क्व सति ? स्वार्थाय मूलारम्भे कृतेऽशिज्वालनाद्रहणादौ, एषोऽभ्यवपूरकत्रिविध उक्त मेदैरिति गाथार्थः ॥ ५२ ॥ व्याख्याताः षोडशोद्गमदोपाः अथ तेष्वप्य त्रिशोधिकोटिमाह-इय कम्मं उद्देसिय-तियमीसऽज्झोयरंतिमदुगं च । आहारपूइबायर - पाहुडियविसोहिकोडि ति ॥ ५३ ॥ व्याख्या -- इत्येतेषु षोडशसु पिण्डोद्रमदोषेषु मध्ये कर्मेत्याधाकर्म, तथा 'उद्देसिय' नि औदेशिकं द्वादशविधं, उद्दिष्टकृत-कर्माख्यौदेशिकानां प्रत्येकं चतुर्भेदत्वात् । तत्र कमौदेशिकस्य मोदकचूरी पुनमदककरणादेर्यत्रिकं पाषण्डिश्रमणनिर्ग्रन्थविषयं समुदेशिकादेशिकसमादेशिकाभिधानं तदौदेशिक त्रिकं । तथा 'मिश्रं च' मिश्रजातं । अध्यनपूरक्षा-व्यवपूरकः, तथा, तयोरन्तिमं - चरमं यद्विकं तन्मिश्राघ्य वपूरान्तिमद्विकं । 'च' समुच्चये, स च बादरप्राभृतिका चेत्येवं योज्यः । तथा 'आहारपूर्ति' मक्तपानपूर्ति तथा बादरप्राभृतिका च उक्तलक्षणा, किमित्याह-अविशोधिकोटिः, अविद्यमाना 'शोधिः' शुद्धता आत्मार्थीकरणेऽपि भक्तादेर्यत्र सा तथा सा चासौ कोटिश्व-उद्गमदोषचि मागोऽविशोधिकोटिरित्येवं मण्यत इति शेषः । इति गाथार्थः ॥ ५३ ॥
तौ
साम्प्रतमस्या एवातिदुष्टताख्यापनार्थं पात्रविषयविधिमाह -
दी० - इत्येतेषु षोडश्रोद्गमदोषेषु मध्ये कर्माख्य आद्यदोषः १ तथौदेशिक त्रिकं चतुर्विधक मदेशिकान्स्य मेदत्रयं ३, तथा मिश्राष्येवपूरकयोरन्तिमद्विकं द्वयोरपि पाषण्डियतिविषयौ द्वौ द्वौ भेदौ, आहारपूति बादरप्राभृतिका चोक्तलक्षणा,
९
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पिष्टविशुद्धि ० टीकाइयोपेसम्
॥ ४९ ॥
एतदोषद अविशोषिकोटिरुद्र मदोष विभागो भण्वत इति गाथार्थः ॥ ५३ ॥ तद्योगे विधिमाहती जुयं पपिहु, करसनिच्छोडियं कयतिकप्पं । कप्पड़ जं तदवयवो, सहस्सधाई विसलवोइ ॥ ५४ ॥ व्याख्या- ' तथा ' अविशोधिकोट्या 'युतं खरष्टितं स्पृष्टं वा किं तदित्याह - 'पात्रमपि' साघुभाजनमपि 'हु'वक्यालङ्कारमात्रे, किंविशिष्टमित्याह - 'करीषेण' शुष्कगोमय चूर्णेन उपलक्षणत्वाद्भस्मादिना च 'निश्होटितं' वृष्टं -उवर्जितमित्यर्थः । करीपनि छोटितं सद् पुनरषि विविशिष्टं सदित्याह -'कृता' विहितात्रय - त्रिसख्या: 'कल्स' जलप्रक्षालनरूपा यस्य तत्तत्रिकल्पं, उपलक्षणत्वादात्तपादिशोषितं च किमित्याह- 'कल्पते' साधूनां परिभोक्तुं युज्यते । ननु किंमिति कृतकरीषोइन- कल्पत्रिकमेव पात्रमपि कल्पते । नान्यथेत्याह- 'ज' मित्यादि 'यद्' यस्मात्कारणात्तस्या- अविशोधिकोटेरवयवो - लवस्तदवयवः अध्यर्थस्य गम्यमानत्वादविशेोधिकोटिलेशोऽपि । किमित्याह - सहस्राणि इन्तुं शीलमस्येति सहस्रघाती, क इवेत्याह- 'त्रिव इव' प्रधानगरलेशी यथा, इदमुक्तं भवति यथा अतिप्रधान विषलवोऽपि अन्यान्ययेवेन परम्परया प्राणिसहस्राणि भक्तादिसहस्राणि वा विनाशयति, एवमविशोधिको टिंलवोऽपि शुद्ध भक्तसहस्राण्यपि दुष्यतीति गाथार्थः ॥ ५४ ॥ अथ विधिकोटिं समतविधि च प्रतिपादयमाद-
- ''धोया युतं पात्रमपि करीपतिं कृतत्रिकल्पं कल्पत इति पूर्ववद् । 'य' र वयो' को कोटि लेशः सहस्रघातीविपलव इन भक्तादिसहस्राणि विनाशयतीति गाथार्थः ॥ ५४ ॥ विशोषिटिं तद्विधि चाह
'द
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आद्येषूद्रमदोषेषु अ
विशोषि
कोटिदोषा
मिघानम् ।
॥ ४९ ॥
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ल सेसा हिसोहिकोडी, तदवबजाई जया पडियं । असढो पासइ तंचिय, तओ तया उद्धरे सम्मं ॥५५॥
व्याख्या-शेषा' अविशोधिकोट्युद्धस्मिद्गमदोषा चाव्यादयश्च, किमित्या-विशोषिप्रधाना कोटी विशोधिकोटी, अन्यत इति शेषः। तत्रतस्वा' विधिकोट्या 'अक्यको अंशस्तदन वनस्तं यत्रत कानिक यन पाटेको शुद्धभक्तमध्ये वा 'यदा' यस्मिदेव ने 'पतित' मत-मिलितमित्यर्थः । 'अशोऽमायावी-मनोबेतरेषु रागद्वेपरहित इत्यर्थः । पश्यति अशुद्धविदमित्ववमच्छति, तदा किं कुर्यादित्याह-' दियेत्यादि 'तमेच' विशोधिकोटयश 'ततस्तस्मात्पात्राच्छुद्धभक्तमच्याद्वा तदा तस्मिमेव काले 'उबस्तु' पृथात्परित्यजेदित्यर्थः, साधुरिति गम्यते । न पुनः कालविलम्ब कुर्याचिरावस्थाने शुद्धस्याप्यतापचे। कथं ? 'सम्यग् निरक्यवतयेटि गाथार्थ: ।। ५५ ।।
अथ पूर्वोक्तमेवार्थ विषयविमागेनार
दी-शेषा' उद्धरिता उद्धमदोषमका पाध्यादिदोषभवा च विरोधिकोटिः स्यात, तरूया 'अवयव लेशं यं कान [ 'यस्मिन् पात्रकदेशे शुद्धमा यदा पनि 'अयो पृद्धिरहितो यतिः पश्येचदा ततः पात्रान्छुद्धमक्ताद्वा तमेव लेशं |
'उद्धरेद' विधिना त्यजेत्-सम्यम् निलेपयेदिनि गाथार्थ ॥ ५५ ॥ अन विशेषमाइदतं चेव असंथरणे. संथरणे सहमवि विगिचंति। दल्लभदवे उ असढा. तत्तियामित्तं चियचयंति ॥५६॥
व्याख्या-तंव'दि तमेक्-निपतिसमामेव विशोषियोटपंच 'विगिचंतीति योमः, केन्याह-'असंस्तरणे बनिसके । 'संस्तरों पर्याप्तौ पुनः 'सर्वमपि समस्तमेव अमराद्ध पेत्यर्थः। 'विचिंतिति परित्यजन्ति, साधक
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कोटिस्तद्:
पिण्ड- इति गम्यते । इदमुक्तं भवति-यदि कथश्चिदनामोगादिना शुद्धमक्तमध्ये विशोधिकोटिदोषषितं भक्तं गृहीतं स्यात् , पचाच | | आयेषद् विद्धिका विज्ञातं, ततो यदि तेन विनाऽपि निर्वहन्ति तदा सर्वमपि विधिना परित्यजन्ति, अथ न निर्वहन्ति तदा प्रत्यभिज्ञाय तदेव
गमदोषेषु कास्योपरित्यजन्ति, परं यदा शुद्धशुष्कमक्तमध्ये विशोधिकोटिदोषवतीमनादिद्रवद्रव्यं निपतितं भवेत्तदा शुद्धं काञ्जिकादिजलं
| विशोधिपेतम्
तन्मध्ये प्रक्षिप्य करं च भाजनमुखे दत्त्वा गालयन्ति यथा तत्सर्व निस्सरतीति । आर्दै तु शुद्धतक्रादिके यद्यशुद्ध शुष्कौद
नादि पतितं स्याचदा यावच्छक्नुवन्ति तावत्तन्मध्यात्करणोदृत्य परित्यजन्तीति, यदा तु द्रव एव द्रवं निपतितं स्यात्तदा गतविधिया 1५०॥
कि विधेयं ? इत्याह 'दल्लभेत्यादि, दुर्लभद्रवे तु-दुष्प्राप्य+घृतादिद्रवरूपे वस्तुनि पुनरशुद्धे इतरघृतादिमध्ये निपतिते, सतीति गम्यते । 'अशठा' अमायाविना-सत्यालम्बना इति भावः । 'तावन्मात्रमेव पतितद्रव्यप्रमाणमेव तदाकलय्य 'पति'चि 'त्यजन्ति' विधिना परिष्यन्ति धापयति माया।। ५ ा अयोगमदोषनिगमनं उत्पादनादोषप्रस्तावना चाह
दी०---तमेव विशोधिकोटयंशं 'असंस्तरणे अनिर्वाह 'विगिचंति' त्यजन्तीति योगः, संस्तरणे सर्वमपि शुमशुद्धं च त्यजन्ति, दुर्लभद्रव्ये-घृतादौ द्रव्ये द्रवद्रव्ययोगाहुष्प्रापे त्वशठास्तावन्मात्रमेव पतितद्रव्यप्रमाणं त्यजन्ति, निर्लेप : सलेपे काञ्जिकादिना शोध्यमिति गाथार्थः ॥ ५६ ।। अथोद्गमदोषनिगमनं उत्पादनादोषप्रस्तावना चाह
+ "दुष्प्राप" प.क. इ. Ixद्धतर" ह. क. * व्ये दुधापे. निलये सलेप" क "निळे सले" ह.। अस्मद्विया तु "निले सलेपेन" इति शुद्धमाभाति ।
P५०॥ 196
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भणिया उग्गमदोसा, संपई उपायमार से पोछाजे गजकजसजो, करिज पिंडट्ठमवि ते य ॥५७४
व्याख्या-'मणिताः' प्रतिपादिताः, के ? इत्याह-'उद्गमदोषाः' पिण्डोत्पत्तिदपणानि । 'सम्प्रति इदानीं 'उत्पादनाया गृहस्थात्सकाशात्साधुना स्वार्थ भक्ताद्युपार्जनारूपायाः सम्बन्धिनस्तान् दोषान् 'वक्ष्ये अभिवास्ये, यानुत्पादनादोषान् 'अणज्जकजसज्जो' त्ति 'अनार्यकार्येषु' पापकर्मसु-सावद्यव्यापारेवित्यर्थः। 'सम' प्रगुणोऽनार्यकार्यसजः सन् 'कुर्यात्' विदच्यात् , कश्चिल्लोल्योपहतः साध्वाभास इति गम्यते । 'पिण्डार्थमपि' क्षणिकतृप्तिमात्रफलजघन्यभक्तादिग्रासनिमित्वमपि । 'तेय ते दोषाः पुनरमी भवन्तीति गम्यत इति गाथार्थः ॥ ५७॥ ____ अथ प्रस्तावितोत्पादनादोषानेव नामतः सङ्ख्यातश्च दर्शयन्नाइ
दी--मणिता उद्गमदोषा गृहस्थाश्रिताः, सम्प्रत्युपादनाया-गृहस्थात्साधुना भक्तोपार्जनरूपायास्तान् दोषान् वक्ष्ये, यान् दोषाननार्यकार्यसञ्जः-सावधव्यापारप्रगुणः सानाभासः पिण्डार्थमपि कुर्याद , ते चामी-वक्ष्यमाणा इति गाथार्थः ॥५७।। ___ अथ तामामतः सयातच गाथाद्वयेनाहधाई-दुई-निमित्ते, आजीव-वणीमगे तिगिच्छो य। कोहे माणे मायो, लोभे" य हवंति दस एए ॥५॥ 'विं पच्छासंथवे, विजी-मंते य चुण्ण-जोगे"य । उप्पायणाए दोसा, सोलसमे मूलकैम्मे य ॥५९॥
* ".पिण्डोद्गमदृ ०" य.।
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पाया
चना ।
विमा
व्याख्या---'धयन्ति' पिबन्ति नामिति धात्री. मा च रूट्या झीरमञ्जनादि मेदात्पञ्चधा परिगृह्यने, इह च दोषव्याख्या
उगमदोशब्दयामानाधिकरण्याद्धात्रीनि निर्देशेऽपि घात्रीत्वकरणमिति द्रष्टव्यं, पदे पदसमुदायोपचागन , एस्मन्यत्रापि १। तथा 1* |पे निगम51"दती' परम्परस्य सन्दिष्टामिधायिका स्त्री, दुवकरणमित्यर्थः २ । 'निमित्तति निमित्तकरणं-अतीताद्यर्थसंसूचनम् +
नमुन्पाद३। तथा आजीवनमाजीवो जान्यादीनां मृहस्थात्मसमानानाममिघानत उपxजीवनमाजीवः ४ नया 'वणिमगति
नादोष वनीपकत्र करणं, तत्र 'वनी' दायकामिमतजनप्रशंसोपायतो लब्धार्थरूपां 'पाति' पालयतीति वर्मापः, म एव वीपकः, ।
प्रस्तावना तस्य मावो बीपकत्व, तस्य 'करणं' विधान, तत्तथा ५ नथा चिकित्सनं चिकित्सा-रोगप्रतीकारः, 'च' अन्दः समुच्चये ६ । तथा 'क्रोधः' कोपः ७ । 'मानो गर्वः ८। 'माया वञ्चना ९ । 'लोगो' लुब्धता १० । 'प:' ममुच्चबे 'मवन्ति' म्युर्दशेने-अनन्तरोक्ताः, उत्पादनादोपा इति योगः। तथा 'पूर्व दानापाक 'पश्चाच' तदुपरि 'संम्तो दातुः ग्लाघादिः पूर्व-पश्चात्मस्तवः ११। तथा विद्य'ति सूचकन्वाद्विद्याप्रयोगः, तत्र विद्या-देवताऽघिष्टितः समापनो वा अक्षरानुपूर्वीविशेषः, तस्याः प्रयोगो विद्याप्रयोगः १२ । एवं 'मन्त्र' इति मन्त्रप्रयोगो, नर-मन्त्रो-देवाधिष्टिनोमाफ्नो वा अक्षररचनाविशेषः १३ । 'च' पूर्ववत । तथा चूर्ण-स्तिरोधानादिफलो नयनाञ्जनादियोग्यो द्रव्यवादः कोम सौभाग्यादिहेतव्यसंयोगः १५ । 'क' प्राग्वत् । उत्पादनायाः पिम्होपार्जनस्य "दोषाः' क्षणानि, एते पदार
पोडशः पुनर्मूल-मष्टमप्रायश्चितं, तत्प्राप्तिनिबन्धनं 'कर्म' म्यापापो गर्मघातादि, मूलानां वा-नसस्क्वक्सविशेष +" सूकम् "प.इ.क. x"जीवनम् ।" प. इ. क.।
.. ॥५१॥ 188
तथा विद्यम इति योग ।
वधरचना तस्याः प्रयोग
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कर्म, मबवनस्य वा मूलं कर्म-मूल कर्म । 'च' शब्दःपुनः शब्दार्थस्तत्प्रयोग दार्शित एवेति द्वारमाथाद्वयार्थः ॥५८-५९॥
साम्प्रतं प्रथमदोषं धात्रीत्वकरणलक्षणं प्रतिपादयचाह
दी-'धात्री बालानां, तस्याः कर्म धात्रीकर्म १, दती परस्परसन्दिष्टार्थकथनात् २, निमित्-अतीताधर्थसूचनम् ३, आजीवो जात्यादि कथनादुपजीवनम् ४, बनीपर्क-अभीष्टजनप्रशंसनम् ५, चिकित्सा-रोगप्रतीकारः ६ । क्रोधो ७, मानो८, माया ९, लोभध १०, मष्टाः, भवन्ति दौते ॥ ५८ !| तथा पूर्व-पश्चात्संस्तवो-दायकलाधनम् ११, विद्या-देव्यधिष्ठिता ससाधना च १२, मन्त्री-देवाधिष्ठितोऽसाघनश्च १३, चूर्णो-नयनाञ्जनादिरूपः १४, योगश्च-सौभाग्यादिकद्रव्यनिचयः१५, एतेषां प्रयोगादुत्पादनादोषाः, षोडशः पुनर्मुलकर्म-गर्मोत्पादनादि चेति गाथाद्वयार्थः ॥ ५९ ॥ तत्र छात्रीदोषमाहबालस्स खीरमज्जण-मंडणकीलावणंकधाइत्तं। करिय काराविय वा, जंलहइ जई धाइपिंडोसो ॥६॥
व्याख्या-बालस्व' शिशोः 'स्वीर-मवण-मंडण-कीलावण-कघाइत्तंति 'क्षीरं च दुग्धं 'मजनं च' स्नान मन्नं च विभृमा 'क्रीडापनं च' रमणं 'अङ्कश्यो'त्सङ्गः, ते तथा, तद्विषयं धात्रीत्वं क्षीर-मजन-मण्डन-क्रीडापना-तूधात्रीत्वं कसम 'करिय' चि 'वृत्त्वा' स्वचं विधाय, अथवा 'काराविय' ति 'कारयित्वा' अन्यसकाशाविष्पाय 'चा' विकल्पे, Luथा वित्साध्वाभासः परिचितामारीनृहे मिक्षार्थ मतो दन्तं बालकं विलोक्य तन्मातरं प्रतीदमाह-रोदित्य धीराहारो बाबो तेतिप्रमादिद्या किमलमानि जन्मानि', तो झगिस्येच देहि मे मिक्षांतता पाययाम स्तन, कामे मिया, एवमेव अवस्पापय स्तन्यं, भगोप्यहमागमिष्यामि। अथका कीति-बिहवं निराकला, बदमेवास्व
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द्वितीयो.
पिण्डविशुद्धि टीकाद्वयोपेतम्
स्पादना
दोषवार्य धात्रीदोषनिरूपणम्।
क्षीरं दास्यामीति । एवं मजन मण्डनादिष्वपि धात्रीत्वकरणकारणद्वारेण यत्पिण्डं 'लभते' प्राप्नोति 'यतिस्तथाविधसाधुः धाईपिंडोत्ति धात्रीत्वकरणालन्धः पिण्डो मध्यमपदलोपात् यात्रीपिण्ड इत्युच्यत इति शेषः । 'सोति सः अनन्तरोक्तः । अंत्रच भूयांसा दोषाः, यथा-मद्रकत्वाद्वालकजननी अशुचिभिक्षा दद्यात्प्रान्तत्त्वात्प्रद्वेष वा कुर्याद, कर्मोदयाद्वालकस्य | ग्लानत्वे सत्युड्डाहश्च भवेत, चाटुकारिण इति जनेऽवर्णवादश्च स्यात् , स्वजना अन्ये वा सम्बन्ध वा शङ्करनित्यादि । उदाहरणं चात्र
इहेच जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कोल्लयरं नाम नया होत्या, तत्थ य जंघाचलपरिहीणा संगमधेरामिडाणा गुणरयणनिहिणो सूरिणो परिवसंति | अन्नयाय संपत्ते कक्खडे दुभिक्खकाले संगमधेरायरिएहिं अणुनायनियगच्छपरिवुडो सीहाभिहाणसीसो पहाविओ सुभिक्खदेसंतरं, आयरिया वि महाणुभागा मासकप्पेण बिहरिउमसमत्था “जा जयमाणस्स भवे, विराहणा मुत्तविहिसमग्गस्स | सा होइ निजरफला, +अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ॥१।। "त्ति सुत्तमणुसरिऊणं तं खित्वं नवविमागे काऊण चउबिहाए दवखेत्तकालभाचरुवाए जयणाए जयमाणा तस्थेव विहरिंसु, तत्थ दवओ पीढफलमाइसु, खेत्तओ वसहिपाडएसु, कालओ एगस्थ पाडए मासं बसिऊणं वीयमासे अन्नत्थ वसहिं गवेसिउँ- वसंति, भावओ सवस्थ निम्ममत्ता विहरति । इओ य अन्नया कयाह आयरियपउनिगवेसणानिमिसं पट्टविओ सीहेण दत्ताभिहाणसीसो । पत्तो य तं नयरं। तो आयरिया नीयवासिणो त्ति काऊण ठिओ तप्पडिस्सयाओ बाहि, वंदिया य किंपि सूरिणो, भिक्खासमए + “ अध्यात्मविशुद्धियुक्तस्य " (पर्यायः अ०)x“ गवेसिय" य.। * नित्यवासिन इति कृत्वा ( पर्यायः अ०)।
1.00
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पचिट्ठी भिक्खट्टाए तेहि समं। अनाउंछचिरहिंडणेण य समुप्पनो से संकिलेसो, अहो णु कुंदक्षतणेण इमो पंतकुलाणि में हिंडावेइ, महकुलेसु पुण अप्पणा गिहिस्सह एवंविहं च से संकिलिट्ठपरिणाम नाऊण पचिट्ठो एगम्मि+ ईसरकुले तेण समं परि। तत्थ य पूयणागहगहियं चेडरूवं रुयंत दद्दण चप्पुडियादाणपुच्वयं भणियं मूरिणा-मा रुय चेडरूव । ति | तओ से अचिंततक्सामत्थयाए मर त्ति कालपणा, डियो तुहिको पेडो । तओ पहढवयणपंकयाए उवणीयं से जणणीए भरियं मोयगाणंथालं, गुरुणा वि मणिओ दचो-मद्द ! गिण्हसु इमं ति। तो घेत्तुण पञ्जचं ति मणिऊण गओ दत्तो उवस्मयं । गुरू वि अंतपतेसु कुलेसु ममिऊग पत्तो उवस्सय, भुत्तं च तेहिं । तओ आवस्सगवेलाए आलोएमाणो मणिओ गुरुणा-मद ! सम्ममालोएहि । तेण मणिय तुम्मेहि चैव समं विहरिओम्हि, किमित्थासम्म ? ति । गुरुणा मणिय-महुमधाईपिंडो तुमए परिभुत्तो, छोडियाकरणेण पूयणाचिमिच्छापिंडो य । अहो सुहमे बि एस मे दोसे पलोएड, अप्पणो पुण महंते वि न पिच्छइ । | अथवा "सर्वः परस्य पश्यति, वालाग्रादपि तनूनि छिद्राणि | नात्मगतानि तु पश्यति, हिमगिरिशिखरममा णानि ॥५॥" इइ चिंतिऊण निग्गओ उवस्सयाओ पाहि ति । तओ जहासन्निहियदेवयाए गुरुपडिणीओ ति काऊण वेउब्वियं अम्भवदलयं, कयं महंतघयारं जणिओ खरफरुसमारुओ, परिसारिओ घणो । तओ तिम्मतेण* भयविहरमाणसेण य वाहरिया मूरिणो, तेहि वि कओ सदो-आगच्छसु ति । तेण भणियं-अंधयारे न पेच्छामि क्सहिदुवारं । तओ मूरिणा खेला___x अमातोञ्छः, कोऽर्थः १ अमातकृपणगृहादौ। मायावित्वेन (प. ब.)1 +"एपंसि" अ.। हुकठपूतनानाम राक्षसी (प. अ.)|* भिन्नंटेणं " अ.! आम्तेन (पर्यायस्तव)
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॥५॥
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रिशुलीग उजोषिया पसी, पिति गणेणा-अहो !! दीपपपरिग्गडो पि अस्थि आपरियाणं, मगायो गरुममी, साहितीपो. विरा अमेण अप्पणा संथारमो, गुरुणा वि उपसपिओ भंगुरुिपईयो । जाप ५ तमधवारे मषिमो मुखणा, कहा- मादोकामियोमे पयसादियाए पसहिए डापा शिरेख यति, समोसजिओ गीमो। एरपतरे समागया देशपा, सासिमी
| पाय ही दिनभिपपिप गुरुम भिण्डामि दुबई, परिष पायहि तिमाथार्थः॥१०॥
पानीदोष अपाढीस्पकरणोध्यायमामाह
निरूपणम्। णि श्री दुर भजन स्नानं 'मण्डनं षिभूषा 'क्रीसापन' रमणे '' उस पतदिन 15 जापानीका स्वमन्यामारकारपिस्वा वा पकादि सभसे यतिः स पात्रीपिजति गाथा॥१०॥
ल्याइपमारकी मिहो संदेसं, पर जबलपरग्गामेरालाइलिंगजीवी, स इपिंडो अणायफलो ६१
पाण्या-कापिया निश्चम-मिथस्सादे स्परसन्दिशा, विविक्षिरमिस्वार-प्रबर्ट प्रमामा
संपाविल्याह-सपरग्गामेर चिनिवासमात्रापेषणा सायोगारमीयः परमपर wwीती 'प्रामौलभिशास्तिो सपरणामी, समोसा स्वमाने परनामे का भिक्षा प्रजन साधुर्माना अम्बन्धि जोशीपा भाराविहिनषा अभ्यासावि दुरपयसाम दुविधादेस्सषेप निषेदयति, पथा-सा मावा भामणवीस्वादिसण्यासदाधिमापायी साधुतीयमा स्पायनाकामप्यगारीणी |
JUM५॥
सल्ला
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प्रति क्ति, यथा-अति मुग्धा ते सुता, या अस्मान् प्रति वदति, यदुत-हदमिदं च मम मात्र निवेदनीयमिति । साऽपि दक्षतया । तदभिप्रार्य विज्ञाय प्रतिममति, यथा-वारयिष्यामि तां पुनरेवं बुवाणामित्यादिकस्तु प्रच्छन्नसन्देशक इति यं पिण्ड 'लमते प्राप्नोति.का? इत्याह-'लिङ्गेन' रजोहरणादिना धर्मचिद्देन 'जीवितुं' निळदु शीलं यस्येति लिजीवी-साधवेषमात्रधारी. स्वर्थः। सोऽनन्तरोक्तः पिण्डः किं ? 'दुइपिंडो' ति दतीत्वकरणोपायेन लब्धः पिण्डो दतीपिण्ड इत्युच्यत इति शेषः । सय किविशिष्टः इत्याह-अणत्यफलोति, अनर्थान्-प्रचुरैहिकानुष्मिकापायान् 'फलति' जनयतीत्यनर्थफलो-ऽनेकदोषजालहेतुरित्यर्थः । सम्प्रदायश्चात्र
किल कयोरपि ग्रामयोः परस्परं वैरमासीद, तयोश्चैकस्मिन् साधुशय्यातरी परिवसति द्वितीये च तदुहिता, ततो द्वितीयग्रामे मिक्षा प्रस्थितो निजजनकसाघुर्भणितः शय्यातर्या, यथा-मदीपदुहित्रे इदं कथनीयं, यदुतास्मग्रामो भवस्ग्रामस्योपरि वरपरिणत आस्ते, तो यत्नेनासितव्यमिति । साधुनापि तत्र गतेन तथैव तस्यै निवेदितं, तयाऽपि स्वभत्रे, तेनापि स्वग्रामाय, सोऽपि तदाकार्य सञ्जातभवमत्सरः सनद्या स्थितः। आगतश्चात्रान्तरे सशामसजः प्रतिपक्षग्राम:, संवृत्य परस्परं समरविलुस, जात व शय्यातर्या जामात्मपुत्रमरणं । प्रादुर्भूते च केनायं व्यतिकर कथितः १ इति मनादेश्ययातलियर शोकमरविधुपया लोकाय निवेदितं, पचा-आमात्रादिवेरिणा मम पितृसाधुनेति । ततो लोके महानुहाहा सामो समजनीति गाथार्थः ॥ ६१॥ अथ निमित्तकरणदोषमाह...दी-वित्वा 'मिया सन्देश परस्परसन्दिष्टार्थ प्रकट प्रकाशं 'छमें मुझंवा स्वपरग्रामयो-निवासमात्रापेक्षया
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पिण्ड- 2 आत्मीयान्यस्थानयोर्यश्लमते 'लिङ्गजीवी' साधुवेषधारी, स तिपिण्डोऽनर्थफलः, ऐहिकामुष्मिकदोषहेतुरिति गाथार्थः ॥६१।। | | द्वितीयोविशुद्धि | अथ निमित्ताख्यमाह--
त्पादनादोटीकाद्वयो-जो पिंडाइनिमित्तं,कहइ निमित्तं तिकालविसयं पि।लाभालाभसुहासुह-जीवियमरणाइ सो पावो॥२॥ विषु द्वितीय पेतम् - व्याख्या यः कश्चिद्रव्ययतिः पिण्डादीना' आहारपात्रादीना, निमित्त' अर्थाय-पिण्डादिनिमित्तं, भक्तादिलिप्सयेत्यर्थः। तीदोष
किमित्याह-कथयति' आचष्टे । किं तदित्याह-निमित्तं ज्ञानविशेषं । किविशिष्टमित्याह-'त्रिकालविषयमपि भूतभाविवर्त- निरूपणम्। मानाद्धागोचरमपि । पुनः किंविशिष्टमित्याह-लाभालाम-सुखासुख-जीवितमरणादि, लामादिसूचकमित्यर्थः। तत्र 'लामो'ऽमिलपितवस्तुप्राप्तिः 'अलामो हानिः 'सुखं सातं 'असुखं दुःखं 'जीवित प्राणधारण 'मरणे' प्राणवियोगः, एतेषां द्वन्द्वः, आदिशब्दासुभिक्षदुर्भिक्षादिपरिग्रहः । एवंविधनिमित्तकथनं चोत्पादनादोष इति 'सो'ऽनन्तरोक्तः साधुः, किमित्याह-'पाप' पापोपदेशकत्वात्पापीयान् । अत्रेदमुदाहरण___ एगम्मि सत्रिवेसे गाममोइओ होत्था, सो य तओ नरिंदारसेण देसंतरं गओ, चिरकाले य गए उबाहुलीभूया+ से भोइणी भिक्खानिमित्तमामयं एमं समणं पुच्छइ-मयवं! किं निमिचं वियाणसि न वत्ति ?, तेण मणियं-मुह जाणामि । तीए जंपियं-जइ एवं ता कहेहि कया मे भोइओ एही, तेण संलस-कल्लं ति । तीए भणियं-को एत्थ पच्चओ! ति, तो तेण गुज्झदेसतिलय-सुमिणदसणाइयो पचओ साहिओ। तओ आउट्टाए भोइणीए दवाविया तस्स मोयगाइया +य, पुस्तकेऽयं पाठः, " 'लीहूया" इ.क.प., " "लीया " अ.।
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परभक्खा | बीयदिदम्मि य तीए कारिया संमज्जणो वलेवण - सोत्थिय - वंदणमालाइया सुपरसोहा, पडुविओ य परियणो भोभो । तओ निययमंदिरसमायारदंसणत्थमेगागी समागच्छंतो दिडो परियणेणं । तओ तेण भणियं-कह मागणं वियाणियं ? तुम्भेहिं ति । परियणेण वि जंपियं-मोहणीवयणाउ ति । तओ विहियचित्तो समागओ गेहं तओ सको उगेगं पुच्छिआ घरिणी, तीए वि रंजियहिययाए सलाहमाणीए साहिओ गुज्झतिलय- सुमिणाइओ निमित्ताइसओ | तओ मिच्छा विष्पवसरुण बाहरिऊण पृच्छिओ समणो, जहा इमीए वलवाए केरिसी गन्भो ? त्ति, तेण भणियं + पंचपुंडो किसोरोति । तओ भोइएण फालावियं चलवाए पुद्धं, दिट्ठो य जहाऽऽदिट्ठो किसोरो, भणियं च तेण-जह एयं सवं न हुतं तो ते पुई फालियं हुतं ति गाथार्थः ॥ ६५ ॥ अथाजीवनादोपं व्याख्यातुमाह---
दी० - यः साधुः पिण्डादीनां निमित्तं - आहारवस्त्रपात्रादीनां लिप्सया कथयति निमित्तं - ज्ञानविशेषं त्रिकालविषयमपि, तथा लाभालाभ सुखासुख-जीवितमरणादी [ति]नि (?) निमित्तविशेषणं स्पष्टं स पापः, पापोपदेशकत्वादिति गाथार्थः ॥ ६२ ॥ तथा आजीवाख्यमाह -
जच्चाधणाण पुरो, तग्गुणमप्पं पि कहिय जं लहइ । सो जाई - कुल-गण-कम्म-सिप्प आजीवणा पिंडो ॥ ६३
व्याख्या - जातिर्वक्ष्यमाणलक्षणा, सा आदिर्येषां कुलादिवस्तूनां तानि तथा, तान्येत्र 'धनं' 'स्वोत्कर्ष हेतुतया वित्तं येषां ते जात्यादिधनास्तेषां दातृणामिति गम्यते, पुरतो ऽग्रतस्तद्गुणं - दात्समानजात्यादिधर्मकं 'आत्मानमपि' स्वमपि + पक्षचन्द्रकः ( पर्याय: अ ) । “ चणेण " इ. 1
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विशुदि टीकाइयो- पेतम्
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| द्वितीयोत्पादनादोयेषु तुर्यमाजीवना
"
वर्णनम् ।
ARRIAGE
'कथयित्वा' बचनेन प्रकाश्य यं पिण्डं लमते स्वजात्यादिपक्षपातरजितेम्यो त्रामणादिभ्यः सकाशात्प्रामोति, साधुरिति गम्यते । सो-ऽनन्तरोक्तः पिण्डः किमित्याह-'जाई'त्यादि, जातिश्च वक्ष्यमाणार्था, एवं कुलं च 'गणश्च कर्म च शिप च, तानि तथा, तेषामाजीवना-उपजीवमा सा तथा, तया लब्धः पिण्डो जाति-कुल-गण-कर्म-शिरपाजीवनापिण्ड इत्युच्यत इति शेषः । इति माथार्थः ॥ ६३ ॥ अथ जात्यादीन्येव व्याख्यानयमाह
दी०-'जात्यादिषनानां वक्ष्यमाणजात्यादिवर्णनोत्कर्षचित्तानां 'पुरोऽग्रतः 'तद्गुण' जात्यादिमिस्तुल्यमात्मानमपिस्वं कथयित्वा यल्लमते साधुः स जाति-कुल-गण-कर्म-शिल्पानामाजीवनापिण्डः स्यादिति गाथार्थः ॥ ६३ ॥
जात्यादिस्वरूपमाहमाइभवाविप्पाइप,आई उमाई विउभवं च कुलं। मल्लाइगणो किसिमाइ,कम्मं चित्ताइ सिप्पं तु॥४॥
व्याख्या--'मामा' जननीसमुत्था अथवा 'विप्पादि वति 'विप्रादिका' ब्रामण-क्षत्रिय-वैश्यप्रमुखा, वाचिकल्पे, जाति-र्जातिशब्दाभिधेया, भण्यत इति सर्वत्र शेषः । तथा 'उमादि' उपभोगप्रभृतिक, तत्रोपभोगौ-आदिदेवव्यवस्थापितो वंशविशेषौ, यद्वा 'पितमवं' जनकसमुत्थं, वा विकल्पार्थः 'कुल' कुलसब्वं । तथा मल्लादि-मल्ल-सारस्वतप्रभृति गणो' गणसक्षः । मल्लगण-सारस्वतगणस्वरूपं तु लोकरूढितो ज्ञेयं । तथा 'किसिमाईति मकारस्यागमिकत्वात 'कुष्यादि' कर्षणवाणिज्यप्रमृति 'कर्म' कर्माख्यं । तथा 'चित्रादि चित्रकर्म-सीवनप्रभृति पुनः 'शिव' शिल्पनामक, तुः-पुनरर्थे, तत्प्रयोगश्च दर्शित एवेति गाथार्थः॥६४ ॥ अथ वनिपकदोषं व्याख्यातुमाह
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॥ ५५ ॥
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RECRॐॐॐॐॐ
दी०-'भादमवा अननीसमुश्था विप्रचप्रियवैश्यादिजानिा, उग्रमोगादि पिच गवं या लं, मलमासम्वनादिगंगो लोकप्रतीता, पिवाणिज्यादि कर्म, चित्रसीपनादिमि , 'तु' पुनर्मित कापाथः। अथ सनीपकमाह-- पिंडदासमणातिहि-माइणकिविणसुणगाइभत्ताणं। अप्पाणं तम्मनं, दमइ जो सो वणीमोति ।।५।
व्याख्या-पिण्या भोजनादिनिमित-मतादिलिप्सयेश्यर्थः । आन्मानं नक, दर्शयनीनि योगः । केप त्याहश्रमणातिथिमामणकपणशुनकादिमकाना, श्रमणाब-निग्रेष-शाप-तापम-गैरिका-जीविकलक्षणाः, तत्र निन्या' जैनमुनयः 'शाया। सौधतपतयः नापसा' बनवासिपापजिविशेषाः 'गरिकाः' परिवाजकाः 'आजीविका' गोशालमनवर्तिभिक्षुका इति । अतिथयश्व-प्राघूर्णकाः 'ब्राह्मणाब' विग्जातीया कपणाब' दरिद्रादयः 'शुनका सारमेणास्ते तया, ते
आदिपा काकाकंगवादीमा ते तथा । तेपो मक्का मक्तिमन्तो ये दाइलोकास्तेषी पुरत 'आत्मानं स्वं, किं स्याहतमतं, तेषा-श्रमणातिथिप्रमृतीन 'म' प्रशंसादिविधानतो मक्तिमन्त । तथाहि-आहारादिलिप्सुबाडुकारपदथा नियंस्थानाभिस्य बूते, यथा-मोबारका तपैते गुरका श्रुितार्णयपारदर्शिनी निर्मलपरणगुणचारिणा सुपिडिसपतिवाततिलका. बेश्यादि,वाक्यादीनाभित्य बक्ति, पथा-मो मिक्षपासमादय! एते युग्मदीयषमणा निभृतमोजिमोऽतिसर्वसवकारणिका: अत्यन्तं दानरुपयोऽतिकरतपोषिधानालयस्पादि, अतिथीनशीसत्यशेषदानापेक्षया तदानस्योत्तमा वर्णपति, 'यथा-पारण दो लोगो, उबगारिसुपरिचिएसमसिए था। जोपण अखासि, अतिर्षि पूरा तं वाण ॥१॥"
+ "भुतदाणे” अ० 1 x निधिनस्य भोजिनः । 107
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पिण्डविश्वद्धि ० टीकाइयो
पेतम्
॥ ५६ ॥
'सिए' ति अध्युषिते - आश्रित इत्यर्थः । ब्राह्मणानुद्दिश्य प्राह, यथा-सम्प्रदानभूततया लोकानुग्रहकारिभ्यो जातमात्रब्राह्मणेभ्योऽपि दत्तं महाफलं भवति, किम्पुनः षट्कर्मनिरतेभ्य इति कृपणानुत्री कन्यैव माह, यथा-दरिद्रेभ्य इवियोग*विधुरितेभ्योऽपान्धवेभ्यो दारुणातङ्क निपीडितम्यनिकरचरणाद्यवयवेभ्यश्व मच्वेभ्यो ददद्दानं पातकमपहरतीति, शुनोऽधिकृत्य पुनरेत्रमाह, यथा-एते कौलेयका गवादिभ्योऽप्यतिदुर्लभतराद्वाराभिच्छिकार तिरस्कृत स्वेष्टविहारा: लता[१ लत्ता ]लगुडलेष्ट्वाद्यभिघातसदाबाधितदेहा गौरीहराश्रयाः कैलासशैल कल्पितालया पक्षामिघानदेवजातयो मद्यागताः वाकतिचारिणः पूजाजमो सरपोस्ट कितिदुष्करकारकत्वाद्देवतात्मकत्वाच्च पूजनीया एन इति । दोषामात्र मृषावाद - मिध्यात्व स्थिरीकरणाधिकरणप्रवर्त्तनादयो यथासम्भवं वाच्याः । इत्येवं दर्शयति ।' प्रकटगति यः कवित्वाभासः सोऽनन्तरोक्तो 'वणीमो त्ति'त्ति प्राकृतत्वाद्वनीपक इत्युच्यत इति शेषो वनीपकत्वकरणे चोत्पादनादोष इति गाथार्थः ॥ ६५ ॥ अथ चिकित्सादोषमभिधातुमाह
दी० - पिण्डार्थं 'श्रमणा' निर्ग्रन्थ बौध-तापस-परिवाजकादयः 'अतिथयः' प्राचूर्णकाः 'माहणा' ब्राह्मणाः 'कृपणा' दरिद्रान्वच्छिनाङ्गादय 'शुनकादयः' कुकुर काकवकगवादयस्तेशं मक्ता ये दाऊजनास्तेषां पुरत आत्मानं 'तद्भक्तं' श्रमणादीनां प्रशंसादिना भक्तिपरं दर्शयति । एतत्प्रशंसादिना मृषावादमिध्यात्वाधिकरणादयो दोषा यथाहं देयाः । एवं यः साधुः,
*"० विधुरेभ्यः” अ० । “विधुरविभ्यः" प. क. ६. “निष्पीडितेभ्यः " अ० । ""शशिरः कल्पिता" अ० । + " दर्शयति यः कश्चित् " इ. क.१ "कुक्कुरायः काक०" क. । अस्मद्विया "कुकुरादयः [ आदिशब्दात् ] काक०" इति भवितुमईतीति ।
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द्वितीयो
त्पादना
दोषेषु पं
नमो वनीपकदोषः १
।। ५६ ।
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स 'वणिमु' वनीक इति गाथार्थः || ६५ ।। अथ चिकित्साख्यमाह -
भेज- वेज्जसूयणमुवसामण वमणमाइफिरियं वा । आहारकारणेम दि, दुविनिगिच्छं कुणइ मूढो ।। ६६
व्याख्या - इह किल द्विविधा चिकित्सा स्यात् सूक्ष्मा बादश च तत्रायां प्रतिपादयन्नाह - 'भे सज्ज - वेज्जसूयणं'ति 'भैषज्यं Xx' चौषधविशेषो 'वैद्यव' भिषक, तयोः 'सूचने' अर्थापच्या निवेदनं भैषज्यवैद्यसूचनं, यथा-किल कश्चिद्गृही रोगाघाततनुर्भिक्षादिगतं साधुमवलोक्य पृच्छति, यथा-भगवन् ! एतस्य मदीयव्याधेः कमपि प्रतीकारं जानीषे ?, चाहममाप्येवंविधन्याधिरमुकेन त्रिफलाद्यौषधेन प्रगुणो जातो, यद्वा सासूयं वक्ति, यथा-किमहं वैद्यो ? यद्रोगप्रतिक्रियां साधुनाऽबुध रोगिगृहिणश्चिकित्सा वैद्यं पृच्छामीति वा शापितं भवति । अथ चादरचिकित्सामाह'उवसामणयमणमा किरियं वत्ति, मकारस्यागमिकत्वादुपशमनं - चोदीर्णपित्तादेः प्रशमनं वमनं च प्रतीतं, ते तथा, ते आदी यस्याः स्वेदन- विरेचन-क्षार + सिरावेधाग्निकर्मादिक्रियायाः सा तथा, सा चासो 'क्रिया च' कर्म, सा तथा तां शब्दो विकल्पार्थः । इत्येवं द्विविधचिकित्सां करोतीति योग: । 'आहारकारणेनापि अशनादिहेतोरपि । अपिशब्दस्तुच्छाहारग्रासमात्रनिमित्तमपि X जैनमुने चिकित्सा करणे विस्मयं द्योतयति । 'द्विविधचिकित्सा' दर्शितप्रकारेण द्विमेदरोगप्रतिक्रियां 'करोति' सूचाद्वारेण साक्षाद्वा विधत्ते, साधुरिति प्रक्रमः । किंविशिष्ट १ इत्याह- 'मूढ' चारित्र मोहवश्चिकित्साकरणं चोत्पादना -
X भेषजमेव भैषज्यम् । * सरोषम् । निश्चयनयवृत्या ( प० अ.) । + "० शिरावेधा०" ५० इ० " धमन्यां तु, aftaarsat | नाडी शिरा सिरा" इति शब्दरत्नाकरः ३ । ९९४ | X तस्वशसाधोरपि (पर्याय: अ० ) ।
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पेतम्
पिन- दोष इति । दोषाधान-काशकथनादौ षड्जीवनिकायोपघातादयः स्युः, तथा सप्लायोगोलककल्यो गृहस्थोऽपि नीरोगः कृतः द्वितीयोविवाहिशन सर्व मानो प्रवर्नियो भवति । ईलान्धष्यानोदाहरणं चात्र, यथा-किल केनापि भिषजा दुर्बलान्धव्याघ्रः सजलोचनो त्पादनादोबायो- विहितः सबनेकसवव्यापति कृतवान् , एवं दुर्चलरोगिचिकित्सितगृहस्थोऽपि सावधक्रियां करोति, दैवयोगा साधुविहित- |ऐषु पाई
कियाऽनन्तरं रोगिणो व्याधेरत्युदये सति कुपिततपित्रादेः सकाशाद साधोरनर्थ: स्यात् प्रवचनोपघातधेत्यादि, इति चिकित्सामावार्थः ॥ ६६ ॥ अथ क्रोधपिण्डमाह
दोषनिरू॥५७॥
दी-- चिकित्सा द्विविधा-क्ष्मा बादरा च, तत्र सूक्ष्मा यथा-भैषज्यमौषधं, वैद्यो-भिषक्, तयोः सूचनं कथनं, पादरा च यथा-उपशामनं पित्तादीनां, वमनं प्रतीतं.आदिशब्दासबेदनविरेचनादिग्रहस्तेषां क्रिया का कर्म वा, आहारकारणे| नापि द्विविधा चिकित्सा करोति मूढ इति स्पष्टो गाथार्थः ॥ ६६ ॥ अथ क्रोधमाहविज्जातवप्पभावं, निवाइपूयं बलं व से नाउं । दठ्ठण व कोहफलं, देइ भया कोहपिंडो सो ॥६७॥
व्याख्या--विधा च प्रतीता, उपलक्षणत्वान्मयोगादिपरिग्रहः। तपश्च मासक्षपणादि, ते तथा, तयोः 'प्रभाच' उच्चा| टनादिसामय, तं । तथा 'नृपादिपूर्जा' राजाऽमात्यप्रभृतिसन्मानादिसपर्या । तथा 'बलं' शरीरसामध्य, वा शब्दो विक-हैं पार्थः। 'से' तस्याधिकृतसाधोः सम्बन्धिनं । किमित्याह-'ज्ञात्वाऽवगम्य, तथा 'दृष्टा' ऽवलोक्य, वाशब्दः पूर्वापेक्षया - "या च, तमधा-."
