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कापा
पैतम्
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पालन करके अविधिचैत्य भी विधिमत्य होकर तुक्ति का सामन बन सके:
है उपोद्घात। . अनोरप्रिजनक्रमोन च न च स्नानं रजन्यां सदा, साधना ममताश्रयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि ।
उपसम्पदाजातिज्ञातिकदाग्रहो न च न च श्राद्धपु ताम्बूलमि-त्याजाऽऽत्रेयमनिधिते विधिकृते श्रीजैनचेत्यालये ॥१॥
ग्रहण। जब उन्होंने जिनेश्वराचार्य से पृथक् होने का दृढ़ संकल्प कर लिया था, यह कोई सरल कार्य नहीं था, उस बूढे की जिनवालभजी पर प्रगाढ ममता थी और इनका भी उनके प्रति अनुराग और भक्तिभाव होना स्वाभाविक श्रा, अतः इस सुद्ध लेह-बन्धन को काट कर निकल मागना साधारण कार्य न था । जिनवल्लभगणि के मन में भी परिस्थिति की गम्भीरता आई और उन्होंने सोचा कि संभवतः जिनेश्वराचार्य के चैत्य में पहुँच कर पूर्वस्मृतियाँ अत्यधिक वेग से जागृत हो उठेगी और उस समय अपने संकल्प पर रढ रहना कठिन हो जायगा। इसीलिये उन्होंने वहां न जाकर निकटवर्ती माइयड ग्राम में ही रह कर अपने गुरु को पत्र लिखकर मिलने के लिये बुलाया। पत्र में उन्होंने लिखा था-"मैं गुरु से विद्याध्ययन करके माइयड ग्राम में आगया हूँ, यदि भगवन् ! यही आकर मुझ से मिलेगें तो अति कृपा होगी" यह पत्र पढकर जिनेश्वराचार्य को बहुत आश्चर्य और दुःस हुमा । परन्तु फिर भी वे बड़े समारोह के साथ शिध्य को लेने माझ्यख प्राम गये। यह सुनते ही कि गुरुजी अनुग्रह करके पचारे है जिनवल्लभगणि गद्गद हो गये और तत्काल उनके सामने पहुंचे और विधिवत् प्रणाम किया। स्नेह की सरितों उमड सीमुक्ने क्षेमकुशल पूछी, उसका उन्होंने यथोचित उत्तर दिया। इसी समय सनको अपना ज्योतिष का शान दिखाने का भी अवसर परिवार एक प्राण पहा बाया और उसने ज्योतिष की कई समस्यायों को उपस्थित किया, जिनवशर्मगणि द्वारा
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