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________________ उनको समुचित समाधान देखकर जिनेश्वराचार्य बहुत ही आश्चर्यचकित हुए और उनके हृदय में अपार हर्ष और उल्लास बत्पन्न हो गया। ऐसी अवस्था में जिनवल्लभगणि के आसिका न जाने से उनके मन में जो शंका उत्पन्न हुई थी बह एक पहेली बनकर उनके मन में फिर उठी और उन्होंने पूछा कि जिनवल्लभ ! यह क्या बात है कि तुम सीधे आसिका के अपने चैत्यवास में न आये और मुझे यहां बुलाया ? यह जिनवल्लभगणि के संकल्प-संयम और धैर्य की परीक्षा का समय था । कोई साधारण जन होता तो |* ममता और मोह के ऐसे पारावार में दूध गया होता, परन्तु जिनवालमगणिने अत्यन्त दृढता के साथ विनीत स्वर में कहा-"भगवन् ! सद्गुरु के श्रीमुख से जिनवचनामृत का पान करके भी अब इस चैत्यवास का सेवन कैसे करूं? जो कि मेरे लिये विष-वृक्ष के समान है।" वह सुनते ही आचार्य जिनेश्वर की आशाओं पर तुषारापात हो गया । उस समय उनकी दशा बड़ी दयनीय थी। वे बोले-जिनपहम ! मैंने यह सोचा था कि मैं अपना सारा उत्तराधिकार देकर और चैत्यालय, गच्छ तथा श्रावक संघ का सारा भार तुन्हें सौंप कर स्वयं सद्गुरु के पास जाकर वसतिवास को स्वीकार करूंगा। उनके यह वचन सुनकर लिनवल्लभमणि का fमुख हर्षोल्लास से अममगा उठा और वे बोले भगवन् ! यह तो बहुत ही सुन्दर बात है, हेय वस्तु का परित्याग करके उपादेय ४|| वस्तु का ग्रहण करना ही विवेक का काम है, अतः अपने दोनों एक साथ ही सद्गुरु के समीप चलकर सन्मार्ग को स्वीकार करें।" यह सुनकर जिनेश्वराचार्य, एक दीर्ष निवास ली और करुण स्वर में कहा कि "बेटा ! मुझ में इतनी निःस्पृहता कहा कि गच्छ, चैत्य मादि को ऐसे ही छोड़ ही अब तुम तुल गये हो तो अवश्य ही वसतिवास को स्वीकार करो।" इस प्रकार गुरु से अनुमति प्राध करके वे पुनः पत्तन में गये और अमयदेवसूरि को अत्यन्त श्रादरपूर्वक प्रणाम किया। सम्मान व
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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