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%ERSAREEWA
विकल्पार्थः। किं तदित्याह-क्रोधस्य कोपस्य 'फलं' शापदानतः कस्यापि मरणादिकं कार्य क्रोधफलं । किं करोतीत्याह'ददाति' प्रयच्छति गृहस्था साथ ये पिण्डमिति गम्यते । कस्मात्कारणादित्याह--'भयात्' किलायं साधुभिक्षादाने पितो +विद्यामन्त्रयोगादिम्य उच्चाटनकरणादिना, तपसस्तु शापदानादिना, राजाऽमात्यादिबलेन निस्सारणदण्डादिना, शारीरबलेन परुषभाषण-यष्टिमुष्टिप्रहारदानादिना मा मेऽनर्थ करिष्यतीत्यादिलक्षणास्त्रासात , अत्र च सर्वत्र कोप एव पिण्डोत्पादने मुख्य कारण द्रष्टव्यं, कोपपिण्डाधिकारत्वात् , विद्यादीनि तु तत्सहकारिकारणान्येवेति न विद्यापिण्डादिभिः सहास्य लक्षणसाङ्कर्यमिति । स किमित्याह-क्रोधादुत्पादित: पिण्डः क्रोधपिण्डः सोऽनन्तरोक्तः स्यादिति शेषः । इह च पिण्डशब्दस्य प्रधानत्वेऽपि क्रोधः प्रधानोऽबसेयः, उत्पादनादोषाणां प्रस्तुतत्वात्तस्यैव च दोषत्वाद , एवमन्यत्रापि यथासम्मचं वाच्यम् । अत्र चोदाहरणं भूत्रकारो लाघवार्थ "कोहे घेवरखवगो" इत्यतनगाथांशेन मणिष्यति, +वयं तु स्वस्थानवादत्रापि चूमा, यथा___xहस्थकप्पे नयरे एगो साहू मासक्खवणपारणगदिणे भिक्वं हिंडतो घिजातीयमेहे मयगभत्तसंखडीए पचिट्ठो, तत्थ य धिसआयाणं अयउरा दिजंति। साहू य तत्थ अणाढाइजमाणो चिरं अच्छित्ता सकोवो अन्नहि दाहित्थ ति भणिऊण निग्ग- IN
ओ। तत्थ दिवजोगेण बीयं मयं | तस्य वि तहेव मासियमयगमनसंखडीए पविट्ठो, अलममाणो य अग्रहिं दाहित्थ ति ट्र भणतो निग्गओ, पुणो वि दिवजोएण तइयं माणुसं मयं, तत्थ वि तहेच मयगसंखडीए तइयं वारं पचिट्ठो, अलभभाणो य अन्नहि दाहित्थ चि भणंतो जाब निग्मओ पराओ ताव एगो थेरबारवालो तइयं पि चारं एरिसं साहुवयणं सोऊण सयलं + "मन्त्रविद्यायोगादिभ्यः" अ.+यशोदेवसूरयः । - "हत्यिकप्पे' अ०। * *घेवरा"अ "सकोहो" यः।
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पिण्ड-18| वहयरं कहेई घरवइणो, भणइ य--पसाएह एयं समण, मा सबै वि भरिस्सह ति। तओ तेण बाहरिऊण स्वामित्ना पडिलामिओ || द्वितीयोविशुद्धि घयपुग्नेहिं ति । एवं च यो लभ्यते स क्रोधपिण्ड इत्युच्यत इति गाथार्थः ॥ ३७॥ अथ मानपिण्डमाई
त्पादनादोटीकाद्वयो- दी०--विद्योपलक्षणान्मन्त्रयोगाद्यपि, तपो मासक्षपणादि, तयोः प्रभावं-उच्चाटनादिमामय, नृपामास्यादिपूजा, बलंदापेषु सप्तमे पेतम् & वा शारीरिक, 'से' तस्य ज्ञात्वा, दृष्टा [वा] क्रोधफलं झपनादिक, ददाति गृही मयादृक्तहेतूनां, म क्रोधपिण्डः स्यात् । कोपिष्टविद्यादीन्यत्र क्रोधोत्पादकानीति गाथार्थः ॥ ३७॥ अथ मानमाह
दोषे घृतः ।। ५८॥
लद्धिपसंसुत्तइओ, परेण उच्छाहिओ अवमओवा। गिहिणोऽभिमाणकारी, जंमम्मइमाणपिंडो सो।६८ रक्षपकोदा
व्याख्या--'लब्धिश्च' लाभः 'प्रशंमा च' श्लाघा, ते तथा, ताभ्यां 'उत्तइओ'त्ति गर्वितो-हङ्कारवान , पद्वा 'परेण हरणम् । अन्येन साध्वादिना 'उत्साहितः खमेवास्थ कार्यस्य करणे समर्थो. नान्य, इत्यादिवचनेन प्रेरितः, यदा "अवमता पा नित-स्त्वया न किञ्चिसिद्ध्यतीत्यादिवचनेन तिरस्कृतो, वा विकल्पे, परेणेत्यत्रापि योज्यते । 'गृहिणो' गृहस्थस्याभिमानमहमने न साधुना याचितस्ततोऽस्मै स्वकीयमदित्सुं कलत्रादिकं तिरस्कृत्यापि मया दातव्यमस्वेत्येवंरूपमहङ्कारं 'करोति' | विधत्ते, इत्येवंशीलोऽभिमानकारी सन् , माधुरिति गम्यते, यं सेवतिकाद्याहारजातं 'मृगपति' गवेषयति, स किमित्याइमानादुत्पादितः पिण्डो मानपिण्डः सो-ऽनन्तरोक्तः स्यादिति शेषः । अत्राप्युदाहरणं "माणे सेवइयखुडगो नाय"ति वक्ष्यमाणमाथाऽवयवेन वक्ष्यति, तदपि स्वस्थानत्वादत्रैवोच्यतेअस्थि कोसलाविसए गिरिफुल्लियं नाम नयरं, तत्थ य सेवइयाछणे तरुणसमणाणं समुल्लाचे एमेण मणियं-अब्ज ।।। ५८
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भिक्खावेलाए को किर न लब्भह ? इडगाओ, जो पञ्चसे आणेड़ सो नाम लद्धिमंतो । तओ भणियमेगेण चेल्लगेण-अहमाणेमि । तेहिं मणियं-किं नाम ताहिं घयगुलरहियाहिं अपज्जताहि य । तओ जारिसियाओ इच्छद तारिसियाओ आणमिति भणतो निग्गओ चेल्लओ, पत्तो इन्भगेहं, दिट्ठाओ तत्थ घयगुलसंजुनाओ पभूयाओ सेवइयाओ, ओहासिया तग्घरिणी
बहुप्पयारं, पडिसिद्धो य बाढमणाए, तओ संजायाहंकारेण भणियमपोण-अवस्स मए एयाओ घेत्तवाओ, तीए भणियंका जइ एयाणं एगपि गिम्हसि ता मे नासाए मुत्तिअसु ति । तओ घराओ निग्गंतूण पुच्छिओ तेण कस्सइ सगासे घरसामी,
साहिओय तेण सोपरिसागओ। पत्तो य तत्थ खुडुगो। तओ पुच्छिया परिसापुरिसा, जहा-कयरो तुम्हाणं देवदत्तो ति, तेर्हि
भणियं-किं तेण, खइएण मणियं-किंचि जाहस्सं । तेहिं भणिय-अलं तेण किवपोण जाइएण, अम्हे मग्गसु त्ति । देवदत्तण 5 भणियं-ज मग्गसि तमहं देमि त्ति । तओ साहुणा जंपियं-जइ एएसि छण्डं पुरिसाणं अनयरो न भवसि तओ मग्गामि ।। &ातेहिं भणियं-के ते छप्पुरिसा, चेल्लएण पयंपियं--
"सेडंगुलि यगुड़ावे, किंकरे तित्थबहार्यए । गिद्धावरीशिखि हद-एं य पुरिसाहमा छउ १"
तत्थ सेडंगुलि ति, जहा-एगेण नियजायानिद्देसवचिणा कुलउत्तेणं छहालुणा परचूसे चेव भणिया नियमहिला, जहारंधेसु जइ भे रोयइ, जेणाई मुंजामि त्ति । तीए सयणट्टियाए चेव समुल्लविओ य-जइ छुहिओ तओ अवणेसु चुल्लिओ छारं, आणेहि इंधणं, पजालेसु जलणं, जलाउन्न काऊणमारोवेसु चुल्लीमथए थालिं, कोदगाओ आणेऊण पक्खिवसु तंदुले, तओ रंघिऊण साहिजसु, जेणाहसद्विऊण परिवेसेमि । तेण वि पिया जाणवेह ति भणिऊण तहेव कर्य, जाव तीए परिविहूँ ।
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पिण्डविशुद्धि० टीकाद्वयो
पेतम्
।। ५९ ।।
एवं der usai चुलीओ छारमवर्णितस्स सेडाओ अंगुलीओ पमाए लोया पिच्छंति चि सेडंगुली भण्णइति १ ।
तहा बयुद्धावे त्ति, जहा - एगो कुलपुत्तओ अच्चुक्कडपेमपरवसो पमणिओ नियपिययमाए, जहा तलागाओ तुमं पदिण'सुयमाणे ति । तओ सो दिवसे ओलज्जमाणो रयणीए चरमजामे दिणदिणे कुडवं घेतूण सलिलमाहरंतो बगे उडावे ति विनायवृत्तंते जणेण वगुडावोति भण्इ २ ।
ता किंकरे त्ति, जहा - किर एगो कुलपुत्तओ निययजायाए अचंताणुरतो पच्चूसे वेव सयणाओ उडिऊण आएसं मगर, जहा पियमे ! आहससु किं करेमि ? चि, तीए भणियं-उदगमाणेसु । तं संपाडिऊण पुणो वि मणइ - किं करेमि १ सा भइ-खंडेसु तंदुले । तस्समत्तीए पुणो वि भणइ - किं करेमि १, सा भगइ - देहि मे भोयणं । तं दाऊण भणइ किं करेमि ? सा भणइ - उज्ासु उच्चिकुमल्लए । तं काऊण मणइ किं करेमि १ तीए मण्णइ धोएस चलणए सि । एवं च जणेणं सो किंकरोति च चि ३ ।
ता तित्थण्हायए चि, जहा- एगो वरुणनरो नियजायं भणइ जहाऽहं पिए ! पहाउमिच्छामि, तीए भणिओ + जर एवं ता घेतूण तेल्लामलए परिहिऊण पोत्तिं गहेऊण कुडयं वचसु सरोवरं । तत्थ जद्दिन्छं मजिऊण देवणं च काऊण जला पुष्णकुडयं घेतूण लडुमागच्छसु सि । तेण पिययमा जं आणचे चि भणिऊण तहेब कथं, तओ तित्थाओ चिलोगे पसिद्धिमागओ ४ ।
+ " मणियं " अ. |
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द्वितीयोत्पादनादी
पेष्षष्टमे
मानपिंडे
सेवतिक
क्षुल्लकोदा
हरणम् ।
।। ५९ ।।
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तहा गिद्धवावरंखि त्ति जहा-एगो जुवाणपुरिसो नियमहिलावयणाणुवरणपरो एगया भोयणमुवपिद्रो भणह-पिए! लुक्खमिणंx, देसु घयं ति, तीए विरवंतीए तहड्डियाए चेव भणियं-इओ सणियं थेवं सरसु ति, तओ सो गिद्धपक्खी विव सरिओ थेवं, तओ साहित्खेवं भणियमणाए-पुणो वि सरसु ति, एवं पुणो पुणो तीए भण्णमाणो ताव सरिओ जाच महिलासमी ति । तओ तव्युत्तंतं नाऊण कुसलेण जणेण मिद्धावरंखि ति पवुखइ सि ५।
तहा हदनओ सि, जहा-एगो कुलपुत्तओ नियजायाणुरत्तचित्तो नियडिमरूपाणि उच्छंगाइगयाणि सययं कीलावेद, तम्मसपुरीसोवलित्ताणि चीवराणि य पक्खालेइ, तओ हदनओ त्ति पसिद्धि गओ६।।
एवं च खड्गेण सिट्टे परिसापुरिसेहिं भणियं सोबहासं-भयवं! सोवि+ दोसा एत्थ निवसंति, ता मा एयं मम्मसु । गिहवाणा भणियं-मा एयाणं वयणाणि निसुणसु,xनोहमेरिसो, जायसुजं ते रुचाइ त्ति । चेल्लएण भणियं-जइ एवं ता देसु षयगुलसणाहाओ सेवईयाओ । तओ देमि ति भणंतो गओ चेल्लयसाहिओ घरसमीवं । एत्थंतरम्मि साहिओ तस्स जायामंड*णधुसंतो सुइएण, जइ एवं ता बिसु ताव इह ति भणंतो पविट्ठो गेहम्मि गिहवई, भणिया प जाया, जहा-सिद्धं ? मोयणं | ति, तीए षि तह त्ति पडिवो भणिया-उत्तारेसु मालाओ घयगुलं, जेण दियाइणो अंजावेमि । तओ निस्सेणीए आरूढा मालं, | अवणीया तेण निस्सेणी । तो वाइरिऊण षयगुलपजत्ताहि पडिलाभिओ चिल्लओ इद्वयाहि । तओ तं पेच्छिऊण कओ अणाए .. x"मिण भोवणं, देसु" य.1+" .वि.पए दोसा" अ. x"नाइमेरिसो"प.क.अ. I "भिडण" ह. अ.।
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पिण्डविशुद्धि ० टीकाद्वयो
શૈક્
॥ ६० ॥
द्वितीय
कलयलो । खुट्टपणावि सनासानिसियंगुलिणा दावियं से नासियाए काइयावोसिरणं ति । तओ पत्तयं मरिण गओ खुडओ, ते स साहुको जावियति । एवं यो लभ्यते स मानपिण्डः, दोपाचात्र वनितादेः प्रद्वेषात्मवादयः प्रवचनोत्पादनादोघातादयश्च मन्तव्या इति गाथार्थः ॥ ६८ ॥ अथ गाथापूर्वार्द्धन मायापिण्डमाह
पेष्वधम
पुरुष षट्को *दाहरणाि
दीपा
लाभलाषाभ्यां 'उत्तुइओ' गर्वितः, यद्वा परेण साध्वादिना उत्साहितस्त्वमेवास्य श्रम इत्यादि वचनैस्तथा 'अवमतो' अपमानितस्त्वया न किञ्चित्यितीत्यादिना साधुगृहिणोऽभिमानकारी सन् यं पिण्डं 'मृगयते' गवेषयति स मानपिण्ड इति गाथार्थः ॥ ६८ ॥ अथ मायालोमाख्ये आह-मायाए विविहरू, रूवं आहारकारणे कुणइ ।
व्याख्या -'माया' शाख्येन परप्रतारणबुद्धथेति यावत् । 'विविधरूपं' काणकुब्जाद्यनेकस्वभावं । किं तदित्याह'रूप' निजाकारं 'आहारकारणे' मोदकादिपिण्डेनिमित्तं 'करोति' विधत्ते यः साधुस्तस्यैवं लब्धो मायापिण्डो भवति, आषाढभूतियतेरिव यद्वक्ष्यति 'मायाए असादभूह'चि । तत्कथानकं च स्वस्थानत्वादत्रापि ब्रूमः तथाहि-
दीव जलहीण मज्ो, साणं सारदवरमणिओो । जंबुद्दीवो दीवो, कुलसेलविभूसिओ अस्थि || १ || तत्थ भरइम्मि वासे, दाहिणखंडम्मि अस्थि जयपयडो । देसाण मगहदेसो, जह चक्की सहमणुवाणं ॥ २ ॥ तत्थ य अहरमणिर्ज, पमुइय जण संकुलं पुरं अस्थि । रायगिहं नाभेणं, नहं व कविसूरमुनिकलियं ॥ ३ ॥ तत्थासि सत्तुमायंग- कुंभनिद्दलण केस रिकिसोरो । पणयजणपूरियासो, सीहरहो नामनरनाहो ||४|| अह अन्नयाकयाई, विहरंता समणसंपय समेया । धम्मरुईआयरिया, समाजया तत्थ
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॥ ६० ॥
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गुणमिलए ॥ ५॥ उआणे वेति प्रणो, बहरिमाणो आसाढभृइति । नामेण आसि सीसो, स अन्नया मिक्खकजेणं ।। ६ ॥ नीहरिओ वसहीओ, पत्तो निवनडगिहं तओ तस्थ । लद्धो सगंधड़ो, अइपबगे भोयगो एगो ॥ ७ ॥ तत्तो विणिग्गएणं, विचिंतियं तेण एस ता गुरुणो । होही मग्गामि पूणो, तत्थऽन्न अपणो हेउं ।।८॥ अछि काणं काउं, पुणो गो तस्थ सो पुणो लद्धो । एसोरज्झायाण, भविस्सह इय मणे काई ।। ९ ॥ पुणरवि सुजयरूब, करित्तु तत्थेव अइगओ खुट्टो । लद्धे तहेव चिंतह, एसो संघाडियजइस्म ॥ १०॥ होहि ति कुट्ठिरूवं, काउं पत्तण तो पुणो लद्धो । एत्तो चिल्लयचरियं, पासाओवस्ति
समरणे ।।११ पण पिनियमिम, नडेण अबो !! सुसुंदरी एस । होह नढो ता एसो, केण पगारेण घेतो? ॥१२॥ है एवं चिंततेणे, लोवारण तेण तं झत्ति | वाह स्यि भबहुमाणं, माणं भरिय मोयगाणं ॥ १३ ॥ भणिो य तेण एसो, भद्द !
तर मिक्खकजसजेण। पइदियई महगेह)हे, आगंतवं असंदिद्धं ॥ १४ ॥ एवं निमामिऊणं, विणिग्गओ खुङगो गओ
सहि । त्यणतरं च सयलं, तन्चुत्तं निवेइचा ॥ १५॥ भणिया नडेण मञ्जा, मोयगदाणादणा तए भई ! । उवयरियको में एसो, नियधृयाओ य तह मणसु ॥ १६ ॥ अणुकूलुक्यारेहि, ताओ जह तं वसम्मि आणति । तत्तो नडीए भणिया-हिं | वाईि पहदिवसर्मितस्स ॥ १७ ॥ समिहम्मि तस्स सिंगार-हाससवियारवयणपमुहेहिं । अणुकूलुवसम्गेहिं, आमयकुमोच्च
सलिलेणं ॥ १८ ॥ भिम् चित्तं बाई, वीसरिओ सुगुरुवगणवरमंतो । नट्ठो कुलाभिमाणो, लञ्जा वि हु दरमोमरिया ॥ १९॥ | उइयं चरणावरणं, कम्म आइदारुणं तओ लग्गो । परिहासखिड्डमाई, काउं भणिओं य तो ताहि ॥ २० ॥ जा अस्थि तुज्झ कज, अम्देहि चएम तो शु पाझं। वीवाहेसु य अम्हे, जेणं पुष्णा रई होइ ।। २१ ॥ ततो तहति पडिव-जिऊण स गओ
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पिण्डविशुद्धि०
टीकाइयो
पेतम्
॥ ६१ ॥
गुरूण पासम्म । कहिओ नियपरिणामो, तत्तो गुरुणा इमं भणिओ ।। २२ ।। उत्तमकुलुग्भवाणं, विवेयरवणावराण होऊगं । इह-परलोयविरुद्धं, किं जुतं ? एरिसं काउं ।। २३ ।। अविय-दीहरसीलं परित्रा- लिऊन विसएसु वच्छ ! मा रमसु । को गोपयम्मि बुझ्इ ?, जलईि तरिऊण चाहाहिं ।। २४ ।। " वरि विश्रुतु म विसयसुहु, एकसि विखिण मरंनि नर ! | विसयामिसमोहिया, बहुसो नरइ पडंति ।। २५ ।। " तो खुड्डगेण भणियं, एवं एयं न एत्थ संदेहो । भयवं । किंतु न तरिमो, पञ्चजं संपयं काउं ॥ २६ ॥ यतः - अक्खितं मे चित्तं ताहिं उत्तट्टहरिणनयणाहिं + । इय वोतुं मोत्तूणं, लिंग गुरुपायमूलम्मि || २७ || नीहरिओ बसहीओ, पत्तो गेहं नडल बाओ वि । दोदिगिरीगाओ, पिउणा एवं च भणियाओ ॥ २८ ॥ धम्मारत्तचित्तो, उत्तमपगई य एस सप्पुरिसो । ता तह सुइभूयाहिं, अप्पमत्ताहिं च निचपि ॥ २९ ॥ उयरियो जह नो, वेरगं तुम्ह गच्छह कर्हिचि । इय भणियाओ ताओ, तं आराहिंति तहचेव ॥ ३० ॥ [ युग्मम् ] एवं वञ्चड् कालो, विसयसुहं तस्स अणुइवंतस्स । अह अन्नया कयाई, निम्माहिलं नाडयं रचो ।। ३१ ।। दिवसे दंसेयचं, तओ गया उनडास | आसादभूइपमुहा, तत्तो य इमम्मि पत्थावे || ३२ || पहरिकं नाऊणं, आसाढ भूइनडस्स भजाओ । निम्मरमयपाणेणं, पणटुचेयन्नभावाओ || ३३ || विगलिय नियंसणाओ, वमियमयगंधगरहणिजाओ। गंधायड्डियX भिणिहणिभिर्णितमच्छिदुपेच्छाओ || ३४ ॥ चिद्वैति जाव ता झत्ति, राइणो दूइकअवक्खेवे । नाडयऽवसराभावे, समामया नियय||३५|| स विनडा तचों, आसादभूई वि वासभवणम्मि । निययम्मि संपविट्ठो, तत्तो ताओ पलोएत्ता ॥ ३६ ॥ + उनस्सरिणनयनाभिः । " भिणिभिणिभिणित " प. भिणिभिणित' ह. ।
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द्वितीयो
स्पादन
दोपे
मायापि
आषा
भूत्युद हरणम्
॥ ६
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--
अचंतकुच्छ्रियाओ, विरतचितो विचितिउं लग्गो । अहो !! मे मूढतं, अहो !! दुबिलसियं मज्झ ॥ ३७ ॥ जं एयाणं कजे, असुईभूयाण कुगऊणं । तारिसयं सुरभ्यं, निवाणसुहाण जणगं च ॥ ३८ ॥ चतं चरित्तरयणं, सुयधम्मो नासिओ अमयभूओ । को गुरुकुलवासो, आवासो सयलसोक्खाणं ||३९|| भग्गा जिणाणमाणा, दंतसरिच्छा निसेत्रिया विसया । जाओ भपनो, fat | मणुयणं मज्झ ॥ ४० ॥ अविय - वेदुज [बैर्य ]त्रजपउरे, पत्ते रयणायरे जहा चेतुं । काय [काच ] मणी नो जुत्ता, अइतुच्छा पंडियजणस्स ॥ ४१ ॥ सग्गापवग्गसुहसंग साहगे नरभवे वहा लद्धे । कामसुहं नो जुतं, असुंदरं सेवि [ उं] यं (?) दूरं ॥ ४२ ॥ ता रोगसोगजरमरण-नासणं चरणघम्भमणच । संपड़ अकालहीणं, करेमि इय चितिउं झति ॥ ४३ ॥ ततो वासगिहाओ, निग्गच्छंतो नडेण सो दिट्ठो । नाओ य इंगिएहि, जहा विरतो इमो नूणं ॥ ४४ ॥ गंतु य तेण तहिं चा अंबारिऊन वूयाओ । भणियाओ हा ! पावा !, किं १ एयं विलसियं तुम्ह ॥ ४५ ॥ पिच्छह गच्छह एसो, विरत्तचिचो महानही बता सकह आऊं जेX, आणइ +नो ताब मग्गेह ||४६|| आजीवणं तओ ता, ससंभ्रमाओ महाय नेवत्थं । पाएसु तस्स लम्मा, एवं चुं पवताओं ॥ ४७ ॥ सामिय ! अम्हऽवराई, एगं खमिऊण एहि गेहम्मि । अणुरता मचाओ, अम्हे मा उज्झणाहाओ ॥ ४८ ॥ तेजुचं मा किंचिवि, जंपह तुब्भं विरचचितोऽहं । जह एवं ता दाउं, पजीवणं वच्च ता बेंति ॥ ४९ ॥ पडिवजिऊण *एयं तओ नियचेण सत्तर तेणं । निम्मवियं मरहेसर-चक्केसरचरिय संबद्धं ॥ ५० ॥ नामेण रटुवालं, सवालंकारसारसोहिलं । दिवं नाडयमेगं, तो य नडेहिं मदेहिं ॥ ५१ ॥ विनचो सीइरहो, जद देव ! असादभूषाऽपु
X पादपूरणार्थमत्र्थयम् । + " नो वा पमग्गेह " प. ह. क । * एवं" प. इ. के
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पिण्टबेशुद्धि काद्वयोपेतम्
KAHANG
।३२॥
रइयं नाडयरयणं, तं पुण दहसत्तपुरिसाणं ॥ ५२ ॥ आभरणभूसियाण, पत्ताण सएहि पंचहि समग्गं । नच्चेयवं तचो.. | द्वितीयोवाणि पसाई करेहि त्ति ॥५३॥ दिनाणि तओ स्ना, नरिंदपुत्ताण पंच वि मयाणि | नट्टविहीसलाई, सवाणि कयाणि | पादना
तेणावि ॥ ५४ ॥ ततो नरिंदपुरओ, परिकलिओ तेहिं पंचहिं सएहिं । लग्गो मोउं जे, आमादभूई नडो बादं ॥ ५५ ॥ दोघेषु । इलामकुलनइंगण-विमलमियंकेण भरहराएण । अमरवइविलसिएण, सट्ठीए वाससहस्सेहि ॥ ५६ ।। छखंडमरहविजओ, लोमपिण्डजहा को जह य नव महानिहिणो । चोइस बयणाणिय, जेण विहाणेग लद्धाणि ॥ ५७ ।। जहबारस वारिसियो, कओ निरूपणम्। *महारअरायअहिसेओ।जह पंचविहा मोगा, भुत्ता दिवा अणुविम्मा ॥ ५८ ॥ एवं नञ्चतेणं, वह राया तोसिओ सपरिवारो। बह सामलंकार, दाउं तह साहुकारं च ।। ५९ ।। एगवसणं वसाणो, आढतो पिच्छिउं ददक्खिचो । ततो मरहोत्र इमो, पत्तो आयंसगेहम्मि ।। ६०॥ तत्थ यसरीरसोई, पलोयमाणस्स निवडियं कहवि । एगंगुलीयस्यण, असिरीयं अंगुलिं तचो॥६॥ दछण कयवियको, सेसाभरणंपि मेल्लइ कमेणं । तचो य नियसरीरं, +उबियक्रमलं व कमलसरं ॥ ६२ ।। अइविच्छायं पेच्छिय, परमं संवेगमामओ ताहे । जाय केवलनाणं, पणमुट्ठीओ को लोओ ॥ ६३ ।। महियं च दवलिंग, रमो दाऊण धम्मलामं च । आढतो निग्गंतुं, नडभरहो रंगमज्झाओ।। ६४॥ ततो सीइरहेण, हा !! किं ? एवं ति जंपमाणेणं । अचंतविम्हियादि, देवीहि य धरिटमाढयो । ६५ ॥ नरनाह! किं नियत्तो?, भरहनरिंदो नियत्तिमो जेणं । अम्हे वि ति
विभूसित प.1 *"महारायरल." इति भवितुमुचितमाभात्यस्माकम् | x एक 'वसनं' अखं परिदधानः । PI+ "दिय" प. ह । "इझिय" का उनिझनकमळसरोवरवत् ।
॥ २॥ 2.१०
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भणतो, परिकलिओ निवपुत्तेहिं ॥ ६६ ॥ पंचसयग्गमिएहि, सत्वेहि वि गहियसाहुलिंगेहिं । सो निग्गओ महप्पा, गयो य
गुरुपायमूलम्मि ॥६७|| कुसुमपुरम्मि विनयरे, नचिजतं पुणो वितं लोगो । दवणं पाइओ, तंद नागरेहि तओ ॥ ६८॥ ४] एसो मायापिंडो, गिलाण-पाहुणग-वृद्धमाईणं । कारणजायं मोत्तुं, न हुघेतो मया कालं ॥ ६९ ॥ ति । अथ लोमपिण्डं गाथापश्चा नाह
गिहिस्समिमं निद्धाइ, तो वहुं अडइ लोभेणं ॥ ६९ ।। व्याख्या-'गिहिस्सं ति 'ग्रहीष्ये' स्वीकरिष्यामि 'इम' ति इदं हृदयकल्पनाप्रत्यक्षं 'स्निग्धादि स्नेहवन्मोदकप्रभृति, तत स्तेन कारणेन 'बहु' प्रभूतं 'अटति' मिक्षाकुलेषु भ्रमति । केन ? इत्याह-'लोमेन' लम्पटतया यः साधुस्तस्य लोमपिण्हो भवति । सिंहकेसरकयतेरिच, "लोमे केसरयसाहु"चि । तदुदाहरणमपि स्वस्थानत्वादत्रैव बूमो, यथा
चंपाए नयरीए, ऊसवदिवसम्मि खबगपारणगे । एगो खबगो गिण्डद, अभिग्गहं जह मए अज ॥१॥ घेतवा सुसुयंधा, केसरमा मोयग ति तो मिक्खं । हिहंतो नयरीए, नेच्छइ सेसं तु दिखतं ॥ २ ॥ अलमंतस्स य तत्तो, संजाजो संकिलिट्ठपरिणामो । तरगयचित्तत्तणओ, पणचित्तस्स अह तस्स ।। ३ ॥ किर धम्मलाममणणे, विमासओ केसर त्ति पुणरुतं ।। पत्ताए रयणीय, जामगे केसर ति पयं ।। ४॥ मणमाणो संपत्तो, सावयगेहम्मि सावरणावि । अवगयतम्भावेणं, भरिऊणं मायणं झत्ति ।। ५॥ केसरयमोयगाणं, मणियमुवाएण बोहणनिमित्रं । मय! मे पुरिमडो, पच्चखाओ तो कह ।।६।। पुण्णो न जति मुणिणा, कओवओगेण जोइयं गयणं । तारागणपस्थिरिओ, दिहो तो गयणमझम्मि ॥७॥ मयलंकणो
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बाइयो
समग्गो, पञ्चाययमाणसो तओ सम्मं । पडिचोइओ भणित्ता, विणिग्गओ नयरिमज्झाओ॥८॥ सत्तमणिपण चिहिणा. माविक परिवंतस्स+ सुद्धज्झाणस्स । तत्तो केवलनाणं, उप्पन्नं तस्स खचगस्स ॥ ९॥ इत्ययं लोमपिण्ड इति गाथार्थः ॥ ६९।। ।
- अथ पूर्वोक्तस्वरूपान् क्रोधादिपिण्डचतुष्कदृष्टान्तानाहपेतम् |
दी--'मायया' वञ्चनेन 'विविधरूप' नानाप्रकारं 'रूपं अङ्गादिसंस्थानं 'आहारकारणे भक्तांदिलाभाय करोतीति
मायापिण्डः। अथ गृहीष्येऽहमिदं स्निग्धादि उत्कृष्टं सिंहकेसरप्रभृति, ततः कारणादहु-प्रचुरं 'अटति तल्लाभाय भ्रमति 'लोमेन'। १५ "५ रसग्रत्येति लोमपिण्ड हति गाथार्थः॥ ६९॥ अथ क्रोधादिचतुष्टये दृष्टान्तानाह
कोहे घेवरखवगो, माणे सेवईयखुडुगो नायं । मायाएऽसाढभूई, लोभे केसरयसाहु त्ति ॥ ७० ॥
व्याख्या-क्रोधे क्रोधविषयपिण्डे 'घृतपूरक्षपको घृतपूरसंविधानोपलक्षितः श्रमणविशेषः, ज्ञातमिति सर्वत्र योगः। तथा 'माने मानपिण्डे 'सेबतिकाक्षुल्लका' सेबतिकालाभसंविधानकवान् चेल्लकः। किं ? इत्याह-'ज्ञात' दृष्टान्तों, ज्ञेयमिति सर्वत्र शेषः । तथा 'मायाया मायापिण्डे 'आषाढभूतिः' आषाढमृत्यभिधानो मुनिः । तथा 'लोमें लोभपिण्डे 'केसरकसाधु:'सिंहकेसरकाभिधानमोदकव्यतिकरवान् श्रमणः। इति शब्दः प्रस्तुतज्ञातसमाप्तिं द्योतयति, ज्ञातानि तु पूर्व स्वस्थान एव कथितानीति न पुनः कथयन्त इति गाथार्थः ॥ ७० ॥ अथ संस्तवकरणदोषमाह
+वितस्स" य. काह, वेंतस्स" अ०।- धु' सिंहकेसरकसाधुः सिंहकेसरका भ० य० अ० ।
द्वितीयोत्पादना
दोषेषु | क्रोधादि
चतुष्कदृष्टान्तामिधानानि।
NEXTKAR
६३॥
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दी--अज्ञातमिनि प्रत्येफ योज्यं, ता क्रोधे घृतपूरोपलक्षितः 'वपक' जपम्ची 'जान' रटान्ना, म चाय-स्तिकरपे नगरे माधुरेको मामश्क्षपणान्ते मृतकमक्तोसवे धिग्जातीयगृहं गतो विप्रेभ्यो दीयमानेषु घृतपूरेषु चिरणापलब्धमिक्षा कोपादन्यस्मिन दाम्यन्लीन्युन्या निर्गना, देववशान दिनीयो मानुपो मृतः, माधुरपि नर्थव नन्मामिक गतः, तथैव राष्ट्रा तोतया बलिती यायत्ततीयो मृता, माधुरपि नथवान्यस्मिन दाम्पन्नीनि जस्तृतीयवार द्वारपालेन दृष्टः, तेन च गृहाधिषम्यादिन, मोऽपि मरणभगास्मा थमपिन्वा यथेच घनपूरेः प्रतिलाभिनवानित्येवं कोपिण्डः।
माने सेयतिकाभिरुपलचिन: शुलको शन्तो यथा-कोशलादेशे गिरिपुपिते नगरे रोवतिफोरमचे तरुणश्रमणानां संलापे एफेनोक्त-अप पहधोऽपि सेवतिका लम्यन्ते, परं या कन्येऽप्यानयति ग लब्धिमान , अन्येनोक-किं धृतगुडरदिनाभिस्ताभिः सतोकाभिध | सत एकः शुलकोमीर व आनेष्यामीति कलप्रतिको द्वितीयदिने तदर्थ इम्यगृहे तारनास्ताः निरीक्ष्य तहिणी विविधोक्तिप्रार्थितामप्यददती साहारमाह-यथातथाप्यहमिमा गृहीये । तयोक्तं-यद्येवं भवति तदा मम नासा पर्पणीया | शुल्लकोऽपि सम्मा: पति पर्षदासीनं कृतोऽपिवान्या 'को भवतां मध्ये देवदनाय ?' इति पृच्छस्तैरुक्ताकिं तेन ?, म आइ-किश्चितं यायिष्ये, तेऽप्यूचुः-अहो!! शून्यगृहेषु सुकुमारिका विलोकयसि, तदपहासामदेिवदत्तः स्वगः | | माह-पद सोहमस्मि । शुल्लकेनोक्त-यदि नेपा पण्णा न सप्तमस्तदा वच्मि । ते सर्वेऽपि सविस्मयमुचु:-के ते पट,स आह• • " श्वेतालिर्थकोहांगी, तीर्थस्नातम किरैः । हवनो गृधरिबी थ, परेते गृहिणीयशाः ॥ १॥" सत्रापा-एका फूलपुत्रकः प्रियानिर्देशफारी प्रगेऽपि भुधालर्याचितभोजनः शयनस्थ या पत्न्या भणितो-पदि भोक्ष्यसि ।
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पिण्डदा तदा चुल्लाभस्मापनीय ज्वलनेन्धनाद्यानय, येन शीघ्रं मोजयामीति, निल्यं तथा कुथुलीमसमापनयाजातश्वेतालिलोकेन द विशुद्धि
सेडा(श्वेता)लिरित्युच्यते १। बकोहायी यथा-कश्चित्प्रियामक्ता पल्या मणितस्तडामात्प्रत्यहं त्वयैव जलमानेतव्यं । समायो। ततः स तत्कुर्वाणो दिने लजमानः सान्धकारे तडाग याति, बकाथोट्टीयन्त इति लोकेन पकोडायीत्युच्यते २ । अथ तीर्थपेतम्
&! स्नातो यथा-कश्चित्कान्तायत्तदेहो याचितस्नानः परन्योचे-गच्छ स्नानसामग्री गृहीत्वा तत्रैव संरस्तीरे स्नास्वा शीघ्र
मागच्छेरिति । स तत्र स्नानकरणाल्लोकेन तीर्थस्नात इत्युच्यते ३ । अथ किङ्करो यथा-एकः प्रियानुरागी प्रातरुत्थाय ॥ ६४॥
प्रिये! किं करोमीत्याह, तया च खण्डन-पेषण-जलानयनादिदत्तादेशानां करणान्तेषु किं करोमीति भणालोकन किकर इत्युच्यते ४ । हदनो यथा-एकः कुलपत्रको भादिशादयत्यानां क्रीडापन-मत्रोत्सर्गादिविधापन-तत्पोतकालनादिकमकरणेन दुर्गन्धववादिलोंकेन हदन इत्युच्यते ५। गृध्रावरिंखी यथा-कश्चिद्धोजनोपविष्टो व्यञ्जनतक्रादि याचते, निजमहिलया गृहकर्मव्यापृतया साधिक्षेपं गृहाणेत्युक्ते दाद् गृध्र इव रिड्लन २ तदासनं याताति लोके गृध्रावरिहीत्युच्यते ६ । तदहो !! एते षड् गृहिणीवशा इति क्षुल्लकवचनान्ते परिपत्पुरुषैरुक्तं-तैः षड्भिरप्येक एवासौ । देवदचोऽप्याइ-किममीषां वचनैचिय मनोऽभीष्टं । क्षुल्लक ऊचे-यद्येवं तर्हि घृतगुडान्त्रिताः प्रभूताः सेवत्तिका देहि मे निजाद् गृहात् । अथोत्थाय स कथितपत्नीवृत्तान्त क्षुष्टकं द्वारेऽवस्थाप्य गृहिणीं चाकार्य व्यपदेशेन मालमारोप्य उत्सारितनिःश्रेणिका क्षुल्लक स्वनासाङ्गति दर्शनेन तस्या ज्ञापितनासाघर्षमाकार्य सेवतिका ददावित्येवं मानपिण्डः । . . अथ मायायामाषादमूतिर्यथा-राजगृहे सिंहस्थो राजा, अन्यदा तत्रागतधर्मरुच्याचार्यविष्यो विविधविद्याची
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द्वितीयोस्पादनादोषेषु दीपिकाकारोल्लि खितानि क्रोधाद्युदाहरमानि।
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आपाइभतिर्विहरबाटगृहं गतः। तत्रैकमोदकलाभादेष सूरीणामिति विचिन्त्य पुनः काणीभूय द्वितीयं जग्राह, असानुपाभ्यायस्थेति कब्जरूपेण उतीयमादाय सङ्घाटिकसाधोरसाविति कुष्टिकरूपेण चतुर्थमग्रहीत् । तच्च गवाक्षस्थेन नटेन दृष्ट्रा चिन्तितंअहो । मन्योऽसौ नटो भवतीति सङ्ग्रहार्थ तमाकार्य यथेष्टं मोदकाँश्च दत्वा नित्यमत्रागन्तव्यमिति मणितवान् । अथ रूपपरावर्तादिलब्धिवानसौ तथोपचरणीयो यथा त्वत्पुत्रीरक्तोऽस्मद्गृहमायातीति नटेन शिक्षितया पत्न्या स नित्यं गृहमागच्छन् तथा स्वपुत्रीभिलोभितो यथा आमघट इवाम्भोभिभिन्नो गुरूनवगणय्य मुक्तवतस्ता: परिणीतवान् । तथाऽस्य | पश्यतो मद्यादिकं ता नासेविषु । अन्यदा विविधनटावृतो नृपगृहं गत्वा तत्र द्यूतव्याक्षेपाद्वलितो निर्व्यञ्जनत्वात्पीतमद्यविसंस्थुलाः स्वपत्नीविलोक्य विषयविरक्तो निर्गच्छन्नसौ नटीभिस्ताभिर्याचिताजीवनोपायः सप्ताहेन श्रीभरतचक्रि नाटकं नन्य. मकरोत् । ततश्च राज्ञे निवेध लब्धामरणपात्रादिसमुदायः स्वयं श्रीमस्तीभृय चक्रोत्पत्ति-दिग्विजय-राज्याभिषेकादिचरितं नाटितवान् ) यावदादर्शगृहं गतस्तत्र चाहुलीयकरत्नपातात्तयैव भरतभावनया लब्धकेवलालोको गृहीतद्रव्यलिलो राजादीन सम्बोध्य पात्रीकृतराजसुतपञ्चशत्याः प्रदत्तवतो भन्यलोकमबोधयत् । एवं मोदकादिग्रहणान्मायापिण्ड: ३ ।
अथ लोमे केसरकसाधुर्यथा-चम्पायां साधुरेको मासक्षपणपारणे उत्सवदिने सिंहकेसरमोदकाभिग्रही विहरंस्तदलाभात्सञ्जातक्लिष्टाध्यवसाय: केसरानेव ध्यायन रजनीयामद्वयं भ्राम । यावदेकेन श्राद्धेन विज्ञातंतद्भावेन प्रदत्तमोदकपूणस्थालेन भगवन् ! पुरिमाद्धों ममास्तीति पूणों न वेति पृष्टः । स च दत्तोपयोगो यावद्धमीक्षते तावश्चन्द्रदर्शनादरात्रं + अयमर्द्धचन्द्राकार चित्रान्तर्गतः पाठः केवलं अ. पुस्तक एवावलोक्यते ।
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तिम् ६५॥
SARKARAN
विज्ञाय लजितः सम्यक् प्रतिबोधितोऽस्मीति श्रावकं जल्पनगरानिष्क्रम्य मोदकान् विधिना परिष्ठापयन् शुद्धाध्यवसाय- द्वितीयोवशात्केवलालोकमापेति गाथार्थः ॥ ७० ।। अथ संस्तबदोषमाह
त्पादनाथुणणे संबंधे सं-थवो दुहा सो य पुव पच्छा वा । दायारं दाणाओ, पुवं पच्छा व जं थुणई ॥७१॥ 151 दोपेषु
व्याख्या-स्तवने' गुणस्तुतिरूपे 'सम्बन्धे' स्वाजन्यलक्षणे संस्तवनं 'द्विधा' द्विभेदः, स्यादिति शेषः-गुणसंस्तवः 1 संस्तवदोष | सम्बन्धिसंस्तवश्चेत्यर्थः । स च स पुनरेकैकस्संस्तयो द्विधा स्यात् । कथं ? इत्याह-"पुब्ब पच्छा वसि विभक्तिलोपात | निरूपण 'पूर्व' पूर्वकाले संस्तव इत्यर्थः, तथा पश्चात्संस्तव इत्यर्थः। वा शब्दो विकल्पार्थः। तत्राद्यभेदद्वयं व्याचिख्यासुराह-18| सोदा'टायामित्यादि दातारं' दायकं 'दानाद्' वितरणार 'पूर्व' पूझा सखा पया-दुत्तरमाले, वा विकल्पार्थो, यत् 'स्तौति' हरणम । श्लाघते स पूर्वसंस्तवः पश्चात्संस्तवश्च । तत्राऽदत्ते दाने दातारं यत्संस्तौति साधुर्यथा-"सो एसो जस्स गुणा, वियरंति 12 अवारिया दसदिसासु । पुध्वं कहासु सुणिमो, पच्चक्खं अज्ज दिट्ठोऽसि ॥१॥" इत्यादि, स पूर्वगुणसंस्तवः। दत्ते पुनर्दाने यत्संस्तौति, यथा-"विमलीकयऽम्ह चक्खू, जहट्टिया वियरिया गुणा तुज्झ | आसि पुरा मे संका, संपर निस्संकियं जायं ॥१॥" इत्यादि, स पश्चाद्गुणसंस्तवः । अनयोश्च दोषा:-मायामृषावादासंयवानुमोदनादयो द्रष्टव्या इति गाथार्थः ।। ७१ ॥ अथ सम्बघिसंस्तवभेदौ व्याचिख्यासुराह
दी-संस्तवे' गुणस्तुतिरूपे 'सम्बन्धे' स्वाजन्यादौ संस्तवो द्विधा, स च पुनेरेकैका पूर्व पश्चादेति द्विधा स्यात् । तत्रायद्वयमाह-'दातारं दायक दानास्पूर्व-प्रथम तथा 'पश्चाद्वा दानानन्तरं यत्स्तौति, तो यथाक्रम पूर्व-पश्चात्संस्तवाविति
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संस्तवनं संस्तव इति गाथार्थः ।। ७१॥ सम्बन्धसंस्तवमेदावाहजणणिजणगाइ पुवं, पच्छा सासुससुराइ जं च जई । आयपरवयं नाउं, संबंधं कुणइ तदणुगुणं ॥७२॥
व्याख्या-'अननीजनकी मातापितरी 'आदी' प्रथमौ यस्य भ्रातृभगिन्यादिसम्बन्धस्य स सम्बन्धसम्बन्धिनोऽभेदोपचाराजगनीजनकादिः । किमित्याह-'पूर्व पूर्वसंस्तवो, जनन्यादीनां पूर्वकालभावित्वात् , स्यादित्यत्रोत्तरत्र च शेपः । तथा 'पश्चात पश्चात्संस्तवः, क? इत्याह-श्वश्रूश्वशुरौं' दम्पत्योः पितरौ 'आदी' प्रथमौ यस्य कलत्रपुत्रादिसम्बन्धस्य स सम्बन्धतद्वतोरभेदाध्यवसायाच्छश्रृश्वशुरादिः। एवं सम्बन्धिसंस्तवं सामान्येन भेदतोऽभिधाय प्रकृतोपयोगमाह-'जं चेत्यादि ये कञ्चन सम्बन्धं करोतीति योगः | च शब्दो भिन्नवाक्यताप्रतिपादनार्थः। क? इत्याह-'यतिः' साधुः। किं कृत्वा ? इत्याह-'आयपरवयं नाउंति आत्मपरौ प्रतीतो, तयोर्वय-स्तारुण्यवृद्धत्वादिलक्षणा देहावस्था, तं 'ज्ञात्वा' अवगम्य । किं ? इत्याहृ-'संम्बन्ध परिचयं-स्वाजन्यमिति यावत् 'करोति' भोजनलिप्सया विधत्ते । किंविशिष्टमित्याह-'तदनुगुणं' तयोरात्मपरवयसोरनुगुणं-अनुरूपं, स पूर्वसम्बन्धिसंस्तवः पश्चात्सम्बन्धिसंस्तवश्व, विज्ञेय इति स्वयमायोज्यं । तथाहि-यदि | साधुः स्वयं तरुणो दात्री तु वृद्धा, तदा सम्बन्धविधानार्थ वक्ति-मम माता श्वश्रूर्वा तव सदृशी आसीत्., अथ साऽपि तरुणी, तदा वक्ति-मम भगिनी भार्या वा त्वत्तुल्या बभूव, अथात्मना वृद्धः सा तु तरुणी नाला वा ततो वक्ति-मम सुता त्वत्समाना विद्यते स्मेत्यादिगमेन च भावनीयं । अत्र दृष्टान्तो यथाकश्चिशिक्षागतः साधुः काश्चिनिजमावसमानां गृहस्थामवलोक्याहासदिलम्पटतया मावस्थानतोऽधृतिपूर्वकमिव साश्रूणी
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पिण्डविशुद्धि ० टीकाद्वयो
पेतम्
।। ६६ ।।
लोचने चकार । पृष्टश्च तथा साधुर्यथा- किमेवं भगवानवृतिमानवलोक्यते ?, तेनाप्युक्तं यथा भवत्या सदृशी मे माता अभवदतस्तस्याः स्मरामीदानीं ततस्तया मातृत्वप्रकटनार्थं तन्मुखे खकीयस्तनमुखप्रवेशो विहितः । ततस्तयोः स्नेहवृद्धिः 'समजनि । तदनन्तरं चार्य मे मृतपुत्रस्थाने भविष्यतीति विचिन्त्य विधववधूसीव + दारतया तथा तस्मै प्रदत्तेति । एवं शेष संस्तरेष्वपि दोषभावना कर्त्तव्या इति गाथार्थः ॥ ७२ ॥
अथ विद्यादिदोषचतुष्टयं व्याचिख्यासुराद्द-
दी०-जननीजनक भ्रातृभगिन्यादिपूर्वसम्बन्धात्पूर्वसंस्तवः तथा पश्चात्संस्तवः श्वश्रूश्वशुरकलत्रपुत्रादि एवं यतिर्यं कञ्चन आत्मपरयोर्धय-खाय' परिचयं भक्ताद्यर्थं करोति, कथम्भूतं । तयोरात्मपरवयसोरनुगुणं - अनुरूपमिति गाथार्थः ॥ ७२ ॥ अथ विद्यादिदोषचतुष्टयं गाथाद्वयेनाहसाइणजुत्ता थीदे-वया व विज्जां विवज्जए मंतौ । अंतद्धाणाइफला, चुन्नों नयगंजणाईया ॥ ७३ ॥ सोहगदोहग्गकरा, पाचपलेवाइणो व इह जोग । पिंडट्ठमिमे दुट्ठा, जईण सुयवासियमईणं ॥ ७४ ॥
व्याख्या-'साघनेन' जपहोमायुपचारेण 'युक्ता' समन्विता अक्षरपद्धतिः साधनयुक्ता विद्या, स्यादिति योगः । लक्षणान्तरमाह - 'श्रीदेवया व'त्ति स्त्री प्रशस्यादिका 'देवता' अधिष्ठात्री यस्था अक्षरपक्तेः सा स्त्रीदेवता, वा विकल्पार्थः ।
+ ०दसीत्यवार ०" अ० । "०दीराऽऽसीत्ततया तस्मै " ५० ६० क० ।
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द्वितीयों
स्पादना
दोषेषु
विद्यादि
दोष
चतुष्क
स्वरूपम् ।
॥ ६६॥
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किमित्याह-'विद्या' विधेति पदव्यपदेश्या, स्यादिति शेषः । तत्प्रयोगश्च दोषः, यद्वक्ष्यति-"पिंडदुमिमे बुद्द "त्ति ।
अत्र च दृष्टान्त:-गंधसमिद्धे नयरे, विहरता केइ आगया सूरी । बहुजइजणपरियरिया, अहऽन्नया तेसि साहणं ॥१॥ एमत्थ पिंडियाण, परोप्परं एरिसो समुल्लायो । संजाओ जइ इहई, अइपंतो इडिमंतो य ।। २॥ तचनियाण+ सड्ढो, । समत्थि न य सो कयावि समणाणं । किंचि पयच्छइ ता अस्थि ?, कोइ जो तं दवाविजा ।। ३ ।। तत्थेगेणं जहणा, भणियं जद्द मे पयच्छह अणुन्नं । जेणाई धयगुलवत्थ-माइयं तं दवावेमि ॥ ४ ॥ अणुनाओ तेहि गओ, भिक्खूचासयगिहम्मि विजाए । तं अहिमंतइ तो सो, अहिडिओ तीए विजाए ॥ ५॥ धयगुलवस्थाईये, पउरं साहूण देइ साह वि । विजं संहरिऊण, सहाणं आगओ पच्छा ॥ ६॥ पञ्चागयचेयन्नो, आरद्धो बिलचिउं जहा मज्ज्ञ । केण हियं ? धयमाई, मुसिओऽहँ ? केण पावेणं ति ॥ ७॥
तथा 'विवजए मंतो'त्ति 'विपर्यये विद्यालक्षणवैपरीत्ये, किमित्याह-'मत्रो' मन्त्राह्वः स्यात्, यदाह-"इत्थी विजाभिहिया, पुरिसो मतोत्ति तव्विसेसोऽयं । विजा ससाहाणा वा, साहणरहिओ य मंतो त्ति ॥१॥" एतद्व्यापारणं च दोषः, अत्राप्युदाहरण
नयरम्मि पइटाणे, मुरंडरायस्स एगया जाया । तिबा सिरम्मि वियणा, मा विजामंतमाईहि ॥१॥ बहुएहि वि नोवरया, पालित्तयमुरिणो तओ तत्थ | वाइरिया तेहि लहं, अणजमाणेहिं लोगेणं ॥२॥ मंतं झायंतेहि पएसिणी भामिया
X[अतिप्रान्तो-ऽतिकृपण ऋद्धिमांश्च ] + बौद्धानां श्राद्धोऽस्ति । ૧૨
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अणजमाणेहिं लोगणं जा मत मायते । स बाहमावि वि ।
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पना. L.XI
पिण्ड- तहा सम्म। -जाणुसिरे जह नहा, सिरवियणा तस्स मरवणो ॥३॥ तेणावि तओ सूरी, विउलेणऽसणाहणा पहिणं । विद्यापिपिशुद्धि परिलाभियक्ति एमो, पिंटो मंतसिओ ने यो ॥४॥
Oण्डादिदोषकाइयो- ' तथा 'अन्तर्दानादिफला'स्विरोधानवशीकरणप्रभृतिकार्यसाधका भूर्णा वर्णनामानः स्युः। किंविधास्ते इत्याह-'नयना- चतुष्कपेतम् । अनादयो' लोचनाञ्जन-भालतिलकप्रभृतय, एतत्प्रयोजनं च दोषः। तत्र चोदाहरण
निरूपणं पाउलिपुत्ते नयरे, आसि नियो सयललक्खणसमेओ । नामेण चंदगुत्तो, नाणको तस्स वरमंती ॥१॥ अह अनया कयाई, मोदा16७॥ दुभिक्खे तत्थ दारणे जाए। संभृय विजयगुरुणो, जंघावलवजिया गच्छं ॥ २॥ देसंतरं विसजिउ-कामा सीसम्म गुरु.
हरणम् । पयमयस्स | साहिंता एमंते, भंतपए तंतजते य ।। ३ || सुद्धगद्गेण निसुया, पच्छ अद्विएण जाणिओ एगो । अंजणचुनो एत्तो, चलिओ देसंतरं गच्छो॥ ४॥ गंतूण पंथभाग, विरहुकंठं गुरूण तं वलियं । सेसो साहुसमूहो, पसो निद्दिठाणम्मि ।। ५ ।। गुरुणा विहु ते मणिया, दुदु कयं जं समागया तुम्मे । चिट्ठह संपइ एत्थं, संतोसपरायणा नवरं ।।६॥ मय
मेव गुरूहि हिंडइ, भिक्खडा सावगाइगेहेसु । फासुयमहेमणिअं, जं भिक्खं परिमियं लहइ ॥ ७॥ दाउं पदमं तेसिं, अप्पणा का जमवसेसयं तस्स | तं भुजई भोयणहीण-भावओ बुढभावाओ ॥ ८॥ आओ अइतणुयतणू, तं दह खड्गा विचिंतति ।
न कयं सुंदरमम्हे-हिमागया जमिह अस्स कओ॥९॥+अबराहो बाढxमओ, अन्नं भोयणपहं गवेसमो। अंतद्वाणकर जं, तमंजणं जोइयं तेहिं ॥ १० ॥ गुरुणो अपरिकहिता, भोयणसमयम्मि चंदगुत्तस्स । विहियंजणा पविड़ा, न य दिवा कणा + "अवरोहो" अ. | "स्वरोहो" पा. ह. क.x ओ" प. ह. क.।
॥६ ॥
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जण || ११ || लग्गा सहेत्र मोनं, स्ना पतिमागया जाव एवं पदिवसं चिय, तेसुं भुजंतरसु निवो ॥ १२ ॥ अच्छाच्छुहो तुच्छी-भूओ देहेण पुच्छिओ भणइ । अज ! न नज्जद्द कीं, केणइ निजह ममाहारो ॥ १३ ॥ श्रेवोच्चिय मे भोगं, समेइ जाया मणम्मि वीमंसा । चाणक्कस्य न एसो, अईव जं सुंदरो कालो ॥ १४ ॥ ता कोह अंतरहिओ, थाले एस्स झुंजए नूणं । तो इट्टगाण चुनो, भोयणसालंगणे खित्तो ॥ १५ ॥ बीयदिवसम्म तेणं, पविसंताणं निभालिया यया । दिट्ठा पयतीओ, दोनि अपुवाओ तो झत्ति || १६ || दारनिरोहं काउं, धूमो संमोहकारओ विदिओ । जायाई अंसुसलिला - उलाई लोयस्स नयणाई ॥ १७ ॥ तक्खणमुत्तिणंजण जोगा ते दोवि खुड़गा दिट्ठा | चाणकेण सलओ, जाओ सद्दी पेविया ॥ १८ ॥ अहमे एहिं विट्टा लिओ ति राया दुग्गंछिउं लग्मो । भणिओऽणेणुब्भड भिउ - डिभीममालेण कत्थो ||१९|| अजं चिय तं जाओ, विसुद्धवंसुन्भवो य तुममञ्ज ! । जं बालकालपालिय- चएहिं एएहिं सह तं ॥ २० ॥ तू गुरुपासे, सीसोपालंभमाह चाणको । जा ता गुरुणा मणिओ, तह सासणपालगे संते ॥ २१ ॥ एए छुहारा, निम्मा होमेरिसायारा जं जाया सो सो, तवावराहो न अन्नस्स | २२ || लग्गो पाए इमो, खमेह अवराहमेगमेयम् । एतो पभिई सदा, चिंता में साहुविसयति ॥ २३ ॥
तथा 'सौभाग्यदोर्माम्यकरा' जनप्रियत्वाप्रियत्व जनकाः श्रीचन्दनधूपप्रभृतयो द्रव्यविशेषा योगाः स्युरिति योगः । लक्षणान्तरमाह--' पाद प्रलेपादय' श्वरणलेपप्रभृतयः, आदिशब्दादन्येऽपि जलस्तम्भ नभोगमनादिविधायिनो लोकप्रसिद्धा औषधविशेषा द्रष्टव्याः । वा शब्दो विकल्पार्थः । 'योगा' योगसञ्ज्ञाः स्युः, तद्व्यापारणं दोषोऽतस्तत्राप्युदाहरणमुच्यते—
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विशुद्धि टीकाद्वयो
पेतम्
MAHARASH
||६८॥
अत्थि आमीरक्सिए, अयलपुरं नाम पुरवरं सम्म | तस्स य अदरभागे, कण्हाविण्णाभिहाणाओ॥ १॥ दोनि नईओ | विद्यापितासि तु, अंतरे बंभनामगो दीयो । तत्थ य पंचसएहि, तावससीसाण परियरिओ ॥२॥ कुलबइ निवसइ एगो, सो य सया ण्डादिदोष| सत्वपञ्चदिवसेसु । जोगोवलिगाओ, आस्टो पाउयाय ३॥ उचारिजण विष्णं, अपलपुर एह भोयणनिमित्तं । तो आउट्टो
चतुष्कलोगो, सकारं कुणइ तस्स बहुँ ।। ४ ॥ वण्णेइ य तस्स गुणे, पच्चक्खो एस एत्थ देवो ति । निंदइ सावगलोग, सो वि तओ
निरूपण बहरसामिस्स || ५॥ माउलगअजसमियस्स, मूरिणो कहइ सयलवुर्ततं । तेण वि भणियं थेवं, एवं जं माइठाणेणं ॥६॥ सोदापायप्पलेवजोगा, नइउत्तरणं ति सावएहिं पि । विनायपओगेहि, निमंतिउं कुलवई नीओ ।। ७॥ नियगेहं भत्तीए, निच्छं-18|हरणम । तस्सावि सोइया चलणा । धोयाउ पाउयाओ, दिन्नं से भोयणं पच्छा ८ सयलजणपरिखुडेणं, तेण समं आगया नईतीरे। सद्देवि सावमा तो, चलिओ सो नीरमज्झम्मि ।। ९॥ लग्गो बुड्डेड +जे, जाया ओहावणा घणा तस्स | एत्थंतरम्मि सरी, समागया अअसमियत्ति ।। १० ॥ बहुलोयबोहणत्थं, चप्पुडियxदाउँ तेहि तो भणियं । विण्णे! परं तु पारं, गंतुं इच्छामि तो झत्ति ॥११॥ मिलिया दोहवि कूला, जाओ लोगस्स विम्हओ विउलो । नायरजणपरियरिया, तावसनिलयं गया सूरी ॥ १२॥ पारद्धा धम्मकहा, लोगो संबोहिओ बहू तत्थ । पवाविया य समग, पंचसया तावसाणं पि ॥ १३ ॥ एवं पवयणमुम्मा-सिऊण सूरी समागया नयरं । जाया य बंदीचग-साहा मुणियपत्तसुसणाहत्तिा ॥ १४ ॥ । + पावपूरणे IX "चप्पुडिउं" अ. ह.क., "चप्पुडिओ" प. I * "दोनिवि" अ.। [साततत्त्वा मुनयस्त एष पत्राणि, तः सुदु सनाया-युक्ता] ।
॥ ६८॥ 222
*SARKARCHESTRA
TRA
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एते च विद्यामन्नादयः किमविशेषेण प्रयुज्यमाना दोपाः स्युरुत विशेपेणेत्याशयाह-'पिंडट्टमिमे दुहत्ति 'पिण्डा' मक्तादिनिमित्त्रं, प्रयुज्यमाना अपि इति गम्यते, न पुनः पुष्टालम्बनेऽपि | यदुक्तं कल्पभाष्ये-"एयाणि गारवट्ठा, कुणमाणो आभियोगियं बंधे । बीयं गारवरहिओ, कुव्वं आराहगु च ॥ १॥" अस्या भावार्थ:-एतानि कौतुकभृतिकर्म प्रश्नादीनि 'गौरवा' ऋद्धिरससातगौरवनिमित्तं कुर्वाण चारित्र्यपि 'आभियोग्य' कुदेवत्ववेद्य-पारत्रश्यनिमित्तमित्यर्थः, फर्म बध्नाति, उपलक्षणत्वाचरणधर्मविराधकश्च भवतीत्येष तावदुत्सर्गः। द्वितीय पुनरपवादपदमिदं, यदुत-गौरवरहित: कौतुकादानि कुर्वनपि चारित्राराधका स्यात् 'उच्चं च' उगोत्रं च कर्म निबध्नाति, न पुनर्विराधक आभियोग्यकर्मबन्धकच स्यादिति भाव इति । 'इमे'त्ति 'इमें एते अनन्तरोक्ता विद्यामन्त्रादयः 1 किमित्याह-'दुष्टा' गहिताः, प्रतिविद्यास्तम्भनबधबन्धनादीनां, पापाजीवी-मायावी कार्मणकारी चाय साधुरित्यादिलोकायबादादीनां, चरणविराधन-कुगतिगमनादीनां च दोपाणां कारणत्वात् । केपामेते दुश? इत्याह-'यतीना' साधूनां, किंविशिष्टानां ? इत्याह-'श्रुता सितम तीनो सिद्धान्तमावितबुद्धीना, एतन्त्र स्वरूपविशेषणं, साधूनां श्रुतवासितमतित्त्वज्यभिचाराभावादिति गाथार्थः ।। ७४ ।।
अथ मूलकमलक्षणं पोडशं दोषमाह|.. दी०-'साधनयुक्ता' जारहोमादिसाध्या 'स्त्रीदेवता च' देण्यधिष्ठिता अक्षरपडिविद्या, सा पिण्डार्थ दोपाय । तथा 'विपर्यये विद्यालक्षणवैपरीत्येन मन्त्रोऽसाधनो देवाधिष्ठितश्चेति भावः। तथाऽन्तर्दानादिफला-स्तिरोधानवशीकरणादिकार्यसाधकाचर्णा 'नयनाञ्जनादयों लोचनाञ्जनभालतिलकादयः ॥७३॥ तथा सौभाग्यदौर्भाग्यकराः श्रीचन्दनथुपादिद्रव्यविशेषा
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जीवी-मायावी ते अनन्तरोक्का वा च कर्म निवनात पुनरपवादपदा
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पिण्ड
विशुद्धि० टीकाद्वयो
पेतम्
॥ ६९ ॥
योगाः । . ' पादपादय' वरणलेपमुख्या, आदिशब्दादन्येऽपि जलस्तम्भ नभोगमनादिकरा औषधविशेषा योगा ज्ञेयाः । forfa विद्यादयः प्रयुज्यमाना दुष्टाः, पृष्टालम्बने कदाचित्प्रयुक्ता अपि न दोषायेति भावः केषां १ यतीनां तवा'सितमतीना' सिद्धान्तभावितबुद्धीनामिति गाथाद्वयार्थः ॥ ७४ ॥ अथ मुलकर्माख्यमाह---
मंगलमूलवाइ, गब्भवीवाह करणघायाई । भववणमूलं कम्मं, ति मूलकम्मं महापात्रं ॥ ७५ ॥
छपाया - मङ्गलमूलिकाभिर्लोकप्रसिद्धाभिः 'स्नपनादि' सौभाग्यनिमितं मञ्जनादि, आदिशन्दाद्रक्षाबन्धन धूपनादिपरिग्रहः । तथा गर्भविवाहौ प्रतीतौ तयोः प्रत्येकं 'करण- वातादि' निर्वर्त्तन-विनाशप्रभृति, आदिशब्दाद्गर्भस्तम्भ-कन्यकाभित्वा भिन्नत्वदोषकरणादिपरिग्रहः । एतच च शब्दार्थस्य गम्यमानत्वाद्भक्ताद्यर्थं साधुना क्रियमाणं कार्यमाणं, चेति गम्यते, मूलकर्मोच्यत इति योगः । अन्वर्थमाह- 'भववणमूलं कम्मति'त्ति 'Heart' संसारकाननस्य 'मूल' कारणं 'कर्म' क्रियेति हेतोः, किं १ 'मूलकम्मं ति मूलकर्मोच्यत इति शेषः । किंविधं तदित्याह 'महापर्व' ति महापापहेतुत्वान्महापापं - अत्यन्त शुभं, अत एव भवनमूलमिदमित्युक्तं । तथाहि - एतेषु मूलक र्मरूपेषु रूपन- गर्भाधान- विनाश-परिणयन-विधान-विधातादिषु पिण्डनिमित्तं साधुना क्रियमाणेषु कार्यमाणेषु वा षण्णां जीवनिकायानां बधादयो मैथुनप्रवृत्ति-सदाभोगान्तरायादयः प्रद्वेष-प्रवचनोपपातादयत्र दोषाः कृता भवन्ति । तत्र गर्भाधानविनाशावधिकृत्येदमुदाहरणम्
किल केनचिद्गोचरप्रविष्टेन पिण्डलिप्सुना साधुना दानशीला काचिद्राजमार्या पृष्टा, यथा-भद्रे किं त्वमेवमतिमती दृश्य ? सासनी आपनसच्या, तस्याश्च पुत्रः समादिष्टो दैवज्ञेनेति । एतदाकर्ण्य साघुराह यद्येवं, मा विषादं
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द्वितीयों
त्पादना
दोषेषु
मूलकर्मनिरूपणम् ।
॥ ६९ ॥
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कुरु, तवापि गर्भ करिष्यामि । ततो दत्तं तथाविधमौषधं साधुना, आहूतश्च गर्भः । ततः पुनरपि सैक्मवादी-यद्यपि भगवन् ! | स्वदीयौषधप्रभावान्मे सुतो भविष्यति, तथापि सपत्नीसुतात्कनिष्ठ एवेति "तद्दीर्घतैव पलाशानां" । ततः साधुना केना| प्युपायेन तत्सपत्न्या गर्भपरिशातन कार्योषधं प्रदापितं, गलितस्तद्गर्भः, जातशेतरस्याः सुतः युवराजश्व संवृत्त इति ।
विराई त्वङ्गीकृत्यायं दृष्टान्त:-किल कश्चित्साधुभिक्षार्थ कचित्कुले प्रविष्टः कामपि बृहत्कुमारी दृष्ट्वा पिण्डलोभेन तज्जBाननी प्रत्येवमाह, यथा-इयं तव दुहिता वयःप्राप्ता वर्तते, ततो वरायाप्रदीयमाना भवत्कुलं दूषयिष्यति, किब-लौकिका। अपि वदन्ति-"तावन्तो नरका घोरा, यावन्तो रुधिरणिन्दरः"जता शी यतामिति ।
कन्यकाभिन्नत्वदोषापहरणे एष दृष्टान्त:-किलैकः कश्चित्साधुर्भिक्षां परिभ्रमन् प्राप्तो दानाशील श्राविकासकग्रह, दष्टा च साऽधृतिं कुर्वाणा पृष्टा व किमधृतिं करोषि , तया चोक्तं-"जो य न दुक्खं पत्तो, जो य न दुक्खस्स निग्गहसमस्थो । जो य न दुहिए दुहिओ, कह तस्स कहिज्जए ? दुक्ख ॥ १ ॥" साधुनोक्त-एवमेतत् , केवल "अहयं दुक्ख पत्तो, अहयं दुक्खस्स निग्गहसमत्थो । अहयं दुहिए दुहिओ, ता मज्झ कहिज्जए दुक्खं ॥१॥" ततस्तया मणितं-प्रत्यासन्नो मम दुहितुः पाणिग्रहणदिवसः, सा च भित्रयोनिकेति । ततस्तेनौषधाचमनपानादिप्रदानेना| भिमयोनि सा विहितेत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ ७५॥
अधोक्तदोषनिगमनं उत्तरमन्थसम्बन्धं च चिकीर्घराह-दी-मलमूलिकाभिः प्रतीताभिः 'स्नपनादि सौभाग्याथ मञ्जनरक्षावन्धधूपनादि, तथा गर्भविवाहयोः करणस्तम्मन
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प्रस्तावनं
पिण-18| घातनादि च, भवनस्य मूलमिदं कर्म स्यात् , तच महापापं, पइजीववध-मैथुनप्रवृश्यन्तरायादिदोषजनकत्वादिति गाथार्थः ।।७५॥ || ग्रहणैषणाबधुद्धि अथोक्तदोषनिगमनमुत्तरग्रन्थसम्बन्धं चाह
दोषनिगकाइयो-[2इय वुत्ता सुत्ताउ, बतीस गेवसणेसणादोसा । गहणेसणदोसे दस, लेसेण भणामि ते य इमे ॥७६॥ अमन ग्रासैपेतम् व्याख्या-'इति' एवं-पूर्वोक्तप्रकारेण 'वुत्त'त्ति 'उक्ताः प्रतिपादिता, मयेति गम्यते । कुतः स्थानादुइत्येत्याह-'सूत्रात्'
पणादोष पिण्डेषणाध्ययन-तन्नियंत्यागमाद 'द्वात्रिंशद' आधाकर्मादीनां पोडशानां धाच्यादीनां च षोडशानां दोषाणामत्र मालनाद ७०॥
द्वात्रिंशत्सथाः के इस्याह-'गवेषणा ग्रहणनिमित्तं भक्तादेवलोकना, तत्काले तहिषया वा 'एपणा उद्गमादिदापानरा. क्षणा-विचारणेत्यर्थः, गवेषणैषणा, तदपयोगिनो 'दोषा' दषणानि-गवेपोषणादोपाः । एषणा हि गवेषणा ग्रहणषणा-प्रासपणा मेदाधिप्रकारा मूत्रेऽभिधीयते, तदियता अन्धेनाद्या प्रतिपादितेति । अथ द्वितीयां प्रतिपादयत्राह-'ग्रहण पिण्डोपादान, तद्विषया वा 'एषणा' शङ्कितादिदोषनिरीक्षणा, तदुपयोगिनो 'दोषा' क्षणानि-ग्रहणेषणादोषास्तान 'दशे'ति दशसङ्ख्थान् तत्काले 'लेशेन' सझेपेण 'भणामि' वच्मि 'तेच ते पुनरिमे-एते वक्ष्यमाणा इति गाथार्थः ।। ७६ ।।
अथ तानेव प्रस्तावितदोषानामतः सङ्ख्यातश्च दर्शयवाह
दी०-इत्येवं 'बुत्ता' उक्ताः 'सूत्रात पिण्डेषणाध्ययनादेः, कियन्तस्ते १. द्वात्रिंशत, गवेषणा-भक्तादेग्रहणार्थविलोकना, तत्कालं तद्विषयं वा 'एषणा' उद्गमादिदोषविचारणा, तस्य दोषाः । अत्र गवेषणा-ग्रहण-ग्रासमेदात्रिविधा एषणा, तत्राद्या उक्ता, द्वितीयामाइ-ग्रहणं भक्तादेस्तकाले या एषणा, तदोषान दशसथान 'लेशेन' सोपेण भणामि, ते च इमे वक्ष्यमाणा
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इति गाथार्थः ।। ७६ ।। आदौ नामान्याह
संकि मक्खियं निखित्तै- पिहिये-साहरियं दाय-म्मीसे । अपरिणय- लित्तं-छड्डिये, एसणदोसा दस हवंति ॥ ७७ ॥
orror - 'शङ्क' सम्भाविताधाकर्मादिदोषं मक्तादि, इह च प्रथमैकवचनान्तता सर्वत्र दृश्या, तथा दोषवतो निर्देशेऽपि दोषदोषवतोमेदाङ्कायका गुणदोष उक्तः, तस्यैव विवक्षितत्वात् एवं सर्वत्र । 'प्रक्षितं' आरूषितं 'निक्षिप्तं' न्यस्तं 'विहितं' स्थगित 'संहतं' अन्यत्र क्षिप्तं 'दायको' दाता 'उन्मिश्रं' मिश्रीकरणं 'अपरिणतं' अप्रासुकादि 'लिप्तं' स्वरष्टितं 'छर्दितं' परिक्षादितं इत्येवमेते 'एषणादोषाः' पिण्डग्रहणदूषणानि दश 'भवन्ति' स्युरिति गाथासमासार्थः ॥ ७७ ॥
अथाद्यं शङ्किताभिधानदोषं व्याख्यातुमाह-
दी० - हह दोषदोषवतोर मेदादेषणादोषः प्रथमैकवचनान्तो ज्ञेयः । तत्र शङ्कितं सम्भाविताधाकर्मादिदोषं भक्तादि १, ग्रक्षितं सचित्तादिभिः २, निक्षितं तत्र न्यस्तम् ३, पिहितं तैः स्थगितम् ४, संहृतं तस्मादन्यत्र क्षिप्तम् ५, दायका बालादयः ६, उन्मिश्रं सचिचादियुक्तम् ७, अपरिणतं द्रव्यं भावो वा ८, लिप्तं स्वरष्टितम् ९, छर्दितं परिशाटनावद् १०, एवं एषणा दोषा दश भवन्तीति गाथार्थः ॥ ७७ ॥ अथाद्यं शङ्कितमाह-संकियगृहणे भोगे, चउभंगो तत्थ दुरिमा सुद्धा । जं संकड़ तं पावइ, दोसं सेसेसु कम्माई ॥ ७८ ॥
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भनी।
पिण्ड
व्याख्या-शहितस्य' आषाकर्मादिदोषयतया आरेकितस्य भक्तादेग्रहण-स्वीकार:-शहितग्रहणं, सत्र, तथा 'मोगे' मोजने. * ग्रहणषणासक्तिस्येत्यत्रापि योज्यते । अत्र पदद्वये 'चउभंगोति चतूरूपो भङ्गश्चतुमको, जानौ चैकवचनं, चवागे मनका मत्र- यां शुद्धि&ान्तीत्यर्थः । तद्यथा-शङ्कितग्रहणं अङ्कितभोगः १, शक्कृितग्रहणं नितिनभोगः २, निश्शक्तिग्रहणं शङ्कितमोगः ३, तग्रहणाननिश्चकितग्रहणं निश्चतिमोगा ४ । तेषां चैत्र सम्भव:-किल कापि कुले मिक्षार्थ प्रविष्टः साघुहिणा प्रचुरमिक्षायां दीय
नपोश्चतुमानायां शकते, यदत-किमित्पर्य भिक्षाचरेभ्यः साधुम्यो वा प्रचुरमिक्षां प्रयच्छति, न च लबालुतया प्रष्टुं शक्नोतीत्येवं ७१॥ शहितग्रहणं कृत्वा स्वस्थानमामत्य शङ्कितस्यैव भोगं करोतीति प्रथमः, यदाह-"किं + बह खदा भिवा, दिजह ?,
म य तरह पुच्छिउँ हिरिमं । इय संकाए घेत्तुं, तं भुजा संकिओ चेव ॥ १॥" 'ख'त्ति प्रचुग 'हिरिमंति हीमान्-लजावानिति १ । तथा मिक्षार्थ गृहे गतस्य कस्यापि साघोः पूर्वोकन्यायेन शक्तिस्य ग्रहणे जाते ववमतिमागतस्य विज्ञतदपरसाधुवचनानिश्शक्तिभुञानस्य द्वितीयः, यदवाचि-"हियएण संकिएण, गहिया अन्नण मोहिया साय। मिक्षेति प्रक्रमः । पगर्य पहेणगं, वा, सोउं निस्संकियं मुंजे ॥१॥" प्रकृतं-प्रकरण २ तथा कश्चित्साधुरीश्वरादिगृहानिश्शतिः प्रचुरां मिक्षा गृहीत्वा वसवावागतोऽन्यान्साधून गुरोः पुरतः स्वमिक्षातुल्यां मिक्षामालोचयतः
श्रुत्वोपजातसन्देहः शङ्कितं मुरुक्त इति तृतीया, यिदाह-"जारिसयचिय लद्धा, खद्धा भिक्स्वा मए अमुयगेहे। म + कि बहु इति वित (प० अ.) "कि णु हुँ" प. इ. क.I K प्रहेणक-भोजनोपायनम् 1 X "निसंकिओ" क. I "तदाह" |
|| ७१॥ 228
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अन्नेहिं वि तारिसिया, वियडतनिसामणे तइओ ॥१॥"ति३ । चतुर्थमनकसम्भवस्त्वनिप्रतीत एवेति ।। 'तस्थति 'तत्र' तेषु चतुर्यु मनकेषु मध्ये 'दुचरिमति 'विचरमौ' द्वितीयचतुर्थी, किमित्याह-'शुद्धौ' निदोषी, द्वयोरपि भोजनस्य निनशङ्कितत्वेन शुद्धत्वात् । द्वितीयमङ्गमाविनश्च शङ्कितग्रहणदोषमात्रस्योत्तरशुभपरिणामेन शुद्धिसम्मवाद । तथा यं कशन, दोपमिति योगा, 'शङ्कते' आरेकते-सम्मावयतीत्यर्थः, पिण्डग्राहकमाधुरिति गम्यते, 'प्रामोति आपद्यते 'दोष दयणं 'सेसेसुति 'शेपयोः प्रथमतृतीयमङ्गयो, उभयत्रापि भोजनस्य शक्तित्वेनाशुद्धत्वात् । किंविधं दोष ? इत्याइ-कम्माई' चि 'कर्मादि' आधाकाँद्देशिकाभृत्युद्गमदोषपोडशकं म्रक्षितनिक्षिप्ताधेपणादोपनवकं चेत्यर्थः। इति गाथार्थः ।। ७८ ॥
अथ म्रक्षितदोष व्याख्यानयनाइ
दी.-'शक्षितस्य आधाकर्मवत्तया सन्दिग्धस्य 'ग्रहणे स्वीकारे तथा 'भोगें भोजने सति, जात्येकवचनाचतुर्भ+ स्यात, यथा-शनिग्रहणे लादिवशादपच्छायां तथैव सन्देहान्छकितपरिमोगः १, शक्तिग्रहणे पश्चात्सन्देहापगमे सति मुखानस्य नियतिमोगः२, निश्शहितग्रहण कुतोऽपि हेतोदोंपाशङ्कायां शक्तिमोगः३, निश्शन्तिग्रहणे निश्शन्तिमोगः स्पष्टः ४, 'तत्र'तेषु द्वितीयचरमौ मङ्गौ शुद्धौ, निश्शहितमोगादित्याह-यं कन्ननदोष शरते साधुस्तं प्रामोति 'शेषयो।' प्रथम-तृतीयमझायोः, शहितमोगात् । किम्भूतं? 'कर्मादि उद्गमदोषपोडशर्क ग्रंक्षणाषणादोपनवर्क चेति भाव इति
गाथार्थः ।। ७८ ॥ अथ म्रक्षितमाह815 वियत प. ह. क.1+ मी" 1929
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पिण्ड-18 सश्चित्ताचित्तमक्खियं, दुहा तस्थ भूदगवहिं । तिविहं पढम धीयं, गरहिय-इयरेहिं दुविहं तु ॥७९॥ ग्रहणैषणाबिधुद्धिा .. म्याख्या-'सश्चित्ताचित्तंति सचित्तेन प्रक्षितं यत्करादि, तदेव तद्योगात 'सचित्त सचेतन, तब, एवमचित्तं चा
लियो प्रक्षितटीकाइयो । घेतनं सचित्ताचित्त, द्वन्द्वकवद्भावात्सचित्तप्रक्षित-मचित्तम्रक्षितं चेत्यर्थः, इत्येवं प्रक्षित-मारूषितं 'द्विधा' द्विप्रकार, भवतीति
दोषनिरूपेतम् शेष:, 'तत्य'त्ति 'तत्र' तयोर्मेक्षितभेदयोर्मध्ये प्रथम विधा, भवतीति योगा, कथमित्याह-'भृ-दक-वन' सचित्तपृथिव्यम्पु
पणं सप्रबनस्पतिभिम्रक्षणभेदादिति गम्यते । 'त्रिविध विप्रकारमेव, तेजोवायुवसैक्षितत्वायोमात्, प्रथम सचित्तम्रक्षितं भवति ।
भेदम्। ॥७२॥
'पीयंति, वक्ष्यमाणानरर्थतुशब्दस्येह सम्बन्धाद्वितीयं पुनरचितम्रक्षितं, द्विविधमिति योगः, कथमित्याह-'गर्हितेतराम्यां | लोकनिन्यानिन्द्यवस्तुभ्यां प्रक्षणभेदादिति गम्यते, 'द्विविध द्विप्रकारं भवति, तुर्माख्यात एवेति गाथार्थः ॥ ७९ ॥
एवं प्रक्षितस्वरूपमभिधायाऽथास्यैव विभागेनाऽकल्पनीयतां विभणिपुरा
दी०-सचित्ताचित्तयोर्देयवस्तुनोर्योगान् प्रक्षितं विधा स्यात् , तत्र 'भ-दक-वनैः सचित्तपृथ्वीजलवनस्पतिभिखिभिम्रक्षणमेदाभिविषं प्रथम, द्वितीयं त्वचिसम्रक्षित 'गर्हितेतराभ्यां लोके निन्द्यानिन्धवस्तुभ्यां अक्षण मेदाद्विविधमिति माथार्थः
।। ७९ ॥ एतदेव विशेषयमाह- संससअचित्तेहिं, लोगागमगरहिएहि य जईणं। सुकोऽल्लसचित्तेहि य, करमत्तं मक्खियमकप्पं ॥८॥ व्यापा-संसक्तानि च-तान्येकेन्द्रियादिसम्बसम्भूतियुक्तानि, अचित्तानिष-दचिद्राक्षापानकादीनि संसक्ताचित्तानि, * ॥७२॥
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तैस्तथा 'लोकश्च पृथग्जन आगमश्रा-ऽईत्प्रवचनं लोकागमौ, तयोर्मध्ये 'गर्हितानि निन्दितानि यानि मद्य-मांस-वशा शोणित|मूत्र पुरीषादीनि, तानि लोकागम(ग्रन्थाग्रं. २००० )गर्हितानि, तैः, चः समुच्चये, अनेन चाऽसंसक्तागर्दिताचित्तद्रव्यम्रधितस्य कल्पनीयता प्रतिपादिता भवति । 'यतीनो' साधूनां, तथा 'सुकोल्लसचित्तेहि यति 'शुष्काईसचित्त'र्नीरस-सरससचेतनेः, प्रक्रमात्पृथिव्य-म्बु-वनस्पतिलक्षणैर्वस्तुभिः, चः समुच्चये, प्रक्षितं अकल्प्यमिति सम्बन्धः। किं तदित्याह'करमत्तं ति 'करश्च'दाहस्तो 'मात्र च करोटिकादिलक्षणं भिक्षाभाजनं, द्वन्द्वैकवद्भावान् करमानं 'मेक्षित खरण्टितं सदुमयमन्यतरद्वा, उपलक्षणत्वाद्देयद्रव्यं वा, किमित्याह-'अकल्प्य' अकल्पनीयं, यतीनामिति पूर्वेण योगः, अपमर्थो-न पूर्वोक्तद्रव्यम्रक्षिताभ्यां इस्तमात्राभ्यां दीयमाना शुद्धाऽपि भिक्षा यतीनां ग्रहीतुं कल्पते नाऽपि वैक्षितं द्रव्यमादातुं युज्यते, सच्चोपघात-जनापवादादिदोपसम्भवादिति गाथार्थः ॥८० ॥ अथ निक्षिप्नदोषं विवरीतुमाह--
दी०-'संसक्तै रेकेन्द्रियादिसच्चसम्भूतियुक्तैरचित्तस्तथा 'लोक' पृथगजनः 'आगमोऽहत्प्रवचनं, तयोहितैश्व-मद्यमांस-वशा-शोणित मूत्र-पुरीपाद्यैस्तथा 'शुष्का;'नारस सरसैः सचित्तैः, प्रस्तावाद् दक-वनलक्षणैक्षित करमानं, करो-हस्तो 'मावं' करोटिकादिस्तदुपलक्षणादन्यदपि यतीनामकलप्यं, सच्चोपघात-जनापवादादिदोषसम्भवादिति गाथार्थः ॥८॥
अथ निक्षिप्ताख्यमाहपुढविदगअगणिपवणे, परित्तऽणते वणे तसेसुं च। निक्खित्तमचित्तं पि हु, अणंतरपरंपरमगेज्झं ॥८१॥ ___ व्याख्या-'पृथिवी' च मृत्तिका 'उदकं च' जलं 'अग्निश्च तेजस्कायः 'पवनश्च' वायुः, द्वन्द्वैकवद्भावात् पृथिव्युदकाग्नि
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ग्रहणपणा यां अधि नग्रहणास नयोश्रतुमड़ी।
पिण्ड- पवन, इरिंगन सचिने मिटे नेति गम्यं, एवमुत्तरत्राऽपि, तथा 'परीत्तं च'-प्रत्येकं 'अनन्तं च' माधारणं यरीत्ताननं, विशुद्धि तस्मिन् , एकवचनान्तता च प्रावत, की इत्याह-'बने वनस्पतिकाये तथा 'त्रसेपु च' द्वीन्द्रियादिपु, चंः ममुचये, 'निक्षिप्त' टीकाद्वयो। त्यस्तं-स्थापितमित्यर्थः । 'अचित्तमपि प्रासुकमपि, देयद्रव्यमिति गम्यते, सचित्तं तावदग्राह्यमे वेल्यपिशब्दार्थः, हुरवधारणे, पेसम्
तस्य चाग्राह्यमेवे त्यनेन योगा, कथं न्यस्तमित्याह-'अनन्तरं च' अव्यवहितं 'परम्परं च वस्त्वन्तरव्यवहितं अनन्तर-
परम्पर-न्यस्त, क्रियाविशेषणं चैतत् , तत्र पृथिव्यामनन्तरनिक्षेपसम्भवो मण्डकादेरुदके नवनीतस्त्यानधनादेरङ्गाराव- ॥७३॥ स्थाग्नौ मण्डकादेः पवने तेनैव हियमाणस्य शालि+पर्पटादेवनस्पती त्रसेपु च पूषकादेः, परम्परनिक्षेपसम्भवस्तु पृथिव्या
दिषु मण्डकादेरेव वस्त्वन्तरव्यवहितन्यस्तस्य भावनीयः, पवने तु वातस्ति वस्त्यादिस्थितस्य वस्तुन इति, एतकिमित्याह--'अगेज्झे' ति 'अग्राह्यमेव साधूनां ग्रहीतुमयोग्यमेवेति, अत्रोत्तरत्र च चतुर्भङ्गादिच! ग्रन्धान्तरादयसेयो वैषम्यमयाच नेहाऽवतारित इति गाथार्थः ॥ ८१॥ अथ पिहितदोषमभिधातुमाह
दी०-द्वन्द्वैकवद्भावात्पृथिव्यु-दका-ग्नि-पवने, सचित्ते मिश्रे वेति गम्यं, तथा 'परीत्तानन्ते' प्रत्येकसाधारणे 'बने वनस्पतिकाये, तथा 'सेषु' द्वीन्द्रियादिषु निक्षिप्तमचित्तमपि देयद्न्यं 'हुरिति निश्चये, अनन्तरं-अव्यवहितं 'परम्पर' वस्त्वन्तरव्यवहितं सद् अग्राह्यमिति गाथार्थः ॥ ८१ ।। अथ पिहिताख्यमाहसचिचाचित्चपिहिए, चउभंगो तत्थ दुहमाइतिगं। गुरुलहुचउभंगिल्ले, चरिमे विदुचरिमगा सुद्धा ॥८२॥ + सालेबड । ४ वस्त्यादि " अ. । [दीवडी-मशक] ।
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RECERICS
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व्याख्या-'सचित्तं च चैतन्ययुक्तमचित्तं च-चेतनाविकलं सचित्ताचित्ते वस्तुनी, ताम्या 'पिहित' स्थगितं. [- ॥ तत्र वस्तुनीति गम्यते, किमित्याह-'चउभंगोति चतूरूपो भङ्गश्चतुर्भङ्गो, जातिनिर्देशाचत्वारो भङ्गका भवन्तीत्यर्थः ।
तद्यथा-सचित्तेन सचित्तं पिहित १ एवमचित्तेन सचित्र २ सचित्चेनाऽचित्तं ३ अचित्तेनाचित्तमिति ४ । तत्र तेषु चत भड़केषु मध्ये, फिनित्याह-"' दोपक-सीयपीडापहवान किं तदित्याह-'आदित्रिक प्रथममङ्गत्रयं, चतुर्थxस्य का वार्तेत्याह-गुरुलहु' इत्यादि, 'गुरु च प्रचुरभारान्वितं वस्तु 'लघु च' स्तोकमारं गुरुलधुनी, ताभ्यां चतुर्भो विद्यते | यत्र स गुरुलधुचतुर्भङ्गवान्, तस्मिन, इह च 'आल-इल्ल-मण' प्रभृतिप्राकृतप्रत्ययानां मत्वर्थीयार्थत्वात् 'चउभंगिले त्ति निर्देशेऽपि चतुर्भवतीति व्याख्यातं, चतुर्भश्चैवं 'गुरु' महद्देयद्रव्यमाजनं 'गुरुणा' प्रभूतमारेण स्थाल्यादिना पिहितं १ एवं गुरु 'लघुना' स्तोकमारेण पिधानस्थाल्यादिना २ एवं लघुगुरुणा ३ लघुलघुना ४ । पूर्वोक्तचतुर्भकम्यश्च कमान्तरचतुर्भङ्गकोऽयं, मध्यममजयो क्रमविपर्ययात्+, केत्याह-'चरमेऽपि चतुर्थमङ्गकेऽपीत्यर्थः । 'द्विचरमको द्विती. बचतवव, किमित्याह 'शुद्धौ निदोषों, पिधायकद्रव्यस्य लघुत्वेन निरपायत्वात्तयोः, न तु प्रथमतृतीयौ, पिधायकद्रव्यस्य गुरुत्वेन तत्र पतनाचनेकदोषसम्मवादिति माथार्थः ।। ८२ ॥ साम्प्रतं संहृतदोषमभिधातुमाह
दी०-सचित्ताचित्ताम्या पिहिते देयद्रव्ये 'चतुर्मङ्गोx, [जातिनिर्देशाचत्वारो मङ्गाः], यथा-सचित्तेन सचिचं १, ____x" चतुर्थकस्य " य. I + द्वितीयस्थाने तृतीयः प्राप्नोति, तृतीयस्थाने द्वितीयः प्राप्नोतीत्येवं क्रमविपर्ययः (टि. अ.) x" मैग्नी".ह.।
2.33
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पिण्डविशुद्धि टीकाद्वयो
पेतम् ॥७४ ॥
xसचित्तेनाचि २, अचित्तेन सचितं ३, अचित्तेनाचित्तमिति ४। 'सत्र' तेषु 'दुष्ट' सदोषं 'आदित्रिक' प्रथममङ्गत्रय,
विद्यापिपतुः कथं ? इत्याह-'गुस्लधुन्या बहुमारस्तीकमाराभ्यां पिधानाम्यां सचित्ताचित्तव'चतुर्भगिल्ले चतुर्भदवति चरमे IPण्डादिदोषभने द्वितीय चरमौ शुद्धौ, निस्पायत्वादिति गथार्थः ।। ८२ ॥ अथ संहृताख्यमाहखिवियऽन्नत्थमजोग्गं,मत्ताओतेण देइ साहरियं । तत्थ सचित्ताचित्ते, चउभंगोकप्पई उचरिमे ॥८॥1 निरूपणं
व्याख्या-यत् 'क्षिप्त्या प्रक्षिप्याऽन्यत्र पृथिवीकायादौ, किं तदित्याह 'अयोग्य' दानानुचितं मृत्तिका-जल- सोदातुपारादि दातुमनभिप्रेतं वा, कस्मादित्याह-'मात्रात् करोटिकादेः स्वभाजनात् 'तेण' ति सावधारणत्वात् 'तेनैव' रिक्ती ||
हरणम् । कृतमात्र केणेच 'ददाति' देयं वस्तु साधुभ्यः प्रयच्छत्ति, गृहस्थ इति गम्यते, तसंहतमित्युच्यत इति शेपः । तत्र' तस्मिन् सहते 'सचित्ताचि सचेतनाचेतने वस्तुनि, मिश्रस्य सचेतन एवाऽन्तर्भावात, किमित्याह-'चतुर्भङ्ग'श्चत्वारो भङ्गा भवन्तीस्पर्थस्तद्यथा-सचित्ते- पृथिव्यादी सचितं पृथिव्यायेव संहरति १, एवमचित्ते-भस्मादौ सचित्तं २, सचिनेऽचितं ३, अचित्तेचित्तं । एवं मङ्गकानभिधाय तन्मध्ये पत्र कल्पते तमाह 'कप्पइ उ चरिमे ति 'कल्पते तु' भक्तादि ग्रहीतुं युज्यते पुनः साधूनां 'चरमे चतुर्थमन के, नाऽऽद्यत्रिक इति गाथार्थः ॥ ८३ ॥ अथ चतुर्थमनकस्यैव विशेष प्रतिपादयभाइ
दी-विमा अन्यत्र पृथ्वीकायादौ 'अयोग्य' दानानुचितं मृत्तिका जल तुपादि दातुमनिष्टं वा 'मात्रात् करोटिकादेजिनात् 'तेन' रिक्तीकृतमात्रकेणैव ददाति तत्संहृतं स्यात् । तत्र सचित्ताचित्ते वस्तुनि चतुर्भङ्गो यथा-सचिने सचित्तं १, x“अचित्तेन सचिसं २ सचित्वेनाचिठं ३" प. म.1124
MI||७४।
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| सचिचेऽचित्तं २, अचित्ते सचित्तं ३, अचिवेऽचिचं ४, बत्तीति, रकु काल्पो पुनरमे बस इति गाथार्थः ।। ८३ ॥
अत्रापि विशेषमाहतत्थ वि य थोवबहुपय-चउभंगो पढमतइयगाइपणा। जड़ तंथोवाहार, मत्तगमुक्खिविय वियरेज्जा ।८४ ___व्याख्या-तत्रापि च' चतुर्भङ्गकेपि, किं स्यादित्याइ 'धोव-बहुपय-चउभंगोति स्तोकबहुलक्षणे ये 'पदे
अभिधाने, नाम्यां चतुर्भङ्गः स्तोकबहुपदचतुर्भङ्गा, स्यादिति शेषः, तद्यथा-'स्तोके' अल्पे तक्रादिके 'स्तोक स्वल्पं 8 तक्रादिकमेव संहरति १, एवं स्तोके बहुकं २, बहु के स्तोक ३, बहके बहुक ४ । एतेषु च 'प्रथमत्तीयको आद्यो
पान्त्यभङ्गाको, किमित्याह-'आचीणों भिक्षाग्रहणे साधुभिर्व्यवहतौ । अत्रापि किमपि विशेषमाह-'जइ तमित्यादि, यदीत्यम्युपगमे 'त'ति तद्देयसंहृतसकं 'थोवाहारं ति स्तोकः करग्रहणमात्ररूप 'आधार' साहाय्यं यस्य, स्तोकं वा वस्तु आ-समन्ताद्धारयति, स्तोकस्य वा वस्तुन 'आधार' स्थानं यचत्स्तोकाधारं-अल्पभारमित्यर्थः, बह्वाधारे हि भाजने उत्क्षिप्यमाणे दातृपीडादयो दोषाः स्युरिति स्तोकाधारविशेषणं, किं तदित्याह-'मात्रक' स्थाल्यादिभाजनं 'उत्क्षिप्य' उत्पाव, भूमौ स्थितेन हि माजनेनावनम्य तन्मध्यावस्थिते वस्तुनि दाच्या दीयमाने अधो-भूमिभाजनयोरन्तरे कीटिकाधुपमर्दः सम्भवतीति । किं कुर्यादित्याह-वितरे' दात्री दद्यान्मात्रकमध्यगत संहतसंज्ञं वस्त्विति गाथार्थः ॥ ८४ ।।
अथ दोषदोषवतोरभेदादायकानमिधातुमाह+ अवापि भेदविपर्ययोऽस्ति (टि. अ.)1x" 'ध्यस्थिते "प्र.ट, क.।
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पिन्ड विशुद्धि रीकाद्वयो
पेतम्
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दी.-'तत्रापि चतुर्भश स्तोकबहुलक्षणे ये 'पदे' अभिघाने, ताम्यां चतुर्भः स्यात, यथा-स्तोके तक्रादौस्तोकं १, स्तोके
ग्रहणैषणा. बहुकं २, बहुके स्तोकं ३, बहुके बहुकं ४ । एषु प्रधमतृतीयको 'प्राचीरें साधुभिर्व्यवहृतो, परं यदि 'तत्' ] संहनसत्कं मात्र दिनके षष्ठं तोकाधारं अस्वभारं 'अक्षिय' उपाख्य बितरद भक्तादि दद्यादिति माथाथैः ॥८४॥ अथ दायकाख्यमाह
दायकदो थेरपडेपंडेवेविर-जैरियंऽवत्तमर्त्तउम्मेत्ते । करचरणछिन्नपगलिय-नियलंदुयपाउयारुढो ॥ ८५॥ सप्रमेदम् ।
व्याख्या-इह च स्थविरेत्यादौ छिनशब्दस्य पूर्वनिपाताच्छिन्नकरचरणेत्यादौ च पदे द्वन्द्वैकवद्भावात्सप्तम्येकवचनान्तता, ततश्च स्थविरादिके छिन्नकरचरणादिके च दायके ददति भिक्षा न ग्राह्येति ममासार्थः, व्यासार्थस्त्वयं-स्थविरो' वृद्ध, सच समतेर्वाणानुपरिवर्ची, षष्टेरित्यन्ये, अनेन दीयमानमुत्सर्गतो म॒नयो न गृहन्ति, यद्वक्ष्यति चात्रैव ]-"दितेसु एवमासु, ओहेण मुणी न गेण्हंति (1८८॥"+अनेकदोषाश्रयत्वाचदानप्रवृसे, यदाह“धेरो मलंतलालो, कंपणहत्यों पडेन वा दितो । अपहुत्तिय अवियत्त*, एगयरे वा उभयओ वा ॥१॥"
सुगमा, नवरं-स्थविरोऽप्रमुरिति कृत्वाऽनीतिकं तत्पुत्रादेः स्यादेकतरस्मिन्-साधौ पुढे वा, उभयता-साधौ वृद्धेच, अपवादतस्त: स्थविरे प्रमौ कम्पमानेऽन्येन विवृते दृढशरीरे वाग्न्येनाविधृतेऽप्यगलल्लाले ददति मिक्षां गृहन्त्यपीति ११ नवादीयमानमतादेरखामी भृतकादिस्तेन दीयमानं न कल्पते, अप्रभुत्वादेव, स्वामिना तु तद्धस्तेन दाप्यमानं कल्पत एवेनिशा ती पण्डो नपुंसका स च पटक-वातिकादिमेदात्योडवघा, यदाहREET
शियम *"अचिय" प.इ.क. य.!" " प.. 5 ॥७५ ॥
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पंडवाएकी ३,कुंभे४ ईसालए५तहा। सउणी ६ तक्कम्मसेवीय७, पक्खियापविश्वए विय८॥११॥"
"सोगंधिए य९ आसित्ते १०, वद्धिए ११ चप्पिए १२ तहा।
मंतो१३सहिओवहयए १४, इसिसत्ते १५ देवसत्ते य १६ ॥ २॥" तथा नारीस्वरानुकारिस्वरो महन्मेहनान्वितः सशब्दफेनमूत्रप्रकृतिः पृष्टा[पृष्ठावलोकनकलितमन्दगतिः शीतलमृद्गात्र: स्त्रीवत्प्रलम्बपरिधानरुचिरभीक्ष्णं कटिहस्तदानशीलो बामकरतलन्यस्तदक्षिणहस्त तलपर्यस्तमुखवृत्तिश्च, सविलासलोचनः सविभ्रमभ्रक्षेपकारी स्वात्मनि स्त्रीमण्डनकेशवन्धविधायी प्रच्छन्नस्नानमूत्रोचारकारकः प्रमदाकर्मकरणरतिलजालुः पुरुषवर्ग प्रगभश्च स्त्रीसमाज इत्यादिलक्षणलक्ष्य+च, एतेन च दीयमाना भिक्षा न ग्राह्या, अनेकदोषसम्भवात, xयदाह-"आयपरोभयदोसा, अभिक्खगहणम्मि" मिक्षाया इति शेषः,"खोभण नपुंसे लोगदुगुंछा संका,एरिसया नूणमेते वि ॥१॥"
अपवादस्तु बद्धितचिप्पितमन्त्रौषध्युपहत मुनिदेवशप्तादिषु केपुचिदप्रतिसे विनपुंसकेषु* ददत्सु भिक्षा ग्राह्येति ३। तथा 'वेविर' ति 'वेपिता'.किम्पमानशरीरः, प्राकृते च "तुन इर" इति वचनात 'वेविर' इति स्यात् , स हि वेपमानतनुत्वाद्भिधां प्रयच्छन् परिशातन-भाजनभङ्गादीन् दोषान् करोतीति तर्जनं, अपवादतोऽस्मिन्नपि दृढमाजनभिक्षाग्रहे गृह्यत
+ लक्षितश्च "भां, x"यत आह" प.ह.के. य. " णमेएवि" य., " णएमेवि" प.ह, क. णमेपवि" । मुनिना, कोऽर्थः । ऋषिणा देवेन वा शप्ताः सन्तः, कोऽर्थः ! आक्रोशिताः सन्तो ये नपुंसका भवन्ति, तेजित्यर्थः । (दि.अ.) *नपुंसककार्यरहितेष्वित्यर्थः (टि.अ.) "वेपितः" मां.।
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SARKARKC
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| ग्रहणेषणादशके पष्ठं
दयो-
दायकदोष
सप्रमेदम् ।
KARTER
इति ४ । तथा 'ज्वरितो' ज्वररोगवान् , तद्भिक्षाग्रहणे हि ज्वरसमण जनापवादादयो दोपाः स्युरतो न ग्राह्या, शिवज्वरे: तु S! यतनया ग्राह्याऽपीति ५। तथा 'अन्धो विगलितलोचना, तस्य हि भिक्षा ददतः कायवध-स्खलन-पतन-माजनहिमक्तक्षेपण.
जमवचनीयतादयो दोषाः स्युरिति न ग्राह्या, यदि पुनः सोऽप्यन्येन पुत्रादिना विधृतो मिक्षां चाऽन्येनैव घृतां ददाति, तदा पूर्वोक्तदोषाभावाद्ग्रामाऽपीति ६ । तथा 'अव्यक्तो' बालो, जन्मतो वाष्टकाभ्यन्तरवर्ती, स चाऽनभिज्ञत्वात्साधुभिक्षाप्रदाने नाधिक्रियते तज्जनन्यादेः प्रद्वेषसम्भवाच्च, श्रूयते चासोदाहरणं
इह महिगा अमारी, आसेमा सा नियं सुय भाणउं । समणाण दिज भिक्ख-ति तो गया निययखित्तम्मि ॥ १॥ अह मिक्खडा एगो, समागओ तीए मंदिरं समणो । तो धूयाए दिनं, करकरंवाह से सर्व ॥ २ ॥ अवरक्षकालसमए, समागया खंतिया भणइ धूयं । आणेहि पुत्ति ! कूर, जेणं मुंजामि सा भणह ॥ २॥ साहुम्स मए दिन्नो, ता माया भणइ सुट्ट में विहियं । संपइ जं अवसेस, चिइ तं देहि xमझं ति ॥ ३॥ तो धूयाए कहिय, दिन्नं सर्व पि साहुणो अम्मो ।। तो रुट्ठाए तीए, मणियं स पि किं पावे ॥ ४ ॥ तुमए दिन्न ? सा भण-ह साहुणो+जाइअम्मि पुणरुवं । इय सोउं सा रुट्ठा, सामागया सूरियासमि ॥ ५॥ जंपेइ मज्झ गई, मुसियं सई पि साहुणा तुम्ह । तत्तो तीए समक्खं, उवगरणं परिणा हरिउ ॥ ६॥ निच्छुढो सो साह, नियगच्छाओ निवारिओ तीए। पञ्चागयभावाए, पवेसिओ तो पुणो गुरुणा ॥ ७॥ इति, परं बालोऽपि यदि दक्षः स्यात्तदा तेन दीयमानं भिक्षामात्र मात्रादिवचनतःप्रभूतं वा अविचारितमेव ग्राझ ७ा तथा 'मचो' शान्वन्चरे (टि. अ.)।x“मज्झमि" मा.अ.य. " जाइयम्दि" प.ह.क. य.।
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n७६॥
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EASEARCHESERCISCENE
मदिरादिमदविह्वलः, स चाशुचित्वा-लिङ्गना-हनन-भाजनभङ्गकरणादिदोषदुष्टत्वात्साधुभिक्षादानायोग्यः, सोऽपि यदि मनाग मत्तोऽसागारिकप्रदेशस्थः शुचिहस्तः श्रावकश्च स्यात्तदा योग्यः ८। तथोन्मत्तो-हप्तः ग्रहगृहीतादिरस्यापि मत्तोक्तदोष दुष्टत्वाइदतोऽपि भिक्षा न पाया, नवरं यदि सोऽपि शुचिर्भद्रकश्च स्यात्तदा ग्रामाऽपीति ९ । तथा 'छिन्नकरः' कर्चितहस्तस्तथा 'छिन्नचरणो' लूनपादः, एताभ्यां च सकाशाद्भिक्षा न ग्राह्या, दानासमर्थत्वाल्लोकापवादादिदोषसम्भवाच, केवल यद्येतावसागारिकस्थानस्थौ मवतश्छिन्नचरण उपविष्टश्च स्थाचदा ग्राह्याऽपीति १०-११। तथा 'प्रगलितो' गलत्कुष्ठस्तद्भिक्षाग्रहणे हि साधोरपि कुष्ठरोगसङ्क्रान्तिः स्यात् , तदीयोच्छ्वास त्वक्संस्पर्श स्वेद-मल मृत्रोच्चार आहार लालादिभिः शरीरान्तरे तत्सङ्कः मणस्याभिहितम्नाद ततो न माया, दनुसुशिशुद्धिनि नोक्तदोषाभावाद्वाह्याऽीति १२ । तथा 'नियल'त्ति सूचकत्वा| निगडित:-अयोमयपादवन्धनान्वित इत्यर्थः, तथा 'अंदुय'त्ति अत्राऽपि सूचकत्वादन्दुकबद्ध:-दारुमयकरवन्धननियन्त्रित
एवाभ्यां सकाशात्परितापना ऽयतनादिदोषसम्भवाद्भिशा न ग्राह्या, यदि च निगडबद्धः सविक्रमोऽविक्रमथोपविष्टोऽसागारिकप्रदेशस्थो ददाति तदा ग्राह्या, अन्दुकबद्धे च दानशक्तरेवाऽभावान्नाऽस्त्यपवादः १३-१४ । तथा पादुकारूढः काष्ठादि.
मयोपानसमारूढः, स हि भिक्षां प्रयच्छन् दुर्व्यवस्थितत्वात्कदाचित्पतति कीटिकादिसच्चविराधनां च करोतीत्यतः परि&ा हियते, यदि चाचल एवासौ किमपि ददाति तदा गृह्यत एवेति गाथार्थः १५॥ ८५॥ तथा• 'दी०-'स्थविरो' वृद्धः सप्ततिवोपरिवर्ती१, अप्रभु-देयस्यास्वामी २, पण्डो-नपुंसकः ३, वेपिर:-कम्पमानाङ्गः ४, * एकान्तप्रदेशस्थः। श्वेतकोढ (प. अ.) "तापनपतनादिपाह.क. तापनादि" अ. य. I *"चित्प्रपतति" मां.।
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पेण्ड
बुद्धि
रयो
व
७७॥
ज्वरितो - ज्वरार्त्तः ५, अन्धो - दृष्टिरहितः ६, अव्यक्तो - बालो वर्षाष्टकान्तर्वर्त्ती ७, मत्तो- मदिरामदविह्वलः ८, उन्मत्तोहादिगृहीतः ९, एषु द्वन्द्वैकत्वादेकवचनं, इत्थम्भूते दाय के सति भिक्षा न ग्राह्येति योगः । तथा 'छिन्न' शब्दस्य पूर्वनिपाताच्छिमकरमिचरणश्च स्पष्टौ १९, प्रगलितो - गलः १२, निहितो- लोहमयपादबन्धनान्वितः १३, एवं अन्दुकितो - दारुमयकरबन्धनान्त्रितः १४, पादुकारूढः काष्ठादिमयो पानञ्च टितः १५, इति गाथार्थः ॥ ८५ ॥ इदमेवाहखंड पीस मुंजई, कन्ते लोढेई विक्खिणइ पिंजे"। दलई विरोलई जेमई, जा गुब्वैिणि बालवच्छौं य॥
व्याख्या -- अत्र वक्ष्यमाणो 'या' शब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते, ततश्च या काचिन्महिला 'खण्डयति' उदूखलक्षिप्तानि झाल्यादिवीजानि मुशलघातैः श्लक्ष्णीकरोतीत्यर्थस्तया दीयमाना भिक्षा न ग्राह्मा, बीजसवनाद्यारम्भसम्भवात्, " - साऽपि यदि साघुमागतमवलोक्य स्वयोगेनोत्क्षिप्तमलग्नबीजं च मुशलं निरपाय प्रदेशे विनिवेश्य ददाति तदा गृहयते १६ । तथा 'पिनष्टि' शिलायां तिलामलककुस्तुम्बुरुलवण जीरकादि मृद्नातीत्यर्थः, अनयाऽपि दीयमाना न कल्पते, तिलादिसङ्घट्टनसावाजिवाखरष्टितकरप्रक्षालनसम्भवाच्च, यदि तु पेषणसमाप्ती प्रासु वा पिंपती ददाति तदा कल्पते १७। 'भृजति' चनकयवगोधूमादीनग्निप्रतप्तकडिल्लकादौ स्फोटयतीत्यर्थः, तया दीयमानं न कल्पते, कडिल्लकादिप्रक्षिप्तस्य चनकादेदहसम्म बालू यदि चामेतनं चनकादि भृष्टोत्तारितमन्यच करे न गृहीतं स्याचदा कल्पते १८ । तथा 'कर्त्तयति' रूतं सच्चक्रेण सूशं करोतीत्यर्थः १९ । तथा 'लोठयति' कर्पासं लोठिन्यां कणकेन निरस्थिकं करोतीत्यर्थः २० । तथा 'विक्खिण ' त्ति 'विकीर्णयति' रूतं कराभ्यां पौनःपुन्येन लक्ष्णयति २१ । तथा 'पिञ्जयति' रूतं पिञ्जनेन मृदूकरोति २२ । एतामिश्र
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ग्रहणपण दशके घ
दायकदो सप्रमेद
॥ ७७ ॥
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तसभिरपि दीयमानं न कल्पते, कार्पासास्थिकसट्टन-देयवस्तुखरण्टितहस्तधावनादिदोपसम्भवात् , यदि च कर्त्तयन्त्यपि सन्न तन्तुश्चेतताविधायिना शचूर्णेन हस्तौ न धवलयति, धवलितौ वा शौचानाग्रहशीलतया मिक्षा दया न प्रक्षालयति. लोटगन्ती विकीर्ण यन्नी मिजयन्ती च कार्यासं तदस्थिकांश्च न सट्टयति, देयद्रव्यखरण्टितकरधावने जलं च न विराध यति तदा कल्पत इति २२ । तथा '+दलति' सचित्तगोधूमादिवान्यं घरटेन पिनष्टि, इयं हि भिक्षादानायोतिष्ठन्ती बीजानि सबपति दत्वा च करौ प्रक्षालयतीति न गृह्यते, यदि च खयोगेन मुक्तदलनव्यापाराऽचेतनं वा किश्चिद्दलन्ती ददाति दत्त्वा च हस्तप्रक्षालनं न करोति तदा गृह्यत इति २३ | तथा 'xविलोलयति' करमन्धनादिना दध्यादि मध्नाति, सा हि संसक्तदध्यादिलिसकरा भिक्षां ददती सच्चवधं विदध्यादिति न गृह्यते, यदि चासंसक्तदध्यादिकं मथ्नन्ती दद्यात्तदा गृह्यत इति २४ । तथा 'जेमई' ति 'जेमति' मुझे-ऽम्यवहरतीत्यर्थः, भुञ्जाना याचमनं विधाय यदि साधुम्यो दद्यात्तदाऽप्कायविराघना, अथैतदोषमयातदकत्वैव वितरेचदोच्छिष्टमप्येते न स्यजन्तीत्यादिजनापवादः स्यात्तत्र च महान्दोषो, यदाह-"छक्काय-1 दयावंतो, वि संजओ दुल्लहं कुणह बोहिं । आहारे निहारे, दुगुछिए पिंडगहणे वा ॥१॥" इत्यतो न करपते, यदि च कवलं मुखेऽक्षिपन्ती तदा चोपनतसाघुम्य उत्थाय दद्याचदा कल्पत इति २५। तथा.या काचिन्महिला गुपियपिनसवा स्यात्तत्सकाशाद्गच्छनिर्गता जिनकल्पिकादयः प्रथमदिनादारभ्य भिक्षा न गृहन्त्येव, स्थविरकल्पिकास्त्वशैमासान यावद्वन्ति, नवममासेतु निषीदनोत्थानाभ्यां दीयमानं न गृहन्ति, गर्मपीडासम्मवाद, स्वमावस्थितया
+" लयति" य.! " विरोळ्यवि" ह. क.।
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पिण्ड-है तु दीयमान गृहन्त्यपीति २६ । तथा बालबत्सा' स्तन्योपजीविशिशुका, चः समुचये, तया दीनमानं न कल्पते, निक्षि- गृहणेषणाविशुद्धि
कप्तवालस्य मार्जारादिभ्यो विनाशसम्भवात् , निक्षिप्य माणस्योक्षिप्यमाणस्य चातिसुकुमारत्वेन परितापनासम्भवाच्च । अत्र दशके षष्ठं टीकाद्वयो
चाये वृद्धसम्प्रदाय:-गच्छवासिनो गदिश्रीराहारहरफ विजन निक्षिय जनगी ददाति, तदा रोदितु वा मा वा, नादायकदो पेतम्
गृहन्ति, अथाऽन्यदपि पीहकाबाहारमाहारयति पिचंश्च निक्षिप्तस्ततो यदि न रोदिति तदा गृहन्ति, अथ रोदिति ततो न सप्रमेदम्
गृहन्ति, अथ स्तन्यजीवी इतरोबाऽपिवानेव निक्षिप्तस्ततो यदि न रोदिति तदा न परिहरन्ति, अथ रोदिति ततः परिहरन्त्ये॥७८|| वेति । गच्छनिर्गताः पुनर्जिनकल्पिकादयो यावत् स्तन्यजीवी बालकस्तावत् पिबन्नपिचन्नेव वा निक्षिप्यतां रोदितु वा मा
वा, न गृहन्त्येव, यदा चाऽन्यदयाहारयितुमारब्धो भवेत्तदा यदि पिबन्त्रिाक्षेप्यने, ततो रोदितु धा मा वा न गृहन्स्येवाडथाऽपिबन्नेव निक्षिप्तस्ततो यदि रोदिति तदा परिहरन्त्येवाऽथ न रोदिति ततो न परिहरन्ति २७ । इति गाथार्थः ।। ८६ ॥
दी०-या स्त्री 'खण्डयति' उद्खलमृशलैः सचिचं श्लक्ष्णयति १६, पिनष्टि-जोर कादि मृदाति १७, भृञ्जति चणकादीस्तसकडिहल्लकादौ+ स्फोटयति १८, कर्तयति-पूणिकाः सूत्रीकरोति १९, लोह पति-लोरिन्या कणकन कर्षासं निर्वाजयति | २०, विकीर्णयति-कराभ्यां पुनःपुनस्तूलक सूक्ष्मयति २१, पिञ्जयति-रूतं पिञ्जनेन मृदु करोति २२, दलति-घरदेन सचित्र पिनष्टि २३, विरोलयति-दध्यादिमध्नाति २४, जेमति-भुड़े २५, या काचिन्महिला गुर्षिणी-अष्टमासिकमर्भा, जिनकल्पिकादयः प्रथममासगर्भामपि त्यजन्ति २६, बालवत्सा च-स्तन्योपजीविशिशु केति २७ गाथार्थः ।। ८६॥ अत्रैवाह
*" अवलेही " इति पर्याय अ पुस्तके | + " “प्तकदिवल्लकादौ " का
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तथातह छक्काए गिण्हेंई, घट्टेई आरभैइ खिवैइ दट्ठ जई। साहारण-चोरियग, देइ परकं पैरेंटुं वा ॥८७॥ ____ व्याख्या-तथेति समुच्चये येति पदं सर्वत्रेहाऽपि सम्बध्यते, ततश्च या काचिदगारिणी 'षटकायान्' लवणो-दका-ग्निपवनपरितति-फल-मत्स्यादिजीवसमूहान, किमित्याइ-'गृहणाति' हस्ताभ्यामादत्ते, तया दीयमानं, न कल्पत इति सर्वत्रायोजनीयं २८ तथा 'षट्टयति' षटकायानेव शेषशरीरावयवैः सङ्घट्टयति, अयमर्थः-कारोपितबदरकरीरजपाकुसुमदाडिमपुष्पादीनि मस्तकस्थितसिद्धार्थराजिकाशतपत्रिकाकुसुमादीनि गलावलम्बिताम्लानमालतीमालादीनि परिधानाधन्तरस्थापितसरसवन्तताम्बूलपत्रादीनि च शरीरेण चलयतीति २९ । तथा 'आरमते' षटकायानेव विनाशयति, तत्र खननमर्दनादिना पृथिवीकायं मजनवनधावनादिनाऽकार्य उन्मुकषट्टनादिनाग्निमुष्णभक्तादेः फुत्करणादिना मारुतं फलादेः कर्त्तनादिना वनस्पति स्फुरन्मत्स्यादिच्छेदनादिना सकार्य विराधयतीति भावना ३० । तथा 'क्षिपति' प्रकृतपटकायानेव भूम्यादौ मुञ्चति, किं कृत्वेत्याह-'इष्ट्वा' अवलोक्य, कानित्याह- यतीन्' साधून, यतिमिक्षादानबुद्धथेति तात्पर्यम् ३१ । तथा 'साधारणं' बह्वायत्त, तद्ददातीति योगा, तत्र च साधारणानिसृष्टवदोषा वाच्याः ३२ । 'चौरितकं. चौरिकया गृहीतं 'ददाति' मत्यादिना साधुभ्यः प्रयच्छति, तत्र च दोषाः प्रतीता एव ३३ । तथा 'पराक्यं परसत्कमथवा 'परार्थ परनिमित्तं, कार्यटिकादिदानाय कल्पितमित्यर्थः। 'वा' विकल्पे, ददाति । अत्र च परसत्के तत्स्वामिनाऽननुज्ञातेऽपरभिक्षाचरदानाय कल्पिते च दीयमानेऽदत्तादानान्तरायादयो दोषाः स्यः ३४-३५ । इति गाथार्थः ।। ८७॥ तथा
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बुद्धि
ष णादशके पार्छ दायकदोपनिरूपण
पेतम्
दी-तथा या स्त्री पद्जीवनिकायान् गृहाति हस्ताभ्यां २८, पद्यति-तानेव शरीरस्पर्शादिना २९, आरभते-पटकाय पाकाबर्थ विनाशयति ३०, क्षिपति-दृष्ट्वा यतीन भिक्षादानोयता पट्कायं भूमौ मुश्चति ३१, माधारण-बाय ३२, धौरितक-चौरिकया गृहीतं ३३, ददाति, तथा 'पराक्यं परकीयं ३४, अथवा 'पराध कार्पटिकादीनां कल्पितं ३५, ।
इति गाथार्थ: ।। ८७॥ अस्मिवाहगठवइ बलि उत्तइ, पिढराइ तिहा सपञ्चाया जा ।देंतेसु एवमाइसु, ओहेण मुणी नगिण्हति ॥८॥
व्याख्या-इहापि येति पदं प्रतिपदं सम्बन्धनीय, ततश्च या काचिनारी 'स्थापयति' साधुदानायोचता सती मूलस्थालीतः समाकृष्य स्थगनिकादौ न्यस्यति, किमित्याह-'बलि' उपहार-मग्रकूरमित्यर्थः, तया दीयमाना भिक्षा न कल्पते, प्रवर्सनादिदोषसम्भवात् ३६ । तथा 'उद्वर्गपत्ति' साधुदानबुद्ध्या परावर्त्तपति-नमयतीत्यर्थः। किं तदित्याह'पिठरादि' स्थाल्यादि, अत्र च कीटिकादिसच्चषातः स्यात् ३७। तथा 'त्रिधा' ऊवधिस्तिर्यम्लक्षणैत्रिभिः प्रकारः 'सप्रत्यपाया' काष्ठकण्टकमवादिभ्यः सकाशात्सम्भाव्यमानामिघाताबनर्था या काचिदनिता स्यात्सया दीयमानं न फल्पत इति ३८ । इह च कण्डनादिव्यापारस्य तदुचितत्वादानप्रवृत्ती च प्रायस्तासां मुख्यत्वाच+कण्डपतीत्यादिना स्त्रीणां विशेषणानि विहितानि, न तु पुरुषादीनां व्यवच्छेदकानि, ततो लिख्यत्ययेन पुरुषाणामुचितनपुंसकानां च यथासम्भवमेतान्यायोजनीयानि । अत्राऽऽह-ननु म्रक्षितसंहृतानिसृष्टादिष्वपि द्वारेषु पद्कायान् गृहातीत्यादिद्वाराणां केषाञ्चिदर्थो व्याख्यात
४ भा. क. म. । “उयत्त" अ. य. | " ओयत्तइ " प.ह.। + " कण्डसीत्यादिना" अ.प.ह.क. य.।
॥७९॥
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REKHENGE
एव, तरिक पुनरिह तद्भणनेन ? इत्युच्यते-तत्र प्रक्षितादिद्वारानुरोधेनेह तु दायकद्वारवशेनेत्यदोषः । न चैकस्यापि वस्तु-* नोउमेदोपनियासोकापाय जरूप रयापत्र तत्र प्रसिद्धत्वादेवमन्यत्रापि लक्षणासाङ्कर्ये समाधान चाच्यमिति । एवं दायकानभिधायाऽर्थतेषु ददत्सु साधुभिर्यद्विधेयं तत्साक्षाद् ग्रन्थकार एवाभिधातुमाह 'दितेमुं' इत्यादि 'ददत्सु' वितरत्स्वेवमादिषु स्थविराप्रभुप्रभृतिष्वादिशब्दात् पदकायान् पादाभ्यामवगाहमानासंसक्तद्रव्यलिप्तकरमात्रेत्यादीनामागमोक्तदादविशेपाणां ग्रहः, 'ओपेन' सामान्येनोत्सर्गप्पेत्यर्थः, अपवादतस्तु यथासम्म गृहन्त्यपि । अयं चार्थः प्राग्भावित एवेति न पुनः प्रतन्यते । 'मुनया' साधनो 'न' नैव 'गृहन्ति' स्वीकुर्वन्ति, भक्तादीति गम्यत इति गाथार्थः ।। ८८ ।।
अथोन्मिश्रद्वारं विवरीतुमाह
दी०-या स्त्री साधुदानोद्यता स्थालितः स्थापयति, 'पलिं' अग्रकर ३६, उदयति-नमयति 'पिठरादि'स्थाल्यादि ३७, तथा 'त्रिधा' ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लक्षणैलिमिः प्रकारैः 'सप्रत्यपाया' काष्ठकष्टकगवादिभ्यः सकाशात्सम्भाव्यमानामिघातायनर्था या स्त्रीति ३८, इह ख(क)ण्डयतीत्यादिषु प्रायः स्त्रीणां मुख्यत्वात्तद्विशेषणानि कृतानि । तथा च प्रक्षितानिसृष्टादिदोषाणां केषाश्चिदर्थः पुनरुक्तोऽप्यत्र दायकाश्रितत्वान दुष्टः, तथा स्खलनासमाधानलोकापवाद+प्रवृत्तिरोगसङ्कमषटायविराधनादयो दोषा यथाईमेवेषु मावनीयाः। एवं ददत्सु 'एवमादिषु' स्थविरादिदायकेषु, आदिशन्दादन्येष्वपि तद्विधदोषदुष्टेषु 'ओषेन' 'उत्सर्गण मुनयो भक्तादि न गृहन्ति, अपवादतस्तु तद्विधदोषासम्भावनायां गृहन्तीति गाथार्थः ।। ८८॥ +" . प्रवादाप्रवृत्ति "क " . पवादाप्रभृति "०" पवादप्रभृति" अ०।
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AA
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शुद्धि प्रद्वयो
गृहणेषणादशके सामममुन्मिश्र
पेतम्
दोषनि
| दर्शनम् ।
८०॥
HERA-
GS*XAKAR
अथोन्मिश्राख्यमाहजोग्गमजोगंच दुवे,वि मीसिउं देइ जंतमुम्मीसं। इह पुण सञ्चित्तमीसं,न कप्पमियरम्मि उविभासा।
व्याख्या-'योग्य' साधुदानोचितमोदनादि, तथा अयोग्यं तद्विपरीतं सचेतनं तुषादि वा, चः समुच्चये 'द्वे अपि' द्विसङ्ये अपि वस्तुनी 'मिश्रयित्वा' एकीकृत्य, इह च मिश्रणं मीलनमात्रमेवाऽवसेयं, न तु करम्बीकरणं, तस्य कृतौदेशिकत्वेनामिहितत्वात् । उन्मिश्रणं चाऽनामोगेन, केवलं दीयमानं स्तोकं स्यादिति लज्जया, पृथग्दाने वेला लगतीत्यौत्सुस्येन, मीलितं मिष्टं स्यादिति मत्या, नियमभङ्गो भवत्येतेषामिति प्रत्यनीकतया वा कुर्यादिति | किमित्याह-'ददाति' यतिम्यो वितरति, गृहस्थ इति गम्यते, यत्तदुन्मिश्र-मुन्मिश्राभिधानमुच्यत इति शेषः, इह पुन-रत्रोन्मिश्रे पुनः सचित्तमिश्र-चीज-कन्द-इरितादिमिश्रितं देयद्रव्यमपि दाच्या दीयमान, किमित्याह 'न'नैव 'कल्प्यं' कल्पनीयमितरस्मिंस्तुअचित्तमिश्रे पुनर्विभाषा-तत्किश्चित्कल्पनीयं किञ्चिन्नेत्येवलक्षणा विकल्पना, स्यादिति शेषः, एतदुक्तं भवति-अत्रापि सचि. तेन सचित्तं मिश्रितं १, एवमचित्तेन सचित्र २, सचित्तेनाऽचिन ३, अचित्तेनाऽचित्तं ४, इत्येवं लक्षणाश्चत्वारो भङ्गा मवन्ति, तेषु च मध्ये आद्यमङ्गत्रये न कल्पते, देयद्रव्यस्य सचित्तमिश्रत्वेनाकल्पनीयत्वात, चरमभङ्गसत्कयोश्च स्तोकबहुपदसमुत्थयोः प्रथमतृतीयभङ्गकयोः संहृतदोषोक्तविधिना कल्पत इति गाथार्थः ।। ८९ ।।
साम्प्रतमपरिणतदोषमभिवातुमाहदी०-'योग्य साधूनामुचितं देयं वस्तु 'अयोग्य तद्विपरीतंवे अपि 'विमिश्य एकीकृत्य अनाभोगात्स्तोकत्वा
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ROGRESEASE
॥८
॥
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दौत्सुक्यात्प्रत्यनीकत्वाद्वा ददाति यद्देयं तदुन्मिश्राख्यं स्यात्, इहोन्मिश्रे पुनः सचित्तमिश्रं न कल्प्यं, अशुद्धत्वात् इतरस्मिस्त्वचितमिश्रे 'विभाषा' किञ्चित्कल्पते किञ्चिन्नैवेति कोऽर्थः १ सचित्ताचित्तयोमिश्रत्वे चतुर्भद्भ्यां संहृतवत् स्तोकबहुपदमेदादचित्तमिश्रस्य चतुर्विधत्वे प्रथमतृतीयभङ्गमवं कल्पत इति गाथार्थः ॥ ८१ ॥ अथापरिणतारूपमाहअपरिणयं दव्वं चिय, भावो वा दोपह दाणि एगस्स । जइणो वेगस्स मणे, सुद्धं नऽन्नस्स परिणमियं ॥ ९०॥
व्याख्या – 'अपरिणतं' अपरिणताभिधानं किमुच्यत ? इत्याह 'द्रव्यमेव' दातव्यं वस्त्वेवाऽप्रासुकमिति 'भावो वा' अध्यवसायो वेत्यथवाऽऽपरिणतोऽनभिमुखो 'द्वयो'द्विसङ्ख्ययोः स्वामिनीमध्यादेकस्येति योगः क विषये १ इत्याह- 'दाने ' दानविषये 'एकस्याऽन्यतरस्य दातुः 'यतेर्वा' साघोर्वेत्यथवा 'एकस्य' भिक्षागत साधुसङ्गाटकमध्यादन्यतरस्य 'मनसि' चेतसि 'शुद्ध'मे तलभ्यमानमशनादि निर्दोष, परिणतमिति योगः । 'न' नैवा'ऽन्यस्थ' द्वितीयस्य साधोः 'परिणमित्र'ति 'परिणत'गतिमागतं । इह च दातृभावापरिणतस्याऽनिसृष्टस्य च दादसमक्षासमक्षस्त्रकृतो विशेषोऽवसेय इति गाथार्थः ॥ ९० ॥ अथ लिप्तदोपवित्ररणाय सपादगाथा माह
दी० - अपरिणतं स्याद्द्रव्यमेवाप्रासुकं अथवा 'भावो' अध्यवसायो 'द्वयो' देयस्वामिनोर्मध्या' दाने' दानविषये 'एकस्य' अपरिणतोऽनभिमुखः, यतेर्वा - साधुसङ्घाटकमध्यादेकस्य मनसि शुद्धं परिणतं नैवान्यस्य तद्वितीयस्य, इह दातृ'भावापरिणतस्यानिसृष्टस्य च दातृसमक्षासमक्षत्वकृतो विशेष इति गाथार्थः ॥ ९० ॥ अथ लिप्ताख्यमाह - दहिमाइले जुत्तं, लित्तं तमगेज्झमोहओ इहई । संसृट्ठमत्तकरसा-वसेसदद्देहिं अडभंगा ॥ ९१ ॥
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नX
एत्थं विसमेसु घिप्पड़,
है ग्रहणैषणाविशुद्धि
व्याख्या-मकारस्याऽऽगमिकत्वाद्दध्यादि' दक्षिीरतक्रतीमनप्रभृति 'लेपयुक्त' लेपवत , किमित्याह-'लिप्त लिप्ता- दनके नरम टीकाद्वयो-ठा ख्यमुच्यत इति शेषः। ''ति, पुनरित्यस्याच्याहारात्तत्पुनर्लिप्त, किमित्याह-'अग्राह्यं अनादेयं, कि सर्वथा ?, नेत्याह-मालिसदोषपेतम् 'ओधतः' सामान्यत:-कारणं विनेति यावत्, यदाह-"घेतब्बमलेवकर्ड, लेवकडे साह 'पच्छकम्माई ।" निरूपणम्।
अलेपवतो गुणमाह--" न य रसगहिपसंगो, न य भुत्त बमपीला य ॥१॥" अलेपकारि चेह शुष्कौदनमण्डक॥८ ॥
सक्त्तुकल्माषवल्लचनकादिकं विवेयं । आह-यद्येवमलेपकार्यपि न +ग्रहीतव्यं, तत्राऽपि कियतामपि दोपाणां सम्मवात, xको वा किमाह ? न केवलमलेपमपि न ग्राह्य, भोजनमपि न कर्तव्यमेव, यदि संयमयोगानां हानिर्न स्यान्नवरं-तदन्तरेण शरीरस्थितेरेवासम्भवात्सैव दुर्निवारेत्यत उत्सर्गतोऽपि तदनुवातं, यदाह-"जह पच्छकम्म दोसा, हवंति मा चेच भुजउ समणो।" आचार्या:-"तवनियमसंजमाण, चोगगहाणी खमंतस्स ॥ १॥"ति । 'इहइंति, चवन्दाच्याहारादिह चा-न च लिप्तेऽष्टौ भनाः म्युरिति योगः, कैः कृत्वेत्याइ-'मात्रं च भाजनं 'करच हस्तो मात्रकरो, संसृष्टौ च तौ दम्यादिलेपवद्र्व्यलिप्तौ मात्रकरौ च संसृष्टमात्रकगै, नौ च 'मावशेषद्रव्यं च दत्तोद्धरितवस्तु, तानि तथा, संसृष्टमात्रकरसावशेषद्रव्यैः, किमित्याह 'अष्टौ अष्टसळया 'मना' विकल्पाः स्युरिति शेषस्ते चाभी-संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रं सावशेषं द्रव्य १ । संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्र निरवशेष द्रव्यं । संसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं मात्रं सावशेष द्रव्यं ३ । संसृष्टो इस्तो+ मा. अ.। " गृहीतव्यं " प. ह. क. य. I X आचार्यः प्राह-इति पर्यायः अ. पुस्तके ।
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संसृष्टं मात्रं निरवशेषं द्रव्यं ४ । असंसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्र सावशेषं द्रव्यं ५ | असंसृष्ट हस्तः संसृष्टं मात्रं निरवशेषं द्रव्यं ६ | असंसृष्टस्तोऽसंसृष्टं मात्रं सावशेषं द्रव्यं ७ | असंसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं मात्रं निरवशेषं द्रव्यमिति ८ । 'एत्थ त्ति चन्दाध्याहारादत्र चैतेषु चाष्टसु मङ्गकेषु मध्ये 'विषमेषु' प्रथमतृतीयादिषु मङ्गकेषु 'कल्पते' ग्रहीतुं युज्यते, स्वयोगेन असंसृष्टयोशप करमात्रयोः सविशेषद्रव्यताया लेपवद्रव्यभिक्षाया अपि ग्रहणे कथञ्चित्पश्चात्कर्मदोषस्य परिहर्तुं शक्यत्वात्, न तु समेषु, निश्वशेषद्रभ्यतया स्थाल्यादिधावनतः पश्चात्कर्मदोषस्य तत्र सम्भवादिति सपादगाथार्थः ॥ ९१ ॥
अथ छर्दितदोषाभिधानाय प्रथमपादोनगाथामाद
दी० - दधिक्षीरतक्रतीमनप्रभृतिलेपयुक्तं लिप्तारूयं स्यात् तत्पुनरब्राझं 'ओघतः' कारणं विना, इह च लिप्तारूयेऽष्टौ भङ्गाः स्युरिति योगः । कैः कृत्वा ? इत्याह- 'संसृष्टौ ' दध्यादिलिप्तौ 'मात्रकरी' भाजनहस्तौ 'सावशेषं द्रव्यं' दत्तोद्धरितं, तैः, यथा - संसृष्टौ मात्रकरो. सावशेषं द्रव्यं १, तौ तथैव निरवशेषं द्रव्यं २, हस्तः संसृष्टो न मात्रं. सावशेषं द्रव्यं ३, चतुर्थोऽप्येवं निरवशेषं द्रव्यं ४, असंसृष्टथे हस्तो न मात्रं. सावशेषं द्रव्यं ५, षष्ठोऽप्येवं निरवशेषं द्रव्यं ६, असंसृष्ट मात्रहस्तौ सावशेषं द्रव्यं ७, तौ तथैव निरवशेषं द्रव्यं ८, इति गाथार्थः ॥ ९९ ॥ एषु शुद्धत्वं छर्दिते दोषत्वं चाहछड्डियमसणाइ होंत परिसार्डिं । तत्थ पडते काया, पडिए महुबिंदुदाहरणं ॥ ९२ ॥
व्याख्या- 'छर्दितं' छर्दिवाभिधानं किमुच्यत ? इत्याह- 'अशनादि' यद्भक्तपानप्रभृति 'भवत्परिशाटि' भूमौ परिपत दवयवं सहाव्या दीयते, तदिति । 'तत्थ'त्ति चस्य गम्यमानत्वा'तत्र च ' तस्मिंश्च प्रकृतवस्तुनि दीयमाने 'पति' दाठ्भाजनात्प
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हमके दाम
पिन #रिनश्यति मनि, किमित्याह-काया:' पृथिव्यादिजीवममहाः, विराध्यन्त इति गम्यते । 'पहिपनि चन्दाध्यादागम्पनिने i# ग्रहणपनाविदिच-भूमिगने च, किमिन्याह-'मधुविन्दाहरणं' पुष्प[मधु-मिष्टान्न ग्यलबष्टशन्तोऽनेकदोषपरम्परावेदकं वान्यं, नवेदमरोकाइयो-४ पाए नयरीए, मित्तपहो नाम नम्बई होन्था । तम्म य मजा मोह-गमंदिरं धारिणी देवी ॥१॥ नन्वच मन्य- छदिनदोषपेतम् बाहो, घणमित्तो धणसिरी य से मा। ओबाहयप्पमावा, तीसे पुचो वरो जाओ॥२॥ तो लोगो मणइ इम, एयंमि
स्वरूप ॥८२॥
कुलंमि धणसमिळूमि । जो जाओ तस्म जए, सुजायमयम्म प्रत्चम्म ॥३॥ ततो अम्मापियरी, वोलीणे चारसंमि दिवसंमि । मोदाठाविसु तम्स नाम, गुणनिष्फ सुजाओ नि !! ललिगमणि ग, देवमानोरमो मओ बुद्धिं । अम्मापिडगुणणं,
हरणम् । संजाओ सावओ परमो ॥ ५॥ तत्व धम्मघोसो, निवमः मंत्री पियंगुनामण । तस्म य मञ्जा गुणस्व-विम्हिया तो मुजायस्स ।। ६॥पमण दासिं जाहे, अणेण मग्गेण मोउगन्छेजा । ताहे मम माहेजह, जेण अहं तं पलोएमि ॥७॥ अह मिचविंदमहिओ, अन्नदिणे एह तेण मम्गेण । तो दामीए कहिए, अति पियगू पलोएह ।। ८ ।। अन्नाहि सवचीहि य, । पलोइओ सायरं पियंगू वि । पमणइ पन्ना मच्चिय, नारी जीसे वरो एसो ।। ९ ।। अह अनया कयाई, सुजायवेसं करितु सा रमई । बमाण सक्तीणं, मज्झे तब्बयणचेद्वाहि ।। १०॥ एन्थावमरे मंती, ममागओ नियुणनि कलिऊणं । सणियं उबसप्पेठ, कवाडलिद्देण पिच्छेह ।। ११ ।। अंत उरं समग्ग, दटुं मोउं च तम्स वावारं । चिंतेइ मये नूर्ण, विषहमेयं परं भिजे ॥ १२ ॥ रहसे होही सहरं, ता छन चेव अच्छउ इमं ति । कुविएण सुजायम्मी, कुडे लेहे नरवहस्स ॥ १३ ॥ दंसिट कोयमुपा-मम लोमाववायमीएका लेहं समप्पिऊणं, विसजिओ सो अमोणं ॥ १४ ॥ नयरीए अम्खुरीए, चंदनायराइमो
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सममि । पतोय तत्थ दिट्ठो, रचा तो चिंतियं एवं ।। १५ ।। अच्छउ ता वीसस्थो, मारेयवो इमो उवारणं । एत्थ रमतेणं, नाऊणं तस्स आयारं ॥ १६ ॥ परिचितियमणेणं, किह रूवं एरिसं विणासेमि १ । उस्सारिता सवं, कहेइ लेहं च दरिह || १७ || भणियं च सुजाएण वि, जं जाणसु तं तुमं करेह त्ति । न तुमं मारेमि अहं, पच्छन्ने नवरमच्छाहिं ॥ १८ ॥ इयमणिऊण रमा, चंदजसानामिया निया भगिणी । तयदोमदूसियतणू, दिना अह भोगदोसेणं ॥ १९ ॥ बडे आरद्धो, तयदोसो सो सुजायदे हे चि । ईसीसि संकंतो, तो सा चिंतह नियमणे एवं ॥ २० ॥ एसो मम धम्मगुरू, निरुवमसोहम्म संपयासहिओ | मज्झ करण विणडो, घिरत्यु !!! मे कामभोगाणं ॥ २१ ॥ संवेगसमावन्ना, पच्चक्खड़ जावजीवमादारं । मरिडं जाओ देवो, सम्मं निजामिया तेणं ॥ २२ ॥ ओहिं पउंजिऊणं, समागओ वंदिउं भगह भगसु । किं ते करेमि ? सो वि डु, ति संवेगमावो ॥ २३ ॥ चिह्न अम्मापियरो, जइ पेच्छं पवयामि तो नूणं । तत्रभावं नाऊणं, देवेण तओ सिला विउला || २४ || नयरप्यमाणमित्ता, विउडिया नायरा तओ मीया । धूयकड़ुच्छय - हत्था, पायावडिया पअंपंति ॥ २५ ॥ भो ! खमे सो जस्स, किंचि अहेर्हि चिट्ठियं दुहुं । देवो मासेह तओ, हा दासा !! कत्थ बच्चेह १ || २६ ॥ पावेण अम, सुसावओ दूसिओ अकज्जेणं । चूरेमि अज तुम्मे, नवरं जड़ तं समाणेह ॥ २७ ॥ खामेयह तो छुट्टह, पुट्ठो सो कित्थवं पोषणं । उखाणगओ चिह्न, कहिओ देवेण तो झति ॥ २८ ॥ नागरजण सहिएणं, रत्रा गंतून स्वामिओ
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छर्दिते
पिण्डविवादि० टीकाद्वयो
HIROERSAR
घमघोषमन्त्रिश्रमणोदाहरणम् ।
पेतम् ।
॥८३॥
तत्व । सो विहु अम्मापियरो, रायाणं तह य पुच्छेउं ॥ २९ ॥ पंवइओ तो पच्छा, अम्मापियरो वि काउमणवजं । पबलं पत्ताई, सिद्धिपर्य विगयसवमयं ॥ ३० ॥ मंती वि धम्मघोसो, निविसओ कारिओ नरिंदण । निव्वयं आवन्नो, अहो !!! मए पावकम्मेणं ॥ ३१ ॥ अचंतदारुणेसुं, आसीविससंनिमेसु भोगेसु । लुद्धण इमं विहियं, ति निग्गओ हिंडमाणो उ ॥ ३२ ॥ रायगिहे संपचो, थेराणं अंतिए य पवइओ । गीयस्थो वि य जाओ, विहरतो तो मओ भगवं ।। ३३॥ वारचपुर नगरं, वस्थाऽभयसेणराइणो तणओ। वारत्तओ अमचो, तस्स गिहे मिक्खवेलाए ॥ ३४ ॥ संपत्तो जा चिटुइ, ता दाणनिउत्तऽमच्चमणुएणं । पायसथालं मरियं, उवणीयं महुपयसणाहं ।। ३५॥ पडिओ य तओ बिंदु, छड्डियदोसो त्ति निग्गओ साहू।
ओलोयणोपविट्ठो, दई वारत्तओ एवं ।।३६।। किं कारणं? न महिया, अणेण मुणिणा इमा पवरभिक्खा । इय जा चिंतइ ता तत्थ, मच्छियाओ निलीणाओ ॥ ३७॥ ताओ घरकोइलिया, पिच्छइ त सरहु तं पि मजारो | तं पञ्चंतियसुणओ, तं पिय वस्थवगो सुणओ ॥ ३८ ॥ ते कलईते दद्वं, उवडिया तेसि सामिणो तेसिं । जाया मारामारी, बाहिं च विणिग्गया तत्तो ॥ ३९ ॥ पाहुणगा वि हु सबलं, पिडित्ता आगया पुणो तत्थ । तेसिं भंडताणं, जाओ य महाऽऽहवो पच्छा ।। ४०॥ वारत्तगो विचितइ, एएणं कारणेण नो गहिया । भिक्खा मणोहरा वि हु, तो य सुहभावजोनेणं ॥११॥ जाय जाईसरणं, संबुद्धो देवयाए उबगरणं । उवणीयं सर्व पि हु, जाओ वारत्तगो समणो ॥ ४२ ॥ विहरतो य कमेणं, संपत्तो सुंसुमारनयरेमि । तहिं धुंधुमाररबो, अंगारवइति नामेणं ।। ४३ ।। धृया समस्थि सा वि हु, सुसाविया वायनिजिया | तीए । परिवाइया पओसं, आवन्ना चिंतए एवं ॥ ४४ ॥ पाडेमि सबत्तिजणे, एयं पंडिच्चगधियं तत्तो । चित्तफलए लिहिता,
252
NA
11८३॥
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पजोनिक्स उवणीया ॥ ४५ ॥ दहुं पञ्जोएणं, तीसे रूत्रं मणोहरं दूरं । पुट्ठाए सीए कहियं, दूयं पेसेह सो ताहे ॥ ४६ ॥ गंतू तेण कहियं, वयणं पज्जोयराइणो तनयं । देहि नियं मे धूयं भवाहि वा जुज्झसज्जो चि ॥ ४७ ॥ तो धुंधुमाररना, इय सोउं को पूरियमणं । सो निच्छूढो गंतुं, सविसेसं कहइ निपरन्नो ।। ४८ ।। तो आसुरुतचित्तो, सद्वेण बलेण आगओ तुरियं । वेदेह संमारं, नयरं अह धुंधुमारो वि ।। ४९ ।। अप्पाणं अध्पवलं इयरं च महाबलं कलेऊ । भयभीओ मज्झगओ, पुच्छ नेमित्तियं किंपि ॥ ५० ॥ सो वि निमित्तनिमित्तं चच्चरमज्यंमि गंतु भेसेइ । डिंभाणि ताणि तत्तो, भीयाणि पलायमागाणि ।। ५१ ।। नागघरमज्झपरितं ठियस्म वारन्तगस्स पासोंमे । पत्ताणि तओ सहसा, मा बीदह तेण भणियाणि ॥५२॥ नेमित्तिएण रनो, कहियं तुझं जओ ने संदेहो । वीसस्थाणं उवरिं, पडिओ गंतूण मज्झहे || ५३ ॥ गहिऊणं पज्जोओ, नीओ नयरीए मज्झभागंमि । उचमपुरिसो एसो, अंगारवई तओ दिना ॥५४॥ नयरं हिंडतेणं, अप्पबलं धुंधुमाररायाणं । द पोएणं, अंगारबई तओ मणिया ॥ ५५ ॥ भद्दे ! तुह जणणं, अप्पयलेणं कई अहं गहिओ । सा साह मुणिवयणं, गओ य सो साहुमूलंमि ।। ५६ ।। भणमाणो नेमित्तिय खमणं वदामि सो य उपउचो । आपवजं पेच्छर, वेडगसं बइयरं नवरं ॥ ५७ ॥ इत्यलं प्रसंगेनेति गाथार्थः ॥ ९२ ॥
इत्युक्ता उद्गमोत्पादनाग्रहणैषणादोषाः, साम्प्रतं तु त एव यत्प्रभवास्तदर्शनार्थं ग्रासैषणादोष सङ्ख्याप्रतिपादनार्थं चाऽऽहदी० -- एषु च 'विषमेषु' प्रथमतृतीयादिमङ्गेषु भक्तादि गृह्यते, पश्चात्कर्मादिदोषरहितत्वात् । अथ छर्दितमुच्यते यदx" तु सम्मं निरइयारं, अणुट्टाणं काऊण काले सिद्धी त्ति " श्रीचन्द्रीयवृतौ ।
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पिण्ड
शुद्धि ० | काइयो
पेतम्
८४ ॥
नाद 'भवत्परिशादि' भूमौ पतत्तदवयवं 'तदिति तस्मिथ- दातुः कराद्भूमौ पतति सति 'कायाः पृथिव्यादिजीवसमूहा, विराध्यन्त इति । 'पति' बन्दा, यथा-कथिद्धर्मघोषाख्यो मन्त्रीं गृहीतव्रतो विहरन् वारित्तकपुरं जगाम तत्र वारित्तकमन्त्रिगृहे मिक्षार्थं गतो, दीयमानमधुघृतान्वितपायसादधोमुखमधुविन्दुपातदर्शनादोषमन्वेष्य निर्गतः । तच्च गवाक्षस्थो वारितको (मन्त्री) विलोक्य कुतो भिक्षा न गृहीता ? इति यावच्चिन्तयति तावत्तत्र भूपतितमधुविन्दुके मक्षिका योगाद्गृहको किला तद्योगात्सरटस्ततो मार्जारस्तं प्रति प्राघूर्णकः श्वा वावितस्तदनु वास्तव्यः श्वा, तयोः कलहे तत्स्वामिनोर्विरोधादन्योऽन्यं सङ्ग्रामोऽभूत्, ततो वास्तिक्रेन चिन्तितं - अहो !! अनेनैव कारणेन मुनिना भिक्षा न जगृहे, धन्यः स इति शुभभावयोगाज्जातजातिस्मरणो देवताऽर्पित साधूपकरणः स्वयम्बुद्धो जात इति गाथार्थः ।। ९२ ।। इत्युक्तदोषनिगमनं प्रासैषणादोषांश्च प्रस्तावयन्नाह -
इय सोलस सोलस दस, उग्गमउप्पाय णे सणादोसा । गिहिसाहूभयपभवा, पंच उ + गासेसणाइ इमे । ९३॥ व्याख्या — इत्येवं पूर्वोक्तस्वरूपाः षोडश षोडश दश च प्रतीतरूपाः, यथाक्रममुद्रमस्योक्तरूपस्यैवमुत्पादनाया ग्रहणै पाया ये 'दोष' दूषणानि, ते यथासङ्ख्यं गृहिसाधू भयप्रभवा-दायकयतितद्वितयसमुत्था भवन्तीति शेषः । तत्र गृहिप्रभवा उद्गमदोषा, गृहिणा प्रायेण तेषां क्रियमाणत्वात्, साधुसमुत्था उत्पादनादोषाः, साधुनैव तेषां विधीयमानत्वात्, गृहिसाधुजन्या ग्रहणैषणादोषाः, शङ्कितदोषस्य साधुभावापरिणतदोषस्य च साधुजन्यत्वाच्छेषाणां च गृहिप्रमत्रत्वादिति, +" "
अ. य. ।
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ग्रहणैषणानिगमनं
ग्रासपणा
प्रस्तावना
चा
॥ ८४ ॥
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एवं विधिना गृहीतस्याऽप्याहारस्य विधिनैव ग्रासः कार्य इति ग्रासपणादोषानाह - 'पंच उ' पञ्च पुनर्दोषाः स्युरिति गम्यते, वेत्याह- ग्रसनं ग्रासो-भोजनं तद्विषया 'एपणा' शुद्धाशुद्धपर्यालोचना, तस्यामि मे - एतेऽनन्तरमेव वक्ष्यमाणा इति गाथार्थः ॥ ९३ ॥ तानेवाsss
दी० - इत्येवं षोडश षोडश दश महङ्ख्या यथाक्रमं उद्गमोत्पादनेषणादोषाः गृहिसाधुतदुभयप्रभवाः स्पष्टा भवन्तीति शेषः । एवं द्विच्वारिंशदोषरहितस्याप्याहारस्य विधिनैव ग्रासः कार्य इत्याह- पञ्च 'तु' पुनग्रसिषणायां दोषा 'इमे' वक्ष्यस्युरिति गाथार्थः ।। ९३ ।। तानेवाह -
संजोयणा पर्माणे, इंगोले घूमैं- कारणे पढमा । वसहिबहिरंतरे वा रसहेउं दव्वसंजोगा ॥ ९४ ॥
व्याख्या - संयोजनं संयोजना, रसगृळ्या गुणान्तरोत्पादनाय द्रव्यान्तर मीलनं, सा क्रियमाणा ग्रासपणादोषः स्यात्तथा 'प्रमाण' कबलादिभिर्भोजनपरिमाणं तच्चाऽतिक्रम्यमाणं भोजनदोषो भवेत् । तथा चारित्रेन्धनस्याऽङ्गारस्येव करणमिति विग्रहे +कारिते पुंसि संज्ञायां घे च कृते भवत्यङ्गारX इति । चारित्रेन्धनस्य धूमचत इव करणमिति विग्रहे कारिते वे मतुलोपे च स्याम इति, चारित्रेन्धनस्य धूमायमानतेत्यर्थः । अनयोश्च दोषत्वं प्रतीतमेव । तथा 'कारणं' भोजन हेतुः,
+ अङ्गारशब्दस्याने कारितः । X अङ्गारं करोति तद्वतच व]ति तदाचष्टे इन् कारि अङ्गारयतीति चे [कृते] स्वादङ्गार इत्यर्थः । * धूमो विद्यते यस्य स तथावन्तः धूमवन्तं करोतीति "मन्तु-वन्तु विनां लुकचे ति वन्तलोपः" इति "लिस्ये "त्यादिनाऽन्त्यस्वरटोपः धूमयतीति धूमः । षे धूमः सिद्धघति । इति टिप्पणानि भ. पुस्तके |
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पिण्डविशुद्धि ० टीकाद्वयो
पेतम्
॥ ८५ ॥
एतस्य दोषत्वमनाश्रीयमाणत्वात् । अथ संयोजनादोपव्याख्यानायाह-प्रथमा-ऽऽद्या संयोजनेत्यर्थी वसते - रुपाश्रयाहिस्ताद्भिक्षाटन इत्यर्थः, अन्तरे वा-बमतिमध्ये वेति अथवा रसतो - विशिष्टास्वादनिमित्तं द्रव्याणां दुग्धदध्योदनादीनां 'संयोगो' मीलनं तस्मिन्सति संयोजना, भवतीति पूर्वेण योगः, तत्र बहिर्मक्तपानसंयोजना- भिक्षामटतो दुग्धदध्यादिलाभे गुडादिप्रक्षिपतोऽन्तर्भक पानसंयोजना पुनः-पात्रे मुखे च स्यात्तत्र पात्रे मण्डकगुडघृतादि संयोज्य भक्षयत, एतान्येव मुखप्रक्षेपेण संयोजयतो मुखसंयोजना, पिण्डप्रस्तावाच्चैवमुच्यते, अन्यथा उपकरणं गवेषयत एव साधो वोलपकाद्यवासौ विभूषाप्रत्ययमन्तकल्पं याचित्वा परिशुञ्जानस्य बहिरूपकरण संयोजना, वसतौ चाऽऽगत्य तथैव परिभुञ्जानस्यान्तरुपकरणसंयोजनेत्याद्यपि द्रष्टव्यमिति । इह च रसहेतोरिति विशेषणेन कारणतः संयोजनायामपि न दोष इत्यावेदयति, यदाह-"रसहेउं संजोगो, पडिसिद्धी कप्पए गिलाणड्डा । जस्स व अभत्तछंदो, सुहोचिओ भाविओ जो य ॥१॥ " सुगमा, नवरं यस्य चाडद्वारेऽरुचिस्तथा यः शुभाद्वारोचितो राजपुत्रादिर्यश्च साधूचिताहारेणाऽभावितस्तस्य संयोगोडनुज्ञात इति गाथार्थः ॥ ९४ ॥ अथाऽऽहारप्रमाणं प्रतिपादयन्नाह -
दी० - ' संयोजना' रसगृद्ध्या गुणान्तरार्थं द्रव्यान्तरसंयोजनं १, अप्रमाणं मानमतिक्रम्य भोजनं २, 'अङ्गार' इति चारित्रेन्धनस्याङ्गारस्यैव करणात् ३, 'धूम'त्ति चारित्रेन्धनस्य धूमवत इत्र करणं, वन्तुलोपाम ४, अकारणं - भोजन हेत्वनाश्रयणं ५, एतद्व्याख्यामाह - एषु पञ्चसु प्रथमा संयोजना स्याद् 'वसते' रुपाश्रया' दहि' र्भिक्षाटने रसहेतोर्विशिष्टास्वादनार्थे 'द्रव्यसंयोगाद्' दुग्धादौ गुडादिक्षेपात् 'वा' अथवा 'अन्तरे' बसतेर्मध्ये पात्रे मुखे च तथा करणात् पिण्डप्रस्तावादिदमत्रोक्तं,
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ग्रासपणादोषपञ्चक
देस्तत्र
संयोज
नायाः
स्वरूपम
॥ ८५
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IR परतस्तूपकरणादीनामयि ज्ञेयं, रमतोरिति भणनाद्ग्लानादिकारणतः संयोजनायामपि न दोष इति गाधाथः ।। ९४ ।।।
अथाहारप्रमाणाख्यमाहR घिइबलसंजमजोगा, जेण ण हायंति संपइ पए वा । तं आहारपमाणं, जइस्स सेसं किलेसफलं ॥९५॥
व्याख्या-'धृतिश्च' चित्तस्वास्थ्य-मनःममाघानमित्यर्थः 'बलं च शारीरः प्रामः 'संयमयोगाश्च चरणकरणच्यापारातिचलसंयमयोगाः 'येन' यावन्मात्रेण द्वात्रिंशत्कबलादिनाऽऽहारेण, भुक्तेनेति गम्यते । 'न' नैत्र 'हीयन्ते' हानिमुपगच्छन्ति, कदैत्याह-'सम्प्रति तदैव-तदिन एवेत्यर्थः 'प्रगे' वा प्रभाते-द्वितीयदिन इत्यर्थः, चेत्यथवा, तत्तावन्मात्र'माहारप्रमाण मोजनमान, विज्ञेयमिति गम्यते, कस्येत्याह-'यते साधोः, सूत्रे च कुक्कूट्यण्डकमात्रकवलापेक्षमेवमाहारमानमभिधीयते"वत्तीसं किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलियाए, अट्ठावीसं भवे कवला ॥१॥"
नपुंसकस्य चतुर्विंशतिः । उदरभागापेक्ष त्वे"अद्धमसणस्स सव्वं-जणस्स कुजा दवस्स दो भागा। बाउपवियारणट्ठा, छम्भागं ऊणगं कुज्जा ॥१॥"
'सेस'तिं पुनः शब्दाध्याहाराच्छेष पुनरायोपायकुशलतया सम्यगाकलितात् संयमव्यापारनिर्वाहहेतोः स्वदेहस्वभावानुगुणादाहारमानादन्यदतिनहुप्रभृतिक, किमित्याह-क्लेशफल भैहिकामुष्मिकदुःखपरम्पराजनकमिति गाथार्थः ॥ ९५॥
कुतः शेषं क्लेशफलमित्याहदी--'धृति'मनास्वास्थ्य बलं' शारीरिक 'संयमयोगा'चरणकरणच्यापारास्ते 'येन' यावन्मात्रेण भुक्तेन नैव हीयन्ते
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[ग्रामैषणादोषपञ्चके
आहारप्रमाणम् ।
पेतम्
-S
'सम्प्रति तदेव.अथवा 'ग्रगे' द्वितीयदिना(न्तरारम्भे तत्तावन्मात्रमाहारप्रमाणं यतेः स्यात , सूत्रे कुंट्यण्डकप्रमाणाः पुरुपस्य विद्धिद्वात्रिंशत्करलाः खियोऽष्टाविंशतिनपुंसकस्य चतुर्विशतिरुक्तास्तत्रापिटीकाद्वयो
अनुमसणस सञ्छ-जगस्त कुजा दवस्स दो भागे । वायपवियारणहा, छन्भाग ऊणयं कुब्जा ॥१॥" इतः 'शेष संयमनिर्वाहहेतुदेहानुगुणाहारमानादन्यदतिबहुप्रभृतिकं 'क्लेशफलं' ऐहिकामुष्मिकदुःखजनकमिति गाथार्थः ॥९५||
कुतः शेष क्लेशफलं ? इत्याह॥८६॥ जेणऽइबहु अइबहुसो, अइप्पमाणेण भोयणं भुत्तं । हादिज व वामिज व,मारिज व तं अजीरंतं ॥१६॥
व्याख्या-येन कारणेनाऽतिबहु पूर्वोक्तस्वप्रमाणाधिक, आकण्ठमित्यर्थः, तथा अतिघहुशोऽतिबहून्वारान् , वारत्रयमित्यर्थः, तथा अतिप्रमाणेन' चारत्रयोल्लङ्घनलक्षणेन करणभृतेनाऽतृप्यता वा साधुना का भोजन मञ्चनादिकं भुक्त-मभ्यवहतं, किं कुर्यादित्याह-'हादयेद्वा' पुरीपनिसर्माधिक्यं कारयेद्वा 'वामये'च्छदि कारयेन्मारयेद्वा' प्राणत्याग कारयेद्वाशब्दा विकल्पार्थाः, किं तदित्याह-तदतिबहुकादिभोजनं कर्तु, किंविशिष्ट सदित्याह-'अजीर्यत् परिणाममगच्छत् , तस्मास्प्रमाणयुक्तमेव भोक्तव्यं, तस्यैव गुणावहत्वाबदाह
"अप्पाहारस्स न ई-दियाई विसएमु संपयत्ति | नेच किलम्मइ तवसा, रसिएसुन मुज्झए या वि ॥१." है तथाहि-"हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा।न ते विनाचिगिच्छंति, अप्पाणं ते चिगिच्छगा॥२॥" Mहिताहारा देहस्वभावानुकूलमोजना: मिताहारा प्रमाणोपेतभोजनाः'अल्पाहारा'प्रमाणप्राप्तादपि हीनतराहारा इति गाथार्थः।
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॥८६॥
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अथाबार-धूमलक्षणे दोषद्वयं व्याचिख्यासुराह
दी-येन कारणेन 'बहु' पूर्वोक्त स्वप्रमाणाधिकमाकण्ठमित्यर्थः, अतिबहशो-बहून वारान 'अतिप्रमाणेन' वारत्रयोल्लानादिना अतृप्यता वा साधुना भोजनं भुक्तं सत् किं कुर्याद् ? इत्याह-हादयेत् पुरीपाधिक्येन, वामयेच्छर्दिकाकरणेन, मारयेत्प्राणत्यागेन, 'वा' शब्दा विकल्पार्थाः। तद्भुक्तं कथम्भृतं ? 'अजीर्यत' परिणाममगच्छदिति गाथार्थः ॥ ९६ ।।
अधातारधूमाख्ये आहअंगारसधूमोवम-चरणिंधणकरणभावओ जमिह । रत्तो दुलो भुंजइ, तं अंगारं च धूमं च ॥९७॥
व्याख्या-अङ्गारमधूमे प्रतीते, तदुपमस्य-तथाविधासारतासाधात्तसशस्य 'चरणेन्धनस्य चारित्रैन्धसः 'करण12 भावा'निर्वर्त्तनमढ़ावाचं मनोज्ञामनोज्ञमाहारं भुले, साधुरिनि योमः। 'हह' जेने प्रवचने, किंविशिष्टः सन्नित्याह-'रक्तः'
प्रेमवान् विष्टश्च' द्वेपवान् , इह चशब्दोऽध्याहार्यः। 'भुङ्के'म्यवहरति, माधुगिति गम्यते, समाहारं यथाक्रममङ्गारं चा-झारमिति वचते 'धूमं च धूममिति त्रुवते । अयमर्थ:-यमाहारं माधुः सुन्दरमिति कृत्वा रक्तः सन् मुझे, तमिह प्रवचनेऽङ्गारोपमचरोन्धनकरणभावादगारमित्याचक्षते, यं चाऽसुन्दरमिति कृत्वा द्विष्टोऽभ्यवहरति, तं मधूमोपमचरणेन्धनकरणभायाद्धमनिति, आव २-"तं होई सइंगालं, जं आहारह मुच्छिओ संतो। तं पुण होह संधूम, जं आहारे 12 'निंदतो ॥१॥" इनि गाथार्थः ।। ९७॥ अथ कारणद्वारं व्याचिरूयासुराहदी०-अङ्गारमधमे प्रतीते 'तदुपमस्य' तथाविधासारख्या तत्तुल्यस्य 'चरणेन्धनस्य' नास्त्रिन्धसः 'करणभावात्'
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इयो
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निर्वर्तनायोगाद्यमाहारमिह-जिनागमे साधु रक्त 'रक्तो' मनोवमिति प्रेमवान् 'द्विष्टो' मनोजमिनि उपवान , नत कि? प्रामेषणातद्यथाक्रममङ्गाराख्यं च धूमाख्यं च स्यादिति गाथार्थः ॥ ९७ ॥ अथ पोढा कारणास्यमाह
दोपपत्रके छहवियणावेयाव-च्चैसंजर्मसुज्झाणपाणेरक्खट्टा । इरियं च विसोहेडे, भुंजे न उ रूवरसहेउं ॥९८॥ कारणषट्र
व्याख्या-इह च क्षुद्वेदनादिपदानां द्वन्द्वं कृत्वा रक्षार्थमिति पदन प्रत्येकं सम्बन्धः कर्तव्यः, ततश्च क्षु-भुक्षा, माहारतस्यास्तद्रपा वा 'वेदना पीडा क्षुद्वदना 'तद्रक्षार्थ तन्निवारणानिमित्तं, यदाह-"नधि छुहाग सरिसिया, विषणा करणम्य। भुंजेज तप्पसमणट्ठत्ति"। तथा वैयावृत्य-माचार्यादिप्रतिचरणं, तद्रक्षार्थ-तद्धानिवारणार्थ, आह च "छाओ चयावचं, 131 न तरह काउं अओ भुंजे।" "छाओ' ति 'प्सातो बुभुक्षित इत्यर्थः, तथा 'संयमः' प्रत्युपेक्षणाप्रमार्जनादिलक्षणः साधुव्यापारस्तपालनाथै, बुभुक्षित एनं कर्तुं न शक्नोतीति कृत्वा, तथा शोभनं ध्यानं सुध्यान-मूत्रार्थानुचिन्तनादिलक्षणं शुभचित्तप्रणिधानं, एतदपि बुभुक्षितः कर्तुं न शक्नोतीति, नथा 'प्राणा' जीवितं, तेषां रक्षार्थ-परिपालनानिमित्तं, ईयाँ वाईर्थासमिति, वेत्यथवा 'विशोषयितुं' निर्मलीकर्तु, बुभुक्षितो दि ज्यामललोचनत्वादितस्तां तथा कत्तुं न शक्नोतीति, किं कुर्यादित्याह-'भुञ्जीत' भोजनं कुर्यात् 'न तु' न पुना 'रूपं च शरीरलावण्यं रसश्च भोजनास्वादो रूपरसौ, तद्धेतो-स्तन्त्रिमित, बलवर्णादिनिमित्तं रसगृदुध्या चन भुञ्जीतेत्युक्तं भवतीति गाथार्थः ॥ ९८॥
अथाऽन्यान्यप्यमनकारणानि प्रतिपादयबाहदी०--द्वेदना' बुमुक्षापीडा १, यावृत्यं दशधा प्रतीतं २, संयमः प्रत्युपेक्षणप्रमार्जनादिलक्षणः ३, सुध्यान-सूत्रा- ॥८७॥
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र्थानुचिन्तनादौ प्रणिधानं ४, प्राणा-जीवितं एतेषां रक्षार्थ ५, ईर्ष्या च गमनमार्ग विशोधयितुं ६, साधुर्भुखीत - अश्रीयाच रूपरस हेतोर्देहादि सौन्दर्यविशिष्टास्वादायेति गाथार्थः ॥ ९८ ॥ अजेमनकारणान्यपि पढेवाइ
अहब न जिमेज रोगे, मोहुँदए सयणमाइउवसग्गे । पाणिदयातवेहेडं, अंते तशुमोयस्थं च ॥ ९९ ॥
व्याख्या-'अथवा' यद्वा 'न' नेत्र जैसे-दश्नीयात्साधुरिति गम्यते, केत्याह- 'रोगे' ज्वराश्रिरोगा जीर्णाद्यातङ्के माने सति अभोजनस्य रोगनिवर्त्तनोपायत्वाद्, यदाह - सहस्रप्पनं वादि, अट्टमेण निवारण" तथा "बलाविरोधिनिर्दिष्टं, ज्वरादौ लङ्घनं हितम् । तेऽनिलश्रमकोष - शोककामक्षतज्वरान् ॥ १ ॥" तथा 'मोहस्य' पुरुषादिवेदलक्षणस्य 'उदये' विपाकप्राबल्ये, तपसो मोदोपशमहेतुत्वाद्, यदाह – “विषया विनिवर्त्तन्ते, निराहारस्य देहिनः ।" इति । तथा 'स्वजनादीनां ' मातृपिकल नृपप्रभृतीनां 'उपसर्गे' प्रव्रज्यामोचनादिलक्षणे उपद्रवे, ते हि तपस्यन्तं साधुमवलोक्य तनिश्रयावगमान्मरणादिभीतेोपकरणाद्विनिवर्त्तन्ते, तथा 'प्राणिदया च' सच्चरक्षणं, तपश्च चतुर्थादिलक्षणं प्राणिदद्यात्तपसी, ततोस्तनिमित्तं, अयमर्थः - पानीये महिकायां वा निपतन्त्यां प्रभूतश्लक्ष्णमण्डू किका दिसवसमाकुलायां वा भूमौ तत्तजीवसंरक्षणार्थ भिक्षाटनादि न कुर्यात् एतच्चोपोषितस्यैव निर्वइति, तपोऽपि चामुञ्जानस्यैव भवतीति । तथा अन्ते' पर्यन्ते मरणकाल इत्यर्थः । ' तनुमोचनार्थं संयमपालनासमर्थदेह परित्यागनिमित्तं चान्दो 'न जेमे' दिति क्रियानुकर्षणार्थ इति गाथार्थः ॥ ९९ ॥
अथ ग्रन्थोपसंहारमत्रानुक्तार्थातिदेशं च कुर्वन्नाह
दी० – 'अथवा' यद्वा न जिमेत्, व १ 'रोगे' ज्वराक्षिरोगाजीर्णाद्यात १, तथा मोहस्य-पुरुषादिवेदलक्षणस्पोदये
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पिण्डशुद्धि
北下了“云计y***
काइयो-४
पेतम्
ग्रासैषणादोषपञ्चके कारणषट्रमाहारानहणम्य ग्रन्थोपसंहारश्च ।
८८॥
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विषाकप्राबल्ये .२, तथा स्वजनादीनां-मातृषितपुत्रकलत्रप्रभृतीनां 'उपसर्गे' प्रवज्यामोचनाद्युपद्रवे ३, तथा प्राणिदया-वृथ्यां महिकापाते मूक्ष्ममण्डकिकादिसच्चाकुलायां वा भूमौ जीवरक्षा ४, तपश्चतुर्थादि 'तद्धेतो'स्तयोनिमित्तं ५, तथा 'अन्ने'
मरणकाले 'तनुमोचना संयमाक्षमदेहत्यागाय ६ चेति माथार्थः ।। ९९॥ अथ ग्रन्थार्थमुपसंहरन्नाह6] यतिविहेलणादासा, लसेण जहागमं मएऽभिहिया।एसु गुरुलहविसेसं,सेसंचमुणेज सुत्ताओ।१००।
___ व्याख्या--'इति' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण त्रिविधा चाऽसौ गवेषण-ग्रहण-ग्रासमेदादेपणा च-शुद्धाशुद्धपिण्डविचारणा, तस्यां 'दोषा' आधाकर्म-धात्रीत्व-शङ्कित-संयोजनादिलक्षणानि दक्षणान्यभिहिता इति योगः, कथमित्याह-'लेशेन' संक्षेपेण 'यथागम' आगमस्यानतिक्रमेण-पिण्डनियुक्त्यादिग्रन्धानुसारेणेत्यर्थः,अनेन चाऽस्य प्रकरणस्य प्रामाण्यमाह । 'मया' का अभिहिताः' प्रतिपादिताः । 'एसुत्ति चकाराध्याहारादेषु च दोयेषु 'शुरुलघुविशेष' कस्कोन दोषो गुरुः कस्कश्च लघुरित्येत्रविध प्रकार 'शेषं च अन्यञ्च यत्र नोक्तं पिण्डविचारसम्बद्धं नामादिन्याम-दृष्टान्त भङ्गक-विस्तरविचारणादिकं शय्यातरराजपिण्डोपाश्रयः बसपात्रमतदोषादिकं च, तत्किमित्याह-'मुणेज्ज' सिजानीयास्त्वं हे श्रोतः! कस्मादित्याह-'सूत्रा'दागमाचत्र सर्वगुरु मृलकम, तस्माच्चाऽऽघाकर्मिक कौंदेशिकचरमत्रिक मिश्रान्त्यद्विकं चादरप्राभृतिका सप्रत्यपायाऽम्याहृतं लोभपिण्डोऽनन्तकायान्यवहितनिक्षिप्तपिहितसंहतमिश्रापरिणतछर्दितानि संयोजना साकारं वर्तमानभविष्यन्निमित्तं चेति लघवो दोषाः, मूलप्रायश्चित्ताचतुर्थतपो वत् । एतेभ्यः कमौद्देशिकायमेदो मिश्रप्रथममेदो धात्रीत्वं दतीत्वमतीतनिमित्तमाजीवनापिण्डो बनीपकत्वं बादरचिकित्साकरण कोषमानपिण्डौ सम्बन्धिसंस्तवकरणं विद्यायोगचूर्णपिण्डा प्रकाशकरणं द्विविधं द्रव्यकोतमात्मभावक्रीतं लौकि
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कप्रामित्यपवर्त्तिते निष्प्रत्यवायपरग्रामाभ्याहृतं पिहितोद्भिनं कपाटोद्भिन्नमुत्कृष्टमालापहृतं सर्वमाच्छेद्यं सर्वमनिसृष्टं पुरः कर्म पाकी महितप्रति संसक्तप्रक्षितं प्रत्येकाव्यवद्दितनिक्षिप्तपि हितसंहृतमि श्रापरिणतछर्दितानि प्रमाणोल्लङ्घनं सधूममकारणभोजनं चेति लवश्रर्थादाचाम्लमिव । एतेभ्योऽप्यध्यत्र पूरकान्त्य भेदद्वयं कृतभेदचतुष्टयं भक्तपानपूर्ति मायापिण्डोऽनन्तकायव्यवहितनिक्षिप्तपिहितादीनि मिश्रानन्ताव्यवहित निक्षिप्तादीनि चेति लवचः, आचाम्लादेकभक्तमिव । एतेभ्योऽप्यौधो देशिक मुद्दिष्टभेदचतुष्टयमुपकरणपूतिकं चिरस्थापितं प्रकटकरणं लोकोत्तरं परावर्त्तितमपमित्यं च परभावक्रीतं स्वग्रामाम्याहृतं दर्दरोद्भिनं जघन्यमालापहृतं प्रथमाध्यवपूरक: सूक्ष्मचिकित्सा गुणसंस्तवकरणं मिश्र कर्दमेन लवणसेटिकादिना च प्रक्षितं, पिष्टादिक्षितं किञ्चिद्दायकदुष्टं प्रत्येक परम्परस्थापितादीनि च मिश्रानन्तरस्थापितादीनि चेति लघवः, एकभक्तात्पुरिमार्थमिव । एतेभ्योऽपि त्वरस्थापितं सूक्ष्मप्रभृतिका सस्निग्वसरजस्कप्रक्षितं प्रत्येकमिश्रपरम्परस्थापितादीनि चेति लघवः, पुरिमार्घानिर्विकृतिकमिव । इत्ययं सामान्यतो गुरुलघुविशेषो, विशेषतस्तु सूत्रादेवाऽवसेयः ( इति गाथार्थ : + ) || १००* ॥
अथ शय्यातरपिण्डविचारणा
सागारिओ त्ति को पुणे, काहे का कईविहो +य से पिंडो । असिज्जायैरो व करहे, परिहरियव्वो य सो कस । १ । दोसा वा के तरस, कारणजाए व कपए कम्मि । जयणांए वा काए, एगमणेगेसु घेतंच्च ॥ २ ॥
अस्य गाथाद्वयस्य व्याख्या- 'मागारिकः' शय्यातरस्तत्र सहाऽगारेण - साधुयोग्यगृहेण वर्त्तत इति सागारः, स एव + म. प्रश्वेवैतद्वाक्यं । * अ. म. प्रत्योरेवात्राविन्यासः । + " "षिो वि सो पिंडो " भां०।" "विहो वि से पिंडो " अ ।
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विशुद्धि टीकाद्वयो
प्रन्थोपसंहारे शय्यातरविचारणा।
सामारिकस्तथा शय्यां तद्गतसाधून चा संरक्ष्य तदानेन वा संमारसागरं तरताति शय्यातरः१। कः पुनरसौ ?, उच्यते-ग उपाश्रयस्य प्रभुस्तत्सन्दिष्टो वा, तेषु चाऽने के पूत्सर्गतः सर्वेऽपि वर्जनीयाः, अनित्र हे तु परिपायकको वर्जनीयः, यदा चोपाश्रयसङ्कीर्णत्वकारणेन भिगोपभरेषु वाग्नि, सदासिलहि वर्गपिटुमशक्नुवन्त आचार्यशरयातरं वर्जयन्त्येवेति २। कदा वा ?-कुतः कालात्प्रभृति शय्यातरो भवतीत्यर्थस्तत्रोच्यते-प्रत्यूपावश्यके कृते स्वापे वा विहिते, यदाह"जई जग्गति सुविहिया, करेंति आवस्सगं च अन्नत्थ । सेजायरोन होई, मुत्ते व कए व सो होइ ॥१॥" ___ कतिविधश्च तस्य पिण्डः स्यात्तत्रोच्यते-अशन-पान-खादिम-स्वादिम ४ वस्त्र-पात्र-कम्बल-रजोहरण ४ सूची-पिप्पलकनखरदन-कर्णशोधन ४ मेदादद्वादशविधा, यदाह"असणाईया चउरो, पाउँछणवत्थपत्तकंबलयं । सूइछुरकन्नसोहण-नहरणिया सागरियपिंडो॥१॥"
तृणादिस्तु न भवति, यदाह"तणडगलछारमल्लग-सेज्जासंथारपीढलेवाई। सेजायरपिंडो सो. न होड सहो य सोवहिओ ॥ २॥"
अशय्यातरो वा कदा भवति , तत्रोच्यते-निर्गमनकालादिनमेकं वर्जयन्ति, ततः परमशय्यातरो भवति, यदाद-"वुच्छे वळतऽहोरत्तं" | आदेशान्तरेण तु दिनद्वयादिति, "सूरस्थमणे दिणनि-गयाण सुरोदए असागरिओ। अत्थमियनिग्गयाण,यारसजामा उसागरिओ॥१॥"त्ति।
तथा परिहर्त्तव्यश्च स कस्येत्पत्रोच्यते- 264
८९॥
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" लिंगस्थस्स उ वज्जो, तं परिहरओव्व भुंजओ वा वि । जत्तस्म अजुत्तस्स व रसायणो तत्थ दिहंतो ॥१॥" अस्या भावार्थ:-लिङ्गस्थस्य यः शय्यातरस्तस्य पिण्डो वर्ज्य:, तं शय्यातरपिण्डं परिहरतो वा भुञ्जानस्य वाऽपि तथा युक्तस्य श्रामण्यगुणैरयुक्तस्य [1] तैरेव, अत्र 'रसापणो' मद्यविपणिस्तस्य + दृष्टान्तो यथा - किल महाराष्ट्रविषये X कल्पपालापणेषु मद्यं भवतु वा मा वा तथापि ध्वजो चन्यते तं च दृष्ट्रा सर्वेऽपि भिक्षाचरादयः परिहरन्ति, अभोज्यमिति कृत्वा, एवमत्रापि यस्य धर्मध्वजो दृश्यते तस्य शय्यातशे वर्जनीय इति ६ । दोषा वा के १ तस्य पिण्डे गृह्यमाण इत्यत्र कथ्यतेतीर्थकर निषिद्धत्वादयो बहवः, यदाह-
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तित्थर पडकुडी, अन्नायं उग्गंमो विनय सुज्झे । अविमुक्ति अलाघवयौ, दुल्लह सेजी य वोच्छेओ ॥१॥” अस्यार्थः - तीर्थकरैराद्यान्तिममध्यमविदेहजिनैः 'प्रतिक्रुष्टः' स्वसाधूनां तदाश्रयस्थानामन्याश्रयस्थानां वा निषिद्धः शय्यातर पिण्डः, यदाह-
"पुरपच्छिमवज्जेहिं, अविक्रम्मं जिणवरेहिं लेसेणं । भुत्तं विदेहएहि य, न य सागरियस्स पिंडो उ ॥ १ ॥ " 'लेशेने' ति यस्यैवैकस्य कृते कृतं तस्यैवैकस्य न कल्पते, शेषसाधूनां तु कल्पत एवेत्यंशेनेति १ । कस्मादेवमित्याह'अज्ञातस्था' ऽविदितस्य *राजादिप्रव्रजित्वेन यद्भैक्षं तदज्ञातमुच्यते, तदेव च प्रायः साधुना ग्राह्ये, “अन्नायउंछं चरई
+- नास्त्ययं शब्दो भाण्डारकरी यातिरिक्तासु प्रतिकृतिषु । X सर्वास्वपि प्रतिकृतिषूपलभ्यते "कल्पपाल" इति, अभिघाचिन्तामणौ तु "कल्यपालः 'सुराजीवी" इत्यस्ति । * “प्रब्रजितो नृपाविर्भिक्षार्थं यस्य गृहे प्रविष्टो न प्रत्यभिज्ञायते, तस्य सम्बन्धि । इति टि. अ. 1
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द० जदयो
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विसुद्ध"इति वचनान. नचाऽऽमअनिवायानगीचयन बातम्बम्पनया ययातग्गृह पिण्डं गृहणतो यनेन शुख्यबीनि योगः शनया 'उद्गमः' मन्यनीयमकादिपवनयपि, ति समुच्चय 'न शुदथनिन प्रदो मवति बानगविण्डग्रहणे मनि,कथ: संहारे "बाहुल्ला गच्छस्स इ. पढमालियपाणगाइकन्नेमु । मझायकरण आउ-द्वियाह करे उग्गमेगपरं ॥१॥" ३||शयार नचा 'अविमुक्तिः' मलोमना, ननाच्छण्यानकतम्याऽमोचन, आह च
विचारणा। "मादे उक्कोसपणी-यगेहिओ ने कुल न उडे | ण्डाणाईकजेम् य, गो वि दरं पुणो पड़ ।। १॥" ।
तथाऽविद्यमानं 'लापत्र' लघुता यम्य म नया. ना मानोलाक्षरता, ना मितिमाहारगाहेलोचितत्वाच्छनीगलाघ, अय्यानराव तत्परिचितजनाञ्चोपषिलामादुपधेग्नल्पनया नदलापत्रमिति, उदाहरणं चाव-एकस्य साधोः पय्यातरेक कम्बलकानि प्रचानि, नन्प्रत्ययाच तत्पुत्रनामादिभित्र कम्बल कापणं मम्मै वितीर्ण, ततयाऽमौ प्रचुरोपकरमाप्रतिबन्धाद्वारमयाच न विहगत, इतर देवयामाहामध्ये जाने प्रयानग्ण चिन्तितं ययाऽयं वयं चात्र मरिष्यामम्ननः केनाऽप्युपावनेन विमवयामि मुमिश्वदशान्तर इनि, ननो बहिर्ममौ मन नम्मिन ममुपकरण निष्काम्याऽन्यत्र मनोप्य च प्रदीप्तस्तदुपाश्रयः, आगनस्य चार्पितानि माजनानि अबमुपकरणं दग्पमिनि निवेद्य । ननोऽमो प्रस्थिनो देशान्तरं ममिनत्र श्य्यातरेण-समिक्षे पुनरिहा मन्तव्यमिति । आयतयाऽसौ समिन जातंर्पितं च मसपकरणमित्यवं प्रय्यानपिण्हग्रहलाघवं भवनीति । नया दुर्लमा-मुलमा अय्या च-मतिः कुना भवति, येन किल अय्या देया तेनाऽऽहारायपि दयमिऽत्येवं गृहिणां मयोत्पादनात् , बत्रायुदाहर-एकस्य गृहपतेाडे पावठिकः माघुपन्छः स्थितवान, नस्य च माघवः प्रतिदिनं भिक्षा मन्तः शय्यावर
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गृहे प्रथममेव (कारणतो) भिक्षा गृहन्ति, कालेन च स निर्धनो जातस्ततश्च तैः साधुभिर्गतैरन्ये समागतास्तैरपि तत्पार्थे सैव वसतिचिता, +स प्राह गरिव मे वशनिवारं निर्धनोनिदाशी, नास्ति प्रथमभिक्षादानयोग्य किमपीत्यतो न वसतिं दास्यामीति । साधुभिरुक्तं-शय्यातरमिक्षाऽस्माकं न कल्पतेऽतो देहि शय्या, स (xच पूर्वसाधुवचनाभिसंस्कृतमतिः) प्राह-अस्मद्गृहाद्रिक्तभाजना निर्गच्छन्तो भवन्तोऽमङ्गलं स्युरतो न दास्यामीति, ततस्तं प्रज्ञाप्य कष्टेन गृहीतेति, एवं दुर्लभा शय्या मवतीति । तथा 'व्यवच्छेदों विनाशो दानभयाच्छय्यायाः शय्यातरेण क्रियते, वसत्यभावाद्भक्तपानशिष्यादेर्वा व्यवच्छेद: स्यादिति । अथैते दोषाः प्रायः पिण्डान्तरग्रहणेऽपि समाना:, अतः कोऽत्र भावार्थः १ इत्यत्रोच्यते"पडिबंधनिराकरण, केई अन्नेगिहीयगहणस्स । तस्साउंटणमाणं, एत्थऽचरे येति भावत्थं ॥१॥" - प्रतिबन्धनिराकरणं-साधुशय्यातरयोर्योऽत्यन्तोपकार्योपकारकभावेन स्नेहस्तनिरासं, केचिदाचार्या, भावार्थ ब्रुवन्तीति योगः । अन्ये पुनराचार्या अगृहीतग्रहणस्य-साधुमिरस्वीकृतभक्तादिदातव्यद्रव्यस्य शय्यातरस्याऽऽकुण्टन-मावर्जनमहो । नि:स्पृहा एतेऽतो वसत्यादिदानतः पूज्या इति भावोत्पादनात् । तथा आज्ञा आप्तोपदेश, अत्र-शय्यातरपिण्डपरिहारे 'अपरें अन्ये 'त्रुवन्ति' आहुर्भािवार्थ वात्पर्यमिति सप्रसनं दोषद्वारं७ तथा तस्य पिण्डः कस्मिन् कारणजाते कल्पते। तत्रोच्यते-- "दुविहे गेलन्नंमी, निमंतणे दवदुल्लभे असिवे। ओमोयरियपओसे, भएण गहणं अणुब्रायं ॥ १॥"
द्विविधं ग्लानत्वं-अत्यागाढमनागाढं च, तत्राऽत्यामा क्षिप्रमेव प्रायोग्याद्रव्यग्रहणं कर्चव्यं, अनागाढे त्वन्यबालाभ * शब्दोऽयं भा. अ.प्रतिकृत्योरेव। “स तान्प्रत्याइ-" या केवलं मां० प्रतावेवायं पाठः । * "प्रायोग्यग्रहणं" ५० अ०६० क०।
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शुरु
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पिण्ड- एवेति । निमन्त्रणेऽपि तदभिमुखं वक्तव्यं-कार्य ग्रहीष्यामः, न पुन'नं कल्पत' इति त्रुवते, यदाह-"कजंमिछदिया। किरदिघे-त्थिमो त्ति न य बेंति उ अकप्पं"ति | निबन्धे च प्रसङ्गनिषेधयतनया गृहन्त्यपि । दुर्लभद्रव्ये च तादावन्यटोकाइयो- बालभ्यमाने ग्लानादिकारणे ग्रहणमनुज्ञातं, तथा "ओमऽसिवे पणगाइसु, जइऊणमसंथरे गणं ।" तथा प्रद्वेषो पेतम् राजादेः, तत्र च "उवसमणट्टपदुट्टे, सत्थो चा जा न लगभए ताव । अच्छंता पच्छन्न, गिण्हंति भए
विराज एमेव ॥ १॥” चौरादिसम्बन्धिनि ८। यतनाद्वारमप्यत्रैव भावितं, यद्वा-" तिक्खुत्तो सक्वित्ते, चउदिसिंविधा ॥९१॥
मग्गिऊण गीयत्थो। दव्चमि दुल्लभंमी, सेनायरसंतिए गहणं ॥ १॥” इति यतनाद्वारख्याख्यानम् ९ । एवमेकमाश्रित्योक्तं, यत्राऽप्यनेके पिहपुत्रादयः शय्यातरा भवन्ति तत्रापि यावन्तः स्वामिनस्तत्सन्दिष्टा वा, सर्वेऽभ्यनुसापनीया: यो वा तन्मध्येऽनतिक्रमणीयवचनो भवति, तस्यैव च पिण्डो वर्जनीयः, मद्रकान्तादिदोषाच्छेषाणामपि १०।
इति लेशतः शय्यातरपिण्डविचारो, विस्तरतस्तु अन्धान्तरादयसेयः। अथ राजपिण्डविचारोऽयं"मुइयाइगुणो राया, अट्ठविहो तस्स होइ पिंडो त्ति । पुरिमेयराणमेसो, वाघायाईहिं पडिकुट्टो ।। १॥"
मुदितादिगुण, आदिशन्दान्मृर्धाभिषिक्तादिपरिग्रहो, यदाह"मुविओ मुद्धभिसित्तोसुइओ जो होइ जोणिसुद्धोउ। अभिसित्तो इयरेहिं,सयंप भरहो जहा राया॥१॥"।
+"छिदिया" ५० ह.क. य०। "छदिया-निमन्त्रिताः" इति पर्यायः अ० "पूच्छनीयाः" इति पर्यायः अ. "मुदयो" इ.क.प. य० भा०1x"मातृपक्ष-पितृपक्षशुद्धः" इति पर्यायः अ०॥
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'राजा' नृपस्तत्र च मुदित मूर्द्धाभिषिक्तवेत्यादि चतुर्भङ्गी, तत्र प्रथमो दोपाभावेऽपि वर्जनीयोऽसावितरेषु तु दोषसम्भव एवेति । 'अष्टविधोऽष्टभेदस्तस्य राज्ञो भवति 'पिण्डो' भैक्षं, तद्यथा
"असणाईया चउरो, वत्थं पायं च कंबलं चेत्र । पाउंछणगं च तहा, अट्ठविहो रायपिंडो उ ॥ १ ॥ " ' पूर्वेतराणा' मादिमा न्तिम जिन साधूनां 'एप' राजपिण्डो व्याघातादिभिर्दोषैः 'प्रतिक्रुष्टो' निषिद्धो जिनैस्तथाहि"ईसरपभिर्हि तर्हि, बाघाओ खद्धलोहुदाराणं । दंसणसंगो गरहा, इयरेसि न अप्पमायाओ ॥ १ ॥ "
'ईश्वरप्रभृतिभिर्युवराजादिभिरादिशब्दात्तलवरमा डम्बिकादिपरिग्रहः, तलवरच राज्ञ उत्थामनिको बद्धपदः, माडम्बिकस्तु संनिवेशविशेषनायकस्तैः प्रविशद्भिर्निर्गच्छद्भिश्च सपरिकरैस्तस्मिन् - राजकुले 'व्याघातः' स्खलना साधोस्तत्र प्रवेशस्य निर्गमस्य चा, अत एव मिक्षास्वाध्याय कार्याणामपि स्यात्, अमङ्गलबुद्ध्या इननं वा कोऽपि कुर्यात्सम्मर्दास्कायपात्राणां भङ्गो वा स्यात्, तथा 'खद्ध'त्ति प्रचुरेऽनादौ लभ्यमाने यो 'लोभो' लुब्धता स खद्धलोभः, स च तत्र स्यात्चतश्चैषणाप्रेरणं स्यात्, तथा 'उदाराणां' उदारदेहानां हस्त्यश्व स्त्रीपुरुषादीनां 'दर्शने' ऽवलोकने 'सो' ऽभिष्वङ्गो-दर्शनसङ्गः स्यात्, ततथाऽऽत्मविराधनादयः स्युः, तथा चारिक- चोरा-मिमर-कामुकादिसम्भावनया राजकोपात्कुलगणसङ्घाद्युपघातः स्यात्, तथा 'गर्दा' निन्दा, ess राजप्रतिग्रहमेते गर्हणीयमपि स्वीकुर्वन्ति, गर्हणीयता च तस्य स्मात्तैरेवमुच्यते"राजप्रतिग्रहदग्धानां ब्राह्मणानां युधिष्ठिर ! । स्विन्नानामिव बीजानां पुनर्जन्म न विद्यते ॥ १ ॥
—
* “मुद्दितो मूर्द्धाभिषिकश्च १, सुदितो न मूर्द्धाभिषिकः २, मूर्द्धाभिषिको न मुदितः ३, न मुदितो न मूर्द्धाभिषिक्तः 2।” इति पर्यायः अ० ।
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पिण्ड
ग्रन्यो
शुद्धिा
पसंहारे
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अथवाऽनमिष्वजा यतयो भवन्ति, एते त्वदृष्टकल्याणवत्कथं गजवाज्यादिषु सङ्ग कुर्वन्तीत्येवंरूपा । अर्थते दोषा मध्यम
जिनसाधूनामपि सम्भवन्तीति कथं तेषां तस्य ग्राह्यताऽपीत्यत आह-'इतरेषां मध्यमजिनसाधूनां 'न' नैवैते दोषा भवन्ति, कायोकुत? 'अप्रमादाद' प्रमादाभावाद्धेतोस्ते हि ऋजुप्राज्ञत्वाद्विशेषेणाप्रमादित्वेनोक्तदोषपरिहारसमर्था भवन्ति, इतरेत |
निर्दोषहै। ऋजुजड-बक्रजडत्वेन न तथेति राजपिण्डविचारः । तथा शय्याऽपि पिण्डवदोषरहितव सेव्या, यदाह
अय्या__ "मूलुत्तरगुणसुद्धं, थीपसुपंडगविवज्जियं क्सहिं । सेविज सब्बकालं, विवजए होंति दोसा उ॥१॥"
विचारः। तत्रेयं मूलगुणैरशुद्धा वसतियथा"पट्टीवंसो दोधा-रणी उ चत्तारि मूलवेलीओ। मूलगुणे हुववेया, एसा उ अहागडा वसही ॥१॥"
'पृष्ठिवंशो' मध्यरबलको 'द्वे धारण्यौ द्वे हवेल्यौ यत्प्रतिष्ठोऽसावेव, चतस्रो मूलवेल्यो याश्चतुर्पु गृहस्य पार्थेषु क्रियन्ते, एते समाऽपि मूलगुणास्तैश्च साधुमाधाय कृतयुक्ता मलगुणैरुपेता, एषा त्वियं पुनराधाय कुता वसतिराधार्मिकीIM त्यर्थः । उत्तरगुणाश्च द्विविधा भवन्ति-मलोत्तरगुणा उत्तरोत्तरगुणाच, तत्रैते मृलोत्तरगुणाः"वसंगकडेणुकंवण-छायणलेवणेदवारभूमी या सप्परिकम्मा बसही, एसा मूलुत्तरगुणेसुं॥१॥"
अत्र वृद्धव्याख्या-वंसग'त्ति दण्डकाः 'कड़'ति' कटकादिमिः कुडथकरण 'उक्कंधण'त्ति दण्डगोवरि ओलवण 'छायणं'ति' दर्भादिनाऽऽच्छादनं 'लेवणं'ति' चिक्खल्लेन कुडाण लिंपणं 'दुवार'त्ति' गृहद्वारस्य पाहल्यकरणमन्यस्य वा x "बलको" प. "वस्यूको" भां. * "यप्रविष्टो" य.It पपेता" प.इ.क.I+" दण्डकोपर्युक्लपन" भां०।
॥ ९२॥ 2-70
ACHAR
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विधानं 'भूमि'ति' भूमिकम्मं विसमाए समीकरणं ति बुस होइ, एसा सपरिकम्मा बसही 'मूलत्तरगुणेसु' ति मूलभूतोचरगुणेष्वित्यर्थः । एते च पृष्टिवंशादयश्चतुर्दशाऽप्यविशोधिकोटि, इमे पुर्ण उत्तरोत्तरगुणा विसोहिकोडि+विसयावसहीए उपधायकरा ।
"बूमिर्यधूवियंबासिये - उज्जोविर्य पलिकडे अवती य । मित्ती सम्मट्ठा किय, विसोहिकोडिं गया बसही ॥ १॥" अत्राऽपि वृद्धव्याख्या- 'भूमिपत्ति उठाया सेदिकादिभिः संसृष्टेत्युक्तं भवतीति । 'धूविय'त्ति दुगंध त्ति काउं अगुरुमाईहं सुगंधी कया । 'वासिय'त्ति पटवासकुसुमादिभिरपनीत दुर्गन्धमावा । 'उद्योविता' रत्नप्रदीपादिभिः प्रकाशिता ! 'eroes' fच कृतकूरादिवलिविघाना । 'अवत्तसि उगणमृत्तिकाभ्यां जलेन चोपलिप्तभूमितला । 'सिक्ता' केवलोदकेनाऽऽर्द्रीकृता । 'सम्मृष्टा' प्रमार्जिता, साध्वर्थायेति सर्वत्र प्रक्रमः । 'विसोहि कोडिं गया बसहित्ति अविशोधिकोटौ न भरतीत्युक्तं भवति एतदनुसारतस्तु चतुःशालादिष्वपि मूलोत्तरगुणविभागो विज्ञेयः, यदाह -
" बाउस्सालाईए, बिन्नेओ एवमेष उ विभागो। इह मूलाहगुणाणं, सक्खा पुण सुण न जं भणिओ ॥१॥" "विहरंताणं पायं, समत्तकखाण जेण गामेसु । वासो तेसु य बसही, पढाइजुया तओ तासिं ॥ २ ॥"
ततस्तासां वसती साक्षाद्भणनमकारीति, अन्ये वाऽमी सामान्यतो वसतिदोषाः"कालाइव-द्वाणां अभियंता अणमिकता य । बज्जां य महावज्जो, सावज महऽप्यकिरियों य ।। १ ।। " + कोडिद्वियवस" प० क० । “कोडिडिया वस" ६० ।
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पेन
बुद्धि० काद्वयो
सम्
१९३ ॥
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ऋतु वर्षासु वा यत्र तौ स्थितास्तत्रैव मासे चातुर्मासिके वा पूर्णेऽपि तिष्ठतां कालातिक्रान्ता भवति, ऋतुबद्धे यत्र . मासकल्पो विहितस्तत्रैव वसतौ मासद्वयं वर्षासु च यत्र चतुरो मासान् स्थितास्तत्रैवाष्टौ मासान परिहृत्य यदि समागच्छन्ति तदोपस्थाना स्यात् यदाह
"उउ वासा समईया, कालाईया उ सा भवे सेज्जी । सचेव उबट्टाणी, दुगुणा दुगुणं अबजेत्ता ॥ १ ॥"
अन्ये प्रतिपादयन्ति यत्र वर्षाकालं स्थितास्तत्र यदि वर्षाकालद्वयमन्यत्र कृत्वा समागच्छन्ति तत उपस्थानदोषवती शय्या न भवतीति कल्पचूर्णिः । तथा यावदर्थिकार्थे विहिता शय्या यावत्का सा यद्यन्यैश्वरकादिपाषण्डिमिर्गृहस्थैव निषेविता भवति, तदनन्तरं च संयताः प्रविशन्ति, तदाऽभिक्कान्तेत्युच्यते, सैवाऽन्यैरपरिक्ता सती साधुभिः सेव्यमानानभिक्रान्तेति । तथाऽऽत्मार्थं कृतां साधुभ्यो दवा स्वार्थमन्यां कुर्वतो गृहस्थस्य वज्र्ज्योति, यदाह
" अत्तकडं दार्ड, जईण अन्नं करेइ बज्जी उ । जम्हा तं पुत्र्वकडं, वज्जेह तओ भवे बजा ॥ १ ॥ " तथा श्रमण ब्राह्मणादीनां पाषण्डिनामर्थाय कृता महावर्ज्या, तथा पञ्चानां श्रमणानामर्थाय कृता सावद्या, तथा जैन साधूनामर्थाय कृता महासावद्येति, आद च
"पासंडकारणा खलु, आरंभी अहिणवो महावज्री । समणट्ठा सावज्जी, महसावजी य साहूणं ॥ १ ॥ " तथा या पूर्वोक्तकालातिक्रान्तादिदोषाष्टक वर्जिता स्वार्थं जिनबिम्बप्रतिष्ठार्थं वा कारिता घवलघूपनाद्युत्तरगुणवर्जिता च, साऽल्पक्रिया - शुद्धेत्यर्थः । अल्पशब्दस्याभाववाचकत्वाद्यदाह
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ग्रन्थोप
संहारे
कालाति
क्रान्तादि
शय्या
नवकस्
॥ ९३ ॥
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"जा खलु जहुत्तदोसे- हिं वज्जिया कारिया समझाए। परिकम्मविप्पमुका, सा वसही अप्पकिरियां उ ॥ १ ॥ " तथा ख्यादिरहितैव शय्या सेवनीया, सा चेयं
"थीवज्जियं वियागह, इत्थीणं जत्थ ठाणवानि
नाचि य तेर्सिन पेच्छति ||१२||”
तत्र स्थानस्वरूपमिदं -
"ठाणं चिठ्ठति जर्हि, मिहो कहाईहिँ नवरमित्थीओ। ठाणे नियमा रूवं, सिय सद्दो जेण तो वज्रं ॥ १|| " स्यात्कदाचिच्छन्दो न भवत्यपि विप्रकृष्टे, येन एवं ततो वज्यं स्थानं, अवर्जने स्वमी दोषाः --
"बंभवयस्स अगुत्ती, लज्जानासो य पीइवुड्डी य । साहुतवो वणवासो !!, निवारणं तित्थहाणी य ॥ १॥" तत्र हि ब्रह्मवतस्याऽगुप्तिर्भवति, प्रतिषिद्धव सतिनिवासात्, लज्जानाशश्च भवत्यसकदर्शनेन प्रीतिवृद्धिश्व भवति, जीवस्वाभान्यात् साधुतपो वनवास !! इति लोके गर्दा, निवारणं तद्रव्यान्यद्रव्याणां तीर्थहानिर्लोकाप्रवृत्येति । तथा स्थाने रूपे चामी दोषाः साधूनां स्युर्यथा
"कमियं ठियं मो - हियं च विप्पेक्खियं च सविलासं । सिंगारे य यह विहे दडुं भुत्तेयरे दोसा ॥ १ ॥ " 'मोहिये' किलिंकिञ्चितं - रमितमित्यर्थः 'भुत्तेयरे'ति' मुक्ताभुक्तभोगयोर्दोषाः स्मृतिकुतूहलादयः । तथा सानालम्बनाः स्त्रीणामप्यमी दोषाः स्युर्यथा---
"जल्लमलपंर्कियाण वि, लावन्नसिरी उ जहेसि देहाणं । सामन्ने वि सुरूवा, सयगुणिया आसि गिबासे ॥१॥”
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पिणविशुद्धि
पेतम् ॥९ ॥
RECखदानमा
जल्लमलपस्तिानामपि-बहलमलदिग्धानामपीति भावः, लावण्यश्रीर्यथैषां साधूनां श्रामण्येऽपि सुरूपा तथैवमई मन्ये
ग्रन्थोपशतगुणा आसीडेहवास इति । तथा स्त्रीशब्दविषया यतीनामिमे दोषा भवेयुर्यथा
संडारे "गीयाणिय पढियाणि य, हसियाणि य मंजुले य उल्लावे | भूसणसद्दे राह-स्सिए य सोऊण जे दोसा॥शा"
ख्यादिसाधुशब्दविषयास्तु स्त्रीणामप्यमी दोषा उत्पद्यन्ते, यथा
संसक्तवस| "गंभीरमहुरफुडविसय-गाहगो सुस्सरो सरोजहेसिं| सज्झायस्स मणहरो, गीयरस णु केरिसो होइ? "
| तिदोषान त 'अम्मीगोम गोमा कुटवियदोऽत्यन्तव्यक्ताक्षरः 'स्फुटविषयो'चा स्फुटार्थो 'ग्राहको'ऽक्लेशेनार्थबोधकः,
एतेषां कर्मधारयः, तथा 'सुस्वरो' +मालवकोशिकादिप्रधानस्वरानुरञ्जितः 'स्वरों' ध्वनिर्यथा-अमीषां स्वाध्यायस्यापि मनोहरो, गीतस्य, नु इति वित, कीडशो भवतीति। "एवं परोप्परं मो-हणिजदुन्विजयकम्मवोसेण। होह दडं पडिबंधो, तम्हा तं बज्जए ठाणं ।।१" तया"पसुपंडगेस वि इहं, मोहानलदीवियाण जं होइ । पायममुहा पवित्ती, पुश्वभवडभासओ तह य ॥१॥" "तम्हा जहुस्तदोसे-हिं बज्जियं निम्ममो निरासंसो। वसहिं सेविज जई, विवजए आणमाईणि ॥२॥"
इति वसत्यधिकारः। तथा वनमपि पिण्डवद्दोषदृष्टं वर्जनीयं, तदोषाच प्रायस्तद्वदेवाऽबचोख्याः , विशेषस्तु कश्चिदुच्यते-इह तावद्वखमेकेन्द्रिय4"मालवकोशकावि" अ.। मालपदेशकादि" प.य."माटबवेशिकादि" "मालवकैशिकादि" का मालावकोशिकादि"
प्र SE९४ ॥ 274
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विकलेन्द्रिय- पश्चेन्द्रियावयव निष्पत्तिमेदात्रिविधं भवति । तत्रैकेन्द्रियावयवनिष्पन्नं कार्पासिकादि, विकलेन्द्रियावयवनिष्प कौशेयकादि, ऊर्णादिमयं तु तृतीयं अत्र कारणग्राह्यं कौशेयकादि । एतदपि जघन्य मध्यमोत्कृष्ट मेदात्प्रत्येकं त्रिविधं तत्र जघन्यं मुखपोतिकादि, मध्यमं बोलपट्ट-पटलकादि, उत्कृष्टं प्रच्छदादि, एतदपि पुनः प्रत्येकं यथाकृता-रप-बहुपरिकर्म मेदात्रिधा भिद्यते, एतेषु च गृह्णद्भिः पूर्वं यथाकृतं ग्राही, सर्वोपाधिविशुद्धत्वात्तस्य तदलामे चाल्पपरिकर्म ग्राह्मे, स्तोकदोषत्वातस्य तस्याभावे बहुपरिकर्मापि ग्राह्यं एतच्च सर्वमपि वस्त्रं गच्छतैरेताभिश्चतसृभिः प्रतिमाभि-रेषणाभिरित्यर्थः, गवेषणीयम् ।
"उ १ पेह २ अंतर ३ उज्झियधम्मा ४ " इति । तत्रोद्दिष्टा यद्गुरुसमक्षं स्वयं प्रतिज्ञातं जघन्यादिकमेकेन्द्रियावयव निष्पन्नादिकं वा वस्त्रं तदेव गृहिभ्यो याचमानस्य स्यादिवि, १ । प्रेक्षा नाम वस्त्रमवलोक्य नवीति साधुर्यथाभोः श्रावक ! याशमिदं दृश्यते तादृशमिदं वा मे देहि २ । हृदय परिक्षानव प्रावरणव वा शय्याया अघस्तन वस्त्रमुपरितनवस्त्रं वाऽन्यद्धोक्तुकाममयेतनं च मोक्तमनसं दादारमत्रान्तरे याचमानस्येति ३ । चतुर्थी पुनः स्त्रदेश बहुवखदेशं वा गन्तुकामाः कार्पदिकादयो यदुज्झन्ति बहुवखदेशे वा यत्यक्तं लभ्यते, तथाचितमयाचितं वा गृह्ण स्यादिति ४ | जिनकल्पिकास्त्वासां मध्यादुपरितनद्वयादन्यतरयैवाऽऽददते, न त्वाद्यद्वयेनेति । तत्पुनः केन विधिना गच्छवासिन उत्पादयन्ति ? इति चेदुच्यते यद्यस्य साघोर्बनं नास्ति स तत्प्रवर्त्तिसाधवे निवेदयति, सोऽपि च गुरुम्यो, यथाअमुकस्य साधोरकं नखं नाऽस्तीति । गच्छे चेयं सामाचारी, यदुताऽऽभिग्रहिकसाधवो भवन्ति यथाऽस्माभिर्वस्त्राणि पात्राणि वाऽन्येन वा येन केनचिद्वस्तुना साधूनां प्रयोजनं तदानेतव्यं, व्रत आचार्यस्तेभ्यो निवेदयति, यथा-हे आर्या ! अमुकस्य
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पेतम् |
पिण्ड- 16 साधोरमुकं वसं नास्तीति, अथ न सन्त्याभिग्रहीकास्ततः स एवं मण्यते, यथा-स्वमेव स्वयोम्यं वस्त्रमुत्पादय, अथाऽसाव- | अन्धोपविशुद्धिाशक्तस्ततो योऽन्यः समर्थस्तं गुरवो व्यापारयन्ति । अथ कस्मिन् काल उत्पादयन्तीति चेदुच्यते-सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषी च कृत्वा || संहारे रोकाइयो- मिथार्थमेव हिण्डमाना उत्पादयन्ति । यदि प तदा न लभन्ते, ततो द्वितीयपौरुष्यामपि गवेषयन्ति, तथाप्यलामे प्रथमा- निदोषवस यामपि मृगयन्ति । यद्येवमपि न लमन्ते, ततो भिक्षार्थ वजन्तः सर्वेऽपि संबाटका व्यापार्यन्ते, ततस्तेऽपि याचन्ते, तथाऽ
ग्रहणप्यलामे बहूनि का बखाण्युत्पादनीयानि, ततो 'वृन्दसाध्यानि कार्याणी ति कृत्वा गीतार्था अगीतार्थसहिता वाऽऽ
विधिः। चार्य मुच्या समुदायेनोचिष्ठन्ति, आचार्यस्तु यद्यपूर्वस्थानगृहचैत्यपरिपाटेरन्यत्र +वार्थमेव गृहेषु हिण्डते ततः प्रायश्चित्तं प्राप्नोति । उपयोगं च युगपत्रिपीदनोत्थानादिविधिना कुर्वन्ति, तब च चिन्तयन्ति-किं प्रमाण पत्रं गृहीतय ! किं जघन्य मध्यम-मुत्कृष्टं वा ? अथवा किं यथाकत-मल्पपरिकम बहुपरिकर्म वा यदा का प्रथम याचितोऽवश्य दास्यतीति । कायोत्सर्ग च यो ज्येष्ठो गीतार्थो लब्धिमाश्च स प्रथमं पारयति, तथा 'यस्य च योग' इति वचनोबारवेलायां 'यथाss. 1-दिष्ट मिति मापते, तस्याऽमावे लघुरपि तादृश एव पारयति, स एव च पुरतो हिण्डते । गच्छन्तश्च दण्डक भूमौन स्थापयन्ति यावत्प्रथमो लामा, बसत्यागमनं वा यावदित्यन्ये । इत्यादिविधिना च गृहं गतरमावितधावको न याचनीया, विपरिणामक्रीतादिदोषसम्मवात् , किच-भावकाणामाचार एवाऽयं यदेषणीयमुद्धरित स्वत एवं प्रयच्छन्ति, यदासणं सा विभये, साहणं वत्पमाइ वायव्वं । गुणवंताण विसेसो, तत्थ वि जेसि न त अस्थि ॥१ परियाट्रिमिमि व गतस्य बिमाणि ददाति दवा कल्पन्" इति टिपितं अ पुस्तके।x "हति योगवचनो'
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SAXCE
तस्माद्यान्यन्यानि मावितकुलानि, तेषु दानफल-दातगुणवर्णनं वर्जयद्भिर्याचा कर्तव्येति, गत्वा च वक्तव्यो या प्रमयथा-'धर्मलाभो भोः श्रावक ! एष साधुजनस्तव समीपमागत ईरशैवस्वैः प्रयोजनमस्ती'ति । ततश्चाऽनुग्रहं मन्यमानेन तेन दर्शिते बस्ने मणितन्यं-'कस्य सम्बन्ध्येतद्वखं ? किं वा आसीत् ? किं वा भविष्यति ? कुत्र वाऽऽसी दिति याचनावस्ने प्रश्न-18 दूयं विधेयं । तत्र कस्यैतत्प्रश्ने कथयत्येव प्राञ्जलभावो गृही, यथा-'मवदर्थ कृतं क्रीतं धौत बेत्यादि, अमकेन वा इहाऽऽनीय स्थापितं येन तद्हे न गृह्णन्ति भवन्त' इत्यादि। ततश्च साधोरविशोधिकोटि-विशोधिकोटिपरिज्ञानं स्यात्तत्स्वरूपं चेदं"तणविणणसंजयट्ठा, मूलगुणा उत्तरा उ पजणया।” अस्य गाथादलस्य चूर्णिरियमर्थता-वस्त्रनिष्पत्यथं यक्रियते, यथा-तानं परिकर्मणं वानं चैते मूलगुणा-अविशोधिकोटिरियथा, संयतार्थ करोति, ये निष्पन्नस्य क्रियन्ते, ते उत्तरगुणाविशोधिकोटिरिति भावः, यथा-पज्जणं मोडणं +उप्पुंभणं धावनादयश्चैतान्वा संयतार्थ करोतीति । अत्र प्रेरक-पजणं सखणं च उग्गमकोडिं इच्छइ तणणं विणणं च विसोहिकोडिं ति । अत्राऽऽचार्यों ब्रवीति-हे प्रेरक ! "अत्तट्ठयतंतूहि, समणऽ? तओ अपाइय* बुओ य। किं सो न होइ कम्म, फासूण वि पजिओ जो उ॥१॥" __ 'फासूण वित्ति, स्वार्थविहितेनाऽपीत्यर्थः। "जइ पजणं तु कम्म, इयरमकम्मं सकप्पऊ धोउ । अह घोओ चिन कप्पड़, तणणं विणणं च तो कम्मं ॥२॥"
तथा पूर्वोपमुक्त वस्खे दर्शिते प्रष्टव्यं-'किमेतदासीत् । । ततो दाता अशीति-नित्यनिवसन, यद्वा मजनवस्त्रं, यद्वा + "पुम्भः-निष्काशनमि"ति पर्यायः अ० 1 X श्रमणार्थ । * “अपाययित्वैव व्यूतः" इति पर्यायः अ० ।
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न्योप
पिड विशुद्धि टीकाहयोपेतम् I
संहारे निदोषवस
प्राणविधिः।
॥९
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XXXXX
राजदौवारिक, पढ़ा उस्सषयनामिदममुकस्येति । अत्र पदसं दर्शितं, यदि सस्य सरशं वहमानं नान्यदप्यस्ति दातुम्ततो गृखते, अन्यथा मेहणे तु गान्ममुपादयति क्रीणानि वा, अन्यश्च +वसानो देहस्य चीवरस्य वा धूननं कुर्यात् म्नानं या
पीदित्यादिवोपजालं स्पात् । अथाऽपरिभुज्यमान दर्शितं तत्र प्रष्टश्यं-किमेत अविष्यति ? कमा स्थाने इदमासीदिति ।। अत्राऽपि दाता परफपयति तस्समानापरमले वहमानेऽवहमाने या विद्यमान एव ग्रहणं कसम्म, तदभावे तु त एवोत्पादनादयो । दोषाः स्युः। एवं पुरुछाशुद्धं पदा कश्पनीयमिति निर्धारितं भवति, तदा योरप्यन्तयोगुडीया मर्यतो निरीक्षणीयं, मा |
तब गृहिणां मणिर्वा सुषर्ण पाऽन्यता रूपकादि द्रव्यं निषदं स्पाततः सोऽपि गृहस्थो मण्यते 'निरीक्षस्वै1मा तसं सर्वतः । एवं च यदि तेन मण्यादिष्ट, ततो लहं, अथ न र, ततः साधुरेष दर्शयति-'पनम
येलि आह-गृहिणः कथिते कथमधिकरणं न भवति', उच्यते-कथिते स्लोफतर एक दोषोऽकथिते तु उडाहादिर्महान् म स्यादिति । तथा"नवभागकप्पणाण, पदम बस्थं करितु जोगति । नाऊण फलबिसेस, गिण्हती अहव घजति॥१॥" "पत्तारि देवयाभागा, दुथे भागा ग माणुसा । आसुरा य दुषे भागा, मझे पत्थरस रक्खसो ॥२॥"
"अंजणखंजणकदम-लित्ते मूसगमविषय अग्गिविवढे।
तुनि य कुष्ट्रिय पज्जवली होइ विषाणुसहो असुहो वा ॥३॥" Xवम्यवायस्ति" .1+ "अन्पयनपरिधान कुर्वन्" इति पर्याचा अ.12 "वीरस्य प०.क.प.।
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DIT ९५॥
ल
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SROGRACTERISSAGAR
"देणेसु जनालो लाभो, माणुसेसु य मज्झिमो । आसुरेसु य गेलनं, मज्झे मरणमाइसे ॥ ४॥"
एतेन च विधिना लब्धेषु वनेषु आगताः सन्तो गुरूणां समर्पयन्ति साधवः, ततो गुस्वोऽपि यद्यस्य साधोखं नास्ति तत्तस्मै प्रयच्छन्ति, अथवा यावतां साधूनां दातुमिष्टानि तानि तावत्सु भागेषु समेषु क्रियन्ते, ततो यथाज्येष्ठं गृहन्तीति । तथा परिमोगकालेऽतिप्रमाणं वनं छिन्दानमूलमामा न छेत्तव्या, अमलत्वादिति याचनावस्त्रविधिः । निमन्त्रणावस्त्रविधिरप्ययमेव, नवरं-उपयोगे "जस्स य जोगों"त्ति वक्तव्यं । तथा सङ्घाटकेन विनिर्गतः कस्मिमपि कुले प्रविष्टः सन्केनचित्प्रमदादिना दावृविशेषेण महता सम्भ्रमेण भक्तपानाभ्यां प्रतिलभ्य वस्त्रेण निमन्त्रित एवं प्रश्नयति, यथा-'कस्येदं ? कि वाऽऽसीद्भविष्यति वा कत्र चाऽसीत् १ केन वा कारणेन मह्यं दीयते । इति । यद्येवं न पृच्छति तदा पूर्वोक्तदोषा आज्ञाभङ्गादयश्च स्युः, तथा निमित्तादिप्रश्नबुझ्या प्रदत्ते वस्खे गृहस्थस्य निमित्तादिप्रश्ने तत्कथनाकथनादयो ये दोषाः सम्भवन्ति, तेऽपि स्युः। ततश्चाऽयमत्र भावार्थ:-यदि कोपि मम पिताऽयं मम पिक्सटशो वाऽयमित्यादिपूर्वसम्बन्धेन, मम भ्राता-भर्ता-भात-मतसदृशोचाऽयमित्यादिपश्चात्सम्बन्धेन वा ददाति,अन्येन वा निमित्तादिप्रश्नपरिणामादिलक्षणेन कारणेन ददाति, तदा न ग्राह्य, यदा तु यूयं धर्मे कुतमतयस्ततश्च धर्मार्थ सर्वारम्भप्रवृहिभितिव्यमेवेत्यादिकारणेन ददाति, तदा प्रायमेवेति वस्त्राविधिः। . तथा पात्रमंप्येकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-पवेन्द्रियावयवमयत्वमेदात्रिविधं भवति । तत्रैकेन्द्रियदेहनिष्पनं तुम्बकादि, चिकलेन्द्रियशरीरनिवृत्तं शवधुत्यादि, पञ्चेन्द्रियदेहावयवमयं कुतुप-दन्त-अपात्रादि । अत्रौषतः प्रथममेव ग्राय, तदपि तुम्बकदारु-मृत्तिकापात्रसेदात्रिविधं, एतदपि प्रत्येक जपन्यमध्यमोत्कृष्टमेदात्रिविधमेव । तत्र जपन्य उ(ओ)लकादि मध्यम
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पिष्टविश्वदि०
टीकाइयो
पेतम्
१९७ ॥
मात्रकमुत्कृष्टं पतद्रहः । पुनरप्येकैकं त्रिविधं यथाकृत-मल्पपरिकर्म बहुपरिकर्म च । पूर्वपूर्वमावे वेहोत्तरोत्तरं ग्राह्यं एतदपि चतसृभिः प्रतिपाभिर्गवेषणीयं ताश्वेमाः - " उद्दिट्ट १ पेह २ संगय ३, उज्झियधम्मत्ति ४ । " अत्र प्रतिमात्रयं प्राग्वनवरं - इह पात्राभिलापो वक्तव्यः । तृतीया पुनरेवं- " संगइयं वा वेजईयं वा " कस्याऽपि गृहिणः पात्रद्वयं भवति, स च तयोर्मध्यादेकैकस्मिन्दिन एकैकं वारकेण वाहयति । तत्र यद्वाहयति तत्साङ्गतिकं, यतिष्ठति तद्वेजविक, ईदृशं च कोऽपि साधुरभिग्रहविशेषाद्यावते । शेषविधिस्तु पात्रेऽपि यथासम्भवं वखवद्रष्टव्यः । तथा गृह्णन्नमुं विधि प्रयुङ्के"दाहिणकरेण कोणे, घेत्तुत्ताणेण वाममणिबंधे। खोडे तिन्नि वारे, तिन्नि तले तिन्नि भूमीए ॥१॥" तथा"तस-वीपादि व दहुं, न लिई लिई प अष्ट्ठेि । गहणमि उ परिसुद्धे, कप्पड़ दिट्ठेहि वि बहूहिं ॥ २ ॥”
उचरार्धस्याऽयं भावार्थ:- ग्रहणे परिशुद्धे पश्चाद्यदि वीजादीनि बहुन्यपि पश्यति तथापि गृह्णात्येव न पुनः परिष्ठापयति प्रत्यर्पयति वा पात्रं, किन्तु यतनया तान्येवाssस्फेटयति-यत्र न विराध्यन्ते तत्र च क्षिपतीति । मूलोतरगुणविभागश्चाऽयमंत्र- " मुह करणं मूलगुणा, पाएX निक्कोरणं च इयरे उ"त्ति गाथादलं सुगममेव । किश्व -- "वगरणंपि घरेजा, जेण म रागस्स होइ उप्पत्ती । लोगंमि य परिवाओ, विहिणा य पमाणजुत्तं तु ॥१॥" इति सप्रसङ्गमाथार्थः ॥ १०० ॥ आह— यद्येतद्दोषविप्रमुक्त एव यतिनाऽऽछारो ग्रहीतव्यस्तदा कदाचिदेवंविधस्य तस्याप्राप्त्या वातो देहादेर्वाधा स्याद्यदाह
"व स्फेटयति" प. इ. क. प. IX " तुम्बकपात्रे वीजनिष्कासनम्" इति १० अ
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ग्रहणैषणादशके पात्र
ग्रहण
विचारणा ।
॥ ९७ ॥
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*GRECCI
"तं नत्थि जंन वाहइ, तिलतुसमित्तं छुहा सरीरस्स। सन्निझं सवदुहा-इंदिति आहाररहियरस ॥१॥" यत:"पंधसमा नस्थि जरा, दारिइसमोय परिभवो नत्थिा मरणसम नत्धि भयं, छुहासमा वेयणा नस्थि ॥२॥" तथा "गलइ बलं उच्छाहो, अवेई सिढिलेइ सयलवावारे। नासह सत्तं अरई, विचट्टए असणरहियस्म ।। ३ ॥"
ततश्च स्वर्गापवर्गावन्ध्यनिवन्धनत्वेनाऽधाकृतचिन्तामणिकल्पद्रुमोपमानानामतिदुर्लभतरसचरणकरणब्यापाराणां कथं हानिर्न स्यादित्याशक्याऽऽह
दी०-इत्येवं त्रिविधैषणाया-गवेषण-ग्रहण-ग्रासमेदात्सप्तचत्वारिंशद्विधाया दोषा 'लेशेन' संक्षेपेण 'यथागम' पिण्डनियु-16 सत्यादिग्रन्यानुसारेण मया 'अभिहिता' उक्ताः। एषु च दोपेषु गुरुलघुविशेष-को दोपो गुरुः कश्च लघुरित्येवं स्वरूपं 'शेष च' यदन नोक्तं-नामादिन्यास-दृष्टान्त-मङ्गक-विस्तरविचारणादिकं, तन् 'मुणे जानीयात् सूत्रा-दागमादिति गाथार्थः ॥१०१क्षा ____ अथैतावदोपरहितपिण्डस्याभावे मुनिः किं कुर्यादित्याह
सोहिंतोय इमे तह,जइज सवत्थ पणगहाणीए।उस्सग्गऽववायविऊ, जह चरणगुणा न हायति ।१०१। ____ व्याख्या-'शोषयन्' विशुद्धपिण्डग्रहणार्थमवलोकयन् , चः शब्दः प्राक्तनोपदेशापेक्षयोपदेशान्तरसमुच्चयार्थः, कानित्याह-'इमान्' अनन्तसेक्तदोषां'स्तथा' तेन सर्वथा शुद्धाहाराप्राप्तौ +मनागशुद्धादितद्हणलक्षणेन-प्रकारेण 'यतेत' यतना कुर्यात् । की, सर्वत्र क्षेत्रकालादौ । कया करणभूतयेत्याह-पञ्चकहान्या, इहाऽकृतवीप्सोऽपि पञ्चकशब्दस्तदर्थसम्मवाद्वीप्सार्थों ~ "मुने-जानीयात्" इ.क.। 'मुणेज' जानीयादिति सङ्गसमिति मे मतिः । + "मनाक्शुद्धाशुद्धादि" प. ६. क. अ. य.।
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पिण्ड
बुद्धि० काइमे
तम्
Bell!
व्याख्येयस्ततञ्च पञ्चकेन पञ्च केनाऽऽगमप्रसिद्धप्रायश्चित्तलक्षणेन कृत्वा यका 'हानि' स्वानुष्ठानव्ययो व्येति चाशुद्धाहारग्रहणादिनाऽपरोधसम्भवे तच्छुद्ध्यर्थं विधीयमानमनुष्ठानं नृपापराधे दीयमानदण्डद्रव्यवत् सा पञ्चकपरिहाणिस्तया, एतदुक्तं भवति सर्वथा शुद्धात गुरुकापचादिशेषदुष्टमाहारं गृह्णीयात्, तस्याप्राप्तौ लघुगुरुदशक प्रायश्विचाई + दोषवन्तं, तस्याऽप्यभावे लघुगुरुपञ्चदशकप्रायश्चित्तार्हदोषदुष्टमित्यादि, न पुनः कारणोत्पत्तावपि गुरुगुरुतरप्रायश्विचशोध्य गुरुगुरुचरदोषदुष्टमशनादि प्रथमत एवासेवेतेति । कः ? इत्याह- 'उत्सगपिवाद' कारणाभावसद्भाव 'वेत्ति' अनयच्छति यः स उत्सर्गापवादविद्वान् सम्यगधीतच्छेदादिश्रुत इत्यर्थः । साधुरिति गम्यते । 'यथा' येन देहोपष्टम्मकरणलक्षयेन प्रकारेण 'चरणगुणा' आवश्यकादयश्चारित्रधर्मा 'न' नैव 'इीयन्ते' हानिमुपगच्छन्तीति गाथार्थः ॥ १०१ ॥
इत्थं चास्य यतनया प्रवर्तमानस्य विराधनाऽपि निर्जराफलैवेति प्रतिपादयन्नाह -
"
दी० - ' शोषयन् ' विशुद्धपिण्डार्थमन्वेषयन् च शब्द उपदेशान्तरसम्मुच्चये, कानू ? इमान् दोषान् । ' तथा ' तेन - निर्दोषा द्वाराप्राप्तौ मनामशुद्धस्यापि ग्रहणेन 'यतेत' यतनां कुर्यात् क ? सर्वत्र क्षेत्रकालादौ कथा १ पञ्चकन्या, पञ्चकशब्दोऽत्र वीप्सया व्याख्येपस्ततः पञ्चपञ्चकेन सूत्रप्रसिद्ध प्रायश्चिचलक्षणेन या हानिः स्वानुष्ठानव्ययरूपा, कोऽर्थः १ सदोषाहारग्रहणाद्यपराद्ध विधीयमानानुष्ठानं, नृपापराधे दीयमानदण्डद्रव्यवत्, दया को यतेत ! 'उत्सर्गापवादवित्' कारणामात्रसद्भावविद्वान् पतिः, यथा किं स्यात् ? इत्याह-चरणगुणा न हीयन्त इति गाथार्थः ॥ १०१ ॥ इत्यं चासठस्य यतनायोगे निर्जरामाइ
+ "दोषदुष्टमाद्वारे गृह्णीयातस्याभावे ” ज. |
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ग्रहणैषणादोषदशके
यतना
युक्तस्य
विरात्र
नाया अपि
निर्जरा
फलत्वम् ।
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| जाजयमाणस्स भवे,विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स। सा होइ निजरफला,अज्झत्थविसोहिजुत्तस्सा१०२॥
व्याख्या-या काचिद्विराधनेति योगः 'यतमानस्य कारणिकसेवायामपि यथाशम्या गुरुदोषपरिहारेण प्रवर्तमानस्य साधो 'भवेत्स्या द्विराधना'स्वानुष्ठानखण्डना,पुनः कांवशिष्टस्य साधोरत्याह-'सूत्रस्याऽऽगमस्य 'विधि विधानमर्थ इत्यर्थः प्रविधिस्तेन 'समग्रो' युक्तस्तस्य गीतार्थस्येत्यर्थः, सा विराधना भवति'जायते 'निर्जराफला' कर्मविशोधिका । पुनरपि कथम्भूतस्य ?, 'अध्यात्म' मनस्तस्य 'विशोधियधौचित्येन प्रवर्तनाद्रागद्वेवाभावरूपा निर्मलता,तया 'युक्तस्य' समन्वितस्येति गाथार्थः॥१२॥
अथ ग्रन्थसमाप्तौ स्वनामाविष्करणगर्भ स्वप्रवृत्तेः स्वरूपं फलवत्वं च दर्शयन् प्रन्थकारः कामपि बहुश्रुतप्रार्थना कर्तुमिदमाह
दी०-या काचिद् 'यतमानस्य' कारणिकसेवायामपि यथाशक्या गुरुदोषपरिहारिणो यतेर्भवेद् 'विराधना' स्वानुष्ठानखण्डना, कथम्भूतस्य ? 'सूत्रविधिसमग्रस्य सिद्धान्तार्थसम्पूर्णस्य, सा विराधना भवति 'निर्जराफला' कर्मविशोधिका, कीदृशस्य सतः १ अध्यात्म-मनस्तस्य विशोधियथोचित्याचरणाद्रागद्वेषामावरूपा, तया युक्तस्येति गाथार्थः ।। १०२॥ ___अथ ग्रन्थसमाप्तौ ग्रन्थकारो निजनामग्रथनफलबहुश्रुतप्रार्थनागर्मितं शार्दूलवृत्तमाहहै| इच्चेयं जिणताल्लहेण गणिणा जं पिंडनिज्जुत्तिओ, किंची पिंडविहाणजाणणकए भवाण सबाण वि। है। वुत्तं सुत्तनिउसमुद्धमइणा भत्तीइ सत्तीइ तं, सत्वं भवममच्छरा सुयहरा बोहिंतु सोहिंतु य ॥१०३॥ व्याख्या-इत्येतदनन्तराभिहितत्वेन प्रत्यक्षं यत्किश्चिदुक्तं, तव्यान् बहुश्रुता बोधयन्विति योगः । केनोक्तमि
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हिानयनाम्य
त्याह-'जिनकल्लभेन' जिनबल्लभनाम्ना साधुविशेषण, किंविशिष्टेनेत्याह-'गणिना' व्याख्याप्रज्ञप्त्युपधानोदहनावाप्तगणि- दावोद्धत्यविद्धि
लक्षणनामचिह्न, अथवा गुणगणः साधुगणो चा विद्यतेऽस्येति गणी, तेन, यस्पिण्डनियुक्त ग्रन्थविशेषात् 'किश्चित परिहारपूर्व टीनदयो
स्तोकमात्र, किमर्थमुक्तमित्याह-'पिण्डविधानज्ञानकृते आहारविधिपरिज्ञानहेतोः, केषामित्याह-'भव्यानां योग्यानां सर्व दूषणापपामपि' साधुश्रावकव्यक्तिसङ्ग्रहणात्समस्तानामाप, श्रावकाणामारे पिण्डेपणाध्ययनाथस्याधिकारित्वाद्यदाह आवश्यकचर्णि
कार:-"सावओ पुण सुत्तओ अत्थओ य जहन्नण अठ्ठपवयणमायाओ सिक्खह, उक्कोसेणं सुत्तत्थेहिं जाव थेना श्रुत ॥१९॥
छज्जीवणिय, अत्थओ पिंडेसणज्झयण, न पुण सुत्तओ धि"चि । 'धुत्तं ति 'उक्तं'-प्रस्तुतग्रन्धरूपतया विरचय्य वापरान्प्रति भाषितं । किविशिष्टेन जिनबल्ल मेनेत्याह-सूत्रनियुक्तमुग्धमतिना,सूत्रे नियुक्ता-ऽऽगमे व्यापारिता मुग्धा ऽनिपुणा +मति-धुद्धिर्येन
स तथा तेन, अनेन च किलाऽऽत्मौद्भत्यपरिहारमाह | कया हेतुभूतया तेनोक्तमित्याह-'भल्या' प्रवचनबहुमानेन 'सत्तीह ति ४ाच शब्दाध्याहाराच्छच्या च-स्वबुद्धिसामर्थेन, तदस्मदुक्तं 'सव्वं भवंति जातिनिर्देशात् 'सर्वान्' समस्तान् 'भव्यान्'
योग्यान् , यद्वा सर्वमिति उक्तस्य विशेषणं मध्यमिति बोधयन्त्विति क्रियाया विशेषणं, मध्यानिति च प्रक्रमगम्यं, अमत्सराअद्वेषिणः, संज्वलनकषायोदये मत्सरस्यापि सम्भवात् , न श्रुतधराणां प्रस्तुतविशेषणव्यवच्छेद्यार्थासम्मव आशकुनीया, दृश्यते चोचराध्ययनचूाँ निर्ग्रन्थविचारणायामयमर्थः "नाण-पडिसेवणाकुसीलो" ज्ञानविराधनां करोति कालविनयपहमानादीनि न सम्बकरोति, तथा ज्ञानस्य ज्ञानिनां च निन्दाप्रद्वेषमत्सरादीनि करोतीत्यादि, बकुशपरिसेवनाकशीलायन्यतराव साम्प्रतसाधव इति । के ? इत्याह-'श्रुतधरा' आगमवेदिनो 'बोधयन्तु ज्ञापयन्तु तथा शोषयन्तु चोत्पत्राथपिनयनेन ।
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कुर्वन्त. च शब्दो बोधनक्रियापेक्षया समुचयार्थ इति शार्दलच्छन्दोवृत्तार्थः ।। १.३॥ समाप्ता चेयं पिण्डविशद्धिप्रकरणपृत्तिः। २८०० अन्धाग्रं । प्रतिवर्णतो गणनया, न्यून सहसत्रयं शतदयेनेति ।
दी०-इत्येतत्पूर्वोतं जिनवल्लभाख्येन 'गणिना' उहभगवत्यङ्गादियोगेन यत् पिण्डनियुक्तितो मूलग्रन्थात 'किञ्चित स्वरूपमा 'पिण्डविधानज्ञानकते' आहारविधिपरिज्ञानहेतोः, केषां ? 'भय्यानां योग्यानां सर्वेषामपि साधश्राद्धादीनां 'वुत्तं' प्रकरणरूपतया विरच्योक्तं, किंविशिष्टेन ? 'सूत्रनिर्युक्तमुग्ध( शुद्ध )मतिना' सिद्धान्तब्यापारित+निपुणवद्धिना, औद्धत्यपरिहारार्थमिदं । कयोक्तं १ 'मक्या प्रवचनबहुमानेन 'शक्त्या च स्वबुध्यनुसारेण । तत्सर्व मदुक्तं भव्यं यथा मवस्येचं 'अमत्सरा' ? अद्वेषिणः 'श्रुतधरा' यथार्थागमवेदिनो 'बोधयन्तु शिष्यान् ज्ञापयन्तु 'शोधयन्तु च' उत्सूत्रापनयनेन निर्दोष कुर्वन्त इति गाथार्थः॥१.३॥ समाता चेयं पिण्डविशुद्भिदीपिका ।
1 [वृत्तिकृत्प्रशस्तिः ]आसीच्चन्द्रकुलोद्गतिः शमनिधिः सौम्याकृतिः सन्मतिः, संलीनः प्रतिवासरं निलयगो वर्षासु सुध्यानधीः। . हेमन्ते शिशिरे च शावरहिम सोढं कुतोर्वस्थिति-स्विचण्डकरे निदाघसमये चाऽऽतापनाकारकः॥१॥ आदेयता मस्त्याग-व्याख्यातृत्वादिसद्गुणैः । लोकोत्तरैर्विशालश्व, श्रीमद्वीरगणिप्रभुः ।। २ ।। [युग्मम् ] | श्रीचन्द्रसूरिनामा, शिष्योऽभूत्वस्य मारतीमधुरः। आनन्दितभव्यजना, शंसितसंशुद्धसिद्धान्तः ॥३॥ ___ + " मुग्धो मुढे रम्ये " इति हैमानेकार्थोक्तः ।
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. पिण्ड
नम्याऽन्तवासिना, हब्धा श्रीयशोदेवसुरिणा । सुशिप्य पादेवम्य, साहाय्यान्प्रस्तुना निः ॥ ४॥ विद्धिका श्रुनोपयोगोऽशुभकर्मनाशनो, विपक्षमावप्रतिवन्धमानः । परोपकारच महाफलावही, विचिन्य चैतद्विहिनोऽयमुद्यमः ।।५।। टीकादयो-श पिण्डविशुद्धिप्रकरण-वृत्ति कुन्वा यदवातं मया कुशलम् । नेनाऽऽमवमपि भूयात् , मगरने ममाऽम्यामः || ६ पेतम् ।
श्रुतहेमनिकापढ़ेंः, श्रीमन्मुनिचन्द्रमरिभिः पूज्यः । संशोधितेयमखिला, प्रयन्ननः शेषविबुवैश्व ॥ ७ ॥* ॥१००
पंन्यामकेशरमुनीयमहाभयानां, शिष्योऽम्ति बुद्धिमुनिरत्र गणी प्रधानः । नस्याऽनया लिखितवान् पुरिमोहमय्यां, सुश्रावको विजयचन्द्र इमां प्रति न 1121
वृत्तिदीपिहै काकास्यो लेनकानां चप्रभ म्नयः।
अथ दीपिकाक़त्पशस्तिइति विविधविलमदर्थ, मुविशुद्धाहारमहितसाधुजनम् । श्रीजिनवल्लभरचितं, प्रकरणमेतन कस्य मुदे ।। १ ।।
*" इति श्रीखरतरगणगगनमार्तण्ड-श्रीजिनवल्लभसृरिविरचितश्रीपिण्डविशुद्धिप्रकरणदृचिः समाप्तेयम् । " इति अ.18 पुस्तके । ग्रन्थान २८००। प्रतिवर्णतो गणनया, न्यून सहस्रत्रयं शतद्वयेनेति । षडाजीन्दुहिमांशुभिः (१९७६), परिमिते & वर्षे सते विक्रमानिर्मितयम् ॥ ८॥ इति प. इ. पुचके । आर्यायामस्यां " वर्षे गते" इत्येतो शुन्दावधिकावामाता, छन्दोमवात् ।
ॐा॥ १०॥
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मादृश इह प्रकरणे, महापको विवेश पालोऽपि । यद्यलिलग्नस्तं अयत गुरुं यशोदेवम् ॥ २॥ आसीदिह चन्द्रकुले, श्रीश्रीप्रभसूरिरागमधुरीणः। तत्पदकमलमरालः, श्रीसाणिक्यप्रभाचार्यः ॥ ३ ॥ तच्छिष्याणु+जैडधी-सात्मविदे सूरियसिंहाण , निमशिशुपति मुरधे दीपिकामेनाम् ४ ॥४॥ अनया पिण्डविशुद्धे-र्दीपिकया साधवः करस्थितया । *शस्यावलोककुशला, दोषोत्थतमांस्यपहरन्तु ।। ५ ।। विक्रमतो वर्षाणां, पञ्चनवत्यधिकरविमितशतेषु(१२९५)। विहितेयं श्लोकैरिह, सूत्रयुता व्यधिकसप्तशती(७०३)॥६॥ एषा पिण्डविशुद्धिसाधनधियां बोधात्मिका दीपिका, तन्वाना विशदप्रमापरिचयं दरे हरन्ती तमः। श्रेयः श्रीमरसङ्गमेन दधती सत्पात्रशोमां परां, विद्वद्भिः स्वपरप्रकाशनकृते स्नेहेन सम्पुष्यताम् ॥ ७॥
इति पिण्डविशुद्धिदीपिका समाप्ता । ०७०३। संवत् शनिमनिशशिकलामितवर्षे (१६७१) अरहती आश्विनसितद्वितीयातीयौ रविवारे श्रीमरोडकोट्टे श्रीवाचनाचार्यश्रीविजयमंदिरमणिवराणाम् शिष्य पं० सौभाग्यमेरुसाधुना लिखितमिदं । शुभं भूयात् लेखकपाठयोः । इति अ. पुस्तके ।
+"च्छिष्योऽहं ज. प. अ. x" मेताम्" प. I *"तस्या." (2) प. अ.। सिं० १५०८ वर्षे श्रीदेवकुलके प्रतीपत्तियौ भौमदिने लिखितं । इति इ. पुस्तकान्ते । 2.87 ..
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संपन्नेत्रंनिधानसिन्धुरघरोसङ्ख्ये सिते मार्गके, चन्द्रे रुद्रतीयौ गणे खरतरे दुर्गे च मण्डोवरे । प्राप्तं पुण्यवशादुगुरोश्च कृपया सूर्यास्पदं सत्तमं, ते श्रीजैनमहेन्द्रसूरिगुस्वो जीयासुरुषां सदा ॥ १॥x
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x यैविशतितमायाः शताब्धाः जैनशासनस्यासाधारणप्रभावकाः क्रियोखारविधायकाः श्रीमन्मोहनमुनीश्वराः संवन्नेत्रसनिधीन्दुवत्सरे[१९०२ वैक्रमे यतित्वेन दीक्षितास्तेषां श्रीपूज्यानां श्रीजिनमहेन्द्रसरिवराणामाचार्यपदप्राप्तिसमयादिसूचकोऽयं पद्यो जैतारणप्रामस्थे श्रीसहसत्के चित्को एकस्मिन्नेव क्षुल्लके पत्रखण्डे लिखितः समुपलब्धः ।
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शुद्धिपत्रकम्
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पृष्टम् पंक्तिः
অনুমু तात्यसि
शुद्धम् ताडयसि
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१०
पत्रम् पृष्टम् पंक्तिः अशुद्धम् शुद्धम् पत्रम्
६ १८ द्रव्यन्नि व्यनि १५ . २ ४ 'दुवउगे 'दुवओगे
आचरित्वा आचरितत्वा" ५८ २३ १ १ हेतुत्वनु० हेत्वनु
मालवाकादे मालवकादे " " ३ स्यादत्तत स्यात्तत" ८१ २८ २ १० खगतको खवगतचो ३१ २, ६ . कियतीरपि कियती अपि
पान प्र /दहण
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"मने न 'मुवविट्ठो मणा घेत 'राधार्मिकी बहविहे . यांद्भयश्चिा
HARESARSAKASEARCHECIES
४
'मनेन 'मुवविट्ठो भणना घेतब' राधाकर्मिको बहुविहे यद्भियचिवा
RECA
पान
दद्रण
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________________ आसन्खरतरे गच्छे, सुविशुद्धक्रियान्विते / नाम्ना मोहनलालेति, क्रियोद्धारस्य कारकाः // 1 // / इति पिण्डविशुद्धिप्रकरणं समाप्तम् / / तच्छिष्यशिष्यपन्यास-गणिकेशरसन्मुनेः / शिष्यं हि गणिबुद्ध्यन्धि, ते प्रयच्छन्तु शं सदा // 2 